विटामिन जिन्दगी- नज़रिए को बदलने वाली एक अनमोल किताब

विटामिन जिन्दगी- नज़रिए को बदलने वाली एक अनमोल किताब



इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ, मत बुझाओ !
जब मिलेगी, रोशिनी  मुझसे
मिलेगी
पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले
अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ
आँसुओं से जन्म दे-दे कर हँसी को
एक मंदिर के दिए सा जल रहा हूँ,
मैं जहाँ धर दूं कदम वह राजपथ है, मत मिटाओ !
पाँव मेरे देखकर दुनिया चलेगी !
जब मिलेगी, रोशिनी मुझसे मिलेगी !
                   राम अवतार
त्यागी  

आज मैं जिस किताब के बारे में लिखने जा रही हूँ वो सिर्फ एक किताब
नहीं है ..वो जिन्दगी है , जिसमें हताशा है, निराशा है संघर्ष हैं और संघर्षों से
टकरा –टकरा कर लिखी गयी विजय गाथा है | दरअसल यह गिर –गिर कर उठने की दास्तान है |
यूँ तो ये एक आत्मकथा है जिसे पढ़ते हुए आपको अपने आस-पास के ऐसे कई चेहरे नज़र आने
लगेंगें जिनके संघर्षों को आप
 देख कर भी
अनदेखा करते रहे | कई बार सहानुभूति में आँख तो भरी पर उनके संघर्षों में उनका
हौसला बढाकर साझीदार नहीं बने | इस पुस्तक का उद्देश्य इस सामजिक मानसिकता के भ्रम
को तोडना ह , जिसके तहत हम –आप,
  किसी
दिव्यांग को , किसी अस्वस्थ को, या
 किसी अन्य आधार पर किसी  को अपने से कमतर मान कर उसे बार –बार कमतरी का
अहसास करते हुए उसके स्वाभिमान पर प्रहार करते रहते हैं |
 सहानभूति और समानुभूति में बहुत अंतर है |
सहानभूति की नींव कभी समानता पर नहीं रखी होती | क्यों नहीं हम सहानुभूति वाली
मानसिकता को त्याग कर हर उस को बराबर समझें | उसे अपने पंख खोलने का हौसला और
हिम्मत दे …यकीन करें उसकी परवाज औरों की तरह ही ऊँची होगी …बहुत ऊँची |

विटामिन जिन्दगी- नज़रिए को बदलने वाली एक अनमोल किताब  


विटामिन जिंदगी के लेखक ललित कुमार



और जैसा किताब के लेखक ललित कुमार जी ने पाठकों को संबोधित करते हुए
लिखा है कि “मैंने इस पुस्तक में हर भारतीय को आवाज़ दी है कि वो विकलांगों के
प्रति अपने नजरिया सकारात्मक बनाए | मैंने समाज को कुछ वास्तविकताओं के बारे में
बताया है, ताकि हमारा समाज विकलांग लोगों को हाशिये पर डालने के बजाय विकलांगता से
लड़ने के लिए खुदको मानसिक व् संरचनात्मक रूप से तैयार कर सके | यदि यह पुस्तक एक
भी व्यक्ति के जीवन को बेहतर बनाने में थोडा भी योगदान दे सके तो मैं इस पुस्तक के
प्रकाशन को सफल समझूंगा |”

आज  हम जिस पुस्तक की चर्चा कर
रहे हैं वो है ललित कुमार जी की “विटामिन –जिंदगी” | ललित कुमार जी को कविता कोष व
गद्य कोष के माध्यम से सभी जानते हैं | लेकिन उनके सतत जीवन
  संघर्षों और संघर्षों को परास्त कर जिन्दगी की
किताब पर विजय की इबारत लिखने के बारे में बहुत कम लोग जानते होंगे | “ये विटामिन
जिंदगी” वो इच्छा शक्ति है वो जीवट है, वो संकल्प है जिससे कोई भी निराश, हताश व्यक्ति
अपनी जिन्दगी
 की तमाम मुश्किलों से टकराकर
सफलता की सीढियां चढ़ सकता है | इसमें वो लोग भी शामिल हैं जिनके साथ प्रकृति माँ
ने भी अन्याय किया है |

“प्रकृति विकलांग बनती है और समाज अक्षम” 

“ओह ! इसके साथ तो भगवान् ने बहुत अन्याय किया है”कह कर  हम जिन लोगों को देखकर आगे बढ़ जाते हैं उन्हीं
में से एक थे मिल्टन, जिनकी कवितायें आज भी अंग्रेजी साहित्य में मील का पत्थर बनी
हुई हैं,
 उन्ही में एक थे बीथोवन जिनकी
बनायी सिम्फनी को भला कौन नहीं जानता है | उनकी सुनने की क्षमता
  26 वर्ष की आयु से ही कम हो गयी थी | अन्तत:
उन्हें सुनाई देना पूरी तरह से बंद हो गया | पाँचवीं सिम्फनी तक वो पूरी तरह से सुनने
की क्षमता खो चुके थे | फिर भी वो रुके नहीं …और उसके बाद भी एक से बढ़कर एक
 लोकप्रिय सिम्फनी बनायी | उन्हीं में से एक है हिंदी
फिल्मों में नेत्रहीन संगीतकार, गीतकार  रवीन्द्र जैन जिनकी बनायीं धुनें आज भी भाव
विभोर करती हैं |
  उन्हीं में से एक है दीपा  मालिक जी, जिनके सीने के नीचे का हिस्सा
संवेदना शून्य है लेकिन उन्होंने रियो पैरा ओलम्पिक में रजत पदक जीता | हाल ही में
उन्हें खेल रत्न से नवाजा गया है | और उन्हीं में से एक हैं ललित कुमार जी | ऐसे
और भी बहुत से लोग होंगे जिनके नाम हम नहीं जानते, क्योंकि उन्होंने सार्वजानिक
जीवन में भले ही कुछ ख़ास न किया हो पर अपने–अपने जीवन में अपने संघर्ष और विजय को
बनाए रखा | ये सब लोग अलग थे ….दूसरों से अलग पर सब ने सफलता की दास्तानें लिखीं
| ये ऐसा कर पाए क्योंकि इन्होने खुद को अलग समझा दूसरों से कमतर नहीं | इस किताब
के लिखने का उद्देश्य भी यही है कि आप इनके बारे में जान कर महज उनकी प्रशंसा
प्रेरणादायक व्यक्तित्व के रूप में कर के आगे ना बढ़ जाए | बल्कि
 अपने आस-पास के दिव्यांग लोगों को अपने बराबर
समझें | उनमें कमतरी का अहसास ना जगाएं |
 

पल्स पोलियो अभियान के बाद आज भारत में पोलियो के इक्का दुक्का मामले
ही सामने
  आते हैं परन्तु एक समय था कि
पूरे
  विश्व को इसने अपने खुनी पंजे में
जकड़ रखा था | कहा जाता है कि उस समय अमेरिका में केवल दो चीजों का डर था एक
ऐटम
  बम का और दूसरा पोलियो का | पोलियो के
वायरस का 90 से 95 % मरीजों पर कोई असर नहीं होता | 5 से 10% मरीजों पर हल्का
बुखार और उलटी और दर्द ही होता है केवल दशमलव 5% लोगों में यह वायरस तंत्रिका
तंत्र पर असर करता है और उसे जीवन भर के लिए विकलांग कर देता | ये बात भी महवपूर्ण
है कि
 1955 में डॉ सार्क  ने पोलियो का टीका बनाया था | लेकिन उन्होंने
इसे पेटेंट नहीं करवाया | उन्होंने इसे मानवता के लिए दे दिया | वो इस टीके के
पेटेंट से हज़ारों करोणों डॉलर कमा सकते थे | पर उन्होंने नहीं किया | और इसी वजह
से पोलियो को दुनिया से लगभग मिटाया जा सका है | मानवता के लिए ये उनका अप्रतिम
योगदान है | ये जानने के बाद उनके प्रति श्रद्धा से सर झुक जाना स्वाभाविक है |
लेकिन 80 के दशक में भारत में भी पोलियो का खौफ था | ये मासूम बच्चों
पर प्रहार कर उन्हें बेबस करता था | मुझे याद है मेरे प्राइमरी स्कूल में
 एक बच्ची थी जिसका एक पैर पोलियो से ग्रस्त था |
मेरा संवेदनशील मन हमेशा उसके साथ रहा | पर इस पुस्तक को पढने के बाद मुझे लगा कि
काश ये पुस्तक मैं उस समय पढ़ पाती तो उसको और वो हम सब से क्या चाहती है इसे और
गहराई से समझ पाती |
 

इस किताब से पहले पन्ने पर ,”हमें भी कुछ  कहना है” में “नमस्ते हम ललित की बैसाखियाँ
हैं’ से जो पाठक की आँखें डबडबाती हैं वो आगे के पन्नों पर बिना रुके बरसती ही
जाती हैं और अंत तक आते –आते सर श्रद्धा से झुकता जाता है | ये जीवन कथा आरम्भ
होती है एक निम्न मध्यम वर्ग में जन्में चार वर्षीय बच्चे से जिस पर पोलियो वायरस
का अटैक हुआ है | वो बच्चा जो अभी तक अन्य बच्चों के साथ दौड़ता भागता था, जिसके
नन्हे पैर वैष्णव देवी की खड़ी पहाड़ी पर सरपट दौड़ कर चढ़ गए थे,
   उसे डॉक्टर्स ने कह दिया  कि अब ये कभी चल ही नहीं पायेगा | ये एक हँसते –खिलखिलाते
परिवार में एक वज्रपात की तरह से था | कितना समय
 
लग गया होगा परिवार को इस सच्चाई को स्वीकार करने में | और फिर आशा की लौ
को जीवित रखते हुए लिया एक संकल्प कि किसी भी तरह से इस बच्चे को ठीक करना है |
किसी के, कोई भी कोई डॉक्टर वैद्य बताने पर बच्चे को लेकर वहाँ दौड़ पड़ना, बार–बार
होने वाली निराशा में भी आशा का दीप जलाए रखना, वैद्य द्वारा बताई गयी मालिश और
भाप
  आदि देने के लिए दिन–रात एक कर देना
किसी भी माता –पिता और परिवार
  के संघर्षों
की बयानी है | वहीँ उस बच्चे के दर्द जिसे असह्य
 
पीड़ा के बाद बैसाखी पकड़ा दी जाए कि अब तुम्हें इससे ही चलना है ह्रदय में
शूल सा गड़ता है |

इस पुस्तक के माध्यम से ललित कुमार जी ने अपने जीवन के एक –एक संघर्ष
को रखा है | खाना–पीना ,चलना , बोलना जो आम लोगों के लिए सामान्य सी बात होती है
वो भी दिव्यांगों के लिए संघर्ष का सबब होता है |
 एक मासूम बच्चा जिसे बैसाखी पर चलना है,  जिसके लिए रोजमर्रा के काम भी कठिन हैं वो बच्चा
हिम्मत करके स्कूल जाता है | पर वहाँ भी बच्चे उसे चिढाते हैं, उसकी बैसाखी छीन
लेते हैं, अपने से कमतर दिखाते हैं | बचपन में हमने आपने भी सुना है बच्चों को
गाते हुए,
 घर में आस –पड़ोस के लोग आने
जाने वाले बेचारगी का भाव दिखाते हैं | ये सब बातें मन को तोडती हैं | कमजोर शरीर
से लड़ते हुए व्यक्ति
  केवल मन की शक्ति से
ही आगे बढ़ने का प्रयास करता है पर समाज उससे वो भी छीनने की कोशिश करता है | ऐसे
में अपने आत्मसम्मान को बचाए रख कर संघर्ष करना और भी कठिन हो जाता है |
बचपन के संघर्षों को बयाँ करते हुए ललित कुमार जी जब बच्चों द्वारा
परेशान  किये जाना तो बताते है तो पाठक की
आँखों के आगे ऐसे दृश्य स्वत: ही आ जाते हैं जहाँ बच्चे किसी को …”लंगड़दींन
बजावे बीन कह कर छेड़ रहे हैं तो किसी को चश्मिश कह कर, किसी को तेरे तो मजे हैं
तुझे तो प्रार्थनासभा में जाना नहीं पड़ता” यहाँ बात माता –पिता द्वारा बच्चों समाज
के प्रति संवेदनशील बनाने की कमी दिखाती है वहीँ अध्यापक, वो तो बड़े हो चुके हैं,
वो क्यों  अपने क्लास के बच्चों को गलत बात
कहने करने के लिए डांटते नहीं है या समानता के व्यव्हार को प्रोत्साहित करने की
अपनी जिम्मेदारी को भूल जाते हैं |


मैंने भी इस बारे में एक बार लेख लिखा था कि “क्या
सभी टीचर्स को चाइल्ड
साइकोलॉजी की समझ है? “ उस समय मेरा उद्देश्य ‘वर्बल
अब्यूज’ के प्रति ध्यान दिलाना था | शिक्षक जिसे ब्च्चा अपना आदर्श समझता है अगर
वो एक छोटा सा नकारात्मक बीज बच्चे के दिमाग में बो देता है उसे आसानी से नहीं
निकाला जा सकता |  जब आप इस किताब को
पढेंगे तो समझेंगे कि आखिर क्या कारण होगा, जो ललित कुमार जी को लिखना पड़ा …जो
अध्यापकों ने उनकी शिकायत पर बच्चों से कहा …

“उसके पास बंदूक है” , “ वो तुम्हे डंडे से
मारेगा” या जगन को डांटते हुए कहना, “ ये बेचारा तो पहले से ही भगवान् का सताया हुआ
है, इसे और तंग क्यों करते हो?”


आखिर कितनी निराशा रही होगी, जब उन्हें कहना
पडा ,
 “लेकिन प्रश्न ये है कि हमारे समाज
में अध्यापक अपने कार्य को कितनी गंभीरतासे लेते हैं |” वो उस प्रक्रिया के बारे
में भी बात करते हैं जिसके जरिये किसी आम व्यक्ति के हाथों में सैंकड़ों
विद्यार्थियों का भविष्य सौंप दिया जाता है |

एक महत्वपूर्ण वाक्य और है जब ललित जी युवा
होने के बाद देश विदेश की यात्रा करते हैं तो उन्हें वो प्रसंग याद आता है जब बचपन
में चिड़ियाघर पिकनिक जाने पर यह कह कर रोक दिया था कि , “ तुम नहीं, तुम रहने दो ,
तुम चल तो पाओगे नहीं |” क्या वो उन्हें
 नहीं ले जा सकते थे ….लेकिन वो उन्हें नहीं ले
गए |
 दिव्यांगों  के प्रति किस तरह का व्यवहार हो इस बात को
पुस्तक मजबूती से रखती है | जहाँ एक तरफ यह आपको भावुक
 करती हैं वहीँ इस विषय पर देश और विदेश में दिव्यांगों
के साथ होने वाले अलग –अलग व्यवहार के लिए भी अपनी बात रखती है …जैसे कि हमारे
यहाँ मॉल में या अन्य जगहों पर सुरक्षा जांच के समय दिव्यांगों की जांच यह कह कर
नहीं की जाती, “अरे इसकी रहने दो, इसे तो भगवान् ने वैसे ही दंड दिया है |” जबकि
विदेश में सबकी
 समान ही चेकिंग होती है |
कॉलेज हॉस्टल में भी जो छात्र जो काम कर सकता है उसे करने दिया जाता है | लोग बिना
वजह रोक कर पूछते नहीं हैं कि, “ अरे ये आपके साथ क्या हुआ ?” लोग बिना वजह घूरते
नहीं हैं |
 बसों में दिव्यांगों और
विकलांगों के लिए सीट न कर “प्राथमिकता सीट” होती हैं | जिसको ज्यादा जरूरत हो वो
उस सीट पर बैठे | जैसे युवा बैठा है तो वो किसी वृद्ध के आने पर उठ जाएगा | कोई
वृद्ध बैठा है तो वो किसी गर्भवती
 महिला
के आने पर उठ जाएगा | एक बार ललित जी भी अपनी सीट एक गर्भवती महिला को देते हैं तो
वो ये नहीं कहती कि , “ नहीं –नहीं आप बैठिये “ बल्कि धन्यवाद कह कर बैठ जाती है |
ये बातें भले ही कितनी छोटी हों पर एक दिव्यांग व्यक्ति के आत्मविश्वास को बढाने
 के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती हैं | याद रखिये
आत्मविश्वास कमतरी की भावना जाताने से नहीं बल्कि समान समझने की भावना से बढ़ता है
| ऐसा करके हमारे देश में विकलांग व्यक्तियों को उपयोगी होने से रोक दिया जाता है
|
 
 दिव्यांगों के प्रति परिवार का व्यवहार बहुत
महत्वपूर्ण होता है | ललित कुमार जी बताते हैं कि उनके माता –पिता आर्थिक रूप से
समर्थ नहीं थे | शिक्षित भी नहीं थे
  |
लेकिन उन्होंने उनके मनोबल को कभी नहीं तोडा | उन्होंने जो करना चाहा
 उसे करने में सहयोग दिया | उनके संयुक्त परिवार
के हर सदस्य ने उनको कभी पीछे छूटा
 हुआ
महसूस नहीं होने दिया | ललित जी लिखते हैं कि वो ऐसे कई माता –पिता को जानते हैं
जो अपने दिव्यांग बच्चे के
  बेहतर भविष्य
के लिए कोशिश कर रहे हैं | वहीँ ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो केवल अपने स्वस्थ
बच्चों की ही चिंता करते हैं और उन्होंने अपने विकलांग बच्चों को समय के सहारे छोड़
दिया है | इसके पीछे सिर्फ माता –पिता ही दोषी नहीं हैं बल्कि पूरी सामाजिक सोच
काम करती है |
 
यूँ तो ये पुस्तक एक आत्मकथा है | लेकिन ये
आत्मकथा के साथ बहुत कुछ कह जाती है | एक ओर जहाँ
 ये दिव्यांग व्यक्ति की पीड़ा, कैपलर , पोलियो
करेक्शन ओपरेशन , डॉ. मैथ्यू वर्गीज जैसे देवतुल्य पुरुष के बारे में बात करती हैं
| वहीँ दूसरी ओर ये दिव्यंगों के प्रति समाज की सोच बदलने पर जोर देती है | ये
किताब हर व्यक्ति के अन्दर ये हौसला जगाती है कि सकारात्मक सोच के द्वारा वो अपना
जीवन बदल सकता है | स्वस्थ हो या दिव्यांग हर व्यक्ति में अपर संभावनाएं होती हैं
| जरूरत है आशा , साहस , सकारात्मक सोच के विटामिन के साथ आगे बढ़ने की |


इस पुस्तक का प्रकाशन हिंदी युग्म ने eka प्रकाशन के साथ मिलकर किया है | इसके
२५६ पन्ने हैं | कवर पृष्ठ पुस्तक के कंटेंट के अनुरूप है |

अभी तक मैं हमेशा कहती आई हूँ कि ये पुस्तक इस
रूचि के लोगों को पढनी चाहिए | पर इसके लिए मैं ये कहूँगी कि ये पुस्तक सभी को
पढनी चाहिए |


विटामिन जिन्दगी -जीवनी 
लेखक -ललित कुमार 
प्रकाशक -हिंदी युग्म eka
पृष्ठ -256
मूल्य – 199 रुपये 

अमेजॉन से खरीदे –विटामिन जिन्दगी
 समीक्षा -वंदना बाजपेयी 
                                       
लेखिका -वंदना बाजपेयी
                                           
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