संवेदनाओं का मीडियाकारण: नकारात्मकता से अपने व् अपने बच्चो के रिश्ते कैसे बचाएं ?

अभी हाल में खबर आई
की मुंबई की एक वृद्ध माँ का बेटा जब डेढ़ साल बाद आया तो उसे माँ का कंकाल मिला |
खबर बहुत ह्रदय विदारक थी | जाहिर है की उसे पढ़ कर सबको दुःख हुआ होगा | फिर सोशल मीडिया पर ऐसी
पोस्टों की बाढ़ सी आ गयी | जहाँ कपूत बेटों ने अपने माँ – बाप को तकलीफ दी हर माता
– पिता ऐसी  ख़बरों को पढ़ कर भयभीत हो गए | कहीं
न कहीं उन्हें डर लगने लगने  की उनका बेटा
भी कपूत न निकल जाए | कहीं उन्हें भी इस तरह की किसी दुर्घटना का शिकार न होना पड़े


इस भय के आलम में किशोर या युवा होते बच्चों पर माता – पिता ताना मार ही देते
हैं ,” आज कल की औलादों से कोई उम्मीद नहीं है “, सब कपूत निकलेंगे “ , अरे , इनके
लिए दिन रात कमाओ यही बुढापे में नहीं पूंछने वाले | “



क्या हम कभी सोंचते
हैं की ऐसा कहते समय हमारे बच्चों के दिल पर क्या असर पड़ता होगा ?
शायद नहीं , क्योंकि
हम अपने मन का काल्पनिक भय उन पर थोपना चाहते हैं | एक तरह से अपने बच्चे को आज से
ही बुरा बच्चा घोषित कर देना चाहते हैं ? क्या ये उसे सही संस्कार देना हुआ ? अगर
हम अपने बच्चे को दूसरों की ख़बरों के आधार पर पहले से ही प्रतीकात्मक रूप में ही
सही बुरा घोषित कर दें तो उनके मन में अपने लिए बुरा शब्द सुनने प्रति इम्युनिटी
विकसित  हो जाती है |भविष्य में उन्हें
बुरा कहा जायगा तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा |


                  ऐसी ही एक फिल्म थी “ बागवान “जिसमें
बेटे बुरे थे | फिल्म अक्सर टीवी पर आती ही रहती है | एक बार अपने किशोर होते बेटे
के साथ देख रही थी | बेटा बार – बार यह कह रहा था की मम्मी मैं बड़ा होकर ऐसा नहीं
बनूँगा | जाहिर है वो कहीं न कहीं हर्ट फील कर रहा था और कहना चाहता था की मम्मी
हर बेटा ऐसा नहीं होता | पर मेरे मन में फिल्म की नकारात्मकता भरी थी | दो दिन बाद
किसी बात पर मैंने उसे डांटते हुए कहा ,” बड़े होके  तो तुम्हें पूँछना नहीं है हम
लोगों को अभी सारा दिन मम्मी ये मम्मी वो कह कर सेवा करवाए रहो | सासू माँ हम
लोगों की बात सुन रहीं थी | उसके जाने के बाद मुझ से बोली ,” बच्चों को हमेशा
अच्छे बच्चों की नजीर दिया करो | बल्कि ये कहा करो , फिल्म में चाहें जो दिखाया हो पर “ जब बुढापे में हमारे हाथ –
पाँव थकने लगेंगे तो हम कहाँ जायेंगे , तुम्हारे साथ ही तो रहेंगे |जिससे बच्चे
मानसिक रूप से तैयार रहे की माता – पिता  उनके साथ रहेंगे |

मुझे याद आया की जब
मैं विवाह के बाद ससुराल आई थी तो सासू माँ मुझे हर अच्छी बहू के किस्से सुनाया करती
थी | हालांकि मैंने शादी से पहले बुरी बहुओं के किस्से सुने थे | पर उन्होंने मुझे
एक भी ऐसा किस्सा नहीं सुनाया | मुझे लगा , शायद यहाँ कोई बुरी बहू है ही नहीं  सब अच्छी बहुएं हैं तो मुझे भी अच्छी ही बनना
चाहिए | यानी की बुरी बहू बनने का ऑप्शन ही मेरे पास से खत्म हो गया | 



बात हंसी की
जरूर लग सकती है पर हम सब या कम से कम ९५ प्रतिशत लोग सोशल नॉर्म  से प्रभावित
होते हैं | व् उसी दायरे में रहना चाहते हैं | समाज से अलग – थलग छिटका  हुआ या बुरी मिसाल बन कर नहीं | इसमें वो
सुरक्षित महसूस करता है |इसे सामाजिक दवाब भी कह सकते हैं पर इसी से हमारा व्यवहार
संतुलित रहता है | जिसे हम संस्कार कहते हैं |  याद करिए की दादी नानी की कहानियाँ भी तो ऐसी  ही थी | की बुराई पर अच्छाई की जीत वाली | बुरा
व्यक्ति चाहें जितना रसूख वाला हो पर अंत में बुराई पर अच्छाई की ही जीत होती थी |
ये कहानियाँ बचपन से ही बच्चों को अच्छा बनने की ओर प्रेरित करती थी |  

                              क्या आपको नहीं लगता की ये गलती तो हमारी
पीढ़ी से हो रही है | हम बच्चों को शुरू से ही कहते रहते हैं की तुम चाहें जहाँ रहो
हम दोनों तो यहीं रहेंगें | यानी हम शुरू से ही बच्चों को अपनी जिम्मेदारी से आज़ाद
कर देते हैं | जब ये बच्चे बड़े होते हैं तो वो मानसिक रूप से तैयार होते हैं की
उन्हें तो अकेले अपने भावी परिवार के साथ रहना है | व् माता – पिता को अलग रहना हैं |
ऐसे में शारीरिक अक्षमताओं के चलते जब उन पर अचानक माता – पिता की जिम्मेदारी आती
है तो उन्हें बोझ लगने लगता है | 



ये संवेदनाओं के अति मीडियाकरण का नकारात्मक
प्रभाव है | जहाँ हम बुरी खबरें देखते हैं | उन्हें ही 100 % बच्चों का  सच मान लेते हैं | खुद तो भय ग्रस्त होते ही हैं
अपने बड़े होते बच्चों को बार – बार यह अहसास दिलाते हैं की पूरा समाज बुरा हो गया
है |इसका उल्टा असर उसके मन पर पड़ता है की जब सब बुरे हो गए हैं तो उसके बुरा हो
जाने में कोई बुराई नहीं है |यह बात सिर्फ हम अपने बच्चों से ही नहीं कहते | गली
मुहल्ले सड़क और अब तो सोशल मीडिया हर जगह कहते हैं | एक नकारात्मक वातावरण बनाते
हैं |  चाहते न चाहते हुए भी हम हम बड़े हो
कर बुरे निकल जाने वाले बच्चों के प्रतिशत में इजाफा कर देते हैं |

जरूरी है जब भी ऐसी
खबरे आये | हम अपने बच्चों के साथ ( खासकर किशोर बच्चे )  ये खबर शेयर करते समय इस बात का ध्यान रखें की
साथ ही उन्हें अच्छे बच्चों का भी उदहारण दें | बताये की अभी जमाना इतना खराब नहीं
हुआ है | साथ ही उन पर पूर्ण विश्वास व्यक्त करना न भूले | हामारा यह विश्वास हमारे
बच्चों को संस्कारों से  विमुख नहीं होने
देगा | 



वंदना बाजपेयी 


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2 thoughts on “संवेदनाओं का मीडियाकारण: नकारात्मकता से अपने व् अपने बच्चो के रिश्ते कैसे बचाएं ?”

  1. वंदना जी, बिलकुल सही कहा आपने। मीडिया हर बात ज्यादातर नकारात्मक रूप में ही पेश करता है। इससे लोगो के मन में भी नकारात्मकता घर कर जाती हैं। हम हर रिश्ते को शंका की नजर से देखते हैं। यदि एक बेटा खराब निकला तो हर बेटा खराब नही हो सकता। सही नजरिया पेश करती पोस्ट।

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