फर्क

                               

फर्क

सुधाकर बाबू का किस्सा पूरे  ऑफिस में छाया हुआ था | सुधाकर बाबू की अखबार के एक अन्य कर्मचारी से ठन  गयी थी | सुधाकर बाबू प्रिंटिंग का काम देखते थे और दीवाकर जी अखबार का पहला पेज डिजाइन करता थे  | सुधाकर बाबू की दिवाकर जी से कैंटीन में चाय समोसों के साथ गर्मागर्म बहस हो गयी |  यूँ तो दोनों की अपने -अपने पक्ष में दलील दे रहे थे | इसी बीच  सुधाकर बाबू ने दिवाकर जी पर कुछ  ऐसी फब्तियां कस दी कि दिवाकर जी आगबबबूला हो गए | तुरंत सम्पादक के कक्ष में जा कर लिखित शिकायत कर दी कि जब तक  सुधाकर बाबू उनसे माफ़ी नहीं मांगेंगे तब तक वो अखबार का काम नहीं संभालेंगे, छुट्टी ले कर घर पर रहेंगे | संपादक जी घबराए | दिवाकर जी पूरे दफ्तर में वो अकेले आदमी थे जो अख़बार का  पहला पेज डिजाइन करते थे | पिछले चार सालों  में उन्होंने एक भी छुट्टी नहीं ली थी | कभी छुट्टी लेने को कहते भी तो अखबार के मालिक सत्यकार जी उन्हें मना लाते |

सम्पादक जी ने हाथ -पैर जोड़ कर उन्हें हर प्रकार से मनाने की कोशिश की पर इस बार वह नहीं माने | अगर कल का अखबार समय पर नहीं निकल पाया तो लाखों का नुक्सान होगा | कोई और व्यवस्था भी नहीं थी |  उन्होंने सुधाकर जी को बुलाया | पर वो भी  माफ़ी मांगने को राजी न हुए | मजबूरन उन्हें बात मालिक तक पहुंचानी पड़ी | बात सुनते ही अखबार के मालिक ने आनन् -फानन में सुधाकर जी को बुलाया |

प्रायश्चित

इस बार सुधाकर जी भी गुस्से में थे | उन्होंने मालिक से कह दिया की बहस में कही गयी बात के लिए माफ़ी वो नहीं मांगेंगे | क्योंकि बहस तो दोनों तरफ से हो रही थी | दिवाकर जी को बात ज्यादा बुरी लग गयी तो वो क्या कर सकते हैं | आखिर उनकी भी कोई इज्ज़त है वो यूँही हर किसी के आगे झुक नहीं सकते | सत्यकार जी ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की |उन्होंने कहा कि आपसी विवाद में अगर किसी को बात ज्यादा बुरी लग गयी है तो आप माफ़ी मांग लें | दिवाकर जी यूँ तो कभी -किसी से माफ़ी माँगने को नहीं कहते |  उन्होंने सुधाकर  जी को लाखों के नुक्सान का वास्ता भी दिया |  पर सुधाकर जी टस से मस न हुए | उन्होंने इसे प्रेस्टीज इश्यु बना रखा था | उनके अनुसार वो माफ़ी मांग कर समझौता नहीं कर सकते |

दूसरा फैसला

अंत में सत्यकार जी ने सुधाकर जी से  पूंछा ,  ” आपकी तन्ख्य्वाह कितनी है ?

सुधाकर जी ने जवाब दिया – १५००० रुपये सर

सत्यकार जी बोले , मेरे ऑफिस का १५ ०००० करोंण का टर्नओवर हैं | पर मैं विवादों को बड़ा बनाने के स्थान पर जगह -जगह झुक जाता हूँ | शायद यही वजह है कि हमारे बीच  १५००० रुपये से १५००० करोंण का फर्क है |

देर शाम को दिवाकर जी अपनी टेबल पर बैठ कर अखबार का फीचर डिजाइन कर रहे थे और सुधाकर जी  टर्मीनेशन लैटर के साथ ऑफिस के बाहर निकल रहे थे | विवाद को न खत्म करने की आदत से उनके व्  सत्यकार जी के बीच सफलता का फर्क कुछ और बड़ा हो गया था |

बाबूलाल

लेखक

मित्रों एक कहावत है जो झुकता है वही उंचाई  पर खड़ा रह सकता है | छोटी -छोटी बात को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने वाले जीवन में बहुत ऊंचाई पर नहीं पहुँच पाते |

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1 thought on “फर्क”

  1. बहुत ही सुंदर सन्देश परक लघु कथा आदरणीय | सादर शुभकामनायें

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