मासूम बच्चों के कंधों पर अपनी उम्मीदों का बस्ता लाड़ कर उन्हें रेस में खुद ही दौड़ाते हैं तो जीवन संध्या में पछताना कैसा ? पर अक्सर ऐसा होता है |इन सब के पीच में पिसती है एक स्त्री .. जो बच्चों और पिता के बीच में जिंदगी भर एक पुल बनाने की असफल कोशिश में लगी रहती है | इन तमाम उम्मीदों से इतर भी क्या जीवन है | जीवन संध्या की इन तमाम उलझनों से जूझ कर एक सकारात्मक दिशा देती कविता सिंह की कहानी..
“जीवन-संध्या”
बालकनी में बैठे प्रकाश जी बार-बार सड़क की ओर देखते और फिर अपने गेट की ओर, जैसे उन्हें किसी का बेसब्री से इंतजार हो। जैसे-जैसे वक़्त गुजर रहा था वैसे-वैसे उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वो उठे और रेलिंग के पास जाकर खड़े हो गए।
“अरे! अभी आपने चाय नहीं पी? ये तो ठंडी हो गई।” पत्नी सुमन ने चाय के कप को उठाते हुए कहा। कोई जवाब ना पाकर उन्होंने प्रकाश जी की ओर देखा, वो सड़क की ओर मुँह किये खड़े थे, शायद उनकी बात सुने ही नहीं।
“मैं दूसरा चाय लेकर आती हूँ।” सुमन जी थोड़ी तेज़ आवाज में बोलीं।
“ओह! ठंडी हो गई? रहने दो मन नहीं है।” कहकर वो फिर सड़क की ओर देखने लगे।
“अच्छा सुनो! मेड को बता दिया ना खाने में क्या-क्या बनाना है?” प्रकाश जी ने बाहर की तरफ देखते हुए ही पूछा।
“हाँ जी! कितनी बार पूछोगे, वही बन रहा है जो आपने कह रखा है। मैं वही तो देख रही थी। अब चलिए अंदर नहीं तो ठंड लग जाएगी।”
फरवरी का महीना वैसे भी समझ नहीं आता, ठंड है या गर्म। धूप में गर्मी लगती और घर के भीतर ठंडी। प्रकाश जी ने महसूस किया कि वाकई हवा में नमी बढ़ गयी है लेकिन वो अभी अंदर नहीं जाना चाह रहे थे।
“मेरा शॉल दे दो, कुछ देर बाद भीतर आऊँगा, तबतक तुम तैयारी देख लो।”
“आप भी कभी-कभी बच्चों जैसी हरकतें करते हैं, अब कौन सा छोटे बच्चा का जन्मदिन है जो सजावट और तैयारी करनी है।” सुमन मुस्कुराते हुए बोली।
“ठीक है, मुझ बुढ़े का ही जन्मदिन है पर बच्चे तो आ रहे ना, वो खुश होंगे देखकर।” बोलते हुए प्रकाश जी कि आवाज धीमी हो गयी।
उनकी बात सुनकर सुमन उदास होकर अंदर आ गई। वो सोच रही थीं समय के साथ इंसान कितना बदल जाता है। अचानक ही बच्चों का चेहरा याद आ गया जब बचपन में वो इसी तरह अपने पापा का इंतजार करते थे और इन्हें हमेंशा ही आने में देर हो जाता।
और अब, इधर जब से बच्चे बाहर गए हैं, तब से ये हर त्यौहार, हर मौके पर बच्चो का बेसब्री से इंतजार करने लगे हैं। छोटा बेटा विदेश में सेटल हो गया। शुरुआत में वो फोन पर बधाईयां जरूर देता पर धीरे-धीरे वो व्यस्त होता चला गया। अब उसकी भी क्या गलती उधर यहाँ के तीज त्योहार का चलन ही नहीं तो वो भी कब तक याद रखेगा। बड़ा बेटा यहीं पास के शहर में इंजीनियर है जिसके दो प्यारे-प्यारे बच्चे हैं, जिन्हें वो खुद भी बहुत याद करती हैं। जब तक बच्चों का स्कूल जाना नहीं हुआ था वो अक्सर यहाँ आ जाया करते थे, आखिर तीन ही घण्टे का तो सफर था, पर अब तो उनके स्कूल की छुट्टियों का इंतजार करना पड़ता है।
पिछले साल भी प्रकाश जी ऐसे ही बेसब्री से बच्चों का इंतजार कर रहे थे और ताव ये कि उन्हें फोन करके बताना नहीं है। रात 9 बजे तक राह खोजते रहे पर बच्चे नहीं आये। हाँ अगली सुबह उनका फोन आया माफी के साथ कि व्यस्तता के कारण पापा का जन्मदिन भूल गए।
प्रकाश जी बहुत दुःखी थे, उन्हें बच्चों की ये उपेक्षा सहन नहीं हो रही थी।
“जिन बच्चों के लिए अपना पूरा जीवन खपा दिए अब उनके पास हमारे लिए ही टाइम नहीं।” वो सुमन से गुस्से में बोले थे।
और सुमन, जिसने जीवन भर स्त्री होने के समझौते किये थे, वक़्त के साथ अब वो समझौता करने में परिपक्व हो चुकी थीं। यही कारण था कि उन्होंने यहाँ भी समझौता कर लिया था। पर प्रकाश जी के लिए ये आसान नहीं था। पुरुषोचित अहम से वो बाहर नहीं निकल पा रहे थे, वो किसी से कुछ कह भी नहीं पाते बस भीतर ही भीतर कुढ़ते रहते। बहुत ज्यादा हुआ तो सुमन जी को उलाहने सुना देते।
“देखिए! अब हमारे बच्चे, बच्चे नहीं रहे, उनका भी अपना परिवार है, काम के हजारों पचड़े हैं।” उस दिन सुमन जी ने धीरे से कह ही दिया।
“तो क्या हम उनके परिवार में शामिल नहीं हैं?” वो तैश में आकर बोले। सुमन जी चुप हो गईं। क्या कहतीं, बेटे ने साथ रहने के लिए कई बार कहा पर पति नहीं माने। कितना बचत करने के बाद तो अपना घर बनाया था उसे छोड़कर जाना उन्हें गंवारा नहीं।
आज फिर प्रकाश जी बच्चों का इंतजार कर रहे हैं। मेड खाना बनाकर चली गयी। धीरे- धीरे शाम का धुंधलका छाने लगा। वो फिर बालकनी में पहुँची जहाँ प्रकाश जी आँखे बंद किये आराम कुर्सी पर बैठे थे। सुमन ने बालकनी की लाइट ऑन की और धीरे से उनके कँधे पर हाथ रखा।
“बच्चे आ गए क्या? वो चौंककर उठे। सुमन जी ने न में सिर हिलाया।
“भीतर चलिए ठंड बढ़ रही।”
“हाँ, चलो।” जैसे-जैसे वक़्त बीत रहा था उनके चेहरे पर उदासी छाती जा रही थी।
“देखा तुमने? इस बार भी उन्हें याद नहीं।” उन्होंने सोफे पर बैठते हुए धीरे से कहा।
“मैं फोन करूँ उन्हें?” सुमन जी ने हिचकिचाते हुए पूछा।
“कोई जरूरत नहीं, अब उन्हें फोन करके बताना होगा कि उनके मां-बाप भी हैं? बोलो!.. दिन रात एक करके इन्हें पढ़ाया-लिखाया, किसी चीज की कमी नहीं होने दी, आज उनके पास हमारे लिए ही समय नहीं।” प्रकाश जी के सब्र का बांध टूटने लगा था।
उनकी बात सुनकर सुमन जी भी तिलमिला गईं। हमेंशा के उलाहनों से तंग आ गईं थीं। उनका सब्र भी जवाब देने लगा था।
” हमेंशा यही बात, यही अपेक्षा, यही उलाहना… किसका दोष है इसमें? सिर्फ उनका ही या हमारा भी?
परिवार की अहमियत कब सिखलाई हमने, तब तो उनकी पढ़ाई, उनका कैरियर महत्वपूर्ण था हमारे लिए, है ना! उनकी पढ़ाई का नुकसान न हो उसके लिए नाते-रिश्तेदारों का हमारे घर आना बंद होता चला गया। गाँव से आपके भाई भावज और उनके बच्चे आते रहते थे, तो आप कैसे कुढ़ जाते थे। बच्चों के सामने ही भिन्नाहट शुरू हो जाती थी आपकी, कि उन लोगों की वजह से बच्चों की पढ़ाई में परेशानी होती है। और तो और आपको याद तो होगा ही एक बार बच्चों की परीक्षा थी और मेरी माँ की तबियत खराब थी पर उनकी पढ़ाई में खलल न पड़े इसके लिए आपने मुझसे बहाना करवा दिया था। तो आज बच्चे परिवार की अहमियत नहीं समझ रहे तो इसमें सिर्फ उनकी गलती है?” मितभाषी सुमन जी आज पहली बार एक सांस में इतना बोल गईं थीं, वो हाँफने लगीं ।
“लो पानी पी लो!” प्रकाश जी पानी का ग्लास उनके मुँह के से लगाते हुए उनके बगल में बैठ गए। वो पानी पीकर सिसकने लगीं। आज प्रकाश जी ने पहली बार पत्नी को रोते देखा। उन्होंने आहिस्ते से उन्हें अपने बांह के घेरे में ले लिया। पति का संबल पाते ही सुमन जी उनके सीने से लगकर फफक पड़ीं।
“मैं थक गई हूँ, घर-परिवार, बच्चे और आपके के बीच संतुलन बनाते-बनाते। बच्चों के बचपन से आपके प्रति उनकी शिकायतें दूर करती रही अब आपकी उनके प्रति।” वो एक पल को चुप हुईं। प्रकाश जी शांत होकर उनकी पीठ सहलाते रहे जैसे किसी गहरी सोच में डूबे हों।
“मैंने क्या गलती कर दी है, बच्चे तो दूर हैं ही पति साथ रहकर भी पास नहीं।” वो चुप हो गईं। कुछ देर तक दोनों के बीच चुप्पी बोलती रही। खिड़की से छनकर आती चाँदनी का उजाला धीरे-धीरे प्रकाश जी अन्तस् में उतरता जा रहा था और उनके भीतर का अँधेरा छँटने लगा।
“सही कह रही हो! हम ही तो अपने बच्चों को रेस का घोड़ा बना देते हैं ताकि वो औरों से पिछड़ न जाएं। जब वो रफ्तार से दौड़ने लगते हैं तब हम पीछे छूटने के एहसास से भयभीत हो जाते हैं। क्योंकि घोड़े का रेस तो एक बिंदु पर समाप्त हो जाता है पर…..।” कहकर प्रकाश जी ने एक गहरी सांस ली। एक चुप्पी दोनों के बीच पसर गयी थी। कुछ देर बाद प्रकाश जी ने चुप्पी तोड़ते हुए गम्भीरता से कहा– ” मैं बच्चों की उपेक्षाओं से आहत होता रहा, पर तुम्हारे बारे में एक बार भी नहीं सोचा, तुमपे क्या बीत रही होगी बल्कि उनकी गलतियों के लिए तुम्हें ही उलाहने देते रहा।” कहकर वो फिर चुप हो गए। सुमन जी उन्हें कातर नजरों से देख रही थीं। पति के इस सानिध्य के लिए वो हमेंशा तरसती रहीं। इतनी सी बात इतना सा दुलार ही तो चाहिए था उन्हें।
“देखिए, हमारे बच्चे खुश हैं अपनी जिंदगी में, यही हमारी पूँजी है। हम उनकी तरफ से चिंतामुक्त हैं क्या ये कम है?” सुमन जी ने पति के हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा।
“सच कह रही हो..अब तो हमारा वक़्त शुरू हुआ है। चलो तैयार हो जाओ आज हम फ़िल्म देखेंगे और डिनर भी बाहर करेंगे।” उन्होंने हँसते हुए कहा। प्रकाश जी अचानक अपनी उम्र से कम दिखने लगे।
“अरे! पर इतना खाना जो बना…..
“उसे पैक कर लो, रास्ते में मंदिर के बाहर जो भूखे-प्यासे लोग सोए रहते हैं उन्हें खिला देंगे। चलो अब जल्दी करो और हाँ वो पीली वाली सिल्क की साड़ी पहनना, तुमपे बहुत फबती है।” प्रकाश जी मुस्कुराते हुए बोले।
————–कविता सिंह————–
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जीवन संध्या बहुत निर्मम होती है ।