कल्पना मनोरमा जी एक शिक्षिका हैं और उनकी कविताओं की खास बात यह है कि वो आम जीवन की बात करते हुए कोई न कोई गंभीर शिक्षा भी दे देती हैं | कभी आप उस शिक्षा पर इतराते हैं तो कभी आँसुन भर कर पछताते भी हैं कि पहले ये बात क्यों न समझ पाए | अम्मा पर कविता 90 पार स्त्री के जीवन की इच्छाओं को दर्शाती है तो देर हुई घिर आई साँझ उम्र की संध्या वेल में जड़ों को तलाशते मन की वापसी है | तो आइए पढ़ें कल्पना मनोरमा जी की कविताएँ ….
कल्पना मनोरमा की कविताएँ
नुस्खे उनके पास जरूरी
तुनक मिज़ाजी की मत पूछो
हँस देते, वे रोते-रोते।
इसके-उसके सबके हैं वे
बस सच कहने में डरते हैं
सम्मुख रहते तने-तने से
झुक, बाद चिरौरी करते हैं
क्या बोलें क्या रखें छिपाकर
रुक जाते वे कहते-कहते।।
ठेल सकें तो ठेलें पर्वत
वादों की क्या बात कहेंगे
कूदो-फाँदो मर्जी हो जो
वे तो अपनी गैल चलेंगे
नुस्खे उनके पास जरूरी
बाँधेंगे वे रुकते-रुकते ।।
यारों के हैं यार बड़े वे
काम पड़े तो छिप जाते हैं
चैन प्राप्त कर लोगे जब तुम
मिलने सजधज वे आते हैं
नब्बे डिग्री पर सिर उनका
मिल सकते हो बचते-बचते।।
-कल्पना मनोरमा
पुल माटी के
टूट रहे पुल माटी के थे
उजड़ गये जो तगड़े थे |
नई पतंगें लिए हाथ में
घूम रहे थे कुछ बच्चे
ज्यादा भीड़ उन्हीं की थी,
थे जिन पर मांझे कच्चे
दौड़ गये कुछ दौड़ें लम्बी
छूट गये वे लँगड़े थे ||
महँगी गेंद नहीं होती है,
होता खेल बड़ा मँहगा
पाला-पोसा मगन रही माँ
नहीं मँगा पायी लहँगा
थे अक्षत,हल्दी,कुमकुम सब
पैसे के बिन झगड़े थे ||
छाया-धूप दिखाई गिन-गिन
लिए-लिए घूमे गमले
आँगन से निकली पगडंडी
कभी नहीं बैठे दम ले
गैरज़रूरी बने काम सब
चाहत वाले बिगड़े थे ||
-कल्पना मनोरमा
अम्मा
नब्बे सीढ़ी उतरी अम्मा
मचलन कैसे बची रह गई।।
नींबू,आम ,अचार मुरब्बा
लाकर रख देती हूँ सब कुछ
लेकिन अम्मा कहतीं उनको
रोटी का छिलका खाना था
दौड़-भाग कर लाती छिलका
लाकर जब उनको देती हूँ
नमक चाट उठ जातीं,कहतीं
हमको तो जामुन खाना था।।
जर्जर महल झुकीं महराबें
ठनगन कैसे बची रह गई।।
गद्दा ,तकिया चादर लेकर
बिस्तर कर देती हूँ झुक कर
पीठ फेर कर कहतीं अम्मा
हमको खटिया पर सोना था
गाँव-शहर मझयाये चलकर
खटिया डाली उनके आगे
बेंत उठा पाटी पर पटका
बोलीं तख़्ते पर सोना था
बाली, बल की खोई कब से
लटकन कैसे बची रह गई।।
फगुनाई में गातीं कजरी
हँसते हँसते रो पड़ती हैं
पूछो यदि क्या बात हो गई
अम्मा थोड़ा और बिखरती
पाँव दबाती सिर खुजलाती
शायद अम्मा कह दें मन की
बूढ़ी सतजुल लेकिन बहकर
धीरे-धीरे खूब बिसुरती
जमी हुईं परतों के भीतर
विचलन कैसे बची रह गई?
-कल्पना मनोरमा
देर हुई घिर आई सांझा
उड़ने लगीं हवा में तितली
याद हमें हो आई घर की ।।
समझ-समझकर
जिसकोअपना
लीपा -पोता खूब सजाया
अपना बनकर रहा न वो भी
धक्का दे मन में मुस्काया
देर हुई घिर आई साँझा
याद हमें हो आई घर की।।
चली पालकी छूटी देहरी
बिना पता के जीवन रोया
अक्षत देहरी बीच धराकर
माँ ने अपना हाथ छुड़ाया
चटकी डाल उड़ी जब चिड़या
याद हमें हो आई घर की।।
पता मिला था जिस आँगन का
उसने भी ना अंग लगया
राजा -राजकुमारों के घर
जब सोई तब झटक जगाया
तुलसी बौराई जब मन की
याद हमें हो आई घर की।।
-कल्पना मनोरमा
लेकिन पंख बचाना
चिड़िया रानी उड़कर
जीभर, लाना मीठा दाना
लेकिन पंख बचाना।।
राजा की अंगनाई,
मटका पुराना है
प्यास-प्यास जीवन
का, अंत हीन गाना है
मेघों की छाती में
सोता है पानी का
लेकिन वह बंधक है
फूलमती रानी का
लेकर हिम्मत अपने मन में
मेधी जल पी आना
लेकिन पंख बचाना।।
पिंजरे में बैठा जो
सुगना सयाना है
राम राम कह,खाता
मक्की का दाना है
जुण्डी की बाली में
दुद्धी चबेना है
उसपर भी लेकिन पड़े
जान देना है
आँखों के आगे से चुनकर
लाना सच्चा दाना
लेकिन पंख बचाना।।
-कल्पना मनोरमा
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बहुत प्यारी कविताएं ❤️❤️
बधाई और शुभकामनाएं 💐💐