तुम्हें अपने शब्दों में ढाल कर अपनी डायरी के पन्नों में छुपा तो लूँ…
पर उन शब्दों में निहित भाव तुम्हें यकीनन नागवार गुजरेंगे ।
मेरे जुबान बेशक चुप रहते है
पर मेरे मन में जाने कितने सवाल टीस बनकर चुभतें है ।
मै वृक्ष सी कब तक तिराहे पर चौराहा बनकर निस्तब्ध पड़ी रहूंगी…
बिना मुसाफिर, बिना मंजिल जिसकी छाँव भी उदास कोई राहगीर की प्रतिक्षा में जड़ हो जाये ।
कहां मिलोगे… कब मिलोगे… पता नहीं,
ये असहज संवाद, बेवजह ठहाके
निराधार संबंध, और अस्थिर मनोभाव
क्यों, कैसे और किस लिये साथ लेकर जीना है ?
समझा पाओगे मुझे… ?
या सह पाओगे जब मैं तुमसे अपने कुछ अधिकार मांग लूँ?
तुम्हारे पुरुषत्व की प्रतिष्ठा और मेरे स्त्रीत्व की गरिमा
मैं कागज पर उतार तो दूँ,
पर फिर सवाल निजता की होगी
और मेैं एक तलवार के धार पर
यही सोचकर मैं कलम की स्याही कागज पर उडे़ल कर एक विकृत नासमझ सी आकृति बना देती हूँ ||
_________ साधना सिंह
गोरखपुर
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सच में बहुत सुंदर कविताएँ हैं👌
धन्यवाद स्वेता जी
खूबसूरत कविताएं।
धन्यवाद
बहुत सुन्दर कविता।