आस्थाएं तर्क से तय नहीं होतीं







दुर्गा अष्टमी पर विशेष – आस्थाएं तर्क से तय नहीं होती 


            आज दुर्गा अष्टमी है | ममतामयी माँ दुर्गा शक्ति
स्वरूप हैं | एक तरफ वो भक्तों पर दयालु हैं तो दूसरी तरफ आसुरी प्रवत्तियों का
संहार करती हैं | वो जगत माता हैं | माँ ही अपने बच्चों को संस्कार शक्ति और ज्ञान
देती है | इसलिए स्त्री हो या पुरुष सब उनके भक्त हैं | वो नारी शक्ति व् स्त्री
अस्मिता का प्रतीक हैं | जो अपने ऊपर हुए हमलों का स्वयं मुंह तोड़ जवाब देती है | दुर्गा
नाम अपने आप में एक मंत्र है | जो इसका उच्चारण करते हैं, उन्हें पता है की
उच्चारण मात्र से ही शक्ति का संचार होता है | नवरात्रि इस शक्ति की उपासना का
पर्व है |



             अभी पिछले दिनों कुछ पोस्ट ऐसी
आयीं, जिनमें माता दुर्गा के बारे में अभद्र शब्दों का इस्तेमाल करा गया | माता
दुर्गा के प्रति आस्थावान आहत हुए | इनका व्यापक विरोध हुआ |ये एक चिंतन का विषय
है | क्योंकि

 *ये आस्था पर प्रहार तो है ही माँ दुर्गा के लिए
अभद्र शब्दों का प्रयोग करने वाले स्त्री विरोधी भी हैं |ये एक सामंतवादी सोंच हैं
|जिसका विरोध करना ही चाहिए |






* सोंचने वाली बात
हैं की वो माँ दुर्गा को मिथकीय करेक्टर  कह
रहे हैं | अफ़सोस मिथकीय हो या रीयल, ये जहर उगलने वाली गालियाँ स्त्री के हिस्से
में आई हैं|


* आस्थाएं तर्क से
परे होती हैं | ये सच है की आदिवासियों का एक समुदाय महिषासुर  की पूजा करता है |और इस पर किसी को आपत्ति भी
नहीं है | होनी भी नहीं चाहिए |मुझे अपने पिता व् पति की तबादले वाली नौकरी होने
के कारण कई आदिवासी जातियों से मिलने बात करने का अवसर मिला | कई घरों में काम
करने वाले भी थे | उन सब के अपने अपने इष्ट देवता हैं  | सब महिसासुर की पूजा नहीं करते हैं  | कई दुर्गा माँ की आराधना भी करते हैं |



*  परन्तु बड़े खूबसूरत तरीके से अपनी बात को न्याय संगत कहने के लिए तर्क गढ़े जा रहे हैं | इन तर्कों को गढ़ने की शुरुआत  कहाँ से हुई पता नहीं | पर आम जनता के सामने इसका
खुलासा जे एन यू-स्मृति इरानी प्रकरण के बाद हुआ | एक जनजातीय समुदाय में पूजे
जाने वाले महिसासुर को न सिर्फ समस्त जनजातियों, आदिवासियों और द्रविड़ों के मसीहा
के रूप में स्थापित किया जा रहा है | क्या इसे “मेकिंग ऑफ़ न्यू गॉड” की संज्ञा में
रखा जाए ? पर क्यों ? कहीं ये अंग्रेजों की कुटिल “डिवाइड एंड रूल” की तरह किसी
राजनैतिक पॉलिसी का हिस्सा तो नहीं | इसके लिए दुर्गा का चयन किया गया | जिन्हें पूरब,
पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में व्यापक मान्यता मिली है | समझना होगा की क्या इसके पीछे
हमें वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने की साजिश है|पूजा से किसी को आपत्ति नहीं
है,सत्ता के खेल से आपत्ति है |





*पुराणों को मिथकीय बता
कर कुछ अन्य ग्रंथों का नाम दिया लिया जा रहा है | या यूँ कहें सबूत के रूपमें पेश
किया जा रहा है | सबूत कैसा ? अगर एक मिथकीय है तो क्या दूसरा मिथकीय नहीं हो सकता
|वही लोग जो  आज की खबर पर भरोसा नहीं करते | हर खबर को  वामपंथी और दक्षिण पंथी चश्मे से देखते हैं  |वही आज पुराने सबूत ले कर लड़ रहे हैं या लडवा रहे हैं |उन्हें आस्था से मतलब नहीं उन्हें जीतना हैं | और जीतने के लिए हद दर्जे की गन्दी भाषा तक जाना है |किसलिए ?  क्या पता आज कोई एक पुस्तक छपे की हिटलर , मुसोलिनी महान  संत विचारक थे | जिसे आज खारिज कर दिया जाए |
क्योंकि हम आज का सच जानते हैं | पर आज से हज़ार साल बाद तर्क के रूप में पेश हो | कुछ
को जोश आये , कुछ होश खो दें | पर क्या आस्थाएं कभी तर्क से सिद्ध हो सकती हैं ?






* मिथक ही सही शाक्य
 समुदाय की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा आज हर
समुदाय में पूजनीय क्यों हैं ? क्या है देवी दुर्गा में की शाक्य समुदाय की होते
हुए भी हर हिन्दू उनका पूजन करता है | ये एक स्त्री की शक्ति है |जो डरती नहीं है  अपने ऊपर हुए आक्रमण का स्वयं उत्तर देती है |
इसका देवासुर  संग्राम से कुछ लेना देना न
भी हो  तो भी दुर्गा हर स्त्री और हर कमजोर
में ये शक्ति जगाती हैं की अन्याय के विरुद्द हम अकेले ही काफी हैं |  

    
अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता में हर कोई कुछ भी लिख सकता है | उसका विरोध भी हो सकता है | “मेकिंग
ऑफ़ गॉड” भी जारी है,तर्कों का खेल भी जारी है | इन सब के बीच मुझे ओशो की
पंक्तियाँ याद आ गयीं |


                ओशो इस पर बहुत ख़ूबसूरती से
लिखते हैं की | जो धर्म  ग्रंथों को आधार
बना कर लड़ते हैं | उनमें से कोई धार्मिक नहीं है | क्योंकि धर्म ग्रंथों की भाषा
काव्य की भाषा हैं | काव्य की भाषा और तर्क की भाषा  में फर्क है | एक बहुत खूबसूरत उदहारण है | एक
पति कवि था और पत्नी वैज्ञानिक | शादी के बाद एक दिन पति ने बड़े ही प्रेम से पत्नी
से कह दिया, “तुम तो बिलकुल चंद्रमा की तरह हो” | बात पत्नी को चुभ गयी | उसने
झगड़ना शुरू कर दिया,“ तुम मुझे चंद्रमा कैसे कह सकते हो , वहां तो आदमी न सांस ले
सकता है व् प्यास बुझा सकता है अरे वो तो सीधा चल भी नहीं सकता | कवि  पति सकते में आ गए |ऐसा मैंने क्या कह दिया जो
इसे बुरा लग गया | और शादी टूट गयी | दोनों ही अपनी जगह सही थे और दोनों  गलत थे |


          चंद्रमा से तुलना काव्य की भाषा है |
इसका अर्थ है पत्नी को देख कर वही आनंद व् शांति प्राप्त होती है जो चंद्रमा को
देख कर होती है | तर्क ने चंद्रमा को चंद्रमा की तरह ही समझा | सभी धर्मों के धर्म
ग्रन्थ काव्य की भाषा में हैं | जो उन्हें अक्षरश : वैसा ही समझते हैं व् जो
उन्हें तर्क की भाषा में पढ़ते हैं | दोनों ही सत्य को नहीं  जानते | सत्य को नहीं जानना ही विवाद का कारण
हैं |

             क्योंकि आस्थाएं तर्क से तय नहीं
होती | 

आस्थाएं हमारा संबल हैं हमारा विश्वास हैं | जो सच्चा आस्थावान है | वो हर
आस्था की इज्ज़त करता है | अपनी आस्था को श्रेष्ठ साबित करने की चेष्टा नहीं करता |
क्योंकि उसमें अहंकार है , जीतने की इच्छा है | आस्थावान के लिए आस्था का अभिपाय
प्रेम या समर्पण होता है तर्क नहीं |


                 आज दुर्गा अष्टमी पर प्रार्थना
है हे माँ ये सिर् हर मंदिर मस्जिद , गुरुद्वारे  पर सामान रूप सामान रूप से झुके |

आप सभी को
दुर्गाष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं


 ©वंदना बाजपेयी 

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2 thoughts on “आस्थाएं तर्क से तय नहीं होतीं”

  1. कवि पति और वैज्ञानिक पत्नी के उदाहरण के द्वारा आपने बहुत खूबसूरती से समझाया कि भले ही सभी धर्मों का आधार अलग – अलग हो पर इनके प्रति आस्था ही हमारा संबल है | जो लोग सच में आस्थावान होते है वह किसी दूसरे की आस्था को गलत नहीं कह सकते |बहुत सुन्दर प्रस्तुति | धन्यवाद वंदना जी |

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