थप्पड़- घरेलू हिंसा का मुखर विरोध जरूरी

 

“थप्पड़ से डर नहीं लगता साहेब, प्यार से लगता है” दबंग फिल्म का ये डायलॉग भले ही प्रचलित हुआ हो पर थप्पड़ से भी डरना चाहिए | खासकर जब वो घरेलु हिंसा में एक हथियार की तरह इस्तेमाल हो | इसी विषय पर तापसी पन्नू की एक फिल्म आने वाली है “थप्पड़”| फिल्म का ट्रेलर आते ही इसके चर्चे शुरू हो गए | ट्रेलर के मुताबिक़ पत्नी अपने पति से तलाक लेना चाहती है| इसका कारण है उसने उसे एक थप्पड़ मारा है| “बस एक थप्पड़” यही सवाल महिला वकील का है, उसकी माँ का है, सास का है और समाज के तमाम लोगों का भी है | उसका जवाब है, “हाँ, बस एक थप्पड़, पर नहीं मार सकता”| हम सब को भी अजीब लगता है कि एक थप्पड़ पर कोई तलाक कैसे ले सकता है? उसका जवाब भी ट्रेलर में ही है कि इस एक थप्पड़ ने मुझे वो सारी परिस्थितियाँ साफ़ –साफ़ दिखा दीं जिनको इग्नोर कर मैं शादी में आगे बढ़ रही थी|

थप्पड़ -जरूरी है घरेलू हिंसा का मुखर विरोध

अपरोक्ष रूप से बात थप्पड़ की नहीं उन सारे समझौतों की है जो एक स्त्री अपनी शादी को बचाए रखने के लिए कर रही है | वैसे शादी अगर एकतरफा समझौता बन जाए तो एक ट्रिगर ही काफी होता है| लेकिन हम अक्सर सौवां अपराध देखते हैं जिसके कारण फैसला लिया गया पर वो निन्यानवें अपराध नहीं देखते जिन्हें किसी तरह क्षमा कर, सह कर, नज़रअंदाज कर दो लोग जीवन के सफ़र में आगे बढ़ रहे थे | अभी फिल्म रिलीज नहीं हुई है इसलिए उसके पक्ष या विपक्ष में खड़े होने का प्रश्न नहीं उठता | इसलिए बात थप्पड़ या शारीरिक हिंसा पर ही कर रही हूँ |इसमें कोई दो राय नहीं कि बहुत सारी महिलाएं घरों में पिटती हैं| हम सब ने कभी न कभी महिलाओं को सड़कों पर पिटते भी देखा ही होगा| सशक्त पढ़ी लिखी महिलाएं भी अपने पतियों से पिटती हैं |हमारी ही संस्कृति में स्त्रियों पर हाथ उठाना वर्जित माना गया है | भीष्म पितामह तो पिछले जन्म में स्त्री रही शिखन्डी के आगे भी हथियार रख  देते हैं | फिर भी  बहनों और माओं के अपने भाइयों और बेटों से पिटने के भी किस्से हमारे ही समाज के हैं| जिन रिश्तों में अमूमन पुरुष के हाथ पीटने के लिए नहीं उठते वहां संस्कार रोकते हैं पर अफ़सोस पत्नी के मामले में ऐसे संस्कार पुरुष में नहीं डाले जाते| जिस बेटे को अपनी पिटती हुई माँ से सहानुभूति होती है वो भी पत्नी को पीटता है|

पुन: पति –पत्नी के रिश्ते पर ही आते हुए कहूँगी कि मैंने अक्सर देखा है कि एक स्त्री जिसे एक बार थप्पड़ मारा गया और उसने अगले दिन आँसू पोछ कर वैसे ही काम शुरू कर दिया तो दो दिन बाद उसे थप्पड़ फिर पड़ेगा | और चार दिन बाद हर मारपीट के बाद सॉरी बोलने के बावजूद थप्पड़ पड़ते जायेंगे| सच्चाई ये है कि गुस्से में एक बार हाथ उठाने के बाद संकोच खत्म हो जाता है | फिर वो बार-बार उठता है | लोक भाषा में कहें तो आदमी मरकहा हो जाता है | और औरतें बुढापे में भी पिटती हैं | मैंने ऐसी 70 -75 वर्षीय वृद्धाओं को देखा है जो अपने पतियों से पिट जाती हैं| ये हाथ बुढापे में अचानक से नहीं उठा था ये जवानी से लगातार उठता आ रहा था | आज जब हम बच्चों को पीटने की साइकोलॉजी और दूरगामी प्रभाव पर बात करने लगे हैं तो बात माँ के पिटने पर भी होनी चाहिए| पहले थप्पड़ पर पर तलाक लेना उचित नहीं है | लेकिन इसके लिए पीछे की जिन्दगी की पड़ताल जरूरी है | परन्तु पहला थप्पड़ जो कमजोर समझ कर, या औकात दिखाने के लिए, या पंचिंग बैग समझ कर अपना गुस्सा या फ्रस्टेशन निकालने के लिए किया है गया है तो ये एक वार्निंग कि ऐसा अगली बार भी होगा| किसी भी महिला को इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए| इस घरेलु हिंसा का मुखर विरोध जरूरी है |

एक बात पर और ध्यान देना चाहिए कि आज बहुत सी लव मैरिज हो रही हैं कई लोग ११ -१२ की नाजुक उम्र से दोस्त हैं | बाद में शादी कर लेते हैं| उनमें धींगामुस्ती, हलके –फुल्के थप्पड़ मार देना चलता रहता है| ये विवाह के बाद भी चलता रहता है| लेकिन यहाँ आपसी समझ और बराबरी में कोई अंतर नहीं होता | ये दोनों तरफ से होता है | इसे नज़रअंदाज कर देना या प्रतिक्रिया व्यक्त करना ये उन दोनों की आपसी अंडरस्टैंडिंग पर निर्भर करता है| लेकिन अगर ये हिंसात्मक है और आत्मसम्मान पर चोट लगती है या पूर्व अनुभव के आधार पर इस बात का अंदाजा हो रहा हो कि ये हाथ बार –बार उठेगा तो पहले ही थप्पड़ पर मुखर विरोध का स्टैंड लेना जरूरी है | क्योंकि वैसे भी अब वो रिश्ता पहले जैसा नहीं रह जाएगा | सबसे अहम् बात चाहे कितना भी कम प्रतिशत क्यों ना हो पुरुष भी पत्नियों के हिंसक व्यवहार के शिकार होते रहे हैं | कुछ स्त्रियाँ थप्पड़ मारने में भी पीछे नहीं है| ऐसे में समाज के डर से या पुरुष हो कर …के डर चुप बैठ जाना सही नहीं है | पहले थप्पड़ का विरोध जरूरी है और रिश्ते की पड़ताल भी |

वंदना बाजपेयी

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