बंदरों के सरदार ने आपात बैठक बुलाई थी । जंगल के सारे बंदर अपने-अपने हाथों का काम छोड़कर दौड़े-दौड़े चले आ रहे थे । सभी चिंता में, ऐसी क्या बात हो गयी कि, आपात बैठक बुलानी पड़ी ? कहीं भगवान श्रीराम ने फिर से जन्म तो नहीं ले लिया ? कहीं श्री राम को फिर से वनवास तो नहीं हो गया ? कहीं रावण ने फिर से सीताजी का हरण तो नहीं कर लिया ? कहीं फिर से श्रीराम को बंदरों की जरूरत तो नहीं पड़ गयी ? मन में कईं तरह की आषंकाएं/कुषंकाएं लेकर चले आ रहे थे ।
बंदरों का सरदार चिंताग्रस्त होकर चहल-कदमी कर रहा था । इधर मंच की ओर षिलाखंडों पर बूढ़े बंदर विराजमान थे, जो सरदारी करते हुए रिटायर्ड हुए थे । सामने बंदरों का विषाल समुदाय बैठा था, जो सरदार के बोलने का इंतजार कर रहा था । सरदार ने आष्वस्त होकर कि, अब सारे बंदर आ चुके होगें, और जो नहीं आये होगे, उन्हें बंदरियों ने परमिषन नहीं दी होगी । सरदार को ऐसे कायर बंदरों की कोई परवाह नहीं जिनका अपनी जाति की अस्मिता के सवार पर खून न खौले ।
प्रारंभिक उद्बोधन के बाद सरदार ने कहना प्रारंभ किया, ‘‘आज भले ही मनुष्य सृष्टि का सिरमौर हो, लेकिन वह भूल रहा है कि हम उनके पूर्वज रहे हैं । ’’
सरदार के उद्बोधन में मनुष्य का जिक्र आते ही बंदरों मे खलबली मच गयी । मतलब मामला मनुष्य से संबंधित है । मतलब मनुष्यों की गलती की सजा हमें फिर भुगतनी पड़ेगी । हमे फिर मनुष्यों के लिए लड़ाई लड़नी होगी । षोर बढ़ गया था ।
वरिष्ठ बंदरों ने खड़े होकर ‘‘षांत हो जाओ’’ की अपील की, फिर सरदार से समवेत स्वरों मे पूछा, ‘‘क्या बात है सरदार ? ’’
‘‘बात हमारी वानर जाति की गरिमा और अस्मिता की है । आखिर कब तक हमारा मजाक उड़ाया जायेगा ? कब तक हम उपहास के पात्र बने रहेगें ? ’’
फिर षोर मच गया । वरिष्ठ सरदारों को एक बार फिर षांत रहने की अपील करनी पड़ी । सरदार से खुलकर मामला बताने को कहा ।
‘‘बापू के तीन बंदर । हमने सोचा था कि, बापू के साथ ही बापू के तीन बंदरों का किस्सा खत्म हो जायेगा । लेकिन ऐसा नहीं हुआ । बापू के तीन बंदरों के नाम पर आज भी हमें षर्मिन्दगी झेलनी पड़ रही है । ’’
वरिष्ठ बंदरों को बीच में टोकना पड़ा, ‘‘साफ-साफ कहो, क्या कहना चाहते हो ? ’’
‘‘जब भी मनुष्य को कोई नैतिक षिक्षा देनी हो, नैतिक पाठ पढ़ाना हो, नैतिक सबक देना हो, बात हमसे षुरू की जाती है-बापू के तीन बंदर, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो । आज हम तीन बंदर बापू के संदेष के ट्रेडमार्क बन गये हैं । मेरा सवाल है, बंदर ही क्यों ? जंगल में और भी तो जानवर है , फिर हमें ही क्योें मजाक बनाया जा रहा है ? ’’
कुछ पल रूककर सरदार ने फिर कहना प्रारंभ किया, ‘‘ये सरासर हमारा अपमान है । नैतिकता की व्याख्या और उदाहरण के लिए ढेरों किस्से हैं, ढेरों कहानियां हैं । फिर हम ही क्यों ? ये चलन बदलना होगा, नहीं तो हमारी आने वाली पीढि़यां इसी तरह अपमानित होती रहेगी । ’’
सरदार कहते-कहते रूक गये थे । सभा में सन्नाटा छा गया था । सरदार सही कह रहा है । बात धीरे-धीरे समझ में आ रही है । अचानक एक साथ आवाजे आयी, ‘‘अब क्या होगा ? हमें क्या करना होगा ? ’’
‘‘सरकार के खिलाफ विद्रोह ।’’ सरदार ने कहा ।
सभा में फिर से सन्नाटा छा गया । विद्रोह ? सरकार के खिलाफ ?
‘‘हां, विद्रोह’’ सरदार ने अपनी बात दृढ़तापूर्वक दोहराई थी ।
एक वृद्ध बंदर ने कहा,‘‘चूंकि, हम बापू के अनुयायी रहे हैं । यह बात बापू के आदर्षो के खिलाफ होगी । ’’ एक साथ कई बंदरों ने इस वृद्ध बंदर के पक्ष में अपनी गर्दने हिलाई ।
देर तक मंत्रणा चलती रही । निर्णय हुआ कि, बुजुर्ग बंदरों के साथ सरदार के प्रतिनिधित्व में एक प्रतिनिधि मंडल सरकार से मिलने जाएगा । इस बारे में सरकार से चर्चा की जाएगी । और इस श्राप से बंदरों को मुक्ति दिलाई जाएगी ।
अगले दिन सरदार के नेतृत्व में बंदरों का प्रतिनिधि मंडल सरकार से मिला । पूरी वस्तुस्थिति बतायी और और इस अभिषाप से मुक्त करने के लिए अनुरोध किया । सरकार ने अकेले-अकेले विचार करना और निर्णय लेना उचित नहीं समझा । सरकार ने कहा था कि, इस संबंध में अपने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई जाएगी । गहराई से विचार किया जाएगा । और उम्मींद करते हैं कि, समस्या का सकारात्मक हल निकलेगा ।
साझा निर्णय लेने का यह ज्ञान मुझे सरकार से मिला । जब सिर फुड़वाने का मौका आये तो, हम अकेले ही क्यों ? इसलिए सरकार अकेले-अकेले निर्णय नहीं लेती है । निर्णय लेने के लिए मसले को सदन में रखा जाता है । सरकार आंकलन करना चाहती है कि, कितने सिर फूटेगें ? सिर फूटना अब सर्वसम्मति का प्रतीक बन गया है ।
नियत तिथि पर मंत्रिमंडल की बैठक आहूत हुई, जिसमें एक बार फिर बंदरों का प्रतिनिधिमंडल भी उपस्थित हुआ । सरदार ने अपनी बात रखी । अपना पक्ष रखा, अपना मत रखा । सरकार ने ध्यान से सुना, मंत्रिमंडल में इस मुद्दे के हर पहलू पर बहस की ।
गहन विचार विमर्ष के बाद सरकार ने कहा, ‘‘बापू के तीन बंदर, लोग इस जुमले के अभ्यस्त हो चुके हैं । एकदम से बंदर के स्थान पर किसी दूसरे को प्रतिस्थापित किया तो समझिए, समस्या सुलझने के बजाए और उलझ जाएगी । ’’
सरकार ने ‘‘जो जैसा है, वैसा ही चलने दे’’ का अनुरोध किया । लेकिन सरदार टस से मस नहीं हुआ । फिर सरकार ने लालच देनी चाही । सरदार ने अस्वीकार कर दी । मामला संगीन हो गया था । और अंततः सरकार ने अपने मंत्रिमंडल से सलाह-मषविरा करने के बाद कहा, ‘‘देखिए, एकदम से बदलाव संभव नहीे, एक-एक करके तीनों बंदरों को मुक्त किया जाएगा । इसमें समय लग सकता है । यदि प्रतिकूल परिस्थतियां निर्मित नहीं होती है तो, एक-एक करके तीनों बंदरों को मुक्त कर देगे, अन्यथा…………..।’’
सरदार ने सुझाव मंजूर कर लिया ।
अगले दिन ‘‘बुरा मत बोलो’’ बंदर को बुलाया गया । कहा, ‘‘चूंकि तुम्हें बोलने से वंचित रखा गया है, इसलिए हम तुम्हें बोलने की आज्ञा देते हैं । सिर्फ अच्छा बोलना, ऐसा बोलना कि, लोगों को सुनने में अच्छा लगे । लोगों की भावनाओं के अनुसार बोलना, उनकी आस्था और विष्वास के मुताबिक बोलना । ’’
बंदर दुविधा में पड़ गया, ‘‘ अच्छा कहां से बोलूं ? कैसे बोलूं ? ’’
सरकार ने कहा, ‘‘इसलिए तुम उनके धर्मग्रन्थों का सहारा ले सकते हो । ’’
धीरे-धीरे इस बंदर ने कई बंदर पैदा कर लिए । धर्मग्रंथों से गंगा बह निकली । विषाल जनसमुदाय इस गंगा में डुबकी लगाकर कृतार्थ होता गया । और मजबूत धार्मिक संगठन बन गये । धीरे-धीरे इन बंदरों ने विषाल साम्राज्य खड़ा कर लिया । प्रयोग सफल रहा ।
फिर सरकार ने ‘‘बुरा मत सुनो’’ बंदर को बुलाया गया, कहा, ‘‘चंूकि तुम्हें सुनने से वंचित रखा गया है । और तुमसे प्रेरणा लेकर हजारों लोगों ने अपने कान बंद कर लिए हैं । अब तुम उन लोगों को अच्छी बातें सुनाओं । ऐसी बातें जो उनके जीवन से संबंधित हो । उनके जीवन को सफल बनाए । ’’
यह बंदर भी दुविधा में पड़ गया, ‘‘लेकिन कैसे ? मैं उनको अच्छी बाते कहां से सुनाउं ? कैसे सुनाउं ?
‘‘तुम उन्हें जीवन प्रबंधन के गुर बताओ । बेहतर जीवन प्रबंधन के रहस्य बताओ । ’’
धीरे-धीरे इस बंदर ने भी कई बंदर पैदा कर लिये । धीरे-धीरे कुषल जीवन प्रबंधन के सत्र आयोजित होने लगे । बेषुमार लोग सुनने आने लगे । प्रबंधन का दायरा बढ़ता गया । धीरे-धीरे अकूत संपदा के मालिक बन बैठे । यह प्रयोग भी सफल रहा ।
अब सरकार ने तीसरे बंदर को बुलाया-‘‘बुरा मत देखो’’ ।
सरकार को इस बंदर को कुछ बताने की जरूरत नहीं पड़ी । यह बंदर खामोषी पूर्वक अपने साथी बंदरों को बराबर वाॅच कर रहा था । इस बंदर ने न आगे देखा, न पीछे देखा । न दायें देखा , न बायें देखा, न उपर देखा, न नीचे देखा । देखा, सिर्फ अपना मतलब । धीरे-धीरे इस बंदर ने भी अपना अलग कुनबा पैदा कर लिया । जिन्हें आज कल कहीं भी ष्वेत सूती कपड़ों में हाथ जोड़ते हुए, और अपील करते हुए देखा जा सकता है ।
सरदार की अभिप्सा पूरी हुई या नहीं ? सरदार का क्या हुआ होगा ? यह न पूछियेगा प्लीज……..। ऐसा नहीं कि मुझे मालूम नहीं है ? ऐसा है कि, मैं कुछ बता नहीं सकूगां । सिर्फ इतना कि एक दिन सरदार ने एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर फांदते हुए जानबूझकर टहनी नही पकड़ी थी । और धड़ाम से जमीन पर औंधें मुंह गिरे थे । सारे बंदरों ने अपनी आंखों से यह दृष्य देखा था । यह दृष्य बंदर जाति के जन्मजात गुणों के विपरीत था , जिसे किसी भी दषा में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था । ‘‘अब यह बंदर नहीं रहा’’ कहते हुए सारे बंदरों ने पीट-पीटकर सरदार को मार डाला था ।
इति ।
-अरविन्द कुमार खेड़े
जन्म- 27 अगस्त सन 1973
शिक्षा -परा स्नातक
सम्प्रति-प्रषासनिक अधिकारी,
कार्यालय-मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी, जिला-धार, मध्य प्रदेष
प्रकाषन-स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाषित । फिलहाल कोई पुस्तक प्रकाषित नहीं । निकट भविष्य में एक व्यंग्य संग्रह एवं एक काव्य संग्रह के प्रकाषन की संभावनाएं हैं ।
पता …………
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व्यंग्य अच्छा है।लेकिन ये बात समझ में नहीं आई कि तालव्य श की जगह षट्कोण वाले ष का प्रयोग क्या उचित है?हालाँकि सुनने में एक समान हैं परंतु लिखित में ?😐😮😟😞
व्यंग्य अच्छा है।लेकिन ये बात समझ में नहीं आई कि तालव्य श की जगह षट्कोण वाले ष का प्रयोग क्या उचित है?हालाँकि सुनने में एक समान हैं परंतु लिखित में ?😐😮😟😞
आदरणीया सुधा जी …..यह साफ्टवेयर के कारण हो रहा है…..सादर…अरविन्द.