“एक दिन पिता के नाम “………मेरे पापा ( संस्मरण -संध्या तिवारी )

एक दिन पिता के नाम ".........मेरे पापा ( संस्मरण -संध्या तिवारी )

आंगन के कोने में खडे तुलसी वृक्ष पर मौसमी फल लगे ही रहते थे ।कभी अमरूद, कभी आम , कभी जामुन , कभी अंगूर ,,,,,,,,,,

मै जब भी सो कर उठती मुझे तुलसी में लगा कोई न कोई फल मिलता और मै खुशी से उछल पडती ।
एक दिन मैं जागी और कोई फल न देख बहुत दुखी हुई मैने पापा से शिकायत की।
“देखो पापा आज तुलसी जी ने कोई फल नहीं दिया । “
पापा ने मम्मी को सख्त हिदायत दी”  कि अपनी तुलसी मैया से कहो कि मेरी बच्ची के लिये रोज एक फल दें ।”
मम्मी ने हंस कर कहा ; ” जो हुकुम मेरे आका।”

जब तक मै समझ नहीं गई कि तुलसी में ये फल कैसे लगते है तब तक वे फल लगते रहे।
आसमान से पुये बरसते।सोते सोते मुंह में रबडी का स्वाद घुल जाता ।
इन सबके पीछे था मेरे ममत्व भरे पापा का हाथ।
मेरे पापा फैक्ट्री से आते वक्त न जाने कहां से लाल-लाल कोमल-कोमल वीर बहूटी लाते हम उन्हें  कुतूहल से एक डिब्बे में रखते और बडे जतन से उनकी देखभाल करते ।न जाने कहां से वे शहतूत के पत्ते में चिपकी इल्ली लाते और उन्हें शीशे के जार में रख देते । इल्ली से तितली तक का सफर हम आंखो देखते और रोमान्चित होते।मेरी कुतूहल और जानकारी की दुनिया यही से पुष्पित पल्लवित हुई।
                  बुलबुल , मछली , लाल मुनिया , खरगोश , सफेद चूहे , बिल्ली और कुता सब कुछ था मेरे बचपन में।इन सब पशु पक्षियों की देखभाल ने मुझमे 
दया ,सुरक्षा ,जिम्मेदारी की भावना को भर दिया। 
            उत्तराखण्ड की पहाडियों मे बसा है एक शक्ति पीठ।किंवतन्ती है कि यहां मां सती के क्षत विक्षत शरीर से नाभि का भाग गिरा  था।यह  पूर्णागिरि शक्ति पीठ कहलाता है ।
मेरे पापा हर साल पूर्णागिरि पर प्याऊ और तीर्थयात्रियों के लिये रहन सहन की व्यवस्था किया करते थे। मै भी पापा के साथ पूर्णागिरि जाती और पूरे महीने पहाडो झरनो का आनन्द लेती ।
एक बार पूर्णा गिरि पर धर्मशाला बनबाते समय उनकी जांघ पर एक बडा पत्थर गिर गया और बहुत चोट आई । लेकिन उस हाल में भी वह लगभग बारह किलोमीटर की पैदल उतराई और चार घंटे का बस का सफर करके  घर आये।
इतने जीवट थे मेरे पापा।
अपनी जिद से खानदान के मना करने के बाबजूद उन्होने मुझे को एड में ( क्योकि तब कोई गल्स काॅलेज नहीं था ) एम ए , बी एड पढाया और रंगमंच पर भी काम करने दिया।
पुरानी पिक्चर के ही मैन अर्थात धरमेन्द्र की छवि से मिलते जुलते थे मेरे पापा ।आज भी हैन्सम है , धरमेन्द्र से ज्यादा।
      जीवट जुझारू किसी मजवूत अभेद्य दीवार जैसे।
ममत्व ,सुरक्षा ,आत्मविश्वास ,जीवटता सम्वेदनशीलता आदि गुण मेरे पापा ने मुझमे बिना कहे सुने ही अपने कृत्यों से भर दिये।
यदि उन्होने मेरे बचपन को इतना समृद्ध न किया होता तो आज मैं भी किसी कोने में बैठ कर सिवाय चुगलियां करने के ओर कुछ नहीं कर रही होती। 
वट बृक्ष की छाया सा उनका साथ आज भी जीवन की तपिश को कम करता है।
मेरे पापा मेरी बचपन की वो समृद्ध दुनियां हैं जहां मैं जाती हूं तो खुद को किसी राजकुमारी से कम नही पाती।
डाॅ सन्ध्या तिवारी




atoot bandhan……… हमारा फेस बुक पेज 

5 thoughts on ““एक दिन पिता के नाम “………मेरे पापा ( संस्मरण -संध्या तिवारी )”

  1. संध्या जी का संस्मरण पढ़कर बहुत अच्छा लगा।बहुत ही रोचक तथा प्रेरक भी है।बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो अपनी बेटियों का इतना ख्याल रखते हैं।

    Reply
  2. संध्या जी का संस्मरण पढ़कर बहुत अच्छा लगा।बहुत ही रोचक तथा प्रेरक भी है।बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो अपनी बेटियों का इतना ख्याल रखते हैं।

    Reply

Leave a Comment