विभोम स्वर व् शिवना साहित्यकी मेंरी नज़र में

विभोम स्वर व् शिवना साहित्यकी मेंरी नज़र में



शिवना प्रकाशन की दो पत्रिकाएँ ‘विभोम स्वर’और ‘शिवना साहित्यिकी’
प्राप्त हुईं | अभी थोड़ी ही पढ़ीं हैं, फिर भी उन पर लिखने का मन हो बन ही गया |
पूरी पढ़कर और लिखूँगी | सबसे पहले बात करुँगी ‘शिवना साहित्यिकी” की | कवर पेज पर
ही बना बच्चा और भगवत रावत जी की कविता मन मोह लेती है | एक अंश …



अलमुनियम का वह दो डिब्बों वाला कटोरदान
बच्चे के हाथ से छूट कर
नहीं गिरा होता सड़क पर
तो कैसे पता चलता
कि उसमें चार रूखी रोटियों के साथ-साथ
प्याज की एक गाँठ और दो हरी मिर्चे भी थीं

विभोम स्वर व् शिवना साहित्यकी मेरी नज़र में 

(वर्ष-4 अंक -15 )


विभोम स्वर व् शिवना साहित्यकी मेरी नज़र में


             
इस अंक की खास
बात है गीता श्री जी का पारुल सिंह द्वारा लिया गया साक्षात्कार | जितने चुटीले
सवाल पारुल जी ने पूछे उतने ही दिलकश जवाब गीताश्री जी ने दिए | गीता श्री जी का
स्पष्ट दृष्टिकोण, बेबाक और अपनेपन से भरा अंदाज पाठकों को ख़ासा लुभाता है |
गीताश्री जी एक पत्रकार रहीं हैं | पत्रकारिता ने उनके अनुभवों को विस्तार दिया
हैं और साहित्य प्रेम में शब्दों और भावों पर पकड़ | इस कारण न उनके पास विषयों की
कमी होती हैं ना उन्हें अभिव्यक्त करने के अंदाज की | साक्षात्कार लम्बा है, फिर
भी कुछ बातें मैं आप सब से साझा कर रही हूँ | जो मेरे ख्याल से आप के अनुभवों में
भी कुछ इजाफ़ा करेंगी | पुरुस्कारों के बारे में वो कहती हैं कहती हैं कि, “
पुरूस्कार मुझे उत्साहित
 करते हैं और
बेहतर करने को उकसाते हैं |” हालांकि वो साहित्य की तुलना जलेबी दौड़ से करती हैं |
बचपन में हम सब ने जलेबी दौड़ में हिस्सा लिया है | इसमें हाथ पीछे बंधे होते हैं
और धागे में बंधी जलेबी का एक टुकडा
 काट
कर आगे भागना होता है | गीता श्री जी कहती हैं कि जो छोटा टुकडा काट कर आगे भाग
जाते हैं उन्हें पुरूस्कार मिल जाते हैं और वो पूरी जलेबी खाने के लोभ में वहीँ खड़ी
रहती हैं तो उनका मुँह मिठास से भर
 जाता
है | कितनी सुन्दर बात कही है उन्होंने, भले ही पुरूस्कार उत्साहित
 करते हैं पर  रचनात्मक संतुष्टि की मिठास किसी पुरूस्कार से
कम तो
 नहीं | स्त्रियों के मामले में वो एक
ऐसे समाज को स्वप्न देखती हैं जहाँ स्त्री समाज से टकराकर रूढ़ियों को तोड़ कर
समानता के आधार पर एक संतुलित समाज की नींव रखती है | उनकी कहानियों की नायिकाएं
ऐसी ही हैं | वो बार –बार प्रयोग करने का जोखिम उठा कर अपनी रेंज का विस्तार करती
हैं | किसी भी रचनाकार के लिए जरूरी है कि वो अपने द्वारा स्थापित मानकों में कैद
होकर ना रह जाए |


डॉ. कमल किशोर गोयनका जी का शोध आलेख “गांधी की पत्रकारिता का भारतीय
मॉडल” विचारों का परिमार्जन करने वाला एक अवश्य पठनीय आलेख है | वो लिखते हैं कि ,
“नाथूराम गोडसे ने गांधी को तीन गोलियों से मारा था | पर हम उन्हें विगत 70 वर्षों
सीसंख्य गोलियों से मारते आ रहे हैं , परन्तु गांधी हैं कि मरते ही नहीं | गांधी
ने मशीनी सभ्यता के दुष्परिणामों के विरुद्ध जगत को चेताया था तथा ग्रामीण व्
प्राकर्तिक जीवन के निरंतर नाश सेसे उत्पन्न होने वाले संकटों से सावधान किया था,
परन्तु विज्ञानं एवं तकनीकी जिस प्रकार जीव सृष्टि के लिए संक्सत पैदा कर रही है
तब हमें गांधी याद आते हैं और तब हम उनके विचारों में सामाधान ढूँढने लगते हैं |” मंजुश्री
के कहानी संग्रह “जागती आँखों का सपना” की डॉ. रमाकांत शर्मा द्वारा व् योगेन्द्र
शर्मा जी के उपन्यास ‘कितने अभिमन्यु’ की वेदप्रकाश अमिताभ जी द्वारा की गयी
समीक्षा प्रभावित करती है |केंद्र में पुस्तक “जिन्हें जुर्म –ए –इश्क पर नाज था
कि मनीषा कुलश्रेष्ठ, पंकज पराशर, शुभम तिवारी , ब्रिजेश राजपूत, कविता वर्मा,
दिनेश पाल की समीक्षाएं पुस्तक पढने के प्रति रुझान उत्पन्न
 करती है | मैंने भी इसे अपनी ‘विश लिस्ट’ में रख
लिया है | 



 इसी अंक में मेरे द्वारा
प्रज्ञा
 जी के कहानी संग्रह “मन्नत टेलर्स”
की समीक्षा भी प्रकाशित हुई है | जिसे पढ़कर
 बताने का काम आप पाठकों का है |


विभोम स्वर 



“विभोम स्वर” एक बेहतरीन साहित्यिक पत्रिका है | जिसके उत्तम स्वरुप
लेने में सुधा ओम ढींगरा जी व् पंकज सुबीर जी की मेहनत दिखती है | साहित्य में
विचारधाराओं की गुटबाजी पर
 अपने सम्पादकीय
में सुधा जी लिखती हैं, “साहित्य में विचारधाराओं ने क्या किया ? सिर्फ अपने लेखक
स्थापित करने के अतिरिक्त साहित्य और भाषा की समृद्धि की ओर किसने देखा ?”

विभोम स्वर व् शिवना साहित्यकी मेंरी नज़र में






डॉ. हंसा दीप का सुधा जी द्वारा लिया गया साक्षात्कार बहुत ही रोचक व्
प्रेरणादायक है |
  टोरंटो में लेक्चरार के
पद पर कार्यरत डॉ.हंसा जी विदेशियों को हिंदी भाषा सिखाने में होने वाली दिक्कतों
के बारे में बताती हैं व् इस बात पर जोर देती हैं कि हिंदी को विश्व व्यापी करने
के लिए उसका सरलीकरण बहुत जरूरी है | अभी हिंदी दिवस के आस –पास ट्विटर पर यह बहस
भी चल रही थी | सच्चाई यही है कि भारत में भी बहुत क्लिष्ट भाषा आज
 का युवा समझता नहीं है | सबसे पहले जरूरी है कि
युवाओं को हिंदी से जोड़ा जाए | प्रवासी भारतीयों के लेखन के बारे में वो कहती हैं
कि रोजी रोटी की व्यवस्था करने बाद ही वो अपनी रचनात्मक भूख शांत कर पाते हैं |
इसमें एक लम्बा अंतराल आ
 जाता है | फिर भी
कैनवास व्यापक
 हुआ है | सृजनात्मकता बढ़ी
है | स्त्री लेखन, प्रवासी लेखन के वर्गीकरण को वो नहीं मानती पर वो ये मानती हैं
पर पश्चिमी व् भारतीय स्त्री के प्रति मूलभूत मानसिकता वही है को स्वीकार करती हैं
|
विभोम स्वर व् शिवना साहित्यकी मेंरी नज़र में



विशाखा मुलमुले  की कवितायें
गहरे भाव संप्रेषित करती हैं | ये कवितायें हमें जीवन का  आइना दिखाती हैं | ये एक रूपक के माध्यम से अपनी
बात कहती हैं और दोनों को तराजू के दो पलड़ों में रखकर सोचने पर विवश कर देती हैं |
कहीं ये रूपक विज्ञान से होते हैं तो कहीं जीवन से | 
जीवन पर उनकी गहरी दार्शनिक पकड़ है | जो सूक्ष्मता से आम जीवन को देखती हैं |उनमें काफी संभावनाएं हैं |  कहानी में ऐसा ही प्रयोग दीपक शर्मा जी की
कहानियों में
  मिलता हैं | कुछ कविताओं के
अंश दे रही हूँ |


चावल चुनने की प्रक्रिया में
 हम चावल नहीं चुनते  
चुनते हैं कंकण
इस तरह का बर्ताव
हम अन्य अनाजों के साथ भी करते हैं
कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं
यही आदतें कब बन जाती हैं हमारा स्वभाव
हम बूझ नहीं पाते हैं
आहिस्ता –आहिस्ता
सुख –दुःख की थाली से हम
चुनने बैठते हैं सुख
और दुःख चुन लेते हैं
घास नहीं डालती कभी हथियार
उग ही आती है पाकर रीती जमीन
कुछ घास की तरह ही होते हैं बुरे दिन
जड़ें जमा ही लेते हैं अच्छे दिनों के बीच
कविता –पुनर्नवा का अंश
…………………………………………
इसी तरह भावनाहीन मशीनी मानव
भी
गाहे –बगाहे उगलते रहते हैं अपने शब्दों के रसायन
आबदार कई व्यक्तित्व आते रसायन की चपेट में
कभी-कभी तो रसायन इतना सान्द्र
की आँख का पानी भी ना कर पाता  इसे तनु
कविता –रसायनशास्त्र का एक अंश

.





विवेक मिश्रा जी की कहानी दुर्गा अच्छी लगी | विवेक जी अपनी  कहानियों
में सूक्ष्म डिटेल्स में जाते हैं | कहानी का अंत चौकाने वाला है | ज्योति जैन की
कहानी “जुड़े गाँठ पड़ जाए ‘ में
 हिन्दू
मुस्लिम युवाओं का प्रेम है | परन्तु ये लव-जिहाद जैसा नहीं है | ये कहानी विश्वास
पर आधारित है | विश्वास टूट जाए तो रिश्ता बचता नहीं है | जो आपको थोडा बदलने कहता
है वो पूरा बदलने पर भी संतुष्ट नहीं होगा | अर्चना पैन्यूली की कहानी “हम पहुँच
जायेंगे तेरी शादी में भारत” अपने ही देश में भगौलिक बँटवारे के आधार पर बच्चों की
पसंद पर विवाह की स्वीकृति देने में माँ की कशमकश को दिखाया है | आज जमाना बदल रहा
है फिर भी रफ़्तार धीमी है | डॉ . प्रदीप उपाध्याय की लघुकथा ‘परख’ व् सुमन कुमार
की
 लघुकथा ‘बेटे होकर’ प्रभावित करती है |
अमृता प्रीतम पर वीरेन्द्र जैन जी का लेख “अनाम रिश्तों की चितेरी” उनके रचनात्मक
जीवन के कुछ अनकहे  पहलुओं पर प्रकाश डालता है |


एक अच्छे अंक के लिए पंकज सुबीर जी व् सुधा ओम ढींगरा जी को बधाई |


वंदना बाजपेयी 
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