महिला दिवस और नारी मन की व्यथा











                           युग
बदल गए
, सदिया
गुजर गयीं
, बदलते
दौर और जमाने के साथ-साथ बहुत कुछ बदल गया
,लेकिन अगर कुछ नहीं बदला तो वह
है नारी की नियति. कहीं परंपराओं की बेड़ियों में जकड़ी
, तो
कहीं भेदभाव के कारण दासता व पराधीनता के बंधनों में उलझी नारी आज भी अपनी मुक्ति
के लिए छटपटा रही है.वह हौसलो की उड़ान भर कर अपने सपने पूरे करना चाहती है
,लेकिन
कदम-कदम पर तय की गयीं मर्यादा की लक्ष्मण रेखाये
,पारिवारिक- सामाजिक राह में बाधाये बन 
कर खड़ी हो जाती हैं|  
                                                              






                                         हर साल
8 मार्च
आता है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की रस्म अदा की जाती है. बड़े-बड़े मंचों
से नारी उत्थान के संकल्प दोहराये जाते हैं.लेकिन नारी की दशा नहीं बदलती. दुनिया
के किसी न किसी कोने में हर दिन कहीं वासना के भूखे भेड़िये किसी नारी की अस्मत पर
डाका डालते है
,तो कहीं गर्म-गोश्त की मंडी में नीलाम होने के लिए उसे मजबूर किया जाता है.
कहीं वह चंद रूपयो के लिए आपने जिगर के मासूम टुकड़ों को     बेचने के लिए मजबूर होती
है
,तो
कहीं दहेज की लपटें उसे निगल लेती हैं.  





                   कहने का आशय यह है कि सिर्फ़
नारी उत्थान का नारा देने भर से ही शोषण की चक्की में पिस रही नारी मुक्त नहीं
होगी
, इसके
लिए ठोस और सार्थक पहल करनी होगी. बदलते समय के हिसाब से समाज की मानसिकता बदलनी
होगी.नारी को समान अधिकारों की जरूरत है.जरूरत इस बात की भी है कि उसकी भावनाओ और
अरमानो को भी सम्मान दिया जाए |









                                             नारी मन की व्यथा यही है कि
क्यों…आखिर क्यों अपने सपने देखने तथा प्रयास करके उन सपनों को हक़ीक़त में
बदलने का अधिकार उसके पास क्यों नहीं है.आज के आधुनिक दौर में भी वह अपने जीवन के
फैसले ख़ुद लेने के अधिकार से वंचित क्यों है. ऐसा क्यों होता कि जब वह अपने सपनों
के आकाश में उड़ना चाहती है
,तो रूढ़ियों की आड़ में उसके पर कतर दिए जाते हैं.उसे उन कामों की सजा क्यों
दी जाती है
,जिसमे उसका कोई दोष नहीं होता.




                                                                       यदि
कोई
औरत विधवा हो जाती है,तो उसमें उसका कोई दोष नहीं होता,लेकिन परिवार,समाज
उसके लिए नए मापदंड तय कर देता है.कोई विधुर पुरुष अपनी मनमर्जी के हिसाब से जीवन
जी सकता है
,लेकिन विधवा औरत ने यदि ढंग के कपड़े भी पहन लिए तो उस पर उंगलिया उठनी शुरु
हो जाती हैं.किसी के साथ बलात्कार होता है
,तो उसमें बलात्कार की शिकार बनी
महिला का क्या दोष है.यह कैसी विडंबना है कि बलात्कारी मूँछों पर हाथ फेरकर अपनी
मर्दानगी दिखता घूमता है और बलात्कार का शिकार बनी महिला या युवती को गली-गली मुँह
छिपाकर जिल्लत झेलनी पड़ती है.






घर-संसार
बसाना किसी युवती का सबसे अहम सपना होता है
,इसलिये महिलाये बहुत मजबूरी में
ही तलाक के लिए पहल करतीं हैं.लेकिन तलाक होते ही तलाकशुदा महिला के बारे में
लोगों का नज़रिया बदल जाता है. उसकी मजबूरिया समझने के बजाय मजबूरी का फायदा उठाने
वालों की संख्या बढ़ जाती है.यदा-कदा कुछ ऐसे लोग भी मिलते हैं जो तलाकशुदा या
विधवा महिला को सार्वजनिक संपत्ति मान कर व्यवहार करते हैं.





क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि
जिन घरों में महिलाये नौकरी या कारोबार कर रही हैं
,घर के पुरुष के साथ कंधे से
कंधा मिलाकर आर्थिक योगदान दे रही है
,उन घरों में भी महिलाओं से यह
अपेक्षा की जाती है कि वे नौकरी या कारोबार भी करती रहें और चूल्हा चक्की के काम
में भी किसी तरह की कमी न आने पाने पाए. उलाहने- तानें दिए जाते हैं कि हमारे
खानदान में औरतें अमुक-अमुक घरेलू कामों में दक्ष थी
,लेकिन
उस समय यह ध्यान नहीं दिया जाता कि उस समय महिलाये सिर्फ़ घरेलू काम ही करती थी
,नौकरी
या कारोबार नहीं करती थी.









नारी का उत्थान तभी संभव है,जब उसे
समान अधिकार दिए जाए.नारी के प्रति देहवादी सोच को समूल रुप से नष्ट करना
होगा.नारी सिर्फ़ देह तक ही सीमित नहीं है.उसके भी सीने में दिल धड़कता है
, भावनाएँ
स्पंदित होती हैं
,आंखो में भविष्य के सपने तैरते हैं, आकाक्षाओं के बादल आते हैं.
नारी की महिमा को समझते हुए उसकी गरिमा को सम्मान देना होगा.

नारी माँ के रुप में बच्चे को सिर्फ़
जन्म ही नहीं देती
,अपने रक्त से सींच कर उसे जीवन भी देती है.बहन के रुप में दुलार देती है,तो
बेटी के रुप में आपने बाबुल के घर में स्नेह की बरसात करती है. जीवनसंगिनी के रुप
में जीवन में मधुरता के रस का संचार करती है.करुणा
,दया,क्षमा,धैर्य
आदि गुणों की प्रतीक है नारी.त्याग और ममता की मूर्ति है नारी.





भारतीय संस्कृति में नारी को
शुरु से ही अहम दर्जा दिया गया है.इस देश की मान्यता रही है कि नारी भोग्या नहीं
,पूज्या
है.नारी को देवी का दर्जा देने वाले इस देश में जरूरत है एक बार फिर उन्हीं
विचारों का प्रचार करने की.यह भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि यहाँ स्वयम्वर
होते रहे हैं.नारियों को आपने जीवन के फैसले करने का अधिकार रहा है.उसी संस्कृति
को ध्यान में रखते हुए नारियों  को समान अधिकार व अवसर देने होंगे
,अपने
विकास का रास्ता और मंज़िल वे ख़ुद तलाश लेगी |



ओमकार मणि त्रिपाठी 

प्रधान संपादक :अटूट बंधन एवं सच का हौसला



ओमकार मणि से साभार 




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