जीकाजि

प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई ।
राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई ॥

कितनी खूबसूरत बात कही है कबीर दास जी ने , प्रेम कोई खरीदी, बेची जाने वाली वस्तु थोड़ी ही है | ये तो गहन भावना है जो त्याग और समर्पण की नीव पर टिकी होती है | कुछ ऐसा ही प्रेम था रीवा और तेजस में |सब कुछ कितना आसान सा लगता था ….वो दौड़, भाग, वो गणित के सवाल, वो शरारतों भरी दोस्ती | पर जिंदगी अपनी मर्जी से चली है क्या ? ये गाड़ी कम धीमी रफ्तार हो जाए, कब ब्रेक ले ले और कब .. ? ऐसे में ही तो पता चलता है की प्रेम कितना गहरा था या कितना उथला | रीवा और तेजस कए प्रेम क्या इस कसौटी पर खरा उतर पाएगा ?

आइए पढ़ते हैं सुपरिचित लेखिका “निर्देश निधि”जी की कहानी

 “जीकाजि”  

“मैं ही जीतूँगा, मैं ही जीतूँगा, मैं ही जीतूँगा । म्याऊँ देख लेना । सिर्फ रेस ही नहीं जीतूँगा, हर बार की तरह  फुटबॉल के गेम में भी सबसे ज़्यादा गोल मैं ही करूंगा । मतलब ये कि वहाँ भी मैं और मेरी ही टीम जीतेगी ।“ 

“चल – चल अपना काम कर, हर  बार मैं ही जीतूँगा आया बड़ा, जीकाजि ।“ तेजस रीवा को म्याऊँ कहकर चिढ़ाता और रीवा तेजस को जीकाजि (जीत का जिन्न) पुकारकर चिढ़ाती । 

“क्यों नहीं जीत सकता मैं हर बार? तू आखिर अंडर ऐस्टिमेट कैसे कर सकती है मुझे म्याऊँ ?”

“कभी तो कोई हार भी सकता ही है जीकाजि, खेल में हारना कोई कैरेक्टर लूज़ कर जाना थोड़े ही होता है, स्टुपिड।“ 

“मैं कभी नहीं हार सकता, कम से कम इस जीवन में तो कभी नहीं ।  इन फ़ैक्ट, मैं हारने के लिए बना ही नहीं, समझी……..।“

प्रैक्टिस के दौरान स्टेडियम में दौड़ते – हाँफते हुए वह चिल्ला – चिल्ला कर यह घोषणा करता । जिसकी श्रोता सिर्फ रीवा ही होती । वाकई, वह हर रेस जीतता, चाहे वह सौ मीटर की हो या दो सौ मीटर की । फुटबॉल के मैच में भी सबसे ज़्यादा गोल दागने वाला वही होता । यूं तो रीवा उसकी जीत पर खुद को विजेता समझती, पर उसे चिढ़ाती, “तुझे और आता ही क्या है जीकाजि । कोई ढंग का काम आता भी है तुझे रेस और फुटबॉल के सिवा ?”  

“भूल गई म्याऊँ, एड़ी चोटी के ज़ोर लगाकर भी तू आज तक मैथ्स में मुझसे अच्छे मार्क्स ला नहीं सकी है।  ज़्यादा से ज़्यादा मेरे बराबर यानी सौ में से सौ ही ला सकी है,एक सौ एक तो कभी तू भी ला नहीं पाई ।“ यह भी वो स्टेडियम में दौड़ लगाते – लगाते चिल्ला कर कहता । उसके पैरों में जैसे कोई तीव्र गति यंत्र फिट था, वे कभी थकते नहीं, हारते नहीं । अपनी प्रैक्टिस के दौरान वह घंटों रीवा को स्टेडियम में बैठाए रखता, वह उस पर ऐहसान तो दिखाती रहती पर वहीं बैठ कर अपनी पढ़ाई करती रहती । 

“क्या हुआ बाकी सारे सब्जेक्ट्स में तो मैं ही नंबर वन हूँ जीकाजि । और हाँ यह भी मत भूलना कि मैं अगर म्याऊँ हूँ तो तू सिर्फ चूहा है चूहा, दौड़ मुझसे दूर वरना…. तू तो गया जीकाजि ।“  

तेजस और रीवा की लगभग रोज़-रोज़ की बहस थी यह, पर दोनों की दोस्ती में बीच से हवा को भी गुज़र जाने की इजाज़त नहीं थी। दोनों बचपन से पड़ोसी थे और घर में माता – पिता का भी अच्छा मेल – जोल था, दोनों का बचपन एक साथ खेलते गुज़रा था । दोनों एक ही स्कूल, एक ही कक्षा, एक ही सैक्शन में पढ़ते, एक ही रिक्शा में बैठकर स्कूल जाते । दोनों के घर के बीच की  दीवार एक ही थी । रीवा के पिता सरकारी स्कूल की सीनियर विंग में अध्यापक थे और तेजस के पिता जूनियर विंग में । रीवा और तेजस दोनों ही अपने – अपने माता – पिता की इकलौती संतान थे, यह भी इत्तफ़ाकन एक ही जैसा था । बचपन में जब किसी एक की माँ खाना देती तो वो झट से दूसरे को बुलाने उसके घर भागता । धीरे – धीरे जिस भी घर में खाना लगाया जाता दोनों के लिए ही लगाया जाने लगा । दोनों के घर वालों की कुछ ऐसी उदारता रही कि उन दोनों के बड़े हो जाने पर भी इस मेल – जोल को किसी ने रोका नहीं । 

 

बचपन से ही एक – दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर चलने, गले लग जाने, एक दूसरे को छू लेने में न कोई असहजता  थी, न असहज होने का ज्ञान ही था । बड़े हुए तो सब कुछ वैसा ही होने के बावजूद स्पर्श कुछ बदला – बदला सा लगने लगा। अब कुछ दिनों से, कुछ असहज से हो जाने लगे, दोनों ही । बचपन पीछे छूट रहा था, दोनों के शारीरिक परिवर्तनों की उद्दाम लहरें अपनी ताज़गी, खुशबू, नयेपन के कौतूहल और नशे में सराबोर किशोरावस्था के कोरे साहिलों से टकरा रही थीं ।

तेजस का व्यक्तित्व बहुत आकर्षक बनकर उभर रहा था । रीवा सामान्य कद – काठी की गंभीर और समझदार और दृढ़निश्चयी लड़की बन कर बड़ी हो रही थी ।

पर उसने अपना चुलबुलापन भी खोया नहीं था । दोनों हैरान थे यह सोचकर कि आखिर यह कौन सा मोड़ था जीवन का, जिस पर ना चाहते हुए भी बचपन की दोस्ती खत्म हुई जा रही थी । अब एक – दूसरे से एक नई पहचान हो रही थी, जैसे उनके पुराने रिश्ते का नवीनीकरण हो रहा हो । हो जो भी रहा था पर रिश्ता और प्रगाढ़ होता जा रहा था । कुछ – कुछ अलग से इस एहसास पर एक दिन बोल ही दिया था मुँहफट तेजस ने, 

“ए म्याऊँ, तू क्या जादू करने लगी है अब ? तेरे कंधे पर भी हाथ रख लूँ तो करंट सा लग जाता है यार ।“ इस पर रीवा आँखें झपकाकर बोली थी, 

“मैं तो कुछ एक्स्ट्रा एफ़र्ट नहीं डालती, अब तुझमें ही कोई प्रॉब्लम हो गई लगती है । सिंपल, अब मेरे कंधे पर हाथ रखा ही मत कर, बचा रह जाएगा करंट से ।“ और वह खूब ज़ोर से हँसी थी ।

“कंधे पर नहीं तो कहाँ तेरे दिल पर रक्खूँ हाथ ?” कहकर अपनी खिसियाहट मिटाने के लिए तेजस ने रीवा को पीछे धकेल दिया । 

“मेरे तो कहीं भी मत रख, न दिल पर न दिमाग पर । अब तो तू बस अपने ही दिल पर हाथ रख, हा हा हा  ।“ रीवा फिर ठहाका लगा कर हँस दी । 

“तेरे दिल पर तो मैं ज़रूर ही हाथ रखूँगा, तू रोक लेगी क्या ? हाथ ही नहीं रखूँगा, रूल करूँगा रूल, किसी शहंशाह की तरह ।” 

“तू रूल करेगा ? खुद को तो संभाल पहले, चैक कर ले कहीं लव – वव का चक्कर तो नहीं हो गया ?” 

“तुझसे और लव, कोई म्याऊँ से भी लव करता होगा भला, मैं तो तुझसे शादी करूँगा शादी ।” और वह रीवा के बिलकुल करीब आकर उसकी आँखों में देखने लगा। रीवा ने नाटकीय अंदाज़ में चेहरा आसमान की तरफ़ उठाया और माथे पर हाथ रखकर बोली ।   

“ओह नो, शादी तुझसे, और वो भी विदाउट लव । यार, मम्मी अक्सर एक कहावत कहती हैं, ये मुँह और मसूर की दाल ? तुझ पर सटीक बैठती है मेरे संदर्भ में ।“ कहकर रीवा ने तेजस को पीछे धकेल दिया । 

उनके किशोर हो जाने पर भी जिस तरह उनके मेल – जोल की छूट थी, लगता यही था कि उनके प्रेम से भी घरवालों को कोई ऐतराज था नहीं। क्योंकि ऐसा तो नहीं होगा कि उन दोनों की सपनीली आँखें दो जोड़ी अनुभवी माता – पिता को दिखाई दी ही न होंगी । मिलने की छूट ने, मिलने की उतावली को रोक दिया था । जब चाहे मिल लेने के इत्मीनान ने सामाजिक रूप से नियम विरुद्ध किसी बात को उनके बीच जन्मने का अवसर ही नहीं दिया । हाँ एक दूसरे को चमत्कृत कर देने वाले स्पर्श तो थे, जिसे उन दोनों ने ही हल्के – फुल्के मज़ाक की तरह लिया था  । 

तेजस के खेल – कूद में व्यस्त रहने से उसके विषयों की पढ़ाई अक्सर पीछे छूट जाती, रीवा ही उसका कार्य पूरा कराने में मदद करती । कार्य  पूरा होने तक तो वह कुछ न बोलता, पूरा हो जाने पर वह एक बार फिर से रीवा को चिढ़ाता । वह कभी मूड में होती तो झगड़ती वरना तो , “तुझे तो कोई और काम है ही नहीं, न कभी था । बस अंधाधुंध रेस, फुटबॉल पर लातें, थोड़ी – बहुत मैथ्स में माथापच्ची और तेरा सबसे ज़रूरी काम है मुझसे झगड़ा, तेरी तो यही चार हॉबीज़ हैं । जा अब मुझे काम करने दे ।“ “हाँ जा रहा हूँ रट्टू तोती जा रहा हूँ । जा, जाकर रट्टा लगा ले ।“ और पुच्च की आवाज़ करके उसे पुचकारता, उसके सिर पर हाथ फिराता, कभी कंधों से पकड़कर ज़ोर से हिला देता तो कभी प्यार में गले भी लगा लेता । अब दोनों सिर से पाँव तक दौड़ती एक अनजानी सी लहर का अनुभव करते । 

हृष्ट – पुष्ट और आकर्षक व्यक्तित्व वाले तेजस की जीत के अश्व लगातार दौड़ रहे थे । समझदार, अध्यापक पिता समझ गए थे कि उसकी मंज़िल पढ़ाई की नहीं, खेलों की दुनिया की तरफ़ ही थी । ग्यारहवीं कक्षा की परीक्षा का परिणाम आ चुका था । रीवा स्कूल में दूसरे स्थान पर आई थी । तेजस के गणित में सौ प्रतिशत अंक आए थे जबकि दूसरे विषयों में भी रीवा के नोट्स पढ़कर उसके अंक ठीक – ठाक ही आ गए थे । उसके पिता खिलाड़ियों की ख्याति और संपन्नता से वाकिफ़ थे । फिर भी उनके अनुसार केवल स्पोर्ट्स के भरोसे जीवन नहीं छोड़ा जा सकता । बेमन के ही सही, तेजस इंटर के साथ – साथ इंजीनियरिंग की परीक्षा की तैयारी में भी लग गया था । 

एकाएक तेजस को बहुत तेज़ बुखार ने धर दबोचा । सुबह जब तेजस को वॉशरूम जाने के लिए उसकी  माँ ने सहारा देकर उठाना चाहा तो वह कटे पेड़ सा फर्श पर गिर पड़ा था । उसके माँ – पापा तभी उसे लेकर अस्पताल भागे थे । दिन भर देख-भाल के बावजूद भी सुबह जब उसकी हालत नहीं सँभली तो उसे गंगाराम अस्पताल, दिल्ली में ऐडमिट करा दिया गया । बड़े से बड़े डॉक्टरों की कड़ी से कड़ी मेहनत के बावजूद उसके पैरों में ज़रा सी भी हरकत पैदा नहीं की जा सकी थी । दिन पर दिन उसकी हालत बिगड़ती ही चली गई थी। एक बारगी सबको लगा था कि तेजस को खो दिया है । 

रीवा का प्यारा बाल सखा जीवन – मृत्यु का खेल, खेल रहा था और वह अकेली हंसिनी सी बेचैन थी । पर वह आत्मविश्वासिनी जानती थी कि तेजस मौत का भी इतना आसान शिकार तो नहीं ही हो सकता था । रीवा पापा – मम्मी से बार – बार तेजस से मिलने की ज़िद करती और वे उसे लेकर अपने प्रिय पड़ोसी मित्र के बेटे और अपनी बेटी के प्रिय सखा से मिलने जाते । रीवा तेजस को बार – बार यही कहती, ”तेजस याद रखना अपनी ही बात कि, तू हारने के लिए नहीं बना है । मौत तो जैसे फुटबॉल है तेजस जड़ दे एक ज़ोर की किक, भागती नज़र न आई तो कहना । या फिर ये लाइफ़ रेस का मैदान है जैसे और मौत वो धावक हैं जिसे तूने हर बार पछाड़ा है ।“ साल भर तक वह कई बार मौत के कुएँ में लटका तो था, पर अपनी उस प्रेरक किशोरी साथी से हिम्मत लेकर वहाँ भी जीवन की डोर कसकर थामे रहा था । ज़ोर की किक लगाकर उसने मौत की फुटबॉल को तो वाक़ई दूर भगा दिया था, पर जिन मजबूत पैरों के बल पर दुनिया की हर रेस जीतने का लक्ष्य लेकर चल रहा था, बस उन पैरों में जीवन नहीं डाल पाया था । प्रकृति इतनी क्रूर भी हो सकती है ? इस प्रश्न का उत्तर हाँ में ही हो सकता था उसके लिए ।  

“आपको याद है तेजस के पापा , ठीक नौ महीने चार दिन का अपने बल पर पैरों चल पड़ा था ये।“ अस्पताल में खाली बैठे तेजस की माँ ने उसका बचपन याद करते हुए पति से अपने अंतस का दुख साझा किया। 

“कौन जाने इसे ईश्वर ने इसी लिए जल्दी चलना सिखाया था कि बाद में इसे चलना भूल जाना था ।“ उसके पापा एक गहरी साँस के साथ बोले थे । 

“कोई साधु है, देसी इलाज करता है फत्तेपुर में । सुना है कि कई लोग ठीक भी हुए हैं । मंगल के दिन बैठता है, बाला जी का दरबार लगाता है, पैसे नहीं स्वीकारता । मेरे कहने से वहाँ ले चलना इसे प्लीज़, डॉक्टर की दवाई के साथ – साथ ही उसका इलाज भी चल जाएगा तो कोई बुराई नहीं । कहते हैं न लाख की न लगे राख़ की लग जाए ।“

“चलो, तुम ये भी करके देख लेना……..“ तेजस के पापा ने उदासी के साथ एक थकी हुई आवाज़ में अपनी सहमति दी थी । 

पाँव नहीं चल सके तो क्या उसके भीतर के जीत के जिन्न ने मौत को तो कम से कम पछाड़ ही दिया था  । लगभग एक बरस हो चुका था उसे अस्पताल में  ऐडमिट हुए । डॉक्टर्स के अनुसार अब और अधिक नहीं रखा जा सकता था उसे वहाँ ।  अतः उस अस्थि पिंजर बने तेजस को लेकर दुखी मन से लौट आए थे उसके माँ – पापा । घर आकर भी एक बरस तक भयंकर रूप से बीमार रहा था वह । अस्पताल से छुट्टी के वक्त उसका इलाज कर रहे डॉक्टर केतन मित्रा ने कहा था कि, “एक आशा है अभी, स्टेम सेल थेरेपी आने ही वाली है तेजस, उसके आते ही तुम्हारे पैरों की शक्ति वापस आने के काफी चांसेज़ हैं, हम फिर से तुम्हारा इलाज करेंगे ।  नई – नई खोज, नई – नई दवाइयाँ आ रही हैं । मेडिकल में काफ़ी रिसर्च चल रही है, हर पिछला दिन अगले दिन से कई कदम आगे बढ़ कर खड़ा होता है । डोंट गिव अप यंग बॉय, होप फॉर द बेस्ट ।“ बस उनका यह कथन ही आशा का संबल था। हर हफ्ते उसे दिल्ली ले जाना पड़ता था, चेकअप के लिए । इस खर्च के लिए मध्यमवर्गीय शिक्षक पिता को बड़े शौक से बनवाया हुआ अपना घर बेचना पड़ गया था।   

अब तेज़ रफ़्तार  रेस और फुटबॉल तेजस के छोटे से जीवन पटल पर इतिहास की बूंदें भर थीं । जैसे रफ़्तार के पर्याय किसी परिंदे के पर काटकर उसे पिंजरे में लाकर पटक दिया गया  हो । वह अपने अशक्त हाथों से अपने निर्जीव से पैरों को सहलाता, कभी उन पर नाराज़ होता । कभी उठा – उठा कर देखता, शिकायत करता कि तुम्हें मेरा बोझ उठाना था आजीवन, उल्टा अब मुझ पर ही बोझ बने रहोगे सदा ? तुम तो ऐसे बैठ गए जैसे पेड़ का तना कटकर उसकी चोटी के सहारे बैठ जाए । हड्डियों के ऊपर सिकुड़ कर चिपक गई अपनी खाल को बार – बार खींचकर देखता । फिजियोथेरेपी चली बरसों, माँ ने भी तमाम देसी – विदेशी तेलों की मालिश की थी उसके पैरों पर, फत्तेपुर के साधु का भी खूब इलाज चलाया था । पर पैरों ने तो चलने का नाम ही न लिया । इतने दिनों बिना कुछ श्रम किए हाथ भी तो कमजोर पड़ गए थे उसके । हाथों में अतिरिक्त जान डालने का पूरा प्रयास किया था उसने, जिसमें वह सफल भी हुआ था । 

तेजस के घर आ जाने के बाद रीवा देर तक उसके साथ बैठी रहती, वहीं बैठकर अपनी इंजीनियरिंग एंट्रैंस की तैयारी  भी करती रहती । जान – बूझकर अपने गणित के प्रश्नों पर अटकती और उससे हल कराती, उससे गणित समझने का नाटक करती । बेमन की लड़ाइयाँ लड़ती,  हार – जीत के असली झगड़े बंद हो गए थे । रीवा समझती थी कि इस बार तेजस को कुदरत ने हरा दिया था । वह बिस्तर पर लेटा  होता तो दिखाई भी न देता । वह था ही कहाँ, उसकी जगह तो थीं बस आपस में जुड़ी हुई मुट्ठी भर सूखी हड्डियाँ और उन पर चिपकी हुई झुर्रीदार खाल । उसे देखकर कई बार रीवा की आँखें डबडबा जातीं । रीवा अक्सर उसे करवट दिलाने में माँ की मदद करती । वह रीवा से लगभग रोज़ ही कहता। “ऐसा अपाहिज जीवन कब माँगा था मैंने ? जीतना – जीतना, करते – करते मैं हमेशा के लिए हार गया न रीवा ? क्यों तूने इतनी हिम्मत दी थी मुझे, अगर तू और मम्मी – पापा मुझे हिम्मत न देते तो मैं इस कदर न जूझता मौत से । अब तो मैं किसी को न कोई खुशी दे सकता हूँ न किसी का कुछ भला ही कर सकता हूँ।“  कभी कहता, “अगर मुझे पता होता कि इस तरह अपाहिज होकर बैठ जाऊँगा तो तुम तीनों का कहा मानता ही नहीं, मौत से झगड़ता ही नहीं, कर लेने देता उसे मनमानी । माँ – पापा का सहारा मुझे बनना था, पर हो तो उसका उल्टा गया । रीवा दादा जी कितनी बार कहते थे मुझसे कि तू तो हम सबके बुढ़ापे की लाठी है बेटे, खूब दूध, बादाम खाया कर, तीन – तीन बुड्ढे जो संभालने हैं तुझ अकेले को । अच्छा ही हुआ जो उन्होंने इस लाठी को टुकड़े – टुकड़े होते नहीं देखा वरना वे भी माँ – पापा की तरह मुझे देख कर दुःखी ही हो सकते थे बस । जब मैं जीतकर लौटता तो पापा कितने खुश  होते थे रीवा और माँ को तो जैसे पंख ही लग जाते थे, वो मिठाई बाँटती थी मुहल्ले भर में । अब मैं किसी को कोई खुशी कभी नहीं दे पाऊँगा न रीवा ?“ उसके  रोज़ – रोज़ की इन बातों से दुःखी होकर उस दिन रीवा ने थोड़ा कठोर होकर कहा था,  

“तेजस, रोज़ – रोज़ तेरे इस प्रश्न को पूछने पर मुझ पर क्या गुज़रती होगी यह तो मैं बाद में बताऊँगी कभी, पर इस वक्त यह कहूँगी कि, इंसान घोड़ा तो नहीं है ना जो सिर्फ़ पैरों के बल पर सबसे तेज़ दौड़कर ही  अपनी जीत दर्ज कर सके, उसकी जीत का संसार बहुत विस्तार लिए होता है तेजस, उसके जीतने के आयाम बहुत व्यापक होते हैं, एक नहीं सैकड़ों क्षेत्र होते हैं उसके जीतने के लिए । स्टीफ़न हॉकिंग को भूल गया ? ज़रा सोच  कर तो देख । इंसान की सबसे बड़ी ताकत उसके पैर नहीं उसकी बुद्धि होती है, उसका दिमाग होता है । कम से कम तेरे दिमाग में कोई कमी नहीं आई है तेजस । अब तू जीत की दिशा स्टेडियम से बदलकर देख फिर बताना, तू जीता या हारा, तेरा जीवन महत्व का है या महत्वहीन । याद कर और क्या था विशेष तुझमें, या क्या सबसे अलग पैदा कर सकता है तू खुद में, अपनी पूरी क्षमता के साथ सोच तेजस, खूब समय है तेरे पास । तुझे याद है न कि तू हारने के लिए तो बना ही नहीं । हम सबकी खुशी के लिए तो तेरा बस होना ही काफ़ी है तेजस ।“ 

“……………” तेजस उत्तर में एक शब्द भी नहीं बोला था। साथ खड़ी उसकी माँ बोली थीं, 

“तू शीला आंटी के बेटे अभय को कैसे भूल गया बेटे जो पैदा ही बिना पैरों के हुआ था और आज उसने अपने पिता का पूरा का पूरा इन्स्टीट्यूट सँभाला हुआ है । उसकी कड़क आवाज़ सुनी है तूने ? कितनी हिम्मत बटोरी होगी उसने अपनी आवाज़ को इतनी कड़कदार बनाने में, कितना लड़ना पड़ा होगा उसे खुद से, सोच सकता है बेटे ? पाँव नहीं थे तो दिमाग ने सारी शक्ति बटोरी और उसकी दूसरी क्षमता को बढ़ा दिया । यही करता है दिमाग, क्षमताओं से खाली नहीं छोड़ता किसी को भी । आज उस ज़रा से दिव्यांग लड़के से उसकी संस्था का हर छोटा बड़ा आदमी घबराता है। आँखे खोलकर देख तेजस हर दूसरे दरवाज़े पर एक न एक दुर्भाग्य लटका हुआ मिलेगा तुझे।“

“माँ अभय जानता ही नहीं न कि पैरों पर खड़े होना होता क्या है। जिसे पाया ही नहीं उसे खोने का दुख कैसा?“ 

“अब ये तो वही पुरानी बात है बेटा, गिलास आधा भरा या आधा खाली….”  

“जो हुआ उसे कौन चाहता था पर अब जो अनचाहा हो गया है उसमें हम अपना बेस्ट कैसे दें यही महत्व का है बेटे । फिर मैं तेरे साथ खड़ा हूँ न ।“ चुपचाप तीनों की बातें सुन रहे उसके पापा ने कहा था । 

“ठीक है पापा……” इस बार उसने एक निश्चय के साथ उत्तर दिया था, जैसे पुरुष की बात ही पुरुष को समझ आई थी  । 

इंटर के बाद रीवा का सलेक्शन इंजीनियरिंग में हो गया था, जिसका सारा श्रेय उसने तेजस के साथ बैठकर की तैयारी को दिया था । “मैं हॉस्टल जा तो रही हूँ तेजस, पर हर वक्त रहूँगी तेरे साथ ही ।“ जाते – जाते बोली थी रीवा । जाकर रोज़ कई – कई बार वह तेजस को कॉल करती, उन दोनों के बीच भौगोलिक दूरी का तो जैसे कोई महत्व ही न था ।  रीवा उसे बार – बार याद दिलाती कि, तेजस कभी हार नहीं सकता । 

अब वह थोड़ी देर बैठा रह सकता था इसलिए उसके पापा ने व्हील चेयर लाकर कहा था, “आज से ये तेरे पाँव हैं तेजस और मेरे जीते जी, मेरे भी दोनों पाँव तेरे ही हैं बेटे । मैं जब तक जीऊँगा तेरे साथ खड़ा रहूँगा, पूरी मुस्तैदी  के साथ । जीवन के किसी भी मोड़ पर घबराना मत बस ।“ पापा ने उसे व्हील चेयर पर बैठने में मदद की और उस दिन उसने अपने घर का कोना – कोना खुद देखा था । उसके लिए इतना सा बदलाव ही घुप्प अँधेरे में आशा की लौ सरीखा था और वह बात सच है कि गहन से गहन अंधकार का अभिमान तोड़ देने के लिए एक नन्ही सी लौ ही पर्याप्त होती है । 

तेजस जब पहली बार घर में व्हील चेयर पर चला था तो उसके माँ – पापा को वाकर में बैठा सात – आठ माह का नन्हा, धरती तक अपने पाँव ले जाकर जल्दी – जल्दी दौड़ता हुआ तेजस याद आ गया था, और वे दोनों ही रो पड़े थे । तब खुद तेजस ने ही ढाढ़स बँधाया था उन दोनों को, और यह गुनगुनाते हुए, ‘हम होंगे कामयाब एक दिन………’ व्हीलचेयर को अपने हाथों से आगे बढ़ा दिया था ।

रीवा जब अपने सेमेस्टर ब्रेक में घर आती तो अपना सामान घर रख कर सबसे पहले तेजस के घर ही चली आती थी । हालाँकि अब उसके माता – पिता उसे कई बार न जाने के लिए कहते, पर वह मानती ही कब थी । इस बार तेजस ने ही दरवाजा खोला था उसके लिए । उस दिन उसने तेजस को पहली बार व्हील चेयर पर देखा था, वह उसके गले लगकर रो पड़ी थी बुरी तरह । यह तेजस को बिल्कुल पसंद नहीं आया था, “कम से कम तू मुझ पर तरस मत खा, मुझे तेरा तरस खाना बिलकुल भी तो अच्छा नहीं लगेगा रीवा।“ तेजस ने अपनी टेबल पर रखी बोतल में से गिलास में पानी लेकर रीवा को पकड़ाते हुए कहा, और वह एक बार फिर रो पड़ी थी । 

“मेरे लिए रोने की जगह, मैथ्स की स्टैण्डर्ड बुक्स इकट्ठी कर रीवा, आखिर मैथ्स तो मैं जानता हूँ रेस के जितना, फ़ुटबाल के जितना, खासकर तेरे जितना । अभी मैं कुछ नहीं भूला हूँ, बल्कि अब तो मैं और भी अच्छी तरह जान गया हूँ हर गणित । गणित तो मैं जीवन – मृत्यु का भी देख चुका हूँ न, यह भी तो मदद करेगा मेरी । यह एक रेस और बची है अभी मेरे खाते में । मैं फिर से जीतूँगा रीवा, मैं फिर से जीतूँगा, जल्दी ही, तू देखती जा बस ।“ रीवा ने प्रशंसा भरी दृष्टि के साथ अपनी तर्जनी और मध्यमा उँगलियाँ उठाकर विजय का चिन्ह बनाया । दरवाजे में खड़ी तेजस की माँ की आँखों में आँसू भर आए, वे जब पीछे मुड़ी तो पति ने धीरे से पर आश्वस्ति के साथ कहा, “सीमा समझो तेजस एक बार फिर जीत गया है, क्योंकि उसने जीत के बारे में सोच लिया ।“ 

”फिर जाग उठा तेरे भीतर जीत का जिन्न । अगर तुझे मैथ्स नहीं आता होता तो तू उसे कैसे जीवित करता ?” रीवा ने रोते – रोते सायास चिढ़ाया था उसे। 

“अगर मुझे मैथ्स नहीं आता तो कुछ और आता होता, तब भी मैं जीतता ही म्याऊँ । मैं  गाना सीखता, दूसरों को सिखाता, गिटार बजाना सीखता, दूसरों को सिखाता, बेहतर फ्रेंच, जर्मन सीखता, दूसरों को सिखाता, क्राफ्ट्स ही सीखता, वह सिखाता दूसरों को, लोग तो कुछ भी सीखना चाहते हैं रीवा, कुछ भी, बस कोई सिखाने वाला मिलना चाहिए । खैर फ़िलहाल तो मुझे मैथ्स आता है ठीक – ठाक ।“ अपनी नम हो आई आँखों को छुपाते हुए कहा था उसने । 

“तेजस तू वाकई हारने के लिए नहीं बना है, तेरे भीतर के जीकाजी को, ऑल द बेस्ट ।“ यह कहकर रीवा ने उसके कंधों को पकड़ कर गर्मजोशी से हिलाया था । उन दोनों की बचपन की मासूम दोस्ती अब तक गंभीरता भरा एक रिश्ता बन गई थी । बचपन से रीवा का कोई काम तेजस से सलाह किए बिना होता ही कहाँ था तो फिर तेजस का कोई काम भी उसके बिना हो पाना कैसे संभव था । रीवा उसी शाम गणित की तमाम किताबें खरीद लाई थी, जिन्हें देखकर वह खुश होकर बोला, “यह है मेरी नई रेस जीतने का सामान, थैंक यू रीवा । भले ही तू म्याऊँ है पर मेरी बैस्टफ्रेंड तो तू ही है ।“ पुस्तकें देखकर उसने अपने भीतर जीत के जिन्न को पुनर्जीवित करते हुए रीवा को छेड़ा था, बिलकुल अपने पुराने अंदाज़ में । “तुझे अभी तक कोई शक था जीकाजि ?“ रीवा ने पूछा और चुप हो गई । 

तेजस की माँ उसके कमरे की अलमारियों से स्पोर्ट्स के सामान हटाने लगी थी, यह सोचकर कि वह उन्हें देखकर अच्छा अनुभव नहीं करेगा । परंतु उसने मना कर दिया था यह कहकर कि, “रुको माँ । इन्हें मत हटाओ न, इन्होंने  ही तो मुझे जीतने की आदत डाली है । आज राजू से कहना, ड्रिल  मशीन लेकर आ जाए, मेरी स्पोर्ट्स किट, मेरी फुटबॉल और स्पोर्ट्स के मेरे सारे सामान यहीं टाँग देगा मेरे कमरे में, मेरे सामने, एक – एक, अलग – अलग । यहीं रहेंगे ये सब, मुझे जीत का पाठ पढ़ाने वाले, मेरे गुरु तो ये ही हैं ।“ थोड़ा रुककर बोला, “पता है माँ दादा जी जब हर समय यह गीत गाते थे, “हम होंगे कामयाब, एक दिन पूरा है विश्वास, हम होंगे कामयाब एक दिन…..,”  तो मैं और रीवा बचपन मैं उनकी मज़ाक बनाया करते थे कि दादा जी आपको कोई और गीत नहीं आता ? पर ये गीत वाकई रोज़ गाने लायक है माँ……..।“ 

“हाँ तुझमें कभी ना हारने का गुण तो निश्चय ही अपने दादा जी का ही आया तेजस।“  

रीवा की छुट्टियों भर उसके साथ गणित के अभ्यास में जुट गया था तेजस । उसने पहले ठीक रेस और फुटबॉल की तरह गणित को जी जान से प्यार करना सीखा, अपने जेहन में बसाया फिर उसे खुद पढ़ा, फिर उसका ठीक वैसे ही अभ्यास किया जैसे वह गोल दागने का करता था, तेज़ दौड़ने का करता था । पहले एक बरस तक उसने आठवीं कक्षा के दो – चार बच्चों को ट्यूशन पढ़ाया, यूं ही बिना फीस लिए । उन बच्चों को जो उसके फुटबॉल गेम के फ़ैन हुआ करते थे और उसका बहुत सम्मान करते । सम्मानित शिक्षक ने जी खोलकर विद्या दान दिया और प्रशंसक विद्यार्थियों ने झोली फैलाकर ज्ञान लिया । परिणाम बेहद सुखद रहा । दिन – रात गणित ही सोचा – विचारा, उसे अपने दिमाग में पकाया तब कहीं जाकर बड़ी कक्षाओं के बच्चे लेना आरंभ किया था । वह उन्हें पढ़ाने में दिन – रात एक कर देता । बच्चों को पढ़ाने के साथ – साथ तेजस खुद भी पढ़ाई कर रहा था। उसने बीएससी फ़र्स्ट क्लास करने के बाद एमएससी भी अच्छे अंकों से पास की । तेजस की  माँ बार – बार बोलती है, “इतनी मेहनत किसलिए तेजस ?“

“पता है माँ जब घर बन रहा था न, तो पापा हर समय यही गज़ल गुनगुनाते रहते थे, ये तेरा घर ये मेरा घर, ये अपनी हसरतों का घर……………..। हसरतों का वही घर बेच देना पड़ा था न पापा को, मुझे किसी भी कीमत पर वह घर तो चाहिए, और जल्दी चाहिए ।“ इतना बोल कर माँ की प्रतिक्रिया जाने बिना ही वह अपनी व्हील चेयर पर बैठा यह गुनगुनाते हुए,  “हम होंगे कामयाब, पूरा है विश्वास………”  अपने कमरे से बाहर खुले अहाते में निकल गया था । उसके पापा कहते, “सीमा तुम उसे रोको मत, चढ़ने दो उसे, रीवा के शब्दों में जीत का वही पुराना जिन्न । उसके लिए तो चाहे स्टेडियम हो या क्लास रूम, खुश तो वह नंबर वन होकर ही रह सकता है।“ 

जल्दी ही प्रसिद्धि ने तेजस के द्वार पर डेरा डाल दिया । बढ़ते – बढ़ते काम इतना बढ़ा कि शहर का बच्चा – बच्चा तेजस सर से मैथ्स पढ़ने की लालसा रखता । फ़िजिक्स और केमिस्ट्री के कुशल अध्यापक रख लिए थे उसने । अब वह प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग कराने लगा था, अपने “तेजस कोचिंग सेंटर” में,जहां दिव्यांगों  की पूरी फीस माफ़ थी । छोटे से शहर को उसके कोचिंग सेंटर ने बड़ा सा नाम दिया । 

रीवा ने इंजीनियरिंग पूरी होने पर कहीं प्लेसमेंट नहीं लिया था, तेजस के कहने पर भी नहीं । उसने तेजस का इंस्टीट्यूट जॉइन करके उसका काफ़ी कुछ भार अपने ऊपर ले लिया था । तेजस ने यह कहकर रोक देना चाहा था कि, “रीवा तुम कौन सी यहाँ रहने वाली हो इतनी ज़िम्मेदारी मत लो अपने ऊपर कि तुम्हारे जाने के बाद मुझे परेशानी हो ।“ 

“पढ़ाई तो खत्म हो गई, प्लेसमेंट मैंने कहीं लिया नहीं, अब मैं कहाँ जाऊँगी जीकाजि ?” रीवा ने निर्द्वंद्व होकर बोला था । 

“जाना तो तुम्हें होगा ही ।“ तेजस ने कहा । जबसे तेजस ने कोचिंग सेंटर आरंभ किया तब से रीवा और उसके मध्य बचपने से भरा ‘तू’ सम्बोधन गायब हो गया था । पर उस दिन रीवा ने उसी सम्बोधन से पुकारा था तेजस को, और वातावरण को थोड़ा हल्का करने के लिए चंचलता से उसके कंधे पर हाथ रख कर बोली, 

“मेरे कंधे पर हाथ रखकर करंट नहीं खाएगा जीकाजि, मेरे दिल पर रूल नहीं करेगा, किसी शहंशाह की तरह ?” रीवा ने अपनी कत्थई आँखों से प्रेम रस उड़ेलते हुए तेजस की ओर देखा । 

“रीवा, अब हम बड़े हो गए हैं।“ उत्तर में तेजस ने बस यही कहा था, 

“अच्छा ! हम अचानक बड़े हो गए हैं, मुझे तो पता ही नहीं चला कब, चल तू मत करना पर मैं तो करूँगी तेरे दिल पर रानी झाँसी की तरह रूल । मुझे रोकना तेरे बस का नहीं है जीकाजि ।“ 

“रीवा, अब इस तरह की बातें मत किया करो ।“ तेजस ने गंभीरता से कहा । 

“क्यों ? शादी नहीं करेगा मुझसे ? पहले तो बड़ा कहता था कि शादी कर लेगा मुझसे, जिससे कि मैं कहीं जा ही न सकूँ । बोल नहीं कहता था ?” 

“अब वे दिन नहीं रहे रीवा ।“

“एक्ज़ेक्ट्ली यही मैं भी कह रही हूँ, अब वे दिन नहीं रहे तेजस, ये तो ये ही वाले दिन हैं न । समय लौट कर नहीं आता है तेजस, पता है क्यों ? जिससे कि हम आगे बढ़ना सीखें ।“

“अब मैं वैसा नहीं रहा, समझो रीवा ।“

“क्या समझूँ ?”

“यही कि सारी लाइफ़ पड़ी है तुम्हारे सामने, और लाइफ में सभी जरूरतें होती हैं।“

“जैसे ?“

“इतनी बच्ची भी नहीं हो ।“

“बच्ची नहीं हूँ तभी तो कह रही हूँ, सोच समझ कर ।“

“सीधे – सीधे सुनना ही अच्छा लगेगा तुम्हें ।“

“हाँ कह दे सीधे – सीधे ही ।“ 

“तो सुनो, पैसे ही तो दे सकता हूँ बस । पैसों से इतर इंसान की कुछ शारीरिक ज़रूरतें भी होती हैं । अभी भावनाओं की चपेट में हो पर यथार्थ कुछ और ही होगा, रीवा ।“

“तेजस, सारी जरूरतें पैरों से ही पूरी होती हैं क्या ? मैं रहूँगी न “हर स्थिति” में तुम्हारे साथ, चिंता क्यों करते हो ?” “हर स्थिति” पर अधिक ज़ोर देकर इस गंभीर चर्चा में सायास हँसी थी वह । 

“तो कब तक रह सकोगी भला मेरे साथ ?”

“शादी करने के बाद लड़की पति के घर में ही रहती है सारी लाइफ़, तलाक ही हो जाए तो अलग बात है।“ वातावरण को हल्का रखने की नीयत से फिर वह बेवक्त की हँसी हँस दी । 

“तेजस तुम डॉक्टर केतन मित्रा की बात भूल रहे हो जो तुम्हारा ट्रीटमेंट फिर से करने वाले हैं, उनके लगातार फ़ोन आना, उनका तुममें पर्सनल इंट्रेस्ट लेने का भी यही कारण है कि कहीं ना कहीं होप है । इस सबके होते उम्मीद छोड़ देना ठीक नहीं, वो भी तुम्हारे जैसे “जीकाजि” इंसान के लिए ।“ 

“क्या मज़ाक है, वह बस प्रयोगशाला के रूप में देखता है मुझे, उसे मुझ पर रिसर्च करनी है बस ।“

“हाँ कोई तो उम्मीद होगी उन्हें ।“ 

“तूफान में रखे दिये की लौ थाम कर उम्मीद की बात कर रही हो रीवा ।“  

“हाँ थाम रही हूँ तूफ़ान में रखे दीये की लौ, ऐसा कोई तूफ़ान नहीं जो मेरे होते उस दीये की लौ को बुझा सके, और मेरी उम्मीद को मार सके ।“ 

“बहरहाल मैंने निर्णय लिया है तुम्हारे यहाँ न रहने का ?”       

“अब मुझे ये दिन देखने पड़ेंगे कि मेरे निर्णय कोई और ले, ऐसी बौड़म तो मैं कभी थी नहीं । वैसे भी किस अधिकार से लिया मेरे विषय में निर्णय तुमने ?”

“……………“ तेजस चुप ही रहा था । 

 

“नहीं होगा उत्तर तुम्हारे पास चलो, बहस की कोई गुंजाइश नहीं है बस, मेरे साथ रहने का मन बना लो ।“ रीवा ने दृढ़ता से कहा था ।

उधर रीवा के माता – पिता उसके लिए युद्ध स्तर पर लड़के तलाशने में जुटे थे क्योंकि अब साल – दर – साल उसकी उम्र बढ़ती जा रही थी और तेजस उनकी लायक इंजीनियर बेटी के योग्य नहीं रह गया था । अब तेजस के अधिक साथ रहने पर रीवा के माता – पिता विरोध करते । उसकी माँ अक्सर तेजस के माता – पिता को कोसती रीवा को अपने बेटे के तथाकथित जाल में फाँसे रखने के लिए ।  पिता से तो नहीं पर माँ से रीवा ज़रूर कहती, 

“माँ बचपन से तो तुम दोनों ने कभी उससे अलग होने के लिए नहीं कहा मुझे, अब जबकि उसे मेरी बेहद ज़रूरत है तो उससे दूर रहने को कह रही हो, तुम भी न माँ……….।“ 

“रीवा पहले की बात और थी । अब वह पहले जैसा रहा कहाँ ?”  

“माँ तुम ही कह रही थीं तेजस की माँ से कि किसी नेता, शायद डॉ॰ मुरली मनोहर जोशी की बेटी नौ बरसों तक बिस्तर पर रहीं और फिर सामान्य हो गई थीं।“   

“वैसे केस तो विरले ही होते हैं मेरी बच्ची, वैसे भी वह तो मैं उनका ढाढ़स बँधाने के लिए कह रही थी ।“  

“उन विरले केसेज में तेजस का केस क्यों नहीं हो सकता माँ ?”

“बहरहाल अभी तो वह खड़े होकर सात फेरे तक नहीं ले सकेगा ।” 

“क्या फ़र्क पड़ता है माँ, वो व्हील चेयर पर बैठ कर ले लेगा न ।“  

“तेजस अब क्या दे सकेगा तुझे भला ?”  

“कोई व्यापार हो रहा है क्या माँ ? इतनी मतलबखोर तो मैं हूँ नहीं, ये भी तुम्हें पता ही है ।“ माँ से झगड़ा ना करने की नीयत से वह हँसी ।  

“आगे चल बेटी, उससे कोई नाता थोड़े ही जुड़ गया था तेरा, ज़िंदगी देख अपनी ।“ 

“नाता और क्या होता है माँ ? मेरा उसका तो बहुत ही लंबा नाता है, बचपन से लेकर आज तक । जैसे तुम नहीं जानतीं  ।“

“मैं तुझे ये बेवकूफ़ी नहीं करने दूंगी रीवा । बहुत प्यार – व्यार देखे हैं, कुछ ही दिनों में सारा भूत उतर जाता है । नफ़रत के सिवा कुछ नहीं बचता ऐसे बेमेल लोगों के बीच ।“

“तो फिर ठीक है मुझे यह एक्सपेरिमेंट करना है कि यह सच है भी या यूं ही बस….“ 

“तेरी मति क्या बिलकुल ही मारी गई है रीवा । शादी – ब्याह सात जन्मों के बंधन तुझे एक्सपेरिमेंट करने की बातें लगती हैं ?”

“अब कोई सात – वात जन्म नहीं रहे माँ । वैसे भी सात जन्म तो मैं किसी के भी साथ नहीं गुज़ारने वाली खैर । एक जन्म भी पूरा किया जाए कोई कंपल्शन थोड़े ही है । डिवोर्स की व्यवस्था इसीलिए की गई है माँ, समझो तुम । फिर रोकना ही था तो बचपन से रोका होता न, मैंने तो किसी और को देखा ही नहीं अपने साथ, वहाँ तो बस तेजस ही था हमेशा से, तुमने भी कभी नहीं रोका, तो मैं समझी कि बस वही है ।“

“हाँ नहीं रोका क्योंकि तब वो अपाहिज नहीं था । जीवन भर कैसे उठाए फिरेगी उस आधी मुर्दा देह को ?” 

“च्च, ओह माँ, इतने अपशब्द तो मत कहो कम से कम उसके लिए, उसका दोष है ही क्या ?”

“उसका नहीं, दोष तो तेरा होगा जो नहीं मानी तो ।“

“एक बात बताओ माँ, मान लो मेरी शादी उससे हो गई होती तब वह ऐसा हुआ होता, क्या तब भी तुम यही कहतीं ? 

“तब और बात होती ।“ 

“हाँ, बिलकुल तब की बात और होती, तब मैं उसे छोड़ती तो तुम मुझे कुल्टा कहतीं । लोगों के सामने जुड़े रिश्ते की इतनी मान्यता और दो लोगों के आपसी, अटूट रिश्ते का कुछ नहीं ?” 

“शरीर की भी ज़रूरत होती हैं रीवा ।“  

“जिस शरीर की बात तुम कर रही हो ना माँ, वह शरीर दुरुस्त है उसका, पापा को भी बता देना।“

“हे राम ! तूने वह भी परख लिया, पापा को भी बता दूँ, वे अपमान से तिलमिला नहीं जाएँगे, शर्म से गढ़ नहीं जाएँगे ज़मीन में ?” माँ ने विस्फारित नेत्रों से उसकी तरफ़ देखा ।    

“इसमें पापा अपमानित कैसे हो गए, और तुम इतना नाराज़ क्यों हो रही हो भला ?

वैसे तो तुम कहती थी कि शरीर के कोई मायने नहीं होते, शरीर तो आत्मा की केंचुली भर होता है । तेजस के पैर क्या खराब हुए तुम्हारा तो सारा दर्शन ही डोल गया !” 

“वो और बात थी, ये और।“ 

“एक ही बातें हैं दोनों । शरीर का क्या माँ, कौन जाने कब किसके शरीर का कौन सा हिस्सा काम करना बंद कर दे । और फिर तुम डॉक्टर केतन मित्रा की बात क्यों भूल रही हो, जो रेग्युलरली फ़ोन पर बातें करते रहते हैं तेजस से, उन्हें तो पूरी उम्मीद है नई रिसर्च के बाद तेजस के ठीक होने की । थोड़ा तो विश्वास भी रखो माँ । डॉक्टर पर ना सही ईश्वर पर, अपने ईश्वर पर, जिसके आगे दिन – रात मत्था टेकती हो……..”

“ईश्वर ने तो बता दिया ना बेटी कि अब तुम्हारा साथ नहीं है आगे । अब और वो क्या करेगा ।” माँ ने थोड़ी नरमी अपना कर कहा । 

“तुम्हारा ईश्वर मुझसे कहता है कि तेजस के कमज़ोर समय में मुझे उसका साथ देना चाहिए ।“ 

“तू इतनी बहस करने वाली कब से हो गई रीवा ? बहस तू कितनी भी कर ले पर मैं तुझे शादी तो नहीं करने दूँगी उससे ।“ माँ की नरमी अचानक विलुप्त हो गई । 

“तुम ठीक कहती हो माँ, शादी की ज़रूरत भी क्या है……………“ कहकर रीवा तेजस कोचिंग सेंटर के लिए निकल गई ।   

निर्देश निधि,     

nirdesh.nidhi@gmail.com

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कहानी -कडवाहट     

छुटकारा   

दो चोर (कहानी -विनीता शुक्ला )

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