प्रायः ऐसी घटनाएँ देखने-सुनने में आती हैं कि किसी नौकर से कोई चीज़ टूट गई या कुछ नुक़सान हो गया तो मालिक द्वारा उसको अमानवीय यातनाएँ दी गईं। पिछले दिनों ऐसे मामले भी प्रकाश में आए हैं कि ऐसी यातनाओं के कारण नौकर या नौकरानी की मृत्यु तक हो गई। घर के बच्चे विशेष रूप से बहुएँ भी इस प्रकार की यातनाओं का शिकार होती देखी गई हैं। इस प्रकार की घटनाएँ न केवल गाँवों और क़स्बों तक सीमित हैं अपितु बड़े-बड़े शहरों और महानगरों तक में ऐसी घटनाएँ घटित होना आम बात है। इस प्रकार की घटनाएँ न केवल अशिक्षित अथवा अल्पशिक्षित लोगों द्वारा अंजाम दी जाती हैं अपितु समाज के शिक्षित और आज की भाषा में कहें तो प्रोफेशनल और समृद्ध लोगों द्वारा भी ऐसी घटनाओं को अंजाम देना साधारण-सी बात है और इसमें महिलाएँ भी पीछे नहीं हैं।
वस्तुओं से अत्यधिक प्यार रिश्तों व् मानवता के लिए खतरा
माना कि एक टी सैट या क्रिस्टल का गिलास बहुत क़ीमती है लेकिन एक समृद्ध व्यक्ति के लिए ये क्या मायने रखता है और फिर क्या एक कप, प्लेट या गिलास की कीमत एक व्यक्ति की जान से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है? कदापि नहीं। फिर क्यों ऐसा होता है कि हम थोड़े से आर्थिक नुक़सान के लिए किसी की जान लेने से भी नहीं हिचकिचाते? किसी की जान लेने का अर्थ है ज़िंदगी भर जेल की सलाखों के पीछे सड़ना या फाँसी। क्या कारण है कि हम विवेक से काम न लेकर दूसरों का और स्वयं का जीवन संकट में डाल देते हैं?
जीवन को संपूर्णता से जीने के लिए ज़रूरी है कि व्यक्ति वस्तुओं का उपयोग करे और मनुष्यों से प्रेम न कि वस्तुओं से प्रेम और मनुष्य का उपयोग। आज व्यावहारिक स्तर पर इसका उलट हो रहा है। मनुष्य भौतिक वस्तुओं से तो प्रेम करता है लेकिन मनुष्य से नहीं। भौतिक वस्तुओं के प्रति आकर्षण अथवा लगाव या प्रेम का प्रमुख कारण है मनुष्य की परिग्रह-वृत्ति या संग्रह करने की आदत। व्यक्ति जिन वस्तुओं का संग्रह करता है उनके प्रति मोह पैदा होना स्वाभाविक है। इसी मोह के वशीभूत जब वस्तु उसके हाथ से निकलती है तो उसे पीड़ा होती है। पीड़ा का कारण वस्तु के क़ब्ज़े से महरूम या वंचित होना है। अनेक ऐसी वस्तुएँ हैं जिनको व्यक्ति प्रयोग में तो लाता है पर उन वस्तुओं पर उसका क़ब्ज़ा नहीं होता। जिन वस्तुओं पर व्यक्ति क़ब्ज़ा नहीं कर सकता उनके लिए तो वह नहीं लड़ता। इस भौतिकवादी युग में पैसा या उससे प्राप्त वस्तु ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है और जब उससे वंचित होना पड़ता है तो बरदाश्त नहीं होता और इस असहिष्णुता के भयंकर परिणाम होते हैं।
अपरिग्रह अपनाने के लिए जरूरी है परिग्रह को समझना
परिग्रह या संग्रह वृत्ति को जानने के लिए योग को जानना ज़रूरी है। योग के आठ अंग है जो क्रमशः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा, ध्यान तथा समाधि हैं। योग मात्र कुछ आसनों या सांसों की क्रियाओं का नाम नहीं हैं। यम-नियम से लेकर समाधि तक की यात्रा ही वास्तविक योग है। योग की शुरूआत होती है यम से। यम की परिभाषा है: ‘‘अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः’’ अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का पालन ही यम है। अपरिग्रह यम का अनिवार्य अंग है। जीवन में यम का समावेश और यम में अपरिग्रह का समावेश नहीं है तो कैसा योग? इनके अभाव में आसन, प्राणायाम तथा ध्यान व योग के अन्य अंग निरर्थक हैं।
अपरिग्रह से तात्पर्य है परिग्रह या वस्तुओं का संग्रह न करना या कम से कम आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना। वस्तुएँ नहीं होंगी तो कोई क्लेश नहीं होगा। वस्तुओं के अभाव में न चोरी का भय, न खो जाने की आशंका तथा न पुरानी होकर बेकार हो जाने की चिंता। जीवन में जितना अपरिग्रह का पालन किया जा सकेगा व्यक्ति उतना ही अहिंसक तथा सत्य के निकट हो सकेगा। अहिंसा और अपरिग्रह तो मानो एक ही सिक्के के दो पहलू हों। अपरिग्रह है तो हिंसा नहीं। परिग्रह वृत्ति के कारण ही हिंसा और उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं।
जो जितना अधिक संग्रह करता है वह उतना ही भयभीत भी है। भयभीत व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता और न चीजों का सही इस्तेमाल ही। अपरिग्रह भय से मुक्त कर व्यक्ति से प्रेम करना तथा वस्तुओं का सही इस्तेमाल करना भी संभव बनाता है। अपरिग्रह के साथ-साथ एक चीज़ और है जो महत्वपूर्ण है और वह है उपयोग की जाने वाली वस्तुओं की साधारणता। वस्तुएँ जितनी साधारण होंगी मनुष्य उतना ही सुखी होगा। चाट खाई और पत्ता फैंक दिया या चाय पीकर कुल्हड़ फोड़ दिया। क़ीमती चीज़ों के उपयोग के कारण कई बार बड़ी हास्यास्पद स्थिति हो जाती है। आपसी संबंध बिगड़ जाते हैं या तनावपूर्ण हो जाते हैं। ऐसे में प्रेम कैसे संभव है? प्रेम महँगी वस्तुओं में नहीं प्रेम तो वस्तुओं से परे है। मन का भाव है। अभाव में जितना प्रेम प्रस्फुटित होता है उतना समृद्धि में नहीं। ओ. हेनरी की कहानी ‘उपहार’ तो आपने अवश्य पढ़ी होगी जिसमें डेला और जिम अभावग्रस्त होते भी हुए एक दूसरे को कितना प्यार करते हैं।
अपरिग्रह अपनाने के लिए खुद ही खींचनी होगी सीमा रेखा
आज मनुष्य की आवश्यकताएँ इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि संग्रह के बिना काम नहीं चल सकता। उपदेश देना सरल है लेकिन संग्रह का पूर्ण त्याग अथवा पूर्ण अपरिग्रह असंभव है फिर भी कहीं न कहीं तो सीमा रेखा खींचनी ही होंगी। सीमा रेखा के साथ-साथ भौतिक वस्तुओं के प्रति अपनी सोच अथवा दृष्टिकोण में परिवर्तन करना भी अनिवार्य है। भौतिक वस्तुओं के प्रति उचित सोच का निर्माण होने पर ही व्यक्ति के प्रति उचित सोच का निर्माण संभव है। वस्तुतः हमारी सोच अथवा हमारा दृष्टिकोण ही सबसे महत्वपूर्ण है। हमारा दृष्टिकोण ही हमारी सफलता-असफलता अथवा सुख-दुख के स्तर का निर्माण और निर्धारण करता है। सकारात्मक सोच ही हर समस्या का समाधान है। वस्तुओं और मनुष्य के प्रति अपेक्षित उचित दृष्टिकोण अनिवार्य है।
एक प्रश्न ये भी उठता है कि यदि सभी लोग अपरिग्रह वृत्ति को अपना लें तो दुनिया के अधिकांश कारोबार ठप्प हो जाएंगे। भौतिक प्रगति के साथ-साथ विज्ञान और टेक्नोलाॅजी तथा शिल्प और कलाओं का विकास भी रुक जाएगा। कोई भी उन्नति वस्तुतः मनुष्य के लिए है मनुष्य उन्नति के लिए नहीं है। उन्नति के लिए मनुष्य को पीड़ित नहीं किया जा सकता। विशेष रूप से कुछ विशिष्ट व्यक्तियों की उन्नति के लिए अन्य सामान्य जनों को तो किसी भी हाल में पीड़ित नहीं किया जा सकता। किसी वस्तु के टूट जाने या अन्य नुक़सान हो जाने पर मनुष्य से उसको पूरा करना किसी भी तरह न्यायोचित नहीं। यदि मनुष्य वस्तु के बराबर भी मान लिया जाए तो वस्तु के टूटने पर मनुष्य को तोड़ना या पीड़ा पहुँचाना या इतनी यातना देना कि वह दम तोड़ दे कहाँ की समझदारी है? एक चीज़ टूट गई तो क्या उसके बराबर वैसी ही दूसरी चीज़ या उससे अधिक क़ीमती चीज़ थोड़े ही तोड़ कर फैंक देंगे। फिर मनुष्य तो कोई भौतिक वस्तु भी नहीं। मनुष्य तो सृष्टि की अनुपम कृति है। यदि आप भौतिक वस्तुओं से प्रेम करते हैं तो मनुष्य से तो बेइंतिहा प्रेम होना चाहिये।
यदि आप संग्रह का त्याग नहीं कर सकते, परिग्रह से बच नहीं सकते तो संग्रहित वस्तुओं के प्रति अपने मनोभावों में परिवर्तन अवश्य करें। चीज़ के नष्ट हो जाने पर कम से कम मनुष्य से उसकी क्षतिपूर्ति करने का प्रयास न करें। संसार की हर वस्तु नश्वर है। नश्वर वस्तुओं से कैसा मोह? दुनिया के बड़े-बड़े संग्रहालयों में इतने क़ीमती साफ-सुथरे साबुत बर्तन और दूसरी वस्तुएँ नहीं जितनी टूटी-फूटी वस्तुएँ और बर्तनों के टुकड़े। इसका ये अर्थ नहीं कि हम चीज़ों के टूटने पर खुशी मनाएँ अथवा वस्तुओं को सँभाल कर न रखें लेकिन वस्तुओं के नष्ट हो जाने पर इतना दुख भी किस काम का जो किसी की जान ले ले और उसके बदले अपनी जान को संकट में डाल दे।
मानव मात्र प्रेम ही खोलता है अपरिग्रह के द्वार
मनुष्य जिससे प्रेम करता है अपना सर्वस्व उसे सौंप देता है। तन, मन और धन से समर्पित हो जाता है। यदि हम मनुष्य से प्रेम करना सीखें तो अपरिग्रह की वृत्ति का भी विकास होगा। अपरिग्रह से अहिंसा का पालन संभव होगा। आज हम पूर्ण रूप से अपरग्रिह का पालन नहीं कर सकते तो भी मनुष्य के प्रति प्रेम तथा वस्तुओं के उपयोग के मध्य संतुलन स्थापित करना अनिवार्य है अन्यथा उपभोग की वस्तुएँ ही हमारे लिए सबसे बड़ी समस्या बन जाएँगी। संतुलन अथवा उचित दृष्टि के अभाव में जिस आनंद के लिए वस्तुओं का उपयोग करते हैं उस आनंद से ही वंचित रह जाएँगे। जीवन को आनंददायक बनाने के लिए, उसे संपूर्णता प्रदान करने के लिए ज़रूरी है कि हम वस्तुओं का उपयोग करना सीखें तथा मनुष्य से प्रेम करना सीखें न कि वस्तुओं से प्रेम और मनुष्य का उपयोग।
सीताराम गुप्ता
पीतमपुरा,
दिल्ली-110034
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बहुत अच्छी ज्ञानवर्धक जानकारी