कैंसर
बस एक ही शब्द
काफी था सुनने के लिए
अनसुनी ही रह गयी
उसके बाद दी गयी सारी हिदायते
पहली दूसरी या तीसरी स्टेज का वर्णन
मौत
रेंगते हुए आगे बढती
किसी सौ बाहों वाले केंकेडे की तरह
जो अपनी बाँहों के शिकंजे में
कस कर चूस लेगा जीवन
आश्चर्य
की कैंसर
सिर्फ शरीर को ही नहीं होता
यह होता है
रिश्तों को
हमारे द्वरा शुरू किये गए कामों को
जिसकी नींव रखी गयी होती है
सपनों की जमीन पर
पर उसमें भी
जाने कैसे
नज़रंदाज़ हो जाती हैं
पहली , दूसरी और तीसरी अवस्थाएं
गहराता जाता है रोग
और बढ़ चलता है जीवन
मृत्यु की तरफ
मृत्यु अवश्य्समाभावी है
परन्तु
अपने को
सपने को
और रिश्तों को
यूँ पल -पल मरते देखना
बहुत पीड़ा दायक है
बहुत पीड़ा दायक है ……..
नेहा बाजपेयी