प्रभात रंजन जी की मनोहर श्याम जोशी जी के संस्मरणों पर आधारित किताब
‘ पालतू बोहेमियन’ के नाम से वैसे ही आकर्षित करती है जितना आकर्षण कभी टी.वी.
धारावाहिक लेखन में मनोहर श्याम जोशी जी का था | इसे पूरी ईमानदारी के साथ पन्नों
पर उतारने की कोशिश करी है प्रभात रंजन जी ने | जानकी पुल पर प्रभात रंजन जी को
पढ़ा है उनका लेखन हमेशा से प्रभावित करता रहा है परन्तु इस किताब में उन्होंने जिस साफगोई के साथ उस समय की अपनी कमियाँ,
पी.एच.डी. करने का कारण, और उस समय लेखन को ज्यादा संजीदगी से ना लेने का वर्णन
किया है वो वाकई काबिले तारीफ़ है | ये पुस्तक गुरु और शिष्य के अंदाज में लिखी गयी
है | फिर भी आज आत्म मुग्ध लेखकों का दौर
है | कोई कुछ जरा सा भी लिख दे तो दूसरों को हेय
समझने लगता है | ऐसे में मनोहर श्याम जोशी जी के कद को और कुछ और ऊँचा करने
के लिए प्रभात रंजन जी जब कई खुद को कमतर दर्शाते हैं तो इसे एक लेखक के तौर पर बड़ा गुण समझना
चाहिए | उम्मीद है जल्दी ही उनका उपन्यास पढने को
मिलेगा | वैसे उन्हें जोशी जी द्वारा
सुझाया गया “दो मिनट का मौन” हिंदी साहित्य के किसी अनाम लेखक के ऊपर एक अच्छा
कथानक है परन्तु क्योंकि अब प्रभात रंजन जी ने उस रहस्य को उजागर कर दिया है इसलिए
उम्मीद है कि वो किसी नए रोचक विषय पर लिखेंगे | इस पुस्तक पर कुछ लिखने से पहले
मैं कहना चाहती हूँ कि पुस्तक समीक्षा के लिए नहीं है , क्योंकि ये ज्ञान की एक
पोटली है आप जितनी श्रद्धा से इसे पढेंगे उतना ही लाभान्वित होंगे |
‘ पालतू बोहेमियन’ के नाम से वैसे ही आकर्षित करती है जितना आकर्षण कभी टी.वी.
धारावाहिक लेखन में मनोहर श्याम जोशी जी का था | इसे पूरी ईमानदारी के साथ पन्नों
पर उतारने की कोशिश करी है प्रभात रंजन जी ने | जानकी पुल पर प्रभात रंजन जी को
पढ़ा है उनका लेखन हमेशा से प्रभावित करता रहा है परन्तु इस किताब में उन्होंने जिस साफगोई के साथ उस समय की अपनी कमियाँ,
पी.एच.डी. करने का कारण, और उस समय लेखन को ज्यादा संजीदगी से ना लेने का वर्णन
किया है वो वाकई काबिले तारीफ़ है | ये पुस्तक गुरु और शिष्य के अंदाज में लिखी गयी
है | फिर भी आज आत्म मुग्ध लेखकों का दौर
है | कोई कुछ जरा सा भी लिख दे तो दूसरों को हेय
समझने लगता है | ऐसे में मनोहर श्याम जोशी जी के कद को और कुछ और ऊँचा करने
के लिए प्रभात रंजन जी जब कई खुद को कमतर दर्शाते हैं तो इसे एक लेखक के तौर पर बड़ा गुण समझना
चाहिए | उम्मीद है जल्दी ही उनका उपन्यास पढने को
मिलेगा | वैसे उन्हें जोशी जी द्वारा
सुझाया गया “दो मिनट का मौन” हिंदी साहित्य के किसी अनाम लेखक के ऊपर एक अच्छा
कथानक है परन्तु क्योंकि अब प्रभात रंजन जी ने उस रहस्य को उजागर कर दिया है इसलिए
उम्मीद है कि वो किसी नए रोचक विषय पर लिखेंगे | इस पुस्तक पर कुछ लिखने से पहले
मैं कहना चाहती हूँ कि पुस्तक समीक्षा के लिए नहीं है , क्योंकि ये ज्ञान की एक
पोटली है आप जितनी श्रद्धा से इसे पढेंगे उतना ही लाभान्वित होंगे |
पालतू बोहेमियन – एक जरूर पढ़ी जाने लायक किताब
“तो छुटकी डॉक्टर बन पाएगी या नहीं कल ये देखेंगे ..हम लोग “
” ऐसे ना देखिये मास्टर जी “
” तो कैसे देखूं लाजो जी ”
मनोहर श्याम जोशी जी के साथ खास बात यह थी कि वो उन गिने चुने लेखकों में से हैं जिनका नाम वो
लोग भी जानते हैं जो हिंदी साहित्य में ख़ास रूचि नहीं रखते हैं | भला ‘हम लोग’ और ‘बुनियाद’
जैसे ऐतिहासिक धारावाहिक लिखने वाले लेखक का नाम कौन भूल सकता है ? हालांकि उनका
जीवन शुरू से ही लेखन –सम्पादन को समर्पित
रहा और हम लोग लिखने से पहले उनका उपन्यास ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ व् ‘कसप’ से साहित्य जगत में बहुत चर्चित भी हो चुका था फिर भी आम जन-मानस के ह्रदय में उनकी
पैठ हम लोग और बुनियाद जैसे धारावाहिक लिखने के कारण ही हुई |
लोग भी जानते हैं जो हिंदी साहित्य में ख़ास रूचि नहीं रखते हैं | भला ‘हम लोग’ और ‘बुनियाद’
जैसे ऐतिहासिक धारावाहिक लिखने वाले लेखक का नाम कौन भूल सकता है ? हालांकि उनका
जीवन शुरू से ही लेखन –सम्पादन को समर्पित
रहा और हम लोग लिखने से पहले उनका उपन्यास ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ व् ‘कसप’ से साहित्य जगत में बहुत चर्चित भी हो चुका था फिर भी आम जन-मानस के ह्रदय में उनकी
पैठ हम लोग और बुनियाद जैसे धारावाहिक लिखने के कारण ही हुई |
मनोहर श्याम जोशी जी हिंदी के उन गिने चुने लेखकों में से हैं जिनकी रचनाएँ पाठकों और आलोचकों में सामान रूप से लोकप्रिय रही हैं | साथ ही उनकी खास बात ये थी उनका लेखन किसी विचारधारा की बेंडी से जकड़ा हुआ नहीं था | उन्होंने पत्रकारिता कहानी , संस्मरण, कवितायें और टी वी धारावाहिक लेखन भी किया | कोई एक लेखक इतनी विधाओं में लिखे ये आश्चर्य चकित करने वाला है |उस समय बहुत से लेखक उन पर शोध कर रहे थे |
मनोहर श्याम जोशी जी के
संस्मरणों पर आधारित इस पुस्तक में उनके जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को छुआ है | इसकी प्रस्तावना पुष्पेश पन्त जी ने लिखी है |
उन्होंने इसमें मुख्यत : जोशी जी के प्रभात जी से मिलने से पहले के जीवन पर प्रकाश
डाला है | जोशी जी के साथ –साथ इसके माध्यम से पाठक को पुष्पेश पन्त जी के बचपन की
कुछ झलकियाँ देखने को मिलती हैं | साथ ही
आज से 59-60 वर्ष पहले के पहाड़ी जीवन की दुरुह्ताओं की भी जानकारी मिलती है | पुष्पेश
जी एक वरिष्ठ लेखक हैं उनके बारे में जानकारी
से पाठक समृद्ध होंगे | हालांकि प्रस्तावना थोड़ी बड़ी और मूल विषय से थोडा इतर लगी
| फिर भी, क्योंकि ये किताब ही जानकारियों की है इसलिए उसने पुस्तक में जानकारी का
बहुत बड़ा खजाना जोड़ा ही है |
संस्मरणों पर आधारित इस पुस्तक में उनके जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को छुआ है | इसकी प्रस्तावना पुष्पेश पन्त जी ने लिखी है |
उन्होंने इसमें मुख्यत : जोशी जी के प्रभात जी से मिलने से पहले के जीवन पर प्रकाश
डाला है | जोशी जी के साथ –साथ इसके माध्यम से पाठक को पुष्पेश पन्त जी के बचपन की
कुछ झलकियाँ देखने को मिलती हैं | साथ ही
आज से 59-60 वर्ष पहले के पहाड़ी जीवन की दुरुह्ताओं की भी जानकारी मिलती है | पुष्पेश
जी एक वरिष्ठ लेखक हैं उनके बारे में जानकारी
से पाठक समृद्ध होंगे | हालांकि प्रस्तावना थोड़ी बड़ी और मूल विषय से थोडा इतर लगी
| फिर भी, क्योंकि ये किताब ही जानकारियों की है इसलिए उसने पुस्तक में जानकारी का
बहुत बड़ा खजाना जोड़ा ही है |
असल में हम लोग जादुई यथार्थवाद के नाम पर अंग्रेजी भाषा और यूरोपीय वर्चस्व के जाल में उलझ जाते हैं | क्या तुम जानते हो कि उनकी भाषा को कभी स्पेनिश और लेटिन अमेरिकी आलोचकों ने कभी जादुई नहीं कहा |
पहली मुलाकात
ये किताब वहाँ से शुरू होती
है जब लेखक प्रभात रंजन जी ने पी.एच.डी के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया था | जिसका
शीर्षक था : उत्तर आधुनिकतावाद और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास | जोशी जी से पहली
मुलाकात के बारे में वह लिखते हैं कि वो उदय प्रकाश जी द्वारा दिए गए ‘ब्रूनो
शुल्ज’ के उपन्यास “स्ट्रीट ऑफ़ क्रोकोडायल्स” को
पहुँचाने के लिए उनके घर गए थे | उनके मन में एक असाधारण व्यक्ति से मिलने
की कल्पना थी | परन्तु उनसे मिलकर उन्हें
कुछ भी ऐसा नहीं लगा जो उनके मन में भय उत्पन्न करे | साधारण मध्यम वर्गीय बैठक
में बात करते हुए वे बेहद सहज लगे | जोशी जी के व्यक्तित्व में खास बात ये थी कि
वो चाय बिना चीनी की पीते थे और साथ में गुड़ दांतों से कुतर-कुतर कर खाते थे | पहली मुलाक़ात में जब उन्हें पता
चला की प्रभात जी उन पर पी एच डी कर रहे हैं तो उन्होंने इस बात पर कोई खास तवज्जो
नहीं दी |
है जब लेखक प्रभात रंजन जी ने पी.एच.डी के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया था | जिसका
शीर्षक था : उत्तर आधुनिकतावाद और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास | जोशी जी से पहली
मुलाकात के बारे में वह लिखते हैं कि वो उदय प्रकाश जी द्वारा दिए गए ‘ब्रूनो
शुल्ज’ के उपन्यास “स्ट्रीट ऑफ़ क्रोकोडायल्स” को
पहुँचाने के लिए उनके घर गए थे | उनके मन में एक असाधारण व्यक्ति से मिलने
की कल्पना थी | परन्तु उनसे मिलकर उन्हें
कुछ भी ऐसा नहीं लगा जो उनके मन में भय उत्पन्न करे | साधारण मध्यम वर्गीय बैठक
में बात करते हुए वे बेहद सहज लगे | जोशी जी के व्यक्तित्व में खास बात ये थी कि
वो चाय बिना चीनी की पीते थे और साथ में गुड़ दांतों से कुतर-कुतर कर खाते थे | पहली मुलाक़ात में जब उन्हें पता
चला की प्रभात जी उन पर पी एच डी कर रहे हैं तो उन्होंने इस बात पर कोई खास तवज्जो
नहीं दी |
जोशी जी का व्यक्तित्व
१)
जोशी जी आम लेखकों की तरह मूड आने पर नहीं लिखते थे | वो नियम से
१० से पाँच तक लिखते थे | जिसमें धारावाहिक कहानी , उपन्यास सभी शामिल होता था |
जोशी जी आम लेखकों की तरह मूड आने पर नहीं लिखते थे | वो नियम से
१० से पाँच तक लिखते थे | जिसमें धारावाहिक कहानी , उपन्यास सभी शामिल होता था |
२)
जोशी जी कभी कलम ले कर नहीं लिखते थे बल्कि वह हमेशा
बोलते थे और एक टाइपिस्ट उसको टाइप करता रहता था | हे राम फिल्म तक शम्भू दत्त
सत्ती जी उनके लिए टाईप करने का काम करते
रहे |
जोशी जी कभी कलम ले कर नहीं लिखते थे बल्कि वह हमेशा
बोलते थे और एक टाइपिस्ट उसको टाइप करता रहता था | हे राम फिल्म तक शम्भू दत्त
सत्ती जी उनके लिए टाईप करने का काम करते
रहे |
३)
धारावाहिक लेखन तो वो बहुत जल्दी जल्दी बिना रुके
कर लेते थे लेकिन जब भी कुछ साहित्यिक लिखते तो उसके कई –कई ड्राफ्ट बनाते थे |
धारावाहिक लेखन तो वो बहुत जल्दी जल्दी बिना रुके
कर लेते थे लेकिन जब भी कुछ साहित्यिक लिखते तो उसके कई –कई ड्राफ्ट बनाते थे |
४)
बोलने के कारण उनकी रचना व् विचार प्रक्रिया
को समझना आसान हो जाता |
बोलने के कारण उनकी रचना व् विचार प्रक्रिया
को समझना आसान हो जाता |
५)
जोशी जी
जितना लिखते थे उससे कहीं ज्यादा पढ़ते थे | हिंदी ही नहीं विश्व साहित्य पर भी
उनकी अच्छी पकड़ थी | अमेरिकन लाइब्रेरी से भी वो अक्सर किताबें मंगवाया करते थे |
जोशी जी
जितना लिखते थे उससे कहीं ज्यादा पढ़ते थे | हिंदी ही नहीं विश्व साहित्य पर भी
उनकी अच्छी पकड़ थी | अमेरिकन लाइब्रेरी से भी वो अक्सर किताबें मंगवाया करते थे |
६)
अंग्रेजी में किसी नए विषय को पढ़ कर उनकी तीव्र
इच्छा होती थी कि हिंदी में भी कुछ ऐसा ही लिखा जाए |
अंग्रेजी में किसी नए विषय को पढ़ कर उनकी तीव्र
इच्छा होती थी कि हिंदी में भी कुछ ऐसा ही लिखा जाए |
७)
उनके दिमाग में एक साथ कई कहानियाँ चलती थी |
उनपर न वो सिर्फ लिखते थे बल्कि औरों को भी लिखने को कहते थे |
उनके दिमाग में एक साथ कई कहानियाँ चलती थी |
उनपर न वो सिर्फ लिखते थे बल्कि औरों को भी लिखने को कहते थे |
८)
जब भी वो किसी को शोध करने का काम सौपते थे उससे
पहले ही उस पर शोध कर चुके होते थे | एक तरह से ये उनका तरीका था दूसरों की मदद
करने का |
जब भी वो किसी को शोध करने का काम सौपते थे उससे
पहले ही उस पर शोध कर चुके होते थे | एक तरह से ये उनका तरीका था दूसरों की मदद
करने का |
९)
वो अपनी किसी भी कहानी में विषय का दोहराव पसंद
नहीं करते थे | यहाँ तक कि जिस विषय पर वो काम कर रहे हैं और उसे उनसे पहले किसी
ने लिख लिया | जिसकी किताब उन्हें पसंद भी आई तो वो उस विषय पर लिखना छोड़ देते थे
|
वो अपनी किसी भी कहानी में विषय का दोहराव पसंद
नहीं करते थे | यहाँ तक कि जिस विषय पर वो काम कर रहे हैं और उसे उनसे पहले किसी
ने लिख लिया | जिसकी किताब उन्हें पसंद भी आई तो वो उस विषय पर लिखना छोड़ देते थे
|
१०)
उन्होंने डबिंग जैसे कठिन काम के लिए भी लेखन
किया है |
उन्होंने डबिंग जैसे कठिन काम के लिए भी लेखन
किया है |
११)
लिखने की उधेड़बुन में वो महीनों बरसों पड़े रहते
थे पर एक बार कहानी उनके हाथ में आ जाए तो वो उपन्यास भी एक महीने में पूरा कर
देते थे |
लिखने की उधेड़बुन में वो महीनों बरसों पड़े रहते
थे पर एक बार कहानी उनके हाथ में आ जाए तो वो उपन्यास भी एक महीने में पूरा कर
देते थे |
१२)
जोशी जी 21 साल की उम्र से पूर्णतया मसिजीवी हो
गए थे हालाँकि उनका पहला उपन्यास 47 वर्ष की उम्र में आया |
जोशी जी 21 साल की उम्र से पूर्णतया मसिजीवी हो
गए थे हालाँकि उनका पहला उपन्यास 47 वर्ष की उम्र में आया |
१३)
उन्हें तकनीकी की काफी समझ थी | ऐसी समझ रखने
वाले वो उस समय के हिंदी के गिने –चुने लेखकों में से थे | उन्होंने बहुत पहले ही
कह दिया था कि आने वाला समय तकनीकी हिंदी का होगा | यही समय हिंदी को विचारधारों
की जकदन से दूर करायेगा |
उन्हें तकनीकी की काफी समझ थी | ऐसी समझ रखने
वाले वो उस समय के हिंदी के गिने –चुने लेखकों में से थे | उन्होंने बहुत पहले ही
कह दिया था कि आने वाला समय तकनीकी हिंदी का होगा | यही समय हिंदी को विचारधारों
की जकदन से दूर करायेगा |
१४)
उनके दिमाग में बहुत तेजी से नए –नए विचार आते थे
| सब पर काम करना संभव नहीं होता था | इसलिए अपने कई नए विचार वो युवाओं के साथ
साझा करते थे ताकि उन पर काम हो सके | अपने काम में दूसरों को जोड़ने से उनका मतलब
सिर्फ यही नहीं था कि वो अपना काम संभल नहीं पा रहे हैं नहीं पा रहे हैं बल्कि इस तरह से वो दूसरों की
मदद करना चाहते थे |
उनके दिमाग में बहुत तेजी से नए –नए विचार आते थे
| सब पर काम करना संभव नहीं होता था | इसलिए अपने कई नए विचार वो युवाओं के साथ
साझा करते थे ताकि उन पर काम हो सके | अपने काम में दूसरों को जोड़ने से उनका मतलब
सिर्फ यही नहीं था कि वो अपना काम संभल नहीं पा रहे हैं नहीं पा रहे हैं बल्कि इस तरह से वो दूसरों की
मदद करना चाहते थे |
नए लेखकों को सलाह
1) सिर्फ लिखने के लिए लिखना है या छपने के लिए
लिखना है तो कोई बात नहीं | हिंदी में हजारों की तादाद में रोज लोग लड़की, फूल,
चिड़िया पर कविता लिखने वाले पैदा हो रहे हैं | उसी तरह कहानियाँ लिखने वाले भी
पैदा हो रहे हैं | इतनी पत्र –पत्रिकाएँ निकल रही हैं कि बहुत से लेखक उसमें पन्ने
भरने के काम आ जाते हैं | लेकिन कुछ लेखक ऐसे होते हैं जिनकी रचनाओं को प्रकाशित
करके पत्र –पत्रिकाएँ खुद को गौरवान्वित महसूस करती हैं |
लिखना है तो कोई बात नहीं | हिंदी में हजारों की तादाद में रोज लोग लड़की, फूल,
चिड़िया पर कविता लिखने वाले पैदा हो रहे हैं | उसी तरह कहानियाँ लिखने वाले भी
पैदा हो रहे हैं | इतनी पत्र –पत्रिकाएँ निकल रही हैं कि बहुत से लेखक उसमें पन्ने
भरने के काम आ जाते हैं | लेकिन कुछ लेखक ऐसे होते हैं जिनकी रचनाओं को प्रकाशित
करके पत्र –पत्रिकाएँ खुद को गौरवान्वित महसूस करती हैं |
2) अगर अच्छा लेखक बनना
है तो खूब पढना चाहिए | कहानियों के बारे में उनकी सलाह थी कि दो तरह की कहानियाँ
होती है … एक जो घटनाओं पर आधारित होती हैं जिसमें लेखक वर्णनों विस्तारों से
जीवंत माहौल रच देता है | डिटेल्स के साथ इस तरह की कहानियाँ लिखना मुश्किल है |
दूसरी तरह की कहानियाँ लिखना थोड़ा आसान होता है | इसमें एक किरदार उठाओं और उस पर
कॉमिकल , कारुणिक कुछ लिख दो | हालांकि आजकल ऐसी कहानियाँ ज्यादा लोकप्रिय हो रही
हैं |
है तो खूब पढना चाहिए | कहानियों के बारे में उनकी सलाह थी कि दो तरह की कहानियाँ
होती है … एक जो घटनाओं पर आधारित होती हैं जिसमें लेखक वर्णनों विस्तारों से
जीवंत माहौल रच देता है | डिटेल्स के साथ इस तरह की कहानियाँ लिखना मुश्किल है |
दूसरी तरह की कहानियाँ लिखना थोड़ा आसान होता है | इसमें एक किरदार उठाओं और उस पर
कॉमिकल , कारुणिक कुछ लिख दो | हालांकि आजकल ऐसी कहानियाँ ज्यादा लोकप्रिय हो रही
हैं |
3) हिंदी पट्टी वाले
अक्सर शब्दकोष का इस्तेमाल नहीं करते | उनका कहना था कि तुम हिंदी पट्टी वाले लोग
अंग्रेजी के लिए डिक्शनरी रखते हो लेकिन हिंदी के लिए शब्दकोष नहीं रखते | हिंदी
भाषा को ठीक करने के लिए भी शब्द कोष रखना चाहिए | भाषा से ही तो साहित्य जीवंत हो
उठता है |
अक्सर शब्दकोष का इस्तेमाल नहीं करते | उनका कहना था कि तुम हिंदी पट्टी वाले लोग
अंग्रेजी के लिए डिक्शनरी रखते हो लेकिन हिंदी के लिए शब्दकोष नहीं रखते | हिंदी
भाषा को ठीक करने के लिए भी शब्द कोष रखना चाहिए | भाषा से ही तो साहित्य जीवंत हो
उठता है |
4) कहानी को डेवलप करने के लिए उनका कहना था कि
कहानी को हमेशा वर्तमान में सोचना चाहिए | फिल्म और टी.वी के लिए लिखते समय ये और
जरूरी हो जाता है कि आप जो भी लिखे उसे पहले मन के परदे पर घटित होता हुआ महसूस
करें |
कहानी को हमेशा वर्तमान में सोचना चाहिए | फिल्म और टी.वी के लिए लिखते समय ये और
जरूरी हो जाता है कि आप जो भी लिखे उसे पहले मन के परदे पर घटित होता हुआ महसूस
करें |
5) धारावाहिक लेखन में (जिसके
१०० से ज्यादा एपिसोड हो )किसी कहानी को सम्पूर्णता में ना सोच कर एपिसोड में
सोचना चाहिए और हर बार एक सूत्र आगे की कहानी के लिए छोड़ते हुए लिखना चाहिये |
यहाँ ध्यान देने की बात है कि शुरुआत इतनी
धमाकेदार ना हो कि दर्शक हर एपिसोड में उसकी ही प्रतीक्षा करें और जल्द ही निराश
हो जाये | हर एपिसोड उतना ही धमाकेदार लिखना संभव नहीं है |
१०० से ज्यादा एपिसोड हो )किसी कहानी को सम्पूर्णता में ना सोच कर एपिसोड में
सोचना चाहिए और हर बार एक सूत्र आगे की कहानी के लिए छोड़ते हुए लिखना चाहिये |
यहाँ ध्यान देने की बात है कि शुरुआत इतनी
धमाकेदार ना हो कि दर्शक हर एपिसोड में उसकी ही प्रतीक्षा करें और जल्द ही निराश
हो जाये | हर एपिसोड उतना ही धमाकेदार लिखना संभव नहीं है |
विचित्र संयोग
पालतू बोहेमियन को पढ़ते हुए मुझे एक बात का बहुत दुःख भी हुआ कि जिस लेखक को मैंने कुरु –कुरु
स्वाहा और हम लोग , बुनियाद के माध्यम से जाना था , पसंद किया था उनके कितने
धारावाहिक, फिल्में कभी परदे का मुँह नहीं देख पाए | कितने उपन्यास अधूरे रह गए |
अपने अंतिम वर्षों में सब कुछ जल्दी –जल्दी पूरा करने की बेचैनी मुझे अंदर तक
द्रवित कर गयी | इसके लिए जोशी जी का ही सुझाया एक शब्द बेहतर लगा ‘संयोग’ जीवन
में कितनी घटनाएं संयोग से होती है | कई बार ये संयोग हमारे पक्ष में जाते है तो
कई बार विपक्ष में |
स्वाहा और हम लोग , बुनियाद के माध्यम से जाना था , पसंद किया था उनके कितने
धारावाहिक, फिल्में कभी परदे का मुँह नहीं देख पाए | कितने उपन्यास अधूरे रह गए |
अपने अंतिम वर्षों में सब कुछ जल्दी –जल्दी पूरा करने की बेचैनी मुझे अंदर तक
द्रवित कर गयी | इसके लिए जोशी जी का ही सुझाया एक शब्द बेहतर लगा ‘संयोग’ जीवन
में कितनी घटनाएं संयोग से होती है | कई बार ये संयोग हमारे पक्ष में जाते है तो
कई बार विपक्ष में |
विपक्ष में जाने वाले ऐसे दो
संयोग जिन का वर्णन इस किताब में है | एक “शुभ-लाभ “ जिस पर मारवाड़ी समाज पर उन्होंने बहुत शोध किया था पर उसके
आकार लेने से पहले किताब “ कलि कथा वाया बाई पास आ गयी “ और उन्होंने उसकी प्रशंसा
करते हुए , “दोबारा मारवाडी समाज पर इतना अच्छा कथात्मक साहित्य नहीं लिखा जा सकता
कहकर शुभ –लाभ पर काम करने का विचार त्याग दिया | दुबारा उन्होंने जब भोवाल के
राजकुमार पर बहुत शोध किया तब उनकी पुस्तक आने से पहले प्रसिद्द इतिहासकार पर्था
चैटर्जी की किताब “ प्रिंसली इम्पोस्टर “आ गयी | जिसमें भोवाल के राजकुमार की
कहानियों के इतिहास के बारे में विशद वर्णन था | इस बारे में जोशी जी ने सिर्फ कहा
ही नहीं था बल्कि प्रभात जी से एक जेम्स
रेड फील्ड के उपन्यास ‘द सेलेस्टिन प्रोफेसी’
की चर्चा भी की थी | जिसमें लेखक ने लिखा है की जीवन में संयोग अक्सर
श्रृंखलाबद्ध तरीके से घटित होते हैं |
संयोग जिन का वर्णन इस किताब में है | एक “शुभ-लाभ “ जिस पर मारवाड़ी समाज पर उन्होंने बहुत शोध किया था पर उसके
आकार लेने से पहले किताब “ कलि कथा वाया बाई पास आ गयी “ और उन्होंने उसकी प्रशंसा
करते हुए , “दोबारा मारवाडी समाज पर इतना अच्छा कथात्मक साहित्य नहीं लिखा जा सकता
कहकर शुभ –लाभ पर काम करने का विचार त्याग दिया | दुबारा उन्होंने जब भोवाल के
राजकुमार पर बहुत शोध किया तब उनकी पुस्तक आने से पहले प्रसिद्द इतिहासकार पर्था
चैटर्जी की किताब “ प्रिंसली इम्पोस्टर “आ गयी | जिसमें भोवाल के राजकुमार की
कहानियों के इतिहास के बारे में विशद वर्णन था | इस बारे में जोशी जी ने सिर्फ कहा
ही नहीं था बल्कि प्रभात जी से एक जेम्स
रेड फील्ड के उपन्यास ‘द सेलेस्टिन प्रोफेसी’
की चर्चा भी की थी | जिसमें लेखक ने लिखा है की जीवन में संयोग अक्सर
श्रृंखलाबद्ध तरीके से घटित होते हैं |
मेरे लिए मुश्किल ये नहीं है कि मैं क्या लिखूं , क्या प्रकाशित करवाऊं | मुश्किल ये है कि मैं अपने मानकों पर खरा नहीं उतर पा रहा हूँ | मेरे सभी उपन्यास अलग -अलग शैली के लिए जाने गए लेकिन अब मैं कोई नया लहजा नहीं बना पा रहा हूँ | मेरे ख्याल से एक लेखक को सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात से होती होगी जब वो अपने आप को दोहराने लगता है |
सच्चा साहित्यकार
मनोहर श्याम जोशी जी में बहुत अच्छा लिखने की सामर्थ्य थी | वो हमेशा कुछ
ऐसा लिखना चाहते थे जो कथा , भाषा व शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हो और वैसा ना कर
पाने पर उन्हें बेचैनी भी बहुत होती थी | ऐसा ही एक किस्सा वागीश शुक्ल जी से
सम्बंधित भी है | जब वो अपना उपन्यास ‘हरिया हरक्युलिस की हैरानी’ लिख रहे थे तो
उनहोंने वागीश शुक्ल जी का उपन्यास पढ़ लिया था | जहाँ उन्होंने रोचकता व् पांडित्य
का ऐसा प्रदर्शन देखा की वो अवसाद में चले
गए | क्योंकि वो ऐसा ही कुछ लिखना चाहते
थे और उनसे ये संभव नहीं हो रहा था | वैसे भी धारावाहिक लेखन में आने के बाद
साहित्यिक लेखन अपने आप बहुत कम हो गया | बहुत सारे टी वी चैनलों के आने से वो उस
बाज़ार से भी समझौता नहीं कर पाए | वो तड़प उनके व्यक्तित्व पर हावी रही | फिर भी वो
एक सच्चे साहित्यकार थे | क्योंकि वो केवल और केवल लेखन में विश्वास करते थे |
आजकल की तरह उस समय भी कई लेखक तमाम सामाजिक समारोहों में शिरकत कर लोकप्रिय हो
रहे थे तब भी वो इन आयोजनों से दूर रहते थे और लेखन की अपनी नियमित दिनचर्या का
पालन करते थे | एक बार उन्होंने कहा था , “ लेखक को अपना लेखन ईमानदारी से करना
चाहिए | लिखने से ज्यादा पी आर करने वाले लोग कहीं के नहीं रहते | वे प्रेमचंद्र
का उदहारण देते थे | वे कहते थे कि उनके पास सामाजिकता निभाने का समय ही नहीं होता
था पर लोगों ने उन्हें देवता बना दिया |और जैसा कि पुस्तक में प्रभात रंजन जी कहते
हैं ….
ऐसा लिखना चाहते थे जो कथा , भाषा व शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ हो और वैसा ना कर
पाने पर उन्हें बेचैनी भी बहुत होती थी | ऐसा ही एक किस्सा वागीश शुक्ल जी से
सम्बंधित भी है | जब वो अपना उपन्यास ‘हरिया हरक्युलिस की हैरानी’ लिख रहे थे तो
उनहोंने वागीश शुक्ल जी का उपन्यास पढ़ लिया था | जहाँ उन्होंने रोचकता व् पांडित्य
का ऐसा प्रदर्शन देखा की वो अवसाद में चले
गए | क्योंकि वो ऐसा ही कुछ लिखना चाहते
थे और उनसे ये संभव नहीं हो रहा था | वैसे भी धारावाहिक लेखन में आने के बाद
साहित्यिक लेखन अपने आप बहुत कम हो गया | बहुत सारे टी वी चैनलों के आने से वो उस
बाज़ार से भी समझौता नहीं कर पाए | वो तड़प उनके व्यक्तित्व पर हावी रही | फिर भी वो
एक सच्चे साहित्यकार थे | क्योंकि वो केवल और केवल लेखन में विश्वास करते थे |
आजकल की तरह उस समय भी कई लेखक तमाम सामाजिक समारोहों में शिरकत कर लोकप्रिय हो
रहे थे तब भी वो इन आयोजनों से दूर रहते थे और लेखन की अपनी नियमित दिनचर्या का
पालन करते थे | एक बार उन्होंने कहा था , “ लेखक को अपना लेखन ईमानदारी से करना
चाहिए | लिखने से ज्यादा पी आर करने वाले लोग कहीं के नहीं रहते | वे प्रेमचंद्र
का उदहारण देते थे | वे कहते थे कि उनके पास सामाजिकता निभाने का समय ही नहीं होता
था पर लोगों ने उन्हें देवता बना दिया |और जैसा कि पुस्तक में प्रभात रंजन जी कहते
हैं ….
“ मैं देख रहा था, निगम बोध घाट पर अपार भीड़ उमड़ी हुई थी | जो लेखक
कभी अपने काम के दवाब के कारण सामाजिक नहीं हो पाया , उसको समाज इतना प्यार करता
था |”
कभी अपने काम के दवाब के कारण सामाजिक नहीं हो पाया , उसको समाज इतना प्यार करता
था |”
क्यों पढ़ें पालतू बोहेमियन …
अगर आप लेखक हैं या
साहित्य से प्यार करते हैं तो ये पुस्तक आपको अवश्य ही पढनी चाहिए | इतने सारे तथ्यों को इतने समय बाद जिस तरह से समेटा है उससे उन्क्के परिश्रम का सहज अनुमान लगाया जा सकता है | कहीं -कहीं तो ऐसा लगता है कि वो डायरी लेकर बैठे हैं और जोशी जी अभी -अभी बोल रहे हैं जिसको वो लिखते जा रहे हैं | इस तरह छोटी से छोटी सूचना को लिपिबद्ध करना दुर्लभ है | इस पुस्तक में आपको
मनोहर श्याम जोशी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ संस्मरण के माध्यम से ही देशी –विदेशी कई साहित्यिक पुस्तकों के नाम मिल
जायेंगे | ये पुस्तक उत्तर आधुनिकतावाद , हिंदी साहित्य में मार्क्सवाद , धारावाहिक
व् फिल्म लेखन , डबिंग आदि पर भी प्रकाश डालती है | इस पुस्तक के माध्यम में सीखा जा सकता है कि एक लेखक को कितना परिश्रम
करना पड़ता है | उसके लिए पढना और लिखना दोनों जरूरी हैं | गंभीर लेखन के लिए भी कई
सुझाव दिए गए हैं | किसी विषय पर शोध कैसे की जाती है उसकी भी जानकारी है | कुल मिला कर ये पुस्तक हिंदी साहित्य के बारे
में ज्ञान की एक पोथी है | इसे पढने से और बार बार पढने से एक लेखक के रूप में भी
कई कांसेप्ट क्लीयर होंगे | पूरी पुस्तक में कहीं भी दुरुहता नहीं आती और वहीँ रोचकता शुरू से अंत तक बनी रहती है | और अंत में जब मनोहर श्याम जोशी के ना रहने पर प्रभात जी पूछा जाता है कि आज आप को उनका कौन सा किरदार याद आ रहा है तो प्रभात जी कहते हैं , “हवेली राम, जो कलम से इन्कलाब लाना चाहता था ” इस एक पंक्ति में मनोहर श्याम जोशी का पूरा जीवन समाहित है |
साहित्य से प्यार करते हैं तो ये पुस्तक आपको अवश्य ही पढनी चाहिए | इतने सारे तथ्यों को इतने समय बाद जिस तरह से समेटा है उससे उन्क्के परिश्रम का सहज अनुमान लगाया जा सकता है | कहीं -कहीं तो ऐसा लगता है कि वो डायरी लेकर बैठे हैं और जोशी जी अभी -अभी बोल रहे हैं जिसको वो लिखते जा रहे हैं | इस तरह छोटी से छोटी सूचना को लिपिबद्ध करना दुर्लभ है | इस पुस्तक में आपको
मनोहर श्याम जोशी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ संस्मरण के माध्यम से ही देशी –विदेशी कई साहित्यिक पुस्तकों के नाम मिल
जायेंगे | ये पुस्तक उत्तर आधुनिकतावाद , हिंदी साहित्य में मार्क्सवाद , धारावाहिक
व् फिल्म लेखन , डबिंग आदि पर भी प्रकाश डालती है | इस पुस्तक के माध्यम में सीखा जा सकता है कि एक लेखक को कितना परिश्रम
करना पड़ता है | उसके लिए पढना और लिखना दोनों जरूरी हैं | गंभीर लेखन के लिए भी कई
सुझाव दिए गए हैं | किसी विषय पर शोध कैसे की जाती है उसकी भी जानकारी है | कुल मिला कर ये पुस्तक हिंदी साहित्य के बारे
में ज्ञान की एक पोथी है | इसे पढने से और बार बार पढने से एक लेखक के रूप में भी
कई कांसेप्ट क्लीयर होंगे | पूरी पुस्तक में कहीं भी दुरुहता नहीं आती और वहीँ रोचकता शुरू से अंत तक बनी रहती है | और अंत में जब मनोहर श्याम जोशी के ना रहने पर प्रभात जी पूछा जाता है कि आज आप को उनका कौन सा किरदार याद आ रहा है तो प्रभात जी कहते हैं , “हवेली राम, जो कलम से इन्कलाब लाना चाहता था ” इस एक पंक्ति में मनोहर श्याम जोशी का पूरा जीवन समाहित है |
१३६ पेज की इस किताब में मैंने बहुत कुछ समेटने की कोशिश की है पर
उससे कई गुना ज्यादा रह गया है | बेहतर है उस कई गुना ज्यादा को आप किताब पढ़ कर
खुद जाने | वैसे बहुत ही रोचक शैली में इतने ज्ञान को संकलित करने के लिए प्रभात
रंजन जी को बधाई
उससे कई गुना ज्यादा रह गया है | बेहतर है उस कई गुना ज्यादा को आप किताब पढ़ कर
खुद जाने | वैसे बहुत ही रोचक शैली में इतने ज्ञान को संकलित करने के लिए प्रभात
रंजन जी को बधाई
किताब का नाम -पालतू बोहेमियन
प्रकाशक -राजकमल
पृष्ठ -136
मूल्य -125
अमेजॉन से खरीदे –पालतू बोहेमियन
वंदना बाजपेयी
यह भी पढ़ें …
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जबरदस्त समीक्षा। मनोहर जोशी मेरे प्रिय लेखक थे।