हम सब को लगता है कि हम हर समय दूसरों की मदद को तैयार रहते हैं | परन्तु जब मदद की स्थिति आती है तो क्या हम वास्तव में करना चाहते हैं ? कहीं हम इन सब से छुटकारा तो नहीं पाना चाहते | पढ़िए ज्ञानदेव मुकेश जी की एक सशक्त लघुकथा …
छुटकारा
सुबह उठते ही मैंने आदतन स्मार्ट फोन उठाया और वाट्सअप खोलकर देखना शुरू किया। सबसे पहले क्रमांक पर हमारे सरकारी ग्रुप पर एक मेसेज आया हुआ था। मेसेज में लिखा था, ‘अपने वरीय अधिकारी, राहुल सर अचानक काफी बीमार पड़ गए हैं। उनके हार्ट का वल्व खराब हो गया है। वे दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में जीवन-मृत्यु की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका एक बड़ा ऑपरेशन होना है। सभी अधिकारियों से निवेदन है कि उनकी यथासंभव आर्थिक सहायता करें। सहायता की राशि संघ के अध्यक्ष के खाते में जमा की जा सकती है।’
सुबह-सुबह यह समाचार पढ़ मैं स्तब्ध रह गया। मैंने उनकी कुशलता के लिए ईश्वर से तत्क्षण प्रार्थना की। मेरा अगला ध्यान मेसेज में किए गए निवेदन पर गया। मैं बड़ा आश्चर्यचकित हुआ। राहुल सर एक बड़े अधिकारी हैं। उन्हें भला पैसे की क्या कमी ? फिर भी ऐसा निवेदन ? मैं सोच में पड़ गया। मैं उनकी सहायता करूं कि न करूं ? यदि करूं भी तो कौन-सी रकम ठीक होगी ? मैं अजीब उधेड़बुन में फंस गया।
उस रात मैं बड़ा परेशान रहा। मैं कोई निर्णय नहीं कर पा रहा था। ग्रुप पर मेसेज आया था तो कुछ नहीं करना भी शिकायतों को निमंत्रण देना था। यही उधेड़बुन लिए मैंने किसी तरह रात गुजारी।
पढ़िए -कहानी :हकदारी
सुबह होते ही मैंने फिर सबसे पहले अपना फोन उठाया। वाट्सअप खोला। प्रथम क्रमांक पर फिर सरकारी ग्रुप पर मेसेज आया हुआ था। मेसेज पढ़कर मैं धक् सा रह गया। लिखा था, ‘बेहद दुख के साथ सूचित किया जाता है कि अपने प्रिय राहुल सर कल रात में ही हमें छोड़कर चले गए।’
मेरे दुख का ठिकाना न रहा। राहुल सर का चेहरा मेरे सामने घूमने लगा। कुछ देर बाद मैं थोड़ा संयत हुआ। तभी अचानक मुझे एक राहत सी महसूस हुई। आश्चर्य, यह कैसी राहत थी ? मैंने अपने मन को टटोला। मैंने पाया, इस समाचार ने मेरे मन को कल के उधेड़बुन से मुक्त कर दिया था।
-ज्ञानदेव मुकेश
न्यू पाटलिपुत्र कॉलोनी,
पटना- (बिहार)
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इंंसानी तबियत को उघेड़ती कथा..
बहुत सुन्दर कहानी ….
यही सच है मदद करने को तत्पर ऐसी ही मदद करते हैं ….फिर कहने को बनता है न बहुत कुछ करने वाले थे पर….