आचार्य श्री किशोरीदास बाजपेयी को हिंदी भाषा का पाणिनि भी कहा जाता है | उन्होंने हिंदी को परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किया | उससे पहले खड़ी बोली का चलन तो था पर उसका कोई व्यवस्थित व्याकरण नहीं था | इन्होने अपने अथक प्रयास से व्याकरण का एक सुव्यवस्थित रूप निर्धारित कर हिंदी भाषा का परिष्कार किया और साथ ही नए मानदंड भी स्थापित किये , जिससे भाषा को एक नया स्वरुप मिला |
हिंदी के साहित्यकार व् सुप्रसिद्ध व्याकरणाचारी आचार्य श्री किशोरी दस बाजपेयी जी का जन्म १५ दिसंबर १८९५ में कानपूर के बिठूर के पास मंधना के गाँव रामनगर में हुआ था | उन्होंने न केवल व्याकरण क्षेत्र में काम किया अपितु आलोचना के क्षेत्र में भी शास्त्रीय सिधान्तों का प्रतिपादन कर मानदंड स्थापित किये | प्रस्तुत है उनके बारे में कुछ रोचक बातें ….
हिन्दी के पाणिनी आचार्य श्री किशोरीदास बाजपेयी : संस्मरण
हिन्दी के पाणिनी कहे जाने वाले ‘दादाजी‘ यानी आचार्य श्री
किशोरीदास जी बाजपेयी के बारे में तब पहली बार जाना जब वह हमारे घर पर अपनी छोटी
बेटी (मेरी भाभी) का रिश्ता मेरे म॓झले भाई साहब के लिए लेकर आए।हमारे बड़े भाई
साहब उनकी बातों से बहुत प्रभावित हुए। इस सिलसिले में शादी से पूर्व उनका कई बार
हमारे घर आना हुआ
और हर बार वह अपने व्यक्तित्व की एक
नई छाप छोड़ गए।तब हमने जाना कि वह बात के पक्के हैं और उनके व्यक्तित्व में एक ऐसा
खरापन है जो सभी को ऊपनी ओर आकृष्ट करता है।
उन्ही दिनों के आस-पास ‘वैद्यनाथ‘ वालों की ओर से
दादा जी का अभिनन्दन किया गया जिसमें उन्हे ग्यारह हजार रुपये प्रदान किए गए। इस
अभिनन्दन के पश्चात जब वह हमारे घर आए तो उन्होने कहा कि वह यह ग्यारह हजार रुपये
अपनी बेटी की शादी में खर्च करेगें और अगर यह रुपये चोरी हो गए तो कुछ भी खर्च
नहीं करेगें।उनकी इस साफगोई और खरेपन को लेकर हमारे घर में कुछ दिनों खूब
विनोदपूर्ण वातावरण रहा।
उन्होने कहा,बारात कम लाई जाए
लेकिन स्टेशन पर पहुँचने से लेकर वापिस स्टेशन आने तक वह हम लोगों से कुछ भी खर्च
नहीं करवाएगें। बारात में कुल बीस- पच्चीस लोग ही गए।लेकिन उन्होने हरिद्वार
स्टेशन पर उतरते ही सवारी से लेकर बैंड-बाजे आदि का कुछ भी खर्च हमारी ओर से नहीं
होने दिया।उन्होंने शादी शानदार ढंग से निपटाई।भोजन और मिष्ठान्न सभी कुछ देशी घी
में बने थे।जो मिठाई उन्होने हमारे घर भिजवाई,वह भी सब शुद्ध देशी घी में बनी
थी।उनके द्वारा भिजवाई गई मिठाइयों में पूड़ी के बराबर की चन्द्रकला का स्वाद तो
मुझे आज भी याद है।गर्मियों के दिन थे।उन्होने हमारे घर पर बहुत अधिक पकवान व
मिठाइयाँ भिजवा दी थीं।माँ ने तुरन्त ही सब बँटवा दीं।आज भी सब रिश्तेदार और
मुहल्ले वाले उन मिठाइयों की याद कर लेते हैं।
गर्मियों की छुट्टियों मैं मैं एक
महिने भाभी के साथ कनखल में रही। दादाजी सुबह चार बजे उठ जाते और भगोने में चाय
चढ़ा देते। वह चाय पीकर मुझे जगा देते और अपने साथ टहलने ले जाते। हम ज्वालापुर तक
टहलने जाते। टहलते समय दादा जी मुझे खूब मजेदार बातें बताते। वह कहते , ‘जाको मारा चाहिए
बिन लाठी बिन घाव, वाको यही सिखाइए भइया घुइयाँ पूड़ी खाव।‘ फिर हँस कर कहते कि
उन्हे घुइयाँ पूड़ी बहुत पसंद हैं।
एक बार जब वे अंग्रेजों के समय जेल
में बन्द थे, उनकी कचेहरी में पेशी हुई। पेशी के लिए जज के समक्ष जाते समय
पेशकार ने पैसों के लिए अपनी पीठ के पीछे हाथ पसार दिए। दादा जी ने उसकी गदेली पर
थूक दिया। वह तुरन्त अपना हाथ पोंछकर जज के सामने खड़ा हो गया।
जब हम टहल कर आते , दादा जी नाश्ते में
पंजीरी (भुना आटा और बूरा ) में देशी घी डलवा कर लड्डू बनवाते जो एक गिलास ताजे
दूध के साथ मुझे नाश्ते में मिलता। यह रोज का नियम था। वह मेरा विशेष ख्याल रखते।
जब तक मैं कनखल में रही, दादा जी मेरे लिए मिठाई लाते और मिठाई में अक्सर चन्द्रकला
होती।फलों में उन्हे खरबूजा ,
ककड़ी और देशी आम पसन्द थे। किन्तु हम
सबके लिए केला, सन्तरा आदि मौसमी फल भी लाते। आम को वह आम जनता का फल बताते थे।खाने
के साथ उन्हे अनारदाने की चटनी बहुत पसंद थी।
टहल कर आने के पश्चात दादा जी लिखने
का कार्य करते। भोजन करके वह कुछ देर विश्राम करते।तत्पश्चात वह हरिद्वार,श्रवणनाथ ज्ञान
म॓दिर पुस्तकालय जाते।यह उनका प्रतिदिन का नियम था। रात में वह कहीं नहीं जाते थे।
वह कहते,’दिया बाती जले मद्द (मर्द) मानस घर में भले।‘
जब वह हमारे घर कानपुर आते, हम सब उनसे मजेदार
किस्से सुनने के लिए उन्हे घेर कर बैठ जाते। ऐसे ही एक समय उन्होने बताया कि एक
बार जब वह ट्रेन से जा रहे थे तो उन्होने अपने सामने की सीट पर बैठे व्यक्ति से
बात करने की गरज से पूछा कि वह कहाँ जा रहे हैं? उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। ऐसा तीन
बार हुआ। अवश्य ही इस व्यक्ति ने धोती कुरता पहने हुए दादा जी को गाँव का कोई
साधारण गँवार समझा होगा। जब उन्होने देखा कि यह व्यक्ति बात नहीं करना चाहता तो वह
अपनी सीट पर बिस्तर बिछा कर सो गए। सुबह होने पर उन्होने एक केतली चाय, टोस्ट, मक्खन मँगाया और
नाश्ता करने लगे।इसी बीच यह व्यक्ति दादा जी से पूछने लगा कि उन्हे कहाँ जाना है? दादा जी ने कोई
जवाब नहीं दिया तथा उसकी ओर अपनी पीठ कर ली। ऐसा दो बार हुआ। तीसरी बार वह व्यक्ति
जरा जोर से बोला, ‘क्या आप ऊँचा सुनते हैं? ‘अब दादा जी उसकी ओर मुँह घुमा कर बोले, ‘आप मुझसे कहाँ बात
कर रहे हैं? आप तो मेरे टोस्ट मक्खन सै बात कर रहे हैं।‘ रात को जब मैंने
आपसे बात करने की कोशिश की, आपने कोई जवाब नहीं दिया। ‘ वह व्यक्ति बड़ा शर्मिन्दा हुआ।किन्तु
पीछे की सीट पर बैठे हुए शुक्ला जी ने उनकी बात सुन ली और कहा, ‘अरे यह तो बाजपेयी
जी लगते हैं।‘ दादा जी ने जोर से कहा,’अब तुम्हे भी बाजपेयी जी दिखाई पड़ गए।‘उनके इतना कहते ही
कई लोग अपनी सीट से उतर कर उनके आस- पास जमा हो गए और उनसे कुछ नई बात बताने का
आग्रह करने लगे। उन्होने कहा,
‘गुरू-दक्षिणा देनी पड़ेगी।‘ सबने कहा,’मिलेगी।‘इतना बताने के
पश्चात दादाजी ने बड़े भाव विभोर होकरआदरणीय मालवीय जी को हाथ जोड़ कर नमन करते हुए
कहा कि गीता के जिस श्लोक का अर्थ मालवीय जी ने उस तरीके से नहीं समझा जिसका अर्थ
मुझे उसी समय ट्रेन में समझ में आया।ऐसा कह कर उन्होने वह श्लोक कहा (जो आज मुझे
याद नहीं ) जिसका अर्थ यह था कि,’
स्वतन्त्र कौन है?’ फिर उन्होने उन
सबको उसकी व्याख्या करके बताया। सभी व्यक्ति उनकी व्यख्या सुन कर अत्यन्त प्रसन्न
हुए और स्टेशन आने पर उनका जो भी सामान था,सबने एक-एक उठा लिया । जब वह स्टेशन
पर उतर कर खड़े हुए, लोगों ने मुस्करा कर कहा, ‘गुरू जी ,आपकी दक्षिणा अदा
हो गई या नहीं?’ उन्होंने मुस्कराते हुए कहा ,’हो गई।‘
मुझे बेटा होने की खबर जब उन्हे मिली
तो उन्होने पत्र लिखा ,’यह जान कर बड़ी प्रसन्नता हुई कि चिं0 उषा को ‘प्रभात‘ मिला।बड़े भाई साहब
ने कहा कि दादा जी द्वारा दिया गया नाम है।इस नाम के साथ दादा जी की याद जुड़ी
रहेगी और उनका आशीर्वाद भी। हमने बेटे का नाम प्रभात रख दिया ।उनका आशीर्वाद खूब
फला – फूला।
एक बार भाई साहब के साथ वह मेरे घर
मिलने आए।उन्होने मुझे रूपए दिए और कहा,’बच्चों के लिए मिठाई मंगा लेना,कुछ लेकर नहीं आया
हूँ। मैने उन्हे नाश्ता कराया।कुछ देर बाद मुझे ध्यान आया कि सेब रक्खे रह गए,मैं काटना भूल गई।
मैंने दादा जी से कहा,’मैं अभी सेब काट कर लाती हूँ तब उन्होने हंस कर कहा, ‘रहने दे उषा, तुझे देने के लिए
अब मेरे पास और पैसे नहीं हैं।‘
जब भारत के प्रथान-मंत्री द्वारा उनका
अभिनंदन किया जा रहा था, स्टेज पर न जाकर वह अपनी कुर्सी पर बैठे रहे, तब प्रधान मंत्री
मोरार जी देसाई स्वयं मंच से उतर कर आए और उन्होने जहाँ पर वह बैठे थे, वहीं पर उन्हे
सम्मानित किया ।
ऐसे थे दादा जी।
उषा अवस्थी
गोमती नगर ,
लखनऊ ( उ0 प्र0 )
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Thank you Usha Awasthi ji for enlightening us about the personal life of the great grammarian Bajpai ji
Deepak Sharma has written the above comment n please add my name
अत्यंत रोचक संस्मरण
आदरणीय वाजपेयी जी पर अद्भुत संस्मरण। आभार। संभव हो तो इसकी दूसरी किश्त भी प्रकाशित करें।