समकालीन कथाकाओं में सिनीवाली शर्मा किसी परिचय की मोहताज नहीं हैl ये बात वो अपनी हर कहानी में सिद्ध करती चलती हैं | उनकी ज्यादातर कहानियाँ ग्रामीण जीवन के ऊपर हैं | गाँवों की समस्याएं, वहां की राजनीति और वहां के लोक जीवन की मिठास उनकी कहानियों में शब्दश: उतर आते हैं | पर उनकी कहानी “रहौं कंत होशियार” पढ़ते हुए मुझे तुलसीदास जी की एक चौपाई याद आ रही है l
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा
तुलसीदास जी की इस चौपाई में अधम शब्द मेरा ध्यान बार- बार खींच रहा है l हालंकी उनका अभिप्राय नाशवान शरीर से है पर मुझे अधमता इस बात में नजर आ रही है कि वो उन पाँच तत्वों को ही नष्ट और भृष्ट करने में लगा है जिससे उसका शरीर निर्मित हुआ है l आत्मा के पुनर्जन्म और मोक्ष की आध्यात्मिक बातें तो तब हों जब धरती पर जीवन बचा रहे l आश्चर्य ये है कि जिस डाल पर बैठे उसे को काटने वाले कालीदास को तो अतीत में मूर्ख कहा गया पर आज के मानव को विकासोन्मुख l आज विश्व की सबसे बडी समस्याओं में से एक है प्रदूषण की समस्या l विश्व युद्ध की कल्पना भी हमें डराती है लेकिन विकास के नाम पर हम खुद ही धरती को खत्म कर देने पर उतारू हैं l हम वो पाही पीढ़ी हैं जो ग्लोबल वार्मिंग के एफ़ेक्ट को देख रही है और हम ही वो आखिरी पीढ़ी हैं जो खौफ नाक दिशा में आगे बढ़ते इस क्रम को कुछ हद तक पीछे ले जा सकते हैं l आगे की पीढ़ियों के हाथ में ये बही नहीं रहेगा l
स्मॉग से साँस लेने में दिक्कत महसूस करते दिल्ली वासियों की खबरों से अखबार पटे रहे हैं l छोटे शहरों और और गाँव के लॉग दिल्ली पर तरस खाते हुए ये नहीं देखते हैं कि वो भी उसी दिशा में आगे बढ़ चुके हैं l जबकि पहली आवाज वहीं से उठनी चाहिए ताकि इसए शुरू में ही रोका जा सके l एक ऐसी ही आवाज उठाई है सिनीवाली शर्मा की कहानी रहौं कंत होशियार के नायक तेजो ने l ये कहानी एक प्रदूषण की समस्या उठाती और समाधान प्रस्तुत करतीएक ऐसी कहानी है जिस की आवाज को जरूर सुना जाना चाहिए l
सिनीवाली शर्मा रहौ कंत होशियार की समीक्षा
कागज़ पर अंगूठा लगाना है | ये जानते हुए भी कि भट्ठा को गाँव यानि उपजाऊ मिटटी से कम से कम इतना दूर होना चाहिए , बीच गाँव में उनके भट्टा लगाने की मंशा पर सब अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लेते हैं |
समीक्षा -अनुभूतियों के दंश (लघुकथा संग्रह )
रघुवंशी बाबू कहाँ से आये हैं इसकी भी कोई तहकीकात नहीं करता | बस एक उडी –उड़ी खबर
है कि भागलपुर के पास उनकी ६ कट्टा जमीन है जिसका मूल्य करीब ४० -४५ लाख है | इतना बड़ा आदमी उनके गाँव में भट्ठा लगाये सब इस सोच में ही मगन हैं | तेजो भी सबके कहने पर जाता तो है पर ऐन अंगूठा लगाने के समय वो लौट आता है | इस बीच गाँव की राजनीति व् रघुवंशी बाबू को गाँव लाने का श्रेयलेने की होड़ बहुत खूबसूरती से दर्शाई गयी है |
……
घटना क्रम कुछ ऐसी तेजी से चलना कि लोगों को रघुवंशी बाबू पर शक होने लगता है |
बड़े आदमी की बड़ी पोल खुलने पर गाँव वाले भट्ठा में लगाये अपने पैसे के लिए चिंतित
होते हैं |
द्वारा किया गया विनाश अभी भी गाँव की हवा में मौजूद है |
हवा ही नहीं बचेगी …..तो इंसान ही नहीं बचेगा |
ये कहानी एक अंधाधुंध विकास के ऊपर असलियत का तमाचा है … जिसको पढने के बाद पाठक भी अपने गाल पर हाथ रख कर ये सोचने को विवश होता है कि विकास-विकास चिल्लाते हुए हम विनाश की आहट क्यों नहीं सुन पाते |
बहुत देर तक चुभते रहे कांच के शामियाने
कटघरे – हम सब हैं अपने कटघरों में कैद
अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का
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बहुत जीवंत समीक्षा!
अच्छी लगी आपकी समीक्षा …
पड़ने को प्रेरित करती है सभी को …