डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
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कल
बहुत दिनों बाद
सुबह मिली
खिली खिली
बोली उदास होकर
तुम्हारे पिता
मुझसे रोज़
मिला करते थे
गेट का
ताला खोल कर
इधर-उधर
देश-समाज
साहित्य, घर-संसार
और तुम्हारी
तब तुम्हारी माँ सँग
सुबह की चाय पिया करते थे
फिर बरामदे में बैठ
सर्दियों की
गुनगुनी धूप में
गर्मियों की
सुबह-सुबह की ठंडक में
साहित्य-संवाद
किया करते थे
बारिश होने पर
बरामदे में आई
बूँदों और ओलों को देख
अपनी नातिन को पुकारते
फ़ोटो खींचने और
कटोरी में ओले
भरने को
जब बन जाते
धीरे-धीरे वे पानी
तब वो पूछती
ओले कहाँ गए
“चैकड़ी पापा”
उन दोनों की
बालसुलभ
सरल बातें सुन
मैं भी मन ही मन मुस्काती
उनके सँग बैठी रहती थी
पर अब
मैं रोज़ आती हूँ
गेट भी खुलता है
पर वो सौम्य मुस्कान लिए
चेहरा नज़र नही आता
तुम्हीं बताओ अब
किसके सँग बैठूँ
किससे कहूँ
अपना दुख-सुख
मुझसे मिलने
अब कोई नही आता
जो आते है
वे सब कुछ करते हैं
पर मुझसे बोलते तक नहीं
बताओ सही है क्या
भला यह!
कभी
अपने पिता की तरह
मुझसे मिलने
“उत्तरगिरि” में
आओ न
सुबह-सुबह।
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