आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद (कुछ कवितायेँ )





                         आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद में पढ़िए नारी की मन : स्तिथि को उकेरते कुछ स्वर ……..इसमें आप पढेंगे 
छवि निगम ,किरण सिंह ,रमा द्विवेदी ,संगीता पाण्डेय ,एस एन गुप्ता व् नीलम समनानी चावला की ह्रदय को उद्वेलित करती रचनायें 






एक संदेश: एक कविता
            —–

लो भई,दी तुम्हे आज़ादी ,सच में
लो की तुम पर मेहरबानी कितनी
सर झुका रक्खो,औरआगे बढो़ न
जाओ, जी लो तुम भी थोड़ा बहुत
सच में
अहसान किया ये तुम पर,ये सनद रहे।
चलो दौड़ो
छोड़ा तुम्हें
सपाट दबोचती सडकों पर
आज़ादी के पाट पग बाँधे
ठिठको  तो मत अब ज़रा भी
देखो पीठ पर कस कर चाबुक पड़े जो
सह लो
समझो तो जरा
हैं तुम्हारे ही भले को ये, कसम से
ऐसे ही तो रफ्तार बढ़े
साँसे ले लो हाँ बिलकुल
लेकिन
जरा हिसाब से।
दमघोंटू दीवारों में ही रह कसमसाओ
सम्भाल के
सुरक्षित रहना जरूरी है, समझो तो तुम
धुएं के परदे  में छिपकर रहो
उगाहो रौशनी वहीं
सहेजो जा कर,जाओ तो
तुम्हारे हिस्से की अगर कहीं कुछ होती हो तो।
किसी नुकीले पत्थर पर
पटक दी जाओ कभी
पड़ी रहो चुपचाप
करो बर्दाश्त सारी हैवानियते
आराम से ,बेआवाज़…
चीर दी भी जाओ तो क्या
मरती रहो इंच दर इंच
खामोशी से..
मरती रहो
या फिर यूँ ही जीती रहो हौसले से..
जीती रहो का आशीष तुम्हारे नाम हुआ ही कब कहो?
हाँ,अग्निपरीक्षा पर सदा का हक तुम्हारा
हे सौभाग्यवती
रास्ता कोई और कभी रहा ही नहीं
पर सदा ही चौकस रहना
इज्जत  हमेशा बची रहे
कहीं कोई नाम न उछलने पाए किंचित भी
ऐसा न हो
कि फिर तुम
बस एक चालू मुद्दा
चौराहे की चटपटी गप्प
बहसबाजी का चटखारा
और आखिरकार…
एक उबाऊ खबर बन कर ही रह जाओ।
बेस्वाद बासी खबर की रद्दी सी बेच दी जाओ..
कि फिर
केवल याद आओ
तब
जब भी  कहीं कोई और गुस्ताख
कभी दरार से झांके, कुछ सांस ले
थोड़ा सा लड़खड़ाये
पर चले
क्षीण सी ही, पर आवाज़ करे
कालिख में नन्हा सा रौशनी का सूराख करे
यूं कि
फिर से
नया एक मुद्दा बने।

-डा0 छवि निगम

कवियत्री




२……………..

स्वयं ही रणचंडी बनना होगा -कविता 

स्त्री के मन को इस देश में 
कोई न समझ पाया है ?
कितना गहरा दर्द ,तूफ़ान समेटे  है ? 
अपने गर्भ में ,मस्तिष्क में 
उसकी उर्वर जमीन में 
बीज बोते समय 
तुमने न उसे खाद दी 
न जल से सींचा 
अपने रक्त की हर बूँद से 
उसने उसे पोसा 
असंख्य रातें जगी 
दुर्धर पीड़ा सहकर 
उसने तुम्हें जन्मा 
किन्तु उसे ही 
कोई न समझ पाया ?
जिसने मानव को बनाया ? 
बीज काफी नहीं है 
अगर भूमि उर्वरा न हो 
तो बीज व्यर्थ चला जाता है 
उसके तन -मन -ममत्व की आहुति से 
कहीं एक शिशु जन्मता है 
पोषती है अपने दुग्ध से 
असंख्य रातें जागकर 
अनेक कष्ट सहकर ,तब 
उस शिशु को आदमी बनाती है
फिर क्यों समाज में 
उसे ही नाकारा जाता है ? 
रसोई और बिस्तर तक ही 
उसके अस्तित्व को सीमित कर 
उसे `कैद ‘ कर दिया जाता है । 
खुली हवा में सांस लेने का 
उसे अधिकार नहीं 
आसमान का एक छोटा टुकड़ा भी 
उसके नाम नहीं ,क्यों ? ?? 
यह पुरुष जिसकी हर सांस 
उसकी ही दी हुई है 
वही उसकी अस्मिता से 
हर पल खेलता है  
कभी दहेज़ की बलि चढ़ा कर ?
कभी बलात्कार करके ? 
कभी बाज़ार में बेच कर ? 
कभी कोठे में बिठा कर ?
कभी भ्रूण हत्या करके ? 
क्या हमारे देश के पुरुष 
इतने कृतघ्न हो गए हैं ? 
कि  अपने समाज की स्त्रियों की 
रक्षा भी नहीं कर सकते ?
जब रक्षक ही भक्षक बन जाए 
तब रक्षा का दूसरा उपाय ही क्या है ? 
जब स्थिति इतनी विकट  हो 
तब नारी को स्वयं ही 
रणचंडी बनना  होगा 
येन -केन -प्रकारेण 
उसे स्वयं ही 
अपनी अस्मिता की रक्षा करनी होगी 
क्योंकि इस देश में 
हिजड़ों की संख्या में 
निरंतर वृद्धि हो रही है 
और हिजड़ों की 
कोई पहचान नहीं होती । 
    —————–
डॉ रमा द्विवेदी 
संपादक -पुष्पक ,साहित्यिक पत्रिका 
हैदराबाद ,तेलंगाना 
लेखिका


नारी
 संवेदनाएं मृत हुईं
 मनुजता का आधार क्षय होने लगा
 संताप हिम सम जमे हैं
 तूफ़ान में फंसा अस्तित्व है
 बंधनों से कब ये मौन निकलेगा
 वेदना में कली हैं पुष्प भी हैं
 रिश्तों की धार है कोमल
 गरल पीती हैं सुधा देती रही हैं
 युगों युगों से गंग की लहरें

 धारा समय की बहती आई हैं
 शैल खण्डों में उहापोह नहीं
 भावों में कालिमा सी छाई हैं
 सहमती श्वास हैं उजालों में
 अपनी सी लगने वाली आँखें भी
 चुभती लगती हैं वासनाओं में
 बन पराई सी तकने लगती हैं

 अर्थ शब्दों के बदले बदले हैं
 गालियां रिश्तों को बताती हैं
 सहारे ढूंढने की कोशिश में
 आस के पत्ते झरने लगते हैं
 द्युति पर तिमिर की विजय है
 न्याय को तरसती हैं रूहें
 सृष्टि की सृजना का देह मंदिर
 पापी उश्वासों से दहकता हैं

 दग्ध होती हैं मूर्ति करुणा की
 गरिमा का चन्द्र ह्रास होता हैं
 प्रतीक्षा हैं युग युगांतर से
 नारी का कब प्रभास मुखरित हो
 विवशता यामिनी की मिट जाए
 धूम्र रेखा के वलय खंडित हों !!

एस एन गुप्ता
शाहदरा, दिल्ली -11032
निशचय
मुझे मेरे कदम
निर्धारित करने दो
क्यो तुमसे कहूँ मन की वेदना
पंख मेरे भी है
उड़ना है या चलना
ये मुझे सोचने दो
तुम बहुत तय कर चुके
सीमा मेरा लिए
अब मुझे असीमित
आसमान चुनने दो
मुझे मेरे कदम
निर्धारित  करने दो
पाप पुण्या की परिभाषा से दूर
अच्छी बुरी विशेषताओं से परे
मुझे इंसान रहने दो
मुझे मेरे कदम
निर्धारित करने दो

नीलम समनानी चावला 

xxx
!!!! गृह लक्ष्मी हूँ !!!!
गृह लक्ष्मी हूँ
गृह स्वामिनी हूँ 
साम्राज्ञी हूँ और
अपने सुखी संसार में
खुश भी हूँ
फिर भी
असंतुष्ट हूँ स्वयं से
बार बार
झकझोरती अंतरात्मा
मुझसे पूछती है
क्या
घर परिवार तक ही
सीमित है तेरा जीवन ?
कहती है
तुम
ॠणी हो पॄथ्वी ,प्रकृति
और समाज की
और तब 
हॄदय की वेदना शब्दों में बंधकर
छलक आती है
अश्रुओं की तरह सस्वर
आवरण उतार
चल पडती है लेखनी
लिखने को व्यथा
मेरी
आत्मकथा

किरण सिंह 

लेखिका





उड़ने तो दो

दृश्य को दृष्टा बन  , नाना मिथक गढ़ने तो दो 
है अगर जीवन समरस्वच्छंद तुम लड़ने तो दो

अभिशप्त नहीं बस तप्त हूँ निज की व्यथा गहने तो दो
इन रश्मियों का व्यक्त यौवन ,  रक्ततम रहने तो दो 

मेरे उभरते बिम्ब के प्रतिवाद में निर्झर नयन बहने तो दो 
कृत्रिम पंखो के भरोसे ही सही ,  उन्मुक्त हो उड़ने तो दो 

हम थे विवश पर अब नहींअभिव्यक्त ये करने तो दो 
मेरे सबल अध्याय की किंवदंतियाँ जीवंत हो सजने तो दो 


संगीता पाण्डेय 


लेखिका

4 thoughts on “आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद (कुछ कवितायेँ )”

  1. आप सबने अपने अपने सरल पर तीखे मर्मभेदी शैली में आहत स्त्रियों के वेदनाओं का सजीव चित्रण किये एवं साथ ही उन्हें उभरने का, संवारने का साहस एवं प्रेरणा दी है| आप सबको इस प्रतिभा के लिए ढेर सारी बधाईयाँ वंदना जी को ऐसे उत्कृष्ट कविताओं को प्रोत्साहन देने के लिए धन्यवाद|

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