कानपुर में धनुक की गूँज
कानपुर एक ऐसा शहर जो चारों तरफ से गाँवों से घिरा हुआ हुआ है | आम बोली-बानी में सहज ही देशज शब्द शामिल हैं | उत्तर प्रदेश की देशी संस्कृति से धडकता है इसका दिल | वैसे आम तौर पर कानपुर की पहचान उत्तर के प्रमुख औद्योगिक शहर के रूप में है | यहाँ का हैंडलूम व् चमड़ा उद्द्योग पूरे देश में प्रसिद्द है | जहाँ पर किसान, श्रमिक और पूंजीपति वर्ग मिलजुल कर रहते हों वहाँ की धरती स्वत : ही साहित्य के लिए उर्वरा हो जाती है | इन आम लोगों के जीवन, उनकी दुश्वारियों उनकी संवेदनाओं से मिलकर ही तो बनता है साहित्य |
कानपुर और साहित्य का अटूट संबंध है | महर्षि वाल्मीकि ने आदि कानपुर कहे जाने वाले बिठूर में ही रामायण की रचना की | जो विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर है | धरती पर साहित्य सृजन का सिलसिला वहीँ से आरम्भ माना जाता है | 1857 की क्रांति का विस्फोट यहाँ से हुआ। बिठूर के नानाराव पेशवा, अजीमुल्ला खां, अजीजन बाई सहित कई ऐसे चरित्र हुए, जिन्होंने कलम के सिपाहियों को आकर्षित किया। उन्हीं के प्रभाव से ‘प्रताप अखबार’ के जरिये गणेश शंकर विद्यार्थी ने तेजस्वी हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत कानपुर से की। महान क्रांतिकारी भगत सिंह भी यहां रहक उर्दू में छद्म नाम प्रताप अखबार में लिखते थे | “धनपत राय” कानपुर में पोस्टिंग के दौरान यहाँ मजदूरों की स्थिति, ट्रेड यूनियन के आन्दोलन देखकर हिंदी में लिखना शुरू किया और कथा सम्राट ‘प्रेमचन्द्र’ का साहित्यिक जन्म कानपुर में हुआ | महावीर प्रसाद द्विवेदी को कानपुर से विशेष लगाव रहा। इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘सरस्वती’ का उन्हें संपादक बनाया गया तो उन्होंने रेलवे की नौकरी छोड़ दी। शर्त रख दी कि वह संपादन करेंगे एक ही शर्त पर। कानपुर में रहकर लेखन करेंगे और यहां से इलाहाबाद लेख भेजे | अटल बिहारी बाजपेयी और गोपाल दास नीरज जी की हिंदी की काव्यधारा का उद्गम स्थल भी कानपुर ही है | वर्तमान दौर में सबसे वरिष्ठ और सशक्त साहित्यकारों में कथाकार पद्मश्री गिरिराज किशोर और प्रियंवद का नाम सम्मान से लिया जाता है। फिर औद्योगिक परिवेश ने ही शहर को राजेंद्र राव, श्रीनाथ और सुनील कौशिक जैसे साहित्यकार दिए। कहानीकारों में ललित मोहन अवस्थी, सुशील शुक्ल, प्रकाश बाथम और हृषिकेश भी उल्लेखनीय नाम हुए। सुमित अय्यर और अमरीक सिंह दीप भी कानपुर के साहित्यिक आकाश के सितारे हैं ।
कानपुर में धनुक की गूँज –एक विस्तृत रिपोर्ट
इतना सब कुछ होने के बावजूद साहित्य के बड़े उत्सव दिल्ली, भोपाल, पटना, जयपुर में सिमिटने लगे | साहित्य की शुरुआत करने वाला कानपुर पीछे होता चला गया | जरूरत थी एक धनुष के टंकार की जो कानपुर के साहित्य व् यहाँ की साहित्यिक सोच से समृद्ध जनता का गौरव फिर से स्थापित कर सके | और ये काम किया साहित्यिक संस्था “धनुक” ने | इसकी खास बात ये है कि इस संस्था की अध्यक्षा कानपुर में ही पली बढ़ी डॉ. ज्योत्स्ना मिश्रा हैं | जो शरीर के साथ –साथ मन को भी दुरुस्त करने का माद्दा रखती हैं | और इसी सन्दर्भ में एक फरवरी 2020 को कानपुर के लाजपत भवन प्रेक्षागार में एक वृहद् साहित्यिक आयोजन किया गया | पूरे दिन चलने वाले इस कार्यक्रम के कई सत्र थे | जहाँ कविता ग़ज़ल कहानी के साथ –साथ स्त्री विमर्श, गांधी दर्शन और कश्मीरी पंडितों के दर्द के जरूरी मुद्दों पर भी विमर्श हुए |
कार्यक्रम का शुभ आरंभ प्रात 11 बजे कवि अग्निशेखर, प्रियंवद, विजय किशोर मानव, लीलाधर जगूड़ी , ज्योत्स्ना मिश्रा व् सभी गणमान्य अतिथियों द्वारा दीप प्रज्जलन के साथ हुआ । इस अवसर पर आचार्य नरेंद्रदेव कॉलेज से आई एक टीम द्वारा सरस्वती वंदना का भी गयां किया गया |
कार्यक्रम का पहला सत्र “गांधी से डरता कौन है “में महात्मा गाँधी पर एक गंभीर विमर्श हुआ | इसके बाद प्रथम सत्र में “गांधी से को डरता है” विषय पर गंभीर चर्चा हुई जिसमें देहरादून से आए वरिष्ठ साहित्यकार पदम श्री लीलाधर जगुड़ी जी कानपुर के साहित्यकार प्रियवद जी , एवम पत्रकार श्री विजय किशोर मानव जी और नासिक से आए गांधी अभ्यासक पराग मांडले ने भाग लिया संचालन सर्वोदय जगत पत्रिका के सह संपादक प्रेम प्रकाश जी ने किया। पराग मांडले जी ने जहाँ इस बात पर जोर दिया कि गांधी जी की मूर्तियों को ह्रदय में स्थापित करना है | उनके चश्में पर सत्य और अहिंसा के स्थान पर स्वच्छ भारत लिख देने से क्या फर्क पड़ता है अगर उसे अमल में ना लाया जाए | उनका कहना था कि गांधी जी से सत्ताएं डरती हैं | प्रियंवद जी ने कहा कि गांधी जी का प्रयोग उनके पक्ष और विपक्ष के सभी लोगों ने अपनी सुविधानुसार किया | उन्होंने जोर दिया कि गांधी जी के फॉलोअर बनने के स्थान पर उनकी शिक्षाओं पर अमल करना चाहिए | विजय किशोर मानव जी ने कहा कि गांधी से हर वो व्यक्ति डरता है जो सच से डरता है | क्योंकि जिसके पास सत्य का अवलंबन होता है वो निडर हो जाता है, निर्भय हो जाता है | उनका कहना था कि हिंसा शाब्दिक भी होती है | पद्मश्री लीलाधर जगूडी जी ने उन सब परिस्थितियों की चर्चा की जिनसे एक साधारण इंसान गाँधी बनता है | क्योंकि वो अपने जीवन से सीखता और उसे सुधारता चलता है | उन्होंने रविन्द्रनाथ टैगोर और गाँधी जी का एक बहुत खूबसूरत प्रसंग सुनाया | जहाँ उन्होंने कहा कि असुंदर दिखना भी हिंसा है | हर हिंसा दिखाई नहीं देती पर कई प्रव्त्तियाँ हिंसक होती है | गांधी से वो सब डरते हैं जिनके अंदर हिंसा शेष है |
दूसरे सत्र सम्मान समारोह का रहा जिसमें सखी केंद्र की संस्थापक और सामाजिक कार्यकर्ता सुश्री नीलम चतुर्वेदी और पर्यावरण विध श्री नरेन्द्र नीरव को व्यक्तित्व सम्मान 2020 दिया गया।
तीसरे सत्र में वंकुश अरोरा की पुस्तक लव ड्राइव का विमोचन किया गया। युवा कथाकार वंकुश की कहानियाँ आम जनमानस के ह्रदय को स्पर्श करती हुई है |
चौथे सत्र में स्त्री विमर्श में वरिष्ठ पत्रकार रोमी अरोड़ा , वरिष्ठ साहित्यकार चित्रा देसाई , युवा विचारक कव्या मिश्रा, और ‘अटूट बंधन’ की कार्यकारी संपादक व् साहित्यकार वंदना बाजपेयी ने भाग लिया। संचालन अनुवादक व् साहित्यकार सोनाली मिश्र ने किया | सोनाली मिश्र ने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय स्त्री पुरातनकाल से मुक्त है अब समाज को मुक्त होना है | उन्होंने उन्नाव की खगनिया देवी का भी जिक्र किया जिनका इतिहास दबा दिया गया है | काव्या मिश्रा ने स्त्री पुरुष को एक समान समझे जाने की वकालत की रोमी अरोड़ा जी ने कहा कि स्त्री को देवी की पदवी से उतार कर कर मानव समझे जाने की जरूरत है और इसकी पहल उसे खुद करनी होगी | वंदना बाजपेयी ने कहा कि स्त्री सतयुग से सीधे यहाँ नहीं आई है | जय और पराजय के समग्र इतिहास के बाद वो यहाँ पहुंची हैं | इसलिए उसकी आज की समस्याओं पर बात होनी चाहिए | कुछ लोगों को आधुनिक नारी से डर लगने लगा है पर विमर्श की आवश्यकता इसी लिए हैं कि स्त्री को एक दिशा दी जा सके ताकि वो परिवार और संस्कृति को साथ लेकर आकाश को छू ले | वरिष्ठ साहित्यकार चित्रा देसाई जी ने अपनी माँ का जीवन साझा किया | उनके एक सशक्त स्त्री बनने के निजी दृष्टान्त पर सारे प्रेक्षागार तालियों से गूँज उठा | चित्रा देसाई जी ने कहा कि अब समय आ गया है कि स्त्री पुरुष विमर्श के स्थान पर मानव विमर्श हो |
इसके बाद गौतम राजऋषि जी ( नीला –नीला, हरी मुस्कुराहटों वाला कोलाज ) का प्रश्नों का रैपिड फायर राउंड हुआ | जिसमें जब उनसे पूछा गया कि वो कलम या बन्दूक में से क्या चुनेगे तो उन्होंने कहा कि दोनों | दरअसल कलम की ताकत बन्दूक की ताकत से कम नहीं होती | उन्होंने आँखों देखी सच्चाई को कहानियों में ढाला है | कविता का गोल्डन पीरियड वो उस दौर को मानते हैं जब टूटी टांग और फटे हाथ का अस्पताल के बेड पर पड़े इलाज करा रहे थे। बुलेट प्रूफ जैकेट होने के कारण चार गोलियां पेट बाहर अटककर रह गयीं थीं।
इसके बाद शुरू हुआ सबसे महत्वपूर्ण पाँचवा सत्र “कश्मीर साहित्य के आईने में” इस सत्र में अग्नि शेखर जी ने कश्मीरी साहित्य की जानकारी दी | कश्मीर में साहित्य की परंपरा शुरू से ही रही है | उन्होंने १२०० बी सी पहले पैदा हुए लगध व् चरक के बारे में जानकारी दी जिन्होंने ज्योतिष शास्त्र व् आयुर्वेद में काम किया है | उन्होंने कई कवियों व् साहित्यकारों का नाम बताते हुए कवि बिल्हण का विशेष रूप से जिक्र किया | कवि बिल्हण ग्यारहवीं शताब्दी के कवि रहे हैं जो दक्षिण भारत में भी गए | जहाँ उन्होंने कश्मीर का परिचय अनोखे अंदाज में किया | कश्मीर के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि कश्मीर में जाति व्यवस्था नहीं है | जबकि सारा देश कश्मीरी हिन्दुओं को कश्मीरी पंडित कहता है | वहां स्त्री पुरुषों में भेद भी नहीं है | महिलाएं भी जनेऊ धारण करती है |
डॉ. अग्निशेखर ने कश्मीरी विस्थापितों की पीड़ा का विशेष रूप से जिक्र किया | उन्होंने स्वयं ये पीड़ा झेली है जब 1990 में वो अपना घर द्वार जमीन सब छोड़ कर जवाहर लाल नेहरु टनल से इस पर आये थे | कैसे बर्फ के देश से गर्म धरती पर कदम रखते ही लोग लू के कारण मरने लगे | पहली मृत्यु उनके पिता की हुई | वो स्वयं १२ वर्ष शरणार्थी शिविर में रहे | फिर भी उन्हें और उनके साथियों को आशा थी कि उनकी बात सुनी जायेगी | परन्तु अफ़सोस उनका अपना ही देश उनकी पीड़ा को नकारने में लगा रहा | जान बचा कर भागे लोगों पर इल्जाम लगा कि वो अच्छे भविष्य के लिये यहाँ आये थे | उन्होंने कहा कि इससे ज्यादा पीड़ादायक क्या होगा कि किसी घाव खाए व्यक्ति के अपने ही उसका इलाज करने की जगह इस बात को नकारने में लग जाए कि तुम्हे चोट भी लगी है | परन्तु दुर्भाग्य से यही सच है | उन्होंने कई वीभत्स आँखों देखी घटनाओं का जिक्र किया जिससे पूरा प्रेक्षागार स्तंभित हो गया | उन्होंने साहित्य में ऐसी तमाम किताबों का विरोध किया जो उनकी पीड़ा दबाने के लिए उन 500 परिवारों के गिने –चुने आँकड़े प्रस्तुत करके बेस्ट सेलर बन जाती हैं | जबकि आम जनता जो कश्मीर के बारे में बिलकुल नहीं जानती वो उसे सच मान लेती है | उन्होंने प्रश्न किया कि, “क्या मनमर्जी से लिए गए आंकड़ों का सच उस सच का मुकाबला कर सकता है जो भोग हुआ हो ?” उन्होंने कश्मीरी पंडितों की शांतिप्रियता का जिक्र करते हुए कहा कि उनके पास सारे कारण थे जब वो हथियार उठा सकते थे पर उन्होंने अपना दर्द साहित्य, कला , चित्रकारी आदि के माध्यम से व्यक्त किया | “विस्थापित साहित्य” पूरी दुनिया में अपने आप में अलहदा साहित्य है | इस अवसर पर उन्होंने अपनी कई कवितायें सुनाई |
इसके बाद वरिष्ठ रंगकर्मी व् समूह थियेटर (जम्मू ) के संस्थापक श्री सुधीर महाजन जी ने विस्थापन की पीड़ा झेलते कश्मीरी पंडितों द्वारा लिखी गयी कविताओं का एक स्लाइड शो दिखाया | इन कविताओं का चयन अग्निशेखर जी ने किया था व् आवाज़ सुधीर महाजन जी ने दी थी | विस्थापन की पीड़ा को झेलते कश्मीरी पंडितों की इन कविताओं से पूरा हॉल भावुक हो गया | इसके बाद सुधीर महाजन जी ने अग्निशेखर जी की एक कविता की “वॉईस एक्टिंग” भी करी | अभी तक दम साधे पीड़ा के समुद्र में डूबते उतराते श्रोता अपने आंसूं ना रोक सके और पूरा सभागार नम हो गया |
पाँचवें सत्र के बाद लीलाधर जगूड़ी जी की अध्यक्षता में, “आज़ाद हवा” के अंतर्गत डॉ अग्नि शेखर जी, चित्रा देसाईं जी, डॉ ज्योत्स्ना मिश्र , मौली जी, डॉ. अवधेश दीक्षित जी, राजेश अरोड़ा जी, निधि अग्रवाल, प्रांजलि अवस्थी व रूपल जौहरी , पूनम जाकिर जी ने कवितायें सुनाई | इसका सञ्चालन मौली सेठ ने किया | ज्योत्सना जी की “औरतें अजीब होती हैं”, चित्रा जी की “आजकल मैं मन का करती हूँ” व् पूनम जी की “नाच” और निधि की कविताओं पर श्रोताओं की तरफ से एक बार और की फरमाइश होने लगी | जगूड़ी जी ने “अकेली औरत पार करना चाहती है सूनी सड़क” में कविता के साथ –साथ स्त्री विमर्श के रंग भी भर दिए |
अंतिम सत्र “जीवन की ताल से” में गीत गज़ल के कार्यक्रम ने तो समां ही बाँध दिया | इस कार्यक्रम की अध्यक्षता की विजय किशोर मानव जी ने व् सञ्चालन आगरा से पधारे जाकिर सरदार जी ने | सभी ने बेहतरीन क़लाम पेश किए । इसमें गौतम राजऋषि, प्रभा दीक्षित जी , अलका मिश्रा, सुरेन्द्र सहानी जी आदि ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की|
धन्यवाद ज्ञापन के बाद कार्यक्रम का समापन हुआ |
कानपुर की धरती पर सफलता पूर्वक एक वृहद् साहित्यिक आयोजन के लिए “धनुक” , प्रतिशब्द, और ज्योत्सना मिश्रा जी व् उनकी टीम के सदस्यों को बधाई |
अटूट बंधन
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कृपया धनुक की रिपोर्ट में आजाद हवा के काव्य पाठ में राजेश दीक्षित की जगह नाम डॉ अवधेश दीक्षित करने की कृपा करें।