तबादले का सच

शालिनी का आज दफ्तर में पहला दिन था। सुबह से काम कुछ न किया था बस परिचय का दौर ही चल रहा था।बड़े साहब छुट्टी पर थे सो पूरा दफ्तर समूह बनाकर खिड़कियों से छन-छन कर आती धूप का आनन्द ले रहा था और बातशाला बना हुआ था। उसने पाया कि वो एक अकेली महिला नहीं है दफतरि में ! रमा जी भी हैं उनके साथ ।जो कि जीवन के 50 बसंत देख चुकी हैं और पिछले 10 वर्षों से इसी दफ्तर में होने के कारण अब अपना दफ्तरी आकर्षण शायद खो चुकी थीं। इसीलिए शालिनी पर सबकी आस बंधी थी कि शायद दफ्तर के रूखे रसहीन माहौल में कोई बदलाव आएगा।
पूरे दफ्तर पर वेलेन्टाइन का भूत सवार था । हर कोई एक दूसरे की चुटकियाँ ले रहा था। राम बाबू उम्र में सबसे बड़े थे वहाँ । वो बीते ज़माने का पुलिंदा खोलकरबैठे थे। उनकी जीभ किसी चतुर सिपाही की तरह गुटके की सुपारियों को मुंह के कोने -कोने से ढूंढ कर दांतों के हवाले कर रही थी ।

और दांत दुश्मन को पीस रहे थे चबा रहे थे कि उनके बचने की कोई सूरत न रहे!उन्हीं शिकारी प्रवृत्तियों को ज़रा विराम देते हुए सुपारियों को गाल का आश्रय देते हुए राम बाबू बोले। बेलेन्टाइन डे की सुरसुरी हमारे जमाने में नहीं सुनी थी पर
“आपके जमाने अब नहीं क्या राम बाबू ” सतीश बाबू ने बात काटकर ठहाका लगाया।
सबने उनका साथ दिया। राम बाबू भी कहाँ रुकने वाले थे !
बोले मर्द के जमाने कभी न जाते हैं सतीश बाबू! असली घी तो पानी की तरह पीकर जवान हुए हैं! ये फास्ट फूड खाकर बड़े हुए आजकल के नौजवान हमारी बराबरी में टिक ही नहीं सकते हैं!आज भी साँस न फूलती हमारी उन्होने एक आँख दबाकर पास बैठे दिवाकर की जांघ को धीरे-से दबाते हुए और सबकी तरफ नज़र घूमाते हुए शालिनी पर गाड़ दी! शालिनी जो अब तक उन सबकी बातों में रुचि ले रही थी, यकायक इस बेहूदगी के लिए तैयार न थी सो अचकचाकर उसने रमा जी की तरफ देखा । वो तो किसी नाॅवेल में मगन इस चर्चा से अलग अपनी दुनिया में थीं।
शालिनी ने भी अब अखबार उठाकर अपना ध्यान बंटाना शुरु किया।
बातचीत का दौर उधर ज़ोर पकड़ रहा था। राम बाबू की बात ने सभी को रोमांचित कर दिया था। इससे उनका उत्साह और बढ़ गया और वो अपनी व्यक्तिगत बातों को सार्वजनिक करने लगे कि कब-कब उनकी पत्नी से उन्होंने कैसे-कैसे अपनी मर्दान्गी का लोहा मनवाया! अखबार में मुँह छुपाए भी शालिनी को आवाज़ की दिशा और रफ्तार से समझ आ रहा था कि सबकी गर्दन उसी की तरफ घूमकर ही कुछ बोल रही हैं! ईश्वरीय वरदान कहें या अभिशाप इसको कि जब भी कोई नज़र स्त्री को सिर्फ देह समझ कर देखती है तो वो परदे की ओट से भी पहचान लेती है। उसको निशाना बनकर की जाने वाली द्विअर्थी बात उस तक ज़रूर पहुँचती है भले ही एक घड़ी कोई दूसरा पुरुष न समझ पाए। खैर… शालिनी थोड़ी विचलित ज़रूर थी क्योंकि इससे पहले वो जहाँ पोस्टेड थी वहाँ का माहौल बहुत अच्छा था। महिलाएं और पुरुष सब मित्रतापूर्वक काम करते थे बातें करते थे। उसने सोचा भी न था कि नयी जगह पर पहले दिन इन बेहूदगियों से दो-चार होना पड़ेगा! पुराना दफ्तर उपनगरीय इलाके में था। शहर से दूर, तो भी सब समय से आते-जाते थे, काम करते थे। पढ़े-लिखे समझदार लोग थे! काम से काम रखते थे फिर भी थोड़ा बहुत हंस बोल लिया करते थे। कभी-कभी उस माहौल को उबाऊ , नीरस और यंत्रवत भी कहा जा सकता था! जहाँ किसी के सुख-दुख का हाल जानना महज एक शिष्टाचार होता था जिसका पालन करना दफ्तर के नियमानुसार आवश्यक था। शालिनी को वैसे माहौल में सामजस्य बिठाने में भी बड़ी मुश्किल हुई थी। BA. करते ही एक साल की कोचिंग की! कड़ी मेहनत की! आरक्षण कोटे के कारण कठिन हुई डगर के बावजूद competition exam पास करके उसे तुरंत ही सरकारी नौकरी मिल गयी थी। अभी तो college life की तरह अल्हड़पन से जीने वाली शालिनी को ये माहौल ज़रा भी न जमता था। उसने तो सुन रखा था कि सरकारी दफ्तरों में काम कम मस्ती ज़्यादा होती है। तभी तो इतनी मेहनत की इसे पाने के लिए। पर यहाँ तो सब काम करते हैं और उसे भी करना पड़ता है। कारण भी जल्दी ही समझ आ गया था। दफ्तर के head जो थे वो मुख्य मंत्री के पी.ए.के दामाद थे। मानो सबके सिर पर लटकती तलवार! खुद भी काम करते और सबसे भी करवाते क्योंकि विपक्ष की पैनी नज़र इस दफ्तर पर ही रहती थी। सावधानी हटी दुर्घटना घटी वाली स्थिति थी।तीन साल वहाँ काम करके शालिनी भी उसी माहौल की आदि हो गयी थी। ज़रूरत भर का बोलना और मुस्कुराना उसने भी सीख लिया था और अब उसे ये सब सहज भी लगने लगा था!
उधर बेहूदे ठहाकों का दौर जारी था। बहुत सोच समझकर शालिनी के पापा ने उसकी पोस्टिंग यहाँ करवाई थी। उन्हें शालिनी का दिन ब दिन संजीदा होता जाना बिल्कुल न जँचता था और इसके लिए वो उसके दफ्तर के माहौल को ही दोषी मानते थे। कई लोगों से जानकारी निकलवायी गयी कि किस दफ्तर में काम या तो होता ही नहीं है या बहुत देर से कुछ ले देकर ही होता है और फिर वहीं अर्जी लगाई गयी। इस की कहानी भी बड़ी दिलचस्प रही कि शालिनी को यहाँ तबादला कैसे मिला! वो हुआ यूं कि जब जानकार लोगों से निम्नतर कामकाज वाले दफ्तरों की सूची बनवाई गयी तो साथ में वहाँ बदली की रेट भी सामने आई! पापाजी ने हिसाब किताब लगाया कि अभी दफ्तर आने-जाने में जितना समय और पैसा लगता है उसके मुकाबले किस ब्रांच में कितना कम लगेगा! फिर रेट देखकर चार दफ्तर फाइनल किए गये और उन्हीं में से एक उसको मिल गया। पापाजी ने बताया था कि तीन साल में जितनी तेरी बचत थी वो इस रेट की भेंट चढ़ गयी है और अब तुझे वो वसूल करनी है बस! कितने समय में वो तू जान।
तो यूं शालिनी इस तैयारी से आई थी इस दफ्तर में ।
पहला दिन कुछ अच्छा नहीं बीत रहा था। काम करने की बुरी आदत पड़ चुकी थी जो कि धीरे-धीरे ही छूटने वाली थी ये उसे अब महसूस हो रहा था। खैर…राम बाबू की बातशाला में खूब जम कर बातें चल रही थीं।। तभी कोई सज्जन रंग में भंग करने आ गये। कुर्सियों का समूह कुछ हिला । एक कुर्सी पीछे खिसकी और सवारी ने गर्दन समूह के बाहर करते हुए पूछा “क्या काम है? किससे मिलना है भाई?”
आगन्तुक ने आवाज़ की दिशा में गर्दन घुमाई और पीछा करता हुआ उस दिशा में दो कदम आगे बढ़ा और बोला “सर ये फाइल चैक करवानी है। पेपर्स पूरे हैं कि नहीं एक बार दिखवाने हैं!”
“आज तो साहब नहीं हैं लाइये इधर दिखाइये” साहब के पी.ए.सक्सेना जी ने हाथ बढ़ाया! फाइल उनके हाथों में दे दी गयी। दो पाँच मिनट पन्ने पलटे गये । चश्मे को नाक तक सरका कर साथियों की तरफ एक नज़र डाली गयी फिर आगन्तुक से मुखातिब होकर बोले “पहली बार आए हैं आप यहाँ! पहले कभी देखा हुआ नहीं जान पड़ता! ” जी,कल ही फाइल तैयार हुई सोचा आज ही चैक करवा लूं। शुभस्य शीघ्रम्!” मकान का नक्शा पास होगा तभी तो लोन मिलेगा और काम शुरू होगा सर!” उसके स्वरों की खनक सबको आल्हादित कर गयी! जितनी जल्दी का काम उतना बड़ा दाम! “बड़ी खुशी की बात है जी!” सक्सेना जी ने सधी हुई आवाज़ में कहा तो आगन्तुक के चेहरे पर उम्मीद की किरण चमक उठी जिसकी चमक में वहाँ बैठे सभी महानुभावों के चेहरे रौशन हो गये!”ऐसा करिए आप फाइल यहाँ छोड़ जाइये । सुबह साहब के आते ही साइन करवा कर रखूंगा आप दिन में कभी भी आकर ले जाइयेगा” सक्सेना जी ने मुस्कुराते हुए कहा।
आगन्तुक आभार से दोहरा हुआ जाने लगा “बहुत बहुत आभार आपका! काम शुरू करने के मुहूर्त पर सबको आना होगा और मकान के गृह-प्रवेश पर तो सपरिवार आना होगा आप सभी को”
हां हां ज़रूर! आपको भी अग्रिम शुभकामनाएँ! लगभग सभी ने एक स्वर में कहा! आगन्तुक फाइल छोडकर खुशी खुशी चला गया। बेचारा क्या जानता था कि वो फाइल नहीं अपनी खुशियाँ वहाँ छोडकर जा रहा है जो उसको भारी कीमत चुकाकर ही वापस मिलने वाली थीं। और वो कीमत चुकाने के बाद वो उस नक्शे के मुताबिक मकान बनवा भी पाएगा कि नहीं कहा नहीं जा सकता !
इधर उसके जाते ही सक्सेना जी ने फाइल एक विशेष निशान लगे कपड़े में बांधकर अलमारी में रख दी । शायद ये निशानी रही होगी कि फाइल का क्या करना है!
हां तो बातचीत में पड़ा विघ्न चाय के दौर से खत्म हुआ।
चाय में कुछ बात थी या उससे मिलने वाली तथाकथित ऊर्जा में कि अब तक चुपचाप सुनने वाले श्रोता भी सक्रिय सदस्य बन गये थे और अपने अपने वेलेन्टाइन डे के किस्से सुना रहे थे। एक ने बताया कि किस तरह उसने एक दिन में तीन लड़कियों के साथ मनाया! तो एक बोला मुझे तो साले तभी कोई नहीं मिलती सब तुझे जो मिल जाती हैं ! ठहाके कुछ देर चलते रहे! एक ने कहा यार शादी के बाद से तो बस तरस ही गये वेलेन्टाइन डे मनाने को! क्या नया करें ! कुछ बचा ही नहीं करने को!
कोई हसीना पटा के रख यार अपने सक्सेना जी की तरह!
राम बाबू ने सुपारी की पीक थूकते हुए कहा तो सक्सेना जी के चेहरे पर विजयी मुस्कान तैर गयी! जैसे कह रहे हों कि अब भी दम रखता हूं! दो-दो को सम्हालता हूं! और तभी दिवाकर ने वही बात बोल भी दी और सब सक्सेना जी के प्रति अदृश्य जलन की पीड़ा से भर गये।
एक काम कर सकते हो दिवाकर! राम बाबू ने सलाह देने के अंदाज़ में कहा! “क्या?” दिवाकर चकित होकर सलाह का इंतज़ार करने लगा।
आज hug day है । तू उस नयी लड़की को पटा ले और मना ले hug day! हालाँकि ये बाद बेहद धीरे फुसफुसाकर कही गयी थी पर पर अपना नाम तो करोड़ों शंखध्वनियों के बीच भी स्पष्ट सुनने की क्षमता हर इंसान में होती है।
बहुत देर से शालिनी उनकी बेहूदा बातें बर्दाश्त कर रही थी पर अब ये बात बर्दाश्त के बाहर थी। पता नहीं रमा जी इस दफ्तर में इतने वर्षों से कैसे जमी हुई हैं । या तो वो भी मौका मिलते ही इनके जैसी हो जाती हैं या वो बस पैसा गिनने से मतलब रखती हैं और जानबूझकर ऐसी कठोरता ओढ़े हुए रहती हैं ताकि कोई उनको लेकर मज़ाक़ न बना सके। पता नहीं, जो भी है पर इस तरह तो यहाँ काम करना मुश्किल है। उसने तय किया कि वो नहीं सहेगी और सामना करेगी । रमा जी, जो अब तक चुपचाप थीं,शालिनी का नाम सुनकर और उसका तमतमाया हुआ चेहरा देखकर धीरे से बोलीं “कितने रूपये दिये यहाँ पोस्टिंग के लिए? वापस कमाने हैं तो इग्नोर करना सीख लो वरना तुम्हारा हिस्सा भी सब में बंट जाएगा!”
तो वो सब सुन रही थीं। शालिनी को सारा माजरा समझ आ गया। पापाजी की कही हुई बात कानों में गूंजने लगी कि “कितने समय में वापस जोड़ोगी रकम ये तुम पर निर्भर करता है”! पर वो ज़रा भी विचलित न थी। उसने जो सोचा था वही करेगी।
वो उठी और अपनी कुर्सी घसीटती हुई बातशाला की सीढ़ियां चढ़ गयी। अचानक जैसे सभा में भूचाल सा आया और सबकी कुर्सियाँ हिल गयीं शालिनी की कुर्सी के लिए जगह बन गयी। उसका नाम लेने के कुछ पलों बात यकायक उसके आगमन की आंधी से वो सम्हल न पा रहे थे कि शालिनी की सधी हुई, शान्त पर मज़बूत आवाज़ गूंजी “राम बाबू अंकल जी! बेचारे सम्बोधन से ही घायल हो गये! अपनी बहन-बेटी के साथ क्यों न मनवा देते दिवाकर भैया जी का वेलेन्टाइन! लो दिवाकर भी लपेटा गया!
सबको सांप सूंघ गया जैसे ही सक्सेना जी ने सीनियरिटी झाड़ने की कोशिश की शालिनी की एक धमकी ने दबा दिया! आप सबको बता दूं कि पिछले तीन साल सी एम के पी. ए. के दामाद के अंडर में काम कर रही थी और अब भी अच्छे सम्बन्ध हैं वहाँ । बस और कुछ न कहना है मुझे। अरे हां एक बात और कि यहाँ तबादले के लिए एक पैसा न दिया मैने! आखिरी बात जानबूझकर ज़ोर से और धमकी भरे लहजे में कही गयी थी और अचानक ही बातशाला शाम के चार बजे कार्यशाला में तब्दील होने लगी….
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शिवानी शर्मा
जयपुर (राजस्थान)

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