जीवन के हर मोड़ पर कोई न कोई विषमता, कोई न कोई अभाव मुँह उठाए ही रहता है। किसी का बचपन संघर्षों में गुज़रता है तो किसी की युवावस्था। कोई अधेड़ावस्था में अभावों से जूझ रहा है तो कोई वृद्धावस्था में एकाकीपन की पीड़ा का दंश भोगने को विवश है। हम सबका जीवन किसी न किसी मोड़ पर कमोबेश असंख्य दूसरे अभावग्रस्त अथवा संघर्षशील लोगों जैसा ही होता है। मेरे ही जीवन में अभावाधिक्य रहा है अथवा मैंने ही जीवन में सर्वाधिक संघर्ष किया है और ऐसी परिस्थितियों में मेरे स्थान पर दूसरा कोई होता तो वो सब नहीं कर सकता था जो मैंने किया यह सोचना ही बेमानी, वास्तविकता से परे व अहंकारपूर्ण है।
कई लोगों का कहना है कि यदि उनके जीवन में ये तथाकथित बाधाएँ अथवा समस्याएँ न आई होतीं तो उनका जीवन कुछ और ही होता। प्रश्न उठता है कि यदि जीवन ऐसा नहीं होता तो फिर कैसा होता? यहाँ एक बात तो स्पष्ट है कि यदि परिस्थितियाँ भिन्न होतीं तो जीवन भिन्न होता लेकिन ऐसा नहीं होता जैसा आज है। लेकिन जैसा आज है क्या वह कम महत्त्वपूर्ण अथवा महत्त्वहीन है? क्या ऐसे जीवन की कोई सार्थकता अथवा उपयोगिता नहीं? क्या संघर्षमयता स्वयं में जीवन की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं? इसका उत्तर तो हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।
जानिये कैसे दुख का मूल नहीं, दुख से बाहर आने का प्रयास है संघर्ष
संघर्षों से जूझनेवाला बहादुर तथा पलायन करने वाला कायर कहलाता है। अभाव और संघर्ष हमारे जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा होते हैं अतः हमारे चरित्र निर्माण अथवा चारित्रिक विकास में बड़े सहायक होते हैं। जो अभावों तथा संघर्षों की आँच में तपकर बड़े होते हैं अथवा निकलते हैं वह उन लोगों के मुक़बले में महान होते हंै जिन्होंने जीवन में कोई संघर्ष किया ही नहीं। अभाव और संघर्ष जीवन की गुणवत्ता को नए आयाम प्रदान करते हैं। संघर्षशील व्यक्ति अपने जीवनकाल में अथवा संघर्ष के बाद के शेष जीवन में बिना किसी भय के अडिग रह सकता है जबकि संघर्षविहीन व्यक्ति बाद के जीवन में अभाव अथवा दुख के एक हलके से आघात अथवा झोंके से धराशायी हो सकता है। जिनके जीवन में अभाव अथवा संघर्ष की कमी होती है उन्हें आगे बढ़ने के लिए अथवा स्वयं का विकास करने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता है जिसकी उन्हें आदत नहीं होती।
आभाव देते हैं संघर्ष की प्रेरणा
वास्तविकता ये भी है कि अभावों में व्यक्ति जितना संघर्ष करता है सामान्य परिस्थितियों में कभी नहीं करता। अभाव एक तरह से व्यक्ति के उत्थान के लिए उत्प्रेरक का कार्य करते हैं, उसके विकास की सीढ़ी बन जाते हैं। अभावों से जूझने वाला संघर्षशील व्यक्ति अधिक परिश्रमी ही नहीं अपितु अधिकाधिक सहृदय और संवेदनशील भी होता है। परिस्थितियाँ एक संघर्षशील व्यक्ति में स्वाभाविक रूप से ऐसे गुण पैदा कर देती हैं। संघर्ष चाहे स्वयं के लिए किया जाए अथवा दूसरों को आगे बढ़ाने व उनके हितों की रक्षा करने के लिए संघर्ष के उपरांत सफलता मिलने पर ख़ुशी होती है। यही ख़ुशी हमारे अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि में सहायक होती है। हमारी ख़ुशी का हमारे स्वास्थ्य से और स्वास्थ्य का हमारी भौतिक उन्नति से सीधा संबंध है। संघर्ष व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है।
सफ़र में थोड़ी बहुत दुश्वारियाँ न हों तो घर पहुँचकर साफ़-सुथरे बिस्तर पर आराम करने का आनंद संभव नहीं। इसी प्रकार अभाव की पूर्ति होने पर जो आनंदानुभूति होती है वह अभाव की अनुभूति के बिना संभव नहीं। अभाव व संघर्ष द्वारा ही यह संभव है। संघर्षों का नाम ही जीवन है। जीवन में संघर्ष न हों तो जीने का मज़ा ही जाता रहता है। उर्दू शायर असग़र गोंडवी तो ज़िंदगी की आसानियों को ज़िंदगी के लिए सबसे बड़ी बाधा मानते हुए कहते हैं:
चला जाता हूँ हँसता खेलता मौजे-हवादिस से,
अगर आसानियाँ हो ज़िंदगी दुश्वार हो जाए।
सघर्ष हैं आनंद का मार्ग
जीवन में आनंद पाना है तो स्वयं को संघर्षों के हवाले कर देना ही श्रेयस्कर है। संघर्ष रूपी कलाकार की छेनी आपके अस्तित्व रूपी पत्थर को तराशकर एक सुंदर प्रतिमा में परिवर्तित करने में जितनी सक्षम होती है अन्य कोई नहीं। मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ जीवन में विषम परिस्थितियों से उत्पन्न हालात को एक दूरदर्शी व्यक्ति के लिए उस्ताद या गुरू के तमाचे अथवा थप्पड़ की तरह मानते हुए कहते हैं:
अहले-बीनिश को है तूफ़ाने-हवादिस मक्तब,
लत्मा-ए-मौज कम अज़ सीली-ए-उस्ताद नहीं।
हम स्वयं अपने जीवन को रोमांचक, चुनौतीपूर्ण और साहसी बनाने में कोई कसर बाक़ी नहीं रख छोड़ते। ख़तरों के खिलाड़ी कहलवाने में गौरव का अनुभव करते हैं। इससे हमें ख़ुशी मिलती है। लेकिन यदि हमें कोई चुनौती प्राकृतिक रूप से मिल जाती है तो उसे स्वीकार करने अथवा उसके पार जाने में दुविधा क्यों? अभावों तथा संघर्ष को अन्यथा मत लीजिए। उन्हें महत्त्व दीजिए। किसी भी चुनौती को स्वीकार किए बिना उसे जीतना और विजेता बनना असंभव है। संघर्ष हर जीत को संभव बना देता है।
संघर्ष दुख नहीं, दुख से बाहर आने का प्रयास होता है। दुख से बाहर आने का अर्थ है सुख, प्रसन्नता अथवा आनंद। संघर्ष आनंद का ही उद्गम है।
सीताराम गुप्ता,
दिल्ली
यह भी पढ़ें ………..
बहुत अच्छी प्रस्तुति
Thanks for sharing such a wonderful post