गुजरे हुए लम्हे -अध्याय-8

 

आत्मकथा लेखन में ईमानदारी की बहुत जरूरत होती है क्योंकि खुद के सत्य को उजागर करने के लिए साहस चाहिए साथ ही इसमें लेखक को कल्पना को विस्तार नहीं मिल पाता | उसे कहना सहज नहीं होता | बहुत कम लोग अपनी आत्मकथा लिखते हैं | बीनू दी ने यह साहसिक कदम उठाया है | बीनू भटनागर जी की आत्मकथा “गुज़रे हुए लम्हे “को आप अटूट बंधन.कॉम पर एक श्रृंखला के रूप में पढ़ पायेंगे |

गुज़रे हुए लम्हे -परिचय

गुजरे हुए लम्हे -अध्याय 1

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 2

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 3

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय चार

गुज़रे हुए लम्हे अध्याय -5

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 6

गुज़रे हुए लम्हे -अध्याय 7

अब आगे ….

 

 

गुजरे हुए लम्हे-अध्याय 8: बच्चे बड़े हो रहे थे

(दिल्ली 1987 से 91 तक)

 

तनु ने 87 में दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी और स्वेच्छा से कॉमर्स स्ट्रीम को चुना था। अपूर्व कक्षा 1 में आ गया था।  उस समय ट्यूशन या कोचिंग का चलन शुरू हो चुका था पर अधिकतर विज्ञान के छात्र दाख़िले की प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये कोचिंग में जाते थे। कॉमर्स वाले भी मैथ्स और ऐकाउंट्स के लिये जाने लगे थे पर तनु ने कभी कोचिंग नहीं ली थी।

 

जब तनु 12 वीं कक्षा में थी तभी इनका तबादला पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे के अलीपुरद्वार( प. बंगाल) में हो गया। दिल्ली में किसी तरह 10- 11 साल निकाल चुके थे। कभी रेलवे बोर्ड में तो कभी उत्तर रेलवे में पर अब रुकना मुश्किल था। पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे में जाने से दो लाभ थे पहला तो ये कि दिल्ली में सरकारी मकान रख सकते थे दूसरा यह कि 2-3 साल वहाँ काम करने के बाद अपनी मनचाही जगह

नहीं सकते थे, वापिस तबादला माँग सकते थे। हम तनु को नेवल स्कूल से स्कूल के आख़िरी साल में हटा नहीं सकते थे,  इसलिये मुझे बच्चों के साथ दिल्ली में ही रहना था, जो कि आसान तो नहीं था। जाने से पहले रेलवे बोर्ड के उच्चाधिकारियों को इन्होंने अपनी समस्या बताई तो इन्हें आश्वासन दिया गया कि जैसे ही कोई जगह खाली होगी इन्हें वापिस बुला लिया जायेगा। जगह खाली भी हुईं और भरती भी गईं पर हमें दिया हुआ आश्वासन आश्वासन ही रहा। दिल्ली आने के लिये लोग राजनैतिक दबाव के अलावा और भी तरीके अपनाते हैं।  किसी की सच्ची बड़ी समस्या लोगों को नहीं दिखती और कभी बिना समस्या के समस्या गढ़ ली जाती है और तरह तरह के दबाव डालकर तबादले हो जाते हैं। बार बार की नाउम्मीदी असह्य होने लगी थी, बहुत से काम थे जो करने में मैं दिक्कतें महसूस कर रही थी। इसके अलावा पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे में बोडो आंदोलन हिंसक हो रहा था। इन सब मिली जुली बातों का मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा था जो पड़ौसियों और मित्रों को दिखने लगा था।

इसी बीच में शशी बीबी की बेटी दिव्या का विवाह ग्वालियर से हुआ बारात इंदौर से आई थी। इस शादी में ये गुवाहाटी से आये ज़रूर थे परंतु ग्वालियर बहुत कम समय के लिये ही जा पाये थे। अगली पीढ़ी की यह पहली शादी थी।

 

इस समय मुझे लगा कि मेरा ड्राइविंग सीखना बहुत ज़रूरी है। मैंने पास के ही ड्राइविंग स्कूल से सीखने का प्रबंध कर लिया। पहले दिन ही एक मज़ेदार वाकया हो  गया जो बाद में मैंने संस्मरण के रूप में लिखा था। वह प्रस्तुत है। –

 

एकाग्रता

(संस्मरण- 5)

मेरी एकाग्रता हमेशा से बहुत अच्छी है। यदि कोई काम ज़रूरी हो और उसमें रुचि भी हो तो मेरा ध्यान इधर उधर नहीं भटकता। अभी भी मैं जब कुछ लिखती पढ़ती हूँ तो आस पास से कौन निकल गया, पता ही नहीं चलता।

 

पहले दिन मैं बहुत उत्साह के साथ ड्राइविंग सीखने निकली। ड्राइविंग स्कूल की गाड़ियों में दोहरे नियंत्रण होते हैं, इसलिये प्रशिक्षक मुझे पहले ही दिन भीड़ वाली जगह ले गया। क्लच ब्रेक सब  का प्रयोग पहले ही सिखा दिया था। एक जगह जाकर उसने कहा कि” मैंम आप उस बस के पीछे जाकर कार को ब्रेक लगाकर रोकियेगा” मैंने कहा “ठीक है।” अब मुझे बस बस दिखाई दे रही थी जिसको पीछे मुझे कार रोकनी थी।  बीच में प्रशिक्षक ने झटके से ब्रेक लगाया और कहा “मैंम देखकर चलाइये” मैंने जवाब दिया” देखकर ही चला रही हूँ उस बस के पीछे ही गाड़ी रोकना है न” वह बोला “तो बीच में जो भी आयेगा उसे उड़ा देंगी ! ”

 

खैर धीरे धीरे कार चलाना अच्छी तरह सीख लिया और यह भी समझ लिया कि इसमें निशाना लगाने वाली एकाग्रता नहीं चाहिये बल्कि आगे पीछे ही नहीं दायें बायें कौन चल रहा है इस पर भी नज़र रखना ज़रूरी है।कार चलाना सीख लेने से कुछ तो सुविधा हो गई थी परंतु अभी आसपास के इलाकों में ही चलाती थी। रास्ते भी ज्यादा पता नहीं थे।हमारे दो तीन पड़ौसी जो कि इनके सहकर्मी थे वे और उनकी पत्नियाँ बहुत ध्यान रखते थे,पर मेरी लाख कोशिशों के बावजूद अवसाद और व्याकुलता(depression & anxiety ) बढ़ रहे थे। हर काम को करने में दो गुना प्रयत्न लगता था। घबराहट रहती थी,लगता था कि कुछ बुरा या ग़लत होने वाला है। मैं स्वयं ही डॉक्टर के पास चली गई उन्होंने हल्की ऐंटी डिप्रैसैंट और ऐंटी ऐंग्ज़ायटी दवाइयाँ दे दी थी। कोई सैडेटिव नहीं दी थी क्योंकि घर में कोई और बड़ा व्यक्ति नहीं था और मुझे गाड़ी भी चलानी होती थी। दवाइयाँ लेने से कुछ सुधार हुआ, मैं घर ठीक से चला रही थी ,नकारात्मक विचार कम हो गये थे।

 

तनु को मैथ्स पढ़ाने के लिये कुछ दिन आशू पूनम आकर रह गये थे। उनके एक बेटा भी हो चुका था जो उस समय कुछ uउपन्यास महीने का था। 1989 में तुनु ने 12 वीं पास कर ली। इसी साल सुरेन भैया की तीसरी बेटी चारु की शादी दयालबाग से  गर्मी में ही होनी थी। पूनम ने हमारे ठहरने का प्रबंध अपनी ताई जी के यहाँ कर दिया था । वहाँ तो शादियाँ बहुत सादगी से होती हैं। हमारी मारुति 800 की यह इकलौती शहर से बाहर की यात्रा थी जबकि वह  86 से 03 तक के लम्बे समय में हमारे साथ थी। आगरा जाते समय मैं ड्राइव कर रही थी हाइवे के हिसाब से मेरी रफ्तार कुछ कम थी पीछे से कोई वाहन बगल से तेजी से साइडव्यु मिरर तोड़ता हुआ चला गया। मैं डर गई थी। इसके बाद आशू ने ही कार चलाई।

 

12 वीं पास करने के बाद कालेज में प्रवेश की समस्या से जूझना था। तनु इकनाॉमिक्स या कॉमर्स आनर्स करना चाहती थी। सबसे पास मैत्रेयी कॉलिज और जीज़ज एन्ड मैरी थे। मैत्रेयी में केवल इकनॉमिक्स आनर्स था जो तुरंत मिल गया था ।हाथ में आई चीज़ को छोड़ तो नहीं सकते थे दाख़िला  हो गया सारे असली प्रमाण पत्र भी जमा कर दिये। कुछ दिन बाद इकनॉमिक्स में ही जीज़ज एन्ड मैरी में दाख़िला मिल गया। उन्होंने तुरंत असली सर्टिफिकेट माँगे।  दोनो कॉलिज आमने सामने ही हैं इसलिये तुरंत मैत्रेयी कॉलिज जाकर दाखिला रद्ध करवाया और जे. ऐम. सी. में सब काग़जात और फीस जमा कराई। जे. ऐम.सी. बेहतर कालेज माना जाता है इसलिये ये सब भाग दौड़ की।

 

अब तनु को कालेज से लाने ले जाने की जिम्मेदारी मेरी थी। जे.ऐम.सी प्रांगण काफ़ी ऊँचा नीचा था। क्लास कभी ऊपर कभी नीचे होती थी ।तनु को यहाँ कोई भी विशेष सुविधा नहीं दी गई थी, फिर भी किसी तरह से काफ़ी भाग दौड़ कर लेती थी। मित्र तो यहाँ भी अच्छी बन ही गईं थी।

 

यहाँ ड्राइव करते समय भी एक ऐसी घटना घटी जो मैं संस्मरण के रूप में लिख चुकी हूँ-

 

 

 

कार का पहिया निकलने वाला है

(संस्मरण-6)

मुझे ड्राइविंग सीखे बहुत दिन नहीं हुए है। मन भी उद्विग्न सा रहता था। आत्मविश्वास की  भी कमी थी, घबराई सी रहती थी। मैं अपनी बेटी तनु को कालेज से वापिस लेकर आ रही थी। अचानक एक औटो-रिक्शा बगल से आकर रुका , औटो वाला मुझे डाँटने के अंदाज में बोला, ‘’मैडम कितनी देर से’ आपके पीछे हूँ, लगातार हॉर्न बजा रहा हूँ ,आप रुक ही नहीं रहीं। आपकी कार का पिछला पहिया एक दम ढीला है, कभी भी निकल सकता है। आपको पता नहीं चल रहा……..’’

 

मैंने कहा ‘’ घर के पास आ गये हैं घर पहुँचकर किसी मैकैनिक को बुला लेंगे ‘’ वह बोला आप गाड़ी ज़रा दूर मत चलाइये बहुत ख़तरनाक हो सकता है।‘’  उसकी आवाज़ का मुझपर कुछ ऐसा असर हुआ कि मेरी सोचने समझने की शक्ति ही समाप्त हो गई वह लगातार बोलता रहा। मैंने घर की चाबी तनु को दी और घर के लिये उसी औटो में उसे बिठा दिया । जैसे ही वह औटो  वाला हटा मुझे अहसास हुआ कि मुझसे बड़ी गलती हो गई है। एक आती हुई कार को मैंने रोका और भले मानुष को संक्षेप में सारी बात बताई। उन्होंने पहिये का मुआयना किया और कहा कि कुछ नहीं हुआ है पहिया अपनी जगह ठीक है, आप जाइये। मैं तुरंत घर पहुँची। तनु ताला खोल रही थी औटो वाला वहीं खड़ा था। मैंने औटो वाले को जाने को कहा कि अब वह जाये। उसकी क्या मंशा थी पता नहीं, पर कुछ अप्रिय घटना घटने से बच गई थी।

 

तनु के कालेज का पहला साल चल रहा था और अपूर्व तीसरा कक्षा में आ गये थे पर पढ़ाई का महत्व ही उसकी समझ के बाहर था । वैसे मेरा कहना मानता था, मैं पढ़ाती थी तो पढ़ लेता था, पर लिखने का बहुत आलस था।

 

 

 

इस समय अपूर्व से संबंधित एक और संस्मरण प्रस्तुत करने का समय आ गया है।-

 

चॉकलेट

(संस्मरण -7)

अपूर्व तीसरा कक्षा में ही था तब एक बार मुझ से कहा ” कितने साल और पढ़ना पड़ेगा? ” मैंने कहा अभी तो शुरू किया है, बहुत साल पढ़ना है।‘’ इस पर वह बोला ” मैं तो जल्दी से बूढ़ा होकर रिटायर होना चाहता हूँ।” मैं हैरान ! शायद दुनिया का पहला बच्चा है, जो जल्दी से जवान होने की जगह बूढ़ा होने की ख़्वाहिश मन में पाल रहा है। पूछने पर उसने बताया ’’ बच्चों को और जवानों को पढ़ना पड़ता है या काम करना पड़ता है।  जब दादा जी की तरह बूढ़े हो जाते हैं तो कोई उनसे कुछ नहीं कहता. कुछ काम नहीं करना पड़ता,  बस खाओ सोओ और टीवी देखो।‘’’ मैंने उसे समझाया कि दादा जी भी बहुत पढ़े लिखे हैं, पैंतीस साल काम करने के बाद रिटायर हुए हैं। पता नहीं मैं उसे ये बात समझा पाई कि नहीं, कि पढ़ाई करना बहुत ज़रूरी होता है।

 

अपूर्व का पढ़ाई की ओर ध्यान लगाने, ख़ासकर टैस्ट में कम से कम लिखने की आदत को ठीक करने के लिये मैंने उसकी एक बड़ी कमज़ोरी का सहारा लिया चॉकलेट  !  हर सोमवार को इनके यूनिट टैस्ट होते थे। मैंने कहा ‘’देखो अगर तुम टैस्ट में दस में से दस नम्बर लाओगे तो तुम्हें चॉकलेट मिलेगी।‘’ सोमवार को गणित के टैस्ट में दस में से दस नम्बर  मिल गये। मेरा प्रयोग सफल रहा। पहले साढ़े नौ नम्बर दिये गये थे बाद में आधा नम्बर बढ़ा दिया था। बीच में कुछ मामूली सी गलती थी जिसका अंतिम उत्तर पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। पी. टी. ए.  में अध्यापिका ने बताया कि साढ़े नौ नम्बर मिलने पर इसने बहुत रोना धोना मचाया, उन्होंने समझाया भी कि साढ़े नौ नम्बर भी बहुत अच्छे होते हैं तो इसका जवाब था ” अच्छे से क्या होगा चॉकलेट तो नहीं मिलेगी ” तब उन्होंने आधा नम्बर बढ़ा दिया।

 

मुझे लगा हमेशा पूरे अंक लाना तो संभव नहीं होता इसलिये मैंने अपूर्व से कहा ” दस में से आठ नम्बर भी आयेंगे तो छोटी वाली चॉकलेट मिलेगी । नौ आयेंगे तो उससे बड़ी मिलेगी, दस नम्बर आने पर एकदम बड़ी वाली चॉकलेट मिलेगी ।टैस्ट के लिये मैं तैयारी तो हमेशा ही अच्छी तरह करवा देती थी। कुछ सप्ताह तक इसे कोई न कोई चॉकलेट मिलती रही हम दोनों ख़ुश थे।  अचानक एक दिन फिर हिंदी टैस्ट में दस में से तीन नम्बर आये। मैंने कहा “सब तो आता था लिखा क्यों नहीं? ” बड़ी मासूमियत से जवाब दिया ” फूफाजी आये थे वे इतनी सारी चॉकलेट लाये थे, अभी फ्रिज में बहुत सारी पड़ी है, इसलिये नहीं लिखा’’’ ये जवाब सुनकर मेरी क्या हालत हुई होगी इसका अंदाज़ा कोई भी माँ लगा सकती है।

 

लगभग इसी समय भैया और सुरेन भैया दोनों ने लखनऊ में गोमती नगर में प्लॉट ख़रीदे थे। हमें लगा कि हम भी वहीं प्लॉट ख़रीद लें सेवा निवृत्ति के बाद वहाँ सब आस पास रहेंगे।  ग्वालियर में तो कोई रहने वाला बचा नहीं था। हम तीनों के मकान बनना आस पास ही शुरू हुए थे। मैं छुट्टियों में बच्चों के साथ लखनऊ जाकर मकान का नक्शा तय कर आई थी। आरकेटैक्ट ने कुछ नक्शे, कुछ बने हुए मकान भी दिखाये थे जिसके आधार पर मैंने नक्शे का निर्णय लिया। कुछ दिन बाद जब ये आये हुए थे तो लखनऊ जाकर भूमि पूजन भी कर आये थे। ग्वालियर से चाचा  जी चाची जी को भी बुला लिया था।   मकान के निर्माण का काम तो मुख्य रूप से भैया ही देख रहे थे। उन दोनों का मकान हमसे पहले बन गया था और रिटायर होने से पहले ही वो वहाँ रहने भी लगे थे। बीच बीच में ये जाकर देख आते थे। एक बार तो इन्होंने वहाँ करीब एक महीने की छुट्टी लेकर जाकर मकान का काम देखा था। अपना स्कूटर भी ले गये थे, लखनऊ में एक दुर्घटना में पैर की हड्डी टूट गई थी हाथ में भी चोट लगी थी, तब दिल्ली आकर तीन चार हफ्ते रहे थे।

 

अलीपुर द्वार साल से कुछ ज़्यादा रहने के बाद दिल्ली वापिस पोस्टिंग तो नहीं हो पाई पर 10 महीने के एक प्रशिक्षण के लिये वहाँ से दिल्ली भेज दिया गया।  कुछ राहत तो मिली परन्तु इस दौरान भी कभी कभी कई दिनों के लिये दिल्ली से बाहर जाना पड़ा। द. कोरिया जापान भी जाना पड़ा था। कहने का मतलब यह है कि पूरे दस महीने दिल्ली में नहीं बीते थे। आशा तो थी कि इस प्रशिक्षण के बाद पोस्टिंग दिल्ली वापिस हो जायेगी, पर ऐसा नहीं हुआ। वापिस जाना ही पड़ा, इस बार पोस्टिंग गुवाहाटी में हुई।

 

अब तनु का कालेज में पहला साल हो चुका था,अपूर्व चौथी कक्षा में आ गया था।  जब अपूर्व चौथी कक्षा में था तब एक बार निबंध रक्षाबंधन पर लिखना पड़ा जिसने मेरे हिसाब से शिक्षा के तरीकों पर प्रश्न  चिन्ह लगा दया था तो वह संस्मरण भी पेश है।–

 

रक्षाबंधन पर निबंध

(संस्मरण-8)

 

दिल्ली में रक्षाबंधन पर हम ,उमा दी मेरी ननद, दिनेश भैया मेरे देवर अपने परिवारों के साथ एक जगह इकट्ठा होकर ही रक्षाबंधन मनाते है, हम तीन परिवार ही दिल्ली में रहते आये हैं। अब  की बार हमारे घर में राखी मनायी जाने वाली थी,  मैं काम में व्यस्त थी। त्यौहार पर अकसर स्कूल में बच्चों को सामयिक त्यौहारों पर निबंध लिखवाने की परंपरा है।  अपूर्व ने आकर मुझसे कहा कि ” मम्मी कल क्लास में रक्षाबंधन  पर निबंध  लिखना है बता दो क्या लिखना है ” मैंने काम में लगे लगे लगे कह दिया कि हर साल देखते हो कैसे मनाते हैं वही लिख देना” अपूर्व  संतुष्ट हो गया उसने कहा “ठीक है।”

 

क्लास में जो निबंध लिखा गया वह कुछ इस प्रकार था।–

 

हमारे घर उमा भुआ, फूफाजी, प्राची दीदी,प्रांजल भैया चाचा चाची सौम्या और समीर आये। चाय पी,  उसके साथ क्या खाया ये भी बताया किसने किसके टीका लगाया राखी बाँधी कौन सा मिठाई खिलाई इसका पूरा विवरण था। मैंने खाने में क्या क्या बनाया था यह भी लिखा था। किसने किसको क्या उपहार दिया या लिफाफा दिया सब का विस्तार में वर्णन था। उन दिनों विडियो कैसेट का ज़माना था विडियो कैसेट पर जो फिल्म देखी उसके बारे में लिखा अंत में सब अपने अपने घर चले गये।

चौथी कक्षा के बच्चे को इस पर दस में से शून्य अंक मिले! मेरा मानना है कि यहाँ से हम बच्चों की ख़ुद सोचकर लिखने की शक्ति को मारकर उन में रटने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं।  माना कि वह निबंध नहीं रिपोर्टिंग थी, पर भाषा सही थी जो देखा अपने शब्दों में लिख दिया, इसकी सराहना होनी चाहिये थी। चौथी कक्षा में वे निबंध और रिपोर्टिंग का अंतर नहीं जानते! यदि बच्चा वही रट कर लिखे कि रक्षाबंधन  श्रवण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता  है,  भाई बहन के स्नेह का प्रतीक होता है वगैरह वगैरह………….. तो उसे पूरे नम्बर मिलते। ये तो वह किसी भी निबंध की किताब से रटकर लिख ही देता पर इस तरह बच्चों की रचनात्मकता कुंठित हो जाती है।

 

 

जिस वर्ष तनु को कालेज के दूसरे साल की परीक्षा देनी थी, मैंने अपूर्व की वार्षिक परीक्षा और नये सत्र के शुरू होने के बीच में जो छुट्टियाँ होती हैं उनमें गुवाहाटी जाने का कार्यक्रम बनाया।  भैया भाभी से यहाँ दिल्ली आकर तनु के पास रहने का आग्रह किया जिसे उन्होंने सहर्ष मान लिया। मैं और अपूर्व तिनसुखिया मेल से गुवाहाटी गये जो किसी कारणवश 10-12 घंटे विलम्ब से यहीं से चली थी ।  घर से तो आ ही गये थे विश्रामालय में ही बैठे रहे। अपूर्व को लम्बे सफ़र में मज़ा आ  रहा था। खाने का बहुत सारा सामान घर से लेकर चले थे जो एक दिन में ही समाप्त हो गया।  कुछ छात्र सफ़र कर रहे थे वे इसके भैया बन गये थे  । किसी बड़े स्टेशन पर इसे साथ लेकर उतर भी जाते थे। सब शरीफ़ घरों के लड़के थे। ख़ैर जैसे तैसे हम गुवाहाटी पहुँच गये।

 

गुवाहाटी में एक बड़े से बंगले में ये तीन अधिकारी रहते थे जिनके परिवार दूसरे शहरों में रहते थे। रसोई सब  की अलग थी, खाना बनाने वाला अलग था पर डाइनिंग टेबुल एक ही थी। कभी खाना साथ खाते थे कभी अपनी सुविधानुसार अलग अलग। मैंने यहाँ रसोई में नहीं झाँका बस जैसे किसी गैस्ट हाउस में रहते हैं वैसे ही रही। लॉन बहुत बड़ा और अच्छा था ,पेड़ बहुत थे। कुछ पेड़ों पर कटहल लदे हुए थे। यहाँ पक्षी भी बहुत थे ख़ासकर कौवे। शाम को कौवों की इतनी ज़बरदस्त काँव काँव शायद मैंने पहले कभी नहीं सुनी थी।मच्छर भी थे इसलिये यहाँ मच्छरदानी लगानी पड़ती थी, अपूर्व ने मच्छरदानी पहली बार देखी थी। यह तो दिन में भी उसे हटाने नहीं देता था। बहुत सारे कॉमिक्स और किताबें पढ़ता रहता था, क्योंकि वहाँ कोई दोस्त तो था नहीं। मैं इसकी बॉल ले जाना भूल गई थी तो पत्थरों को ठोकरें मारता रहता था।

 

उस समय फ़ोन करना इतना सरल और सस्ता नहीं था परंतु रेलवे का अपना ही नेटवर्क होता है इसलिये दिल्ली से हमारी बात होती रहती थी।  तनु अपने मामा मामी के साथ बहुत ख़ुश थी। भाभी कुछ अच्छा सा बना कर खिलाती रहती थीं भैया इधर उधर घुमाने ले जाते थे।  कालेज से लाने ले जाने की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की थी। शिवेंद्र पूनम उन दिनों ग़ाज़ियाबाद थे तो आते रहते थे। मुझे यह चिंता होने लगी थी कि कहीं इन सब मस्तियों के बीच पढ़ाई में बाधा न पड़े। भैया हमेशा कहते रहते थे कि मुझे चिंता करने की ज़रूरत नहीं तनु काफ़ी समय पढ़ाई को दे रही है। मेरी परेशानी देखकर ये भी कहते कि अब आई हो तो ख़ुश रहो, वहाँ की चिंता मत करो।

 

गुवाहाटी में हम कामाख्या मंदिर देखने गये जो बहुत मशहूर है, पर नहीं जाना चाहिये था क्योंकि वहाँ बेहद भीड़ थी । मूर्ति के दर्शन क्या करते बलि के लिये कटे बकरों सिर ही दिखाई दिये, मेरी आँखों के आगे अँधेरा सा छा गया और लगभग अर्ध मूर्च्छित अवस्था में मैं बाहर निकली।

 

गुवाहटी से हम लोग दार्जिलिंग भी गये। दिल्ली से आते समय बस इन्होंने कहा था एक एक स्वेटर ले आना। दार्जिलिंग के रैस्ट हाउस में कुछ काम चल रहा था इसलिये हम कुर्सियाँग में रेलवे के रैस्ट हाउस में रुके। सामने बहुत सुंदर पर्वतीय नज़ारा था। नीचे सड़क पर उतरते ही एक रैस्टोरैंट था, जिसके पीछे गहरी घाटी थी। दार्जिलिंग हम ट्रेन से गये थे इसलिये बतासिया घूम का अद्भुत नज़ारा ट्रेन से देख लिया था। इसके अलावा वहाँ का सबसे बड़ा आकर्षण टाइगर हिल पर चढ़ कर कंचनजंधा चोटी पर सूर्योदय के समय सुनहरी चमक देखना है। टाइगर हिल पर चढ़ने के लिये बड़ी खड़ी चढ़ाई थी जहाँ केवल जीप ही जा सकती थी । बहुत सुबह अँधेरे ही टाइगर हिल पर लोग पहुँचने लगते हैं और यही दुआ माँगते हैं कि कहीं बादल इस अनुपम दृश्य को देखने में बाधा न डाल दें परन्तु हमारे साथ ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ। उस समय टाइगर हिल पर कोई इमारत नहीं थी हवा बहुत तेज़ चल रहीं थी और हम एक स्वेटर में सिकुड़े जा रहे थे। ठंड से हाथ पैर काँप रहे थे। अपूर्व के तो होंठ नीले पड़ रहे थे। सूर्य की प्रथम आरुषि के साथ ही कंचनजंघा की बर्फ का रंग सुनहरा होता गया यह नज़ारा कुछ देर तक देखा , जैसे सूरज थोड़ा और ऊपर चढ़ा हिम शिखर फिर चाँदी से हो गये।

 

दार्जिलिंग के चाय बाग़ान वहाँ की पारंपरिक वेशभूषा में महिलायें चाय पत्ती तोड़कर अपनी पीठ पर लटकी टोकरी में डालती हुई बहुत दिलकश लगती हैं। एक चाय की फैक्ट्री में भी हम लोग गये, कुछ अलग अलग तरह की चाय चखीं, अपने शुद्धतम रूप में यानी बिना दूध चीनी के।

 

दार्जिलिंग से गुवाहाटी आकर कुछ दिन बीते और हमारे दिल्ली वापिस जाने का समय हो गया। इस बार ये हमारे साथ दिल्ली आ रहे थे। अलीपुरद्वार तक ड्यूटी पर थे वहाँ दो दिन रुके भी, कैरिज से गये थे और उसी में रहे अपूर्व को तो यह चलता फिरता घर बहुत पसंद आया। अलीपुरद्वार से कुछ ही दूर भूटान का फुनशिलिंग शहर है जहाँ बिना किसी वीसा या परमिट के जा सकते हैं। वहाँ की दुकानों में विदेशी ख़ासकर चीन का सामान भरा पड़ा था। वहाँ भारतीय रुपया भी चलता था। यह  छोटा सा कस्बा बहुत सुंदर और साफ़ सुथरा था। यहाँ के मकानों दुकानों की निर्मिति बोद्ध शैली में थी। भारत की तरफ़ आते ही अंतर स्पष्ट दिख रहा था। फुनशिलंग में समय बिता कर अलीपुरद्वार से हम दिल्ली आ गये। दो दिन साथ बिता कर भैया भाभी लखनऊ चले गये।

 

कुछ दिन दिल्ली में बिताकर ये वापिस गुवाहाटी चले गये, तबादले की कोई राह नज़र नहीं आ रही थी,  जिन लोगों को निर्णय  लेना था वे इसे हमारी मजबूर नहीं, हठ समझ रहे थे। इनसे कहा गया मुंबई चले जाओ दिल्ली में वापिस लाना मुश्किल  है। उन्हें इतनी बात नहीं समझ में आ रही थी कि दो साल कालेज करने के बाद तीसरे साल मुंबई में तनु को कैसे पढ़ायेंगे, दिव्यांग के लिये स्थान बदलना कितना मुश्किल  है। यहाँ होस्टल था भी नहीं और होता तो भी सुविधाओं के अभाव मे वहाँ कैसे छोड़ सकते थे।

 

इनके कुछ सहयोगियों ने मुझे बताया कि’’ दिल्ली वापिस न लाने के लिये वे लोग हठ किये बैठे हैं अब एक कोशिश आप कर लीजिये ,आप और बच्चे जाकर संबंधित उच्चाधिकारी से मिलिये।‘’ मुझे लगा कि इनसे बिना पूछे मैंने कुछ किया तो इन्हें बुरा लगेगा। मैं यह भी जानती थी कि इन्हें मेरा वहाँ जाकर मिलना पसंद नहीं आयेगा। हमारे पड़ौसी और इनके सहकर्मियों ने कहा कि’’ भटनागर  को हम समझा लेंगे,  आप निश्चिंत होकर जाइये।  ‘’उन लोगों ने मुझे उनके घर पर बिना पूर्व सूचना दिये जाने को कहा। मैं वही कर रही थी जो वे कह रहे थे। मेरी तबीयत बहुत ठीक नहीं थी, दवाइयाँ चल रहीं थी बात करते करते गला रुंधने लगता था।

 

एक छुट्टी के दिन हम वहाँ पहुंच गये और अपना परिचय दिया।  वे अधिकारी और उनकी पत्नी

मिले। मैंने कहा कि ’’ हम कोई मदद  माँगने नहीं आये हैं तीन साल बाद दिल्ली वापिस  आना मेरे पति का हक़ है ’’ बाकी बातें तनु ने की। मैंने बताया कि बेटा अभी बहुत छोटा है। सामने से बात होने का असर हुआ और जल्दी ही उत्तर रेलवे में वापसी का आदेश जारी हो गया। गुवाहाटी से रिलीव करने में भी समय लिया गया।  यहाँ आकर भी कुछ महीने ग़ाज़ियाबाद  में पोस्टिंग रही,  कुछ महीने बाद दिल्ली भी आ  गये, बड़ी मुश्किल से ये पूर्वोत्तर रेलवे का अध्याय समाप्त हुआ।

 

पूर्वोत्तर सीमांत  रेलवे से आने के बाद ये डेढ़ महीने के प्रशिक्षण के लिये इंग्लैण्ड चले गये थे। मैं और बच्चे लखनऊ चले गये थे वहाँ भैया के छोटे बेटे शैलेंद्र के बेटा हुआ। कुछ अस्पताल की ज़िम्मेदारी मैंने भी संभाली। मैं समय की पाबंदी से काम करती हूँ और वहाँ समय का किसी को ध्यान ही नहीं था। एक दिन रात भर अस्पताल में रहने के बाद सुबह कोई आया ही नहीं, 10-11 बजे तक…….. उनके लिये ये कोई बड़ी बात नहीं थी।  खैर………इसी बीच एक दिन भैया भाभी का झगड़ा हुआ जो बहुत उग्र हो गया। भले ही झगड़े की वजह हम नहीं थे पर पुरानी बातें कुरेदी गईं……… मन बेचैन सा हो गया था। एक दो दिन शशि बीबी के यहाँ रह कर हम दिल्ली वापिस आ गये थे ।

 

………………………………………………………………………………………………………………………………………………………….

बीनू भटनागर

Leave a Comment