अरक्षित

अरक्षित

अक्सर जब हम शोषित स्त्रियों की बात करते हैं तो हमारे जेहन में उन स्त्रियों का अक्स उभरता है जो गरीब है या माध्यम वर्ग से संबंध रखती है |पर क्या उच्च वर्ग की औरतें प्रताड़ित नहीं की जा रही है | ये अलग बात है कि उनका दर्द उनके पति की शान की चमक में चुंधियाई  आँखों को दिखता नहीं है | बड़े घरों की दास्ताने बाहर नहीं आती  | ऐसी  ही एक दास्ताँ  के मखमली पर्दे उतरती कहानी ….

कहानी -अरक्षित 






उनका घर इन-बिन वैसा
ही रहा जैसा मैंने कल्पना में उकेर रखा था|

स्थायी, स्वागत-मुद्रा
के साथ घनी, विपुल वनस्पति; ऊँची, लाल दीवारों व पर्देदार खुली खिड़कियाँ लिए वह बँगला
पूरी सड़क को सुशोभित कर रहा था|

“साहब घर पर नहीं
है,” अभी हम पहले फाटक पर ही थे, किएक साथ चार संतरियों ने अपनी बंदूकें अपने कंधों
पर तान लीं|

“हम तुम्हारे साहब
से नहीं, तुम्हारी मेमसाहब से मिलने आए हैं,” मैंअपनी पत्नी की ओट में खड़ा हो गया,
“हम उनके रिश्तेदार हैं|”

“क्या रिश्ता
बताएँगे, हुजूर?” सभी संतरियों ने तत्काल अपनी बंदूकें अपने कंधों से नीचे उतार
लीं और हमें सलाम ठोंक दिया|

“मेम साहिब की बहन
हैं,” मैंने पत्नी की ओर इंगित किया|

“हुजूर,” एक संतरी ने
हमारे लिए फाटक खोला तो दूसरे ने आगे बढ़कर मेरे हाथ का सूटकेस अपने हाथ में ले
लिया|

“आइए,” तीसरे संतरी
ने हमें दूसरे फाटक की ओर निर्दिष्ट किया|

“कौन है?” दूसरे
फाटक का संतरी अतिरिक्त रुखा व रोबदार रहा|

“मेम साहिब की बहन
हैं,” सामान उठाए हमारे साथ चल रहेसंतरी ने कहा|

“ये सही नहीं कह
रहीं,” दोसरे फाटक के संतरी ने सिर हिलाया, “मेम साहिब की एक ही बहन हैं और उनसे
हमारा खूब परिचय है….. वे खुद गाड़ी चला कर आती हैं, गहनोंऔर खुशबुओं से लक-दक
रहती हैं, ऐसे नहीं…..”

मेरी पत्नी का
चेहरा-मोहरा अति सामान्य है तथा वह अपने परिधान व केश-भूषा की ओर अक्षम्य लापरवाही
भी दिखाती है| उसे देखकर कोई नहीं जान सकता वह एक नौकरीशुदा कॉलेज लेक्चरर है|

“आप यह नाम अंदर
अपनी मेम साहिब को दिखा आएँ| फिर हमसे कुछ बोलना,” अपना नाम मुझे अपनी रेल टिकट पर
लिखना पड़ा| दूसरा कोई फ़ालतू कागज उस समय मेरे पास न रहा|
वे हमें एक रेल-यात्रा
के दौरान मिली थीं|

एयर-कंडीशण्ड स्लीपर
के कोच में पर्दे के उस तरफ जो चार सीटें रहीं, उनमें दो हमारी थीं और एक उनकी|

“आप शायद ऊपर की सीट पर जायेंगी?” , मोहक व् प्रभावशाली व्यक्तित्व
वाली महिलाओं पर भड़कना मेरी पत्नी अपना परम कर्तव्य मान कर चलती है, “नीचे की
दोनों सीटें हमारी हैं| “
 


उस दिन हमारी गाड़ी
बहुत लेट हो गयी थी और हमारे स्टेशन पर शाम के सात बजे पहुँचने के बजाय रात के दस बजे
पहुँची | दो दिन बाद पत्नी के भये की शादी थी और हमनें अपनी सीटें बहुत पहले बुक करवा
रखीं थीं |


“मैं अपना
खाना खत्म कर लूँ ?” उनके चेहरे पर एक भी शिकन न पड़ीं थी और वो पूरे चाव व् इत्मीनान
के साथ अपने मुँह में नियंत्रणीय निवाले भेजती रहीं 

“जरूर, जरूर,” मैंने
तपाक के साथ कहा था|

एक ओर जहाँ सावकाश
वर्ग के पुरुष मुझे गहरे कोप में भर देते हैं, वहीं सावकाश वर्ग की स्त्रियाँ मुझे
शुरू से ही तरंगित करती रही हैं|

बचपन से ही मैंने
अपने आस-पास की स्त्रियों को ‘बहुत जल्दी में’ पाया है|

‘फुरसत’ से उन सबका
परिचय बहुत कम रहा है| बचपन में माँ और बहनों को जब देखा, “जल्दी में’ ही देखा|
मेरी पत्नी की जल्दी तो अकसर उतावली और हड़बड़ी में बदल जाती है|

“आप बहुत कृपालु
हैं,” वे हँसने लगी थीं|

“आपकी खातिर नहीं,
अपनी खातिर,” मैंने चुटकी ली थी, “हमनेअभी खाना नहीं खाया है| भूखे पेट बिस्तर
बिछाने से बच गए|”

“आप अपना टिफिन
दिखाइए,” वे एक बच्ची की मानिंद मचल ली थीं, “देखूँ, क्या-क्या छीना जा सकता है?”

उनके टिफिन के महक
रहे पनीर के उन बड़े टुकड़ों में से जब कुछ टुकड़ों की मेरी पत्नी कीऔर  मेरी प्लेट
में आ जाने की संभावना उत्पन्न हुई तो खीझ रही पत्नी की खीझ तुरन्त भाग ली|

पूरी यात्रा की अवधि
में मैंने पाया अपनी बात कहने का उनके पास अपना ही एक विशेष परिमाण व मापदंड रहा|
अपने श्रोता के अनुरूप वे एक मर्यादित सीमा के भीतर नियमित, आयोजित व सुव्यवस्थित
बोल ही मुख से उचारती रहीं| उनके शब्द देववाणी सदृश वेदवाक्य न भी रहे, फिर भी
उनके मुख से जो भी सुनने को मिला, सहज में ही, उन शब्दों ने सुनिश्चित रूप से एक
असाधारण सोद्देश्यता तथा अलंकरण अवश्य ही धारण कर लिया|
“यह मेरे पति का
कार्ड है,” जब हम लोग अपने स्टेशन पर उतरे थे तो उन्होंने हमें अपने न्यौते के साथ
एक उत्साही मुस्कान दी थी, “मुझे मिलने जरूर आइएगा…..”

“अचरज, सुखद अचरज!”

उत्कण्ठित व सदय मुद्राके
साथ हमारे सामने प्रकट होने में उन्होंने अधिक समय न लिया|
“आप यहाँ बैठिए,”
उन्होंने हमारे लिए अपना बड़ा हॉल खुलवाया, “मैं अभी चाय का प्रबंध देखकर आती हूँ|”

“मैंचाय नहीं पीता,”
पनीर के वे टुकड़े मैं अभी तक न भूला था, “कॉफ़ी मिलेगी क्या?”

“क्यों नहीं?” वे
गर्मजोशी के साथ मुस्कुराईं, “अभी हाजिर हुई जाती है|”

पत्नी की दिशा में
देख कर मैं हँसने लगा| उधर घर पर जब भी कोई मेहमान आता है, पत्नी उसे
खिलाने-पिलाने के मामले में कभी भी पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं कर पाती है|

“इन्होंने हमें
देखकर मुँह नहीं बनाया|” मैंने जान-बूझ कर पत्नी को छेड़ा|

“मुँह क्यों
बनाएँगी?” पत्नी ने गोल बात की, “चीजें बनाने और चीजें लाने के लिए जिसके एक इशारे
पर बीसियों अर्दली हाजिर हो जाते हैं, वे अपने आदर-सत्कार में क्यों टाल-मटोल करेंगी?”

“यह केक मैंने कल
खुद बनाया था,” एक सुसज्जित ट्रॉली के साथ वे जल्दी ही लौटआईं|

ट्रॉली के निचले
खाने में तीन नेपकिन लगी प्लेटें व चटनियाँ रहीं तथा ऊपर वाले खाने में केक और नमकीन
की तश्तरियाँ|

“लीजिए,” उन्होंने
केक के दो बड़े खंड हमारी प्लेटों में परोस दिए, “कल हमारे बड़े बेटे का सोलहवाँ
जन्मदिन रहा| बेटा तो, खैर, होस्टल में था, मगरइस केक के बल पर उसका जन्मदिन हमारे
यहाँ भी मना लिया…..”
“केक बहुत बढ़िया है,”
मैंने कहा, “मुँह में जाते ही हलक से जा लगता है…..”

“और लीजिए,” उन्होंने
मेरी प्लेट फिर प्रचुर मात्रा में भर दी|

“बच्चों के यहाँ न
रहने पर आपके पास बहुत समय खाली रहता होगा,” पत्नी ने अपने ब्यौरे एकत्रित करने
चाहे| अपने कुतूहल के विषय का सूक्ष्म सर्वेक्षण करने में वह निपुण है|

“सभी बच्चे क्या
होस्टल में हैं?” मैंने पूछा|

“हाँ, सभी,” वे
मुस्कुराईं भी और उदास भी हो चलीं, “उधर नैनीताल में जब वे दो साल डी.आई.जी. रहे तो
बच्चों को उधर अच्छे, सही स्कूल मिल गए| इसी लिए कस्बापुर की इस पोस्टिंग में अकेले
ही आए, उन्हें साथ नहीं लाए…..”

“बहुत सन्नाटा है
यहाँ|” पत्नी बोली, “क्या कभी आप डर भी जाती हैं?”

“नहीं,” उन्होंने
अपनी गरदन को बल दिया, “मेरी रक्षा के लिए यहाँ बहुत अर्दली तैनात हैं…..”

“अपने खाली समय में चित्र
बनाती हूँ,” कॉफ़ी खत्म होते ही उन्होंने अपनी नजर मेरे चेहरे पर गड़ा दी, “आप को मेरे
चित्र बहुत तुच्छ लगेंगे, फिर भी मैं आपकी राय जानना चाहूँगी|”

“नहीं, ऐसी कोई बात
नहीं है,” मैं तुरन्त उठ खड़ा हुआ, “आप दिखाइए तो|”

“इनकी राय मूल्यवान
है,” पत्नी हँस दी, “आपके केक की लागत बराबर कर देगी…..”

“मैं जानती हूँ ये
बहुत ऊँचे चित्रकार हैं,” उन्होंने मेरी ओर देखा, “इतने बड़े आर्ट्स कॉलेज में
पढ़ाते हैं….. चित्रकला के सिद्धांत व इतिहास के बारे में क्या-क्या नहीं जानते
होंगे?”

“मैं जरूर आपकी परिकल्पना
भी देखना चाहता हूँ,” मैंने उत्साह दिखाया, “मुझेविश्वास है, आपके चित्र भी आपकी
ही तरह भव्य व लोकोत्तर होंगे…..”

“लोकोत्तर?” वे
समझीं नहीं|

“आउट ऑफ दिस वर्ल्ड,”
मैं मुस्कुराया, “इस दुनिया के नहीं….. उस दुनिया के….. जहाँ पेड़ छाया
देते हैं, फूल खुशबू और बादल इन्द्रधनुष…..”

उनके कमरे में चित्र बनाने
का ढेरों सामान रहा: तेल-चित्रकारी हेतु कई तरह के छोटे-बड़े ब्रश, कैनवास, पेंट व
रंगलेप|

सामने रखे एक
चित्राधार पर रंग-बिरंगी एक लड़की के तदरूप चित्रण नेमुझे प्रभावित किया तो पीछे,
दूर रखे एक चित्रफलक पर बने एक समूह ने बुरी तरह चौंका दिया|

समूह के प्रत्येक
सदस्य केधड़की तमगों वाली पुलिस यूनिफार्म के ऊपर बाघ के सिर टिकाए गए थे|
सिर सम्पूरित बाघवत्
रहे: वही छलघाती मुद्रा, हिंस्र आँखें, अभिधावक जबड़े, आक्रामक दाँत व रक्त-पिपासु
जिह्वा|

“साहब आ गए हैं,”
एकाएक उस नीरव बँगले का सन्नाटा टूटा और चारों तरफ मोटरों के हो-हल्ले व
अर्दलियों-संतरियोंके तौबा-तिल्ले की प्रदर्शनी शुरू हो ली|
“आइए, उधर बैठते
हैं,” उनके भव्य चेहरे की रंगत व स्नेहिल भंगिमा की सरगरमी तत्काल लुप्त हो गई|
लम्बे डग भरती हुई
वे हमें पीछे के बरामदे में रखी बेंत की कुर्सियों तक ले गईं|

“आप लोग यहीं बैठिए,”
उत्तेजनावश वे काँपने लगीं|

“कहाँ हो?” तभी एक रौबदार
प्रकार के साथ पुलिस के जूतों की चीं-चीं हमारे निकट आने लगी|

“मैं अभी आ रही हूँ,”
वे चीं-चीं की दिशा में लपक लीं|

“कौन लोग आए हैं?”
पुलिसियाआवाज बहुत सख्त रही|

“मेरे पुराने कॉलेज
की एक छात्रा है,” उन्होंनेसफेद झूठ बोला और अपने वाक्यों के मुख्यांश दुहराने
लगीं, “पुराने कॉलेज की एक छात्रा| साथ में उसका पति है, उसका पति…..”


“पति क्या करता है?”

“मैंने नहीं पूछा…..
नहीं पूछा….. मुझे मालूम नहीं….. नहीं मालूम वह क्या करता है…..”

“उन्हें यहाँ का पता
कैसे मालूम हुआ?”

“पिछली बार, जब घर
गई थी तो ये दोनों रेलगाड़ी में मिले थे….. रेलगाड़ी में मिले थे,” उनका स्वर
काँप-काँप गया|

“यहाँ का पता क्यों
दिया?”

“आय एम सॉरी…..
वेरी सॉरी…..”

“उन्हेंफौरन नर्क
में भेज दो| मुझे ड्राइंग-रूममें सात चाय चाहिए, तुम्हारे हाथ की| साथ में सैंड-विच
और कुक्कू का बर्थ-डे केक|”

“केक रहने दीजिए,”
वे घिघियाई, “मिठाई ज्यादा ठीक रहेगी….. हाँ, मिठाई ज्यादा ठीक…..”
“केक कहाँ गया?”

“उन दिनों यह बेचारी
कई बार मेरे लिए केक लाती रहती थी….. बहुत बार केक लाया करती….. मैंने
सोचा मिठाई तो घर में है ही….. मिठाई बहुत रखी है अभी….. सो केक इन्हें खिला
दिया….. सोचा केक इन्हें ही खिला दूँ…..”

“केक को हीला बनाकर
मैं उन वी.आई.पी. को अपने साथ लाया था,” पुलिसिया हाथ ने उनकी देह के किस भाग को
चोट पहुँचाई, बीच में खिंचे परदे के कारण हम देख न पाए, “अब केक सामने न रखेंगे तो
मेरी कितनी खिंचाई होगी…..
“आय एम सॉरी…..
रियली सॉरी, वेरी सॉरी….. वेरी-वेरी सॉरी…..”

“ठीक है| चाय-नाश्ता
जल्दी भेजो,” पुलिस के जूतों की चीं-चींफिर शुरू हो ली, “अब उनसे मिलने की
कोई जरूरत नहीं| तुम रसोई में जाओ| उन दोनों को मेरा निजी अर्दली फाटक तक छोड़ आएगा…..”

“बिल्ली का रुआँ-रुआँ
भीज गया है,” पत्नी से अपनी हँसी दबाए न दबाई गई, “अब वह हमें अपना मुँह न
दिखाएगी…..”

“मेम साहिब इस समय
फुरसत में नहीं,” तभी एक पिस्तौल धारी सिपाही प्रकट हो लिया, “आपको जाने के लिए
बोला है|”
पिस्तौलधारी सिपाही
की देख-रेख में हम दोनों फाटक पार कर सड़क पर आ गए|

“आप अपना काम देखिए,”
मेरी पत्नी ने सिपाही से कहा, “हम रिक्शे से चले जाएँगे|”
आँधी की तरह सिपाही
अंदर लपक लिया|

“इश्श, कैसी अजीब जगह
थी!” मैंने अपना सामान एक रिक्शे पर टिका दिया, “बायें संतरी, दायें संतरी, इधर
संतरी उधर संतरी और बीच में एक अरक्षित…..”

“भीगी बिल्ली,” मेरी
पत्नी मेरे साथ रिक्शे पर बैठ कर अपनी समूची हीं-हीं खंडित करने में जुट गई|


दीपक शर्मा

लेखिका



दीपक शर्मा जी का परिचय –

जन्म -३० नवंबर १९४६

संप्रति –लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज के अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर पद से
सेवा निवृत्त
सशक्त कथाकार दीपक शर्मा जी सहित्य जगत में अपनी विशेष पहचान बना
चुकी हैं | उन की पैनी नज़र समाज की विभिन्न गतिविधियों का एक्स रे करती है और जब
उन्हें पन्नों पर उतारती हैं तो शब्द चित्र उकेर देती है | पाठक को लगता ही नहीं
कि वो कहानी पढ़ रहा है बल्कि उसे लगता है कि वो 
उस परिवेश में शामिल है जहाँ घटनाएं घट रहीं है | एक टीस सी उभरती है मन
में | यही तो है सार्थक लेखन जो पाठक को कुछ सोचने पर विवश कर दे |
दीपक शर्मा जी की सैंकड़ों कहानियाँ विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में
प्रकाशित हो चुकी हैं जिन्हें इन कथा संग्रहों में संकलित किया गया है |

प्रकाशन : सोलहकथा-संग्रह :

१.    हिंसाभास (१९९३) किताब-घर, दिल्ली
२.    दुर्ग-भेद (१९९४) किताब-घर, दिल्ली
३.    रण-मार्ग (१९९६) किताब-घर, दिल्ली
४.    आपद-धर्म (२००१) किताब-घर, दिल्ली
५.    रथ-क्षोभ (२००६) किताब-घर, दिल्ली
६.    तल-घर (२०११) किताब-घर, दिल्ली
७.    परख-काल (१९९४) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
८.    उत्तर-जीवी (१९९७) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
९.    घोड़ा एक पैर (२००९) ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली
१०.           बवंडर (१९९५) सत्येन्द्र प्रकाशन, इलाहाबाद
११.           दूसरे दौर में (२००८) अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद
१२.           लचीले फ़ीते (२०१०) शिल्पायन, दिल्ली
१३.           आतिशी शीशा (२०००) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१४.           चाबुक सवार (२००३) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१५.           अनचीता (२०१२) मेधा बुक्स, दिल्ली
१६.           ऊँची बोली (२०१५) साहित्य भंडार, इलाहाबाद
१७.           बाँकी(साहित्य भारती, इलाहाबादद्वारा शीघ्र प्रकाश्य)

ईमेल- dpksh691946@gmail.com
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4 thoughts on “अरक्षित”

  1. उत्तम लेख लिखा आपने, पढ़ने के बाद कुछ सच्चाई से अवगत हुआ। ऐसी ही लेख लिखते रहने के लिए हमारा साथ आपके लिए सदैव रहेगा।

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