चालीसवां सावन चल रहा था तृप्ति का, पर ज़िन्दगी चार दिन के सुकून के लिए तरस गयी थी आजकल. एक के बाद एक कहर बरपा हो रहा था तृप्ति की ज़िन्दगी में. दो बच्चों को अकेले पालने
की ज़िम्मेवारी छोटी बात होती, फिर भी तृप्ति ने कभी उन्हें पिता की कमी महसूस नहीं होने दी. उनकी हर ज़रुरत को अपनी सामर्थ्य के अनुसार इस तरह पूरा किया कि अच्छे-भले सब साधनों से संपन्न व् सुखी कहे जाने वाले दम्पत्तियों के बच्चे भी उसके बच्चों – मन्नत और मनस्वी से जलते थे. हर क़दम पर नित-नई परेशानियां आई पर हर परेशानी उसे और भी मज़बूत करती चली गयी.
दुनिया की तो रीत है कि सामाजिक दृष्टि से ‘बेचारा’ कहा जाने वाला यदि सर उठा कर स्वाभिमान से यानि बिना दुनिया कि मदद के आगे बढ़ने की जुर्रत करे तो उसे सुहाता नहीं है, और यदि वो कामयाब भी होता नज़र आये तो इस क़दर सबकी नज़रों में खटकता है कि वही दुनिया जो कुछ समय पहले उसके पहाड़ से दुःख को देखकर सहानुभूति प्रकट करते हुए उस ‘बेचारे’ को हर संभव सहायता का वचन देते नहीं थकती थी, वही दुनिया उसकी राहों में हरदम- हरक़दम पर रोड़ा अटकाने
से बाज़ नहीं आती. दुनिया ने अपनी रीत बखूबी निभायी.
अभी दो महीने पहले ही मन्नत ने ग्यारहवीं में प्रवेश लिया.
तृप्ति को आजकल के प्रतियोगितावादी युग के रिवाज़ के मुताबिक़ उसकी विज्ञान और गणित कि ट्यूशन्स लगानी पड़ी. और क्योंकि मन्नत पढ़ाई में बहुत होशियार थी उसे ऊंचे स्तर कि ट्यूशन्स दिलवाई तृप्ति ने – उस सेंटर में जो शहर से थोड़ा बाहर पड़ता था. नज़दीक ऐसे स्तर का कोई भी
सेंटर न था. बेटी को आने जाने में किसी पर आश्रित न रहना पड़े, इसलिए उसे स्कूटी भी लेकर दी. सर्दियों में तो पांच बजे ही सूरज छिप जाता है, अतः जब ६ बजे कि ट्यूशन ख़त्म कर के साढ़े छह बजे घर पहुँचती थी मन्नत तो अन्धेरा हो चुका होता था. छोटे शहर की निवासी बेचारी तृप्ति बेटी के
घर पहुंचने तक किसी तरह दिल की धड़कनों को समेटती घडी-घडी दरवाज़े को निहारती रहती और उसके घर आने पर ही चैन की सांस लेती. पर तृप्ति का चैन, मोहल्ले वालों की बेचैनी का कारण था.
आखिर बच्ची जवान जो होने लगी थी.
सो देर-सवेर उसके देर से घर आने पर लगी बातें बनने – ‘आज तो पीछे कोई बैठा था…’,
‘आज पूरे दस मिनट देरी से आई…’, ‘हद्द है इसकी माँ की… अरे हम तो सब होते हुए
भी कभी न इजाज़त दें बेटी को इत्ती देर से अँधेरे में घर आने की’, ‘बाप नहीं रहता न साथ में
तभी…’, ‘अपनी ज़िन्दगी का किया सो किया, इस अच्छी खासी छोरी को बिगड़ैल बनाकर ही छोड़ेगी ये औरत’.
ओह… ! चीखें मार मार कर रोने को जी चाहता था तृप्ति का. अभी तक तो उस पर ही अकेले रहने की बाबत ताने दिए जाते थे – ‘जाने क्या क्या करना पड़ता होगा बिचारी को इतनी सुख सुविधाएं
जुटाने के लिए, अब एक नौकरी में तो इत्ती ऐश से कोई न रह सके…’,
‘ अरे भाई, इन तलाकशुदा औरतों को ऐश के बगैर नहीं सरता जभी तो अलग होती हैं…’,
‘ कल तो वो … हाँ-हाँ वही ऑफिस वाला, लम्बा सा, पूरा एक घंटे के क़रीब अंदर ही था…’
‘खैर… हमें क्या, उसकी ज़िन्दगी है – वो जाने…’ आदि.
अब उसकी बच्ची को भी निशाना बना लिया इन्होने… हे भगवान!
रूह काँप जाती थी तृप्ति की अपनी चार साल की शादीशुदा ज़िन्दगी के बारे में सोच कर. अपने
बच्चों के बाप के बारे में तो सोच कर भी ग्लानि हो आती थी उसे. अगर आज वो साथ होता तो शायद अपनी मन्नत पर ही बुरी नज़र… ??? और मंन ही मंन अपने तलाक़शुदा होने पर गर्व होने लगा उसे और अपने मंन को पत्थर सा ठोस व इरादों को पहले से भी कहीं अधिक मज़बूत कर
अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य के बारे में सोचने लगी.
जागती आँखों से कुछ अच्छा होने का सोचा भर था कि मनस्वी की दुर्घटना की खबर ले कर उसके
दोस्त आ गए.
उसका दोस्त आर्यन अपने पापा की नई मोटर बाइक उनसे बिना इजाज़त चला रहा था और
मनस्वी को उसने अपने साथ ले लिया था. कच्ची उम्र में ही पक्की स्पीड का मज़ा ले रहे थे दोनों कि रिक्शा से टक्कर हो गयी. अब दोनों बच्चे अस्पताल में थे. राम राम करते अस्पताल पहुंचे तो पता चला कि मनस्वी कि दायीं टांग में फ्रैक्चर है. तीन महीने लगेंगे मनस्वी के प्लास्टर
को उतरने में.
हिम्मत – बहुत हिम्मत से काम ले रही है तृप्ति. नौकरी की जिम्मेवारियां निबाहती है, घर की ज़रूरतों को पूरा करती है, अपनी जवान होती मन्नत को (जो करियर बनाने के लिए सजग है) प्रेरणा ही नहीं देती, डगमगाने पर संभालती भी है. किशोरावस्था की दहलीज पर खड़े घायल मनस्वी की सेवा सुश्रुषा
से ले कर उसके मनोबल को बढ़ाने तक का सारा ज़िम्मा संभालती है. और सबसे बढ़कर दोनों बच्चों
को जब-तब अपनी बाहों में भरकर जो सुरक्षा का भाव वह उनके अंतरमन तक उनमे भर देती है वह अतुलनीय है. किन्तु स्वयं को उस सुरक्षित कर देने वाले भाव से सदा अछूता ही पाया उसने. उस
भाव के लिए स्वयं क्या उसके जीवन में तरसना ही लिखा है?
हर तन-मन की टूटन-थकन पर उसका भी मन होता है कि वो स्वयं को किसी आगोश में छिपा
कर कुछ देर सिसक ले, कुछ अपना दर्द स्थानांतरित कर दे और कुछ सुकून आत्मसात कर नई शक्ति
अर्जित कर फिर कूद पड़े दुनिया के रणक्षेत्र में.
बचपन में तो हर छोटी-बड़ी मुसीबत पर पापा अपनी बाहें पसारे सदैव यूं खड़े नज़र आते थे
जैसे अल्लादीन का जिन्न अपने आका के याद करते ही ‘हुकुम मेरे आका’ कहता प्रकट हो जाता था
और पापा की वो बाहें चुटकी में हर दर्द छू-मंतर कर देती थी.
पापा आज नहीं हैं.
… कहाँ से लाये तृप्ति वो बाहें जो तृप्त कर दें उसे?