रेशम की डोर में गाँठ बांध कर जोड़ा गया पति -पत्नी का रिश्ता जन्म-जन्मांतर का होता है | सुख के साथी, दुख के साथी, जीवन के हर पल के साथी .. फिर क्यों ऐसा रिवाज बना दिया गया कि अंतिम विदा में जीवन संगिनी साथ नहीं दे सकती | चार कंधों के लिए आदमी ढूंढते लोग अपनी जाई बेटी को मुखाग्नि देने का अधिकार नहीं देते | शहरों में छुटपुट घटनाएँ भले ही हों पर गांवों में समाज इतना शक्तिशाली और हावी रूप से सामने आता है कि हुक्म की इन बेड़ियों को काटना आसान नहीं होता | आइए पढ़ें कुछ ऐसी ही बेड़ियों को जानने, समझने और काटने की कोशिश करती सुप्रसिद्ध साहित्यकार उर्मिला शुक्ल जी की कहानी जिसमें स्त्री विमर्श एक नारा भर नहीं है |
उर्मिला शुक्ल की कहानी “रेशम की डोर”
कस्बे की एक सर्द सुबह, कुहरे में लिपटा सूरज तनिक बाहर झाँकता फिर अपने लिहाफ में जा छुपता . ऐसे में भला मेरी क्या बिसात थी की मैं.. सो उठने का मेरा संकल्प बार बार भहरा रहा था .दिन चढ़ आया था , मगर ठंड कह रही थी कि बस मैं ही हूँ . रविवार था ,सो चिंता की कोई बात भी नहीं थी. ‘ क्यों न एक नींद मार ली जाय . ‘ सोचा और लिहाफ ताना ही था कि कालबेल घनघनाई .
‘ कौन आ गया इतनी ठंड में ? ‘ लिहाफ़ से जरा सा मुँह निकाला था कि ठंड भीतर तक उतरती चली गई . ‘ होगा कोई .अपने आप लौट जायेगा ‘. सोचा और लिहाफ़ कस लिया . मगर अब कालबेल लगातार घनघना रही थी .
” कौन ? ” स्वर में झुंझलाहट उतर आयी . बेमन से चप्पल घसीटे और दरवाज़ा खोला ……
” कुछु सुनेव आपमन ? मास्टर साहब बीत गये . ” पड़ोसी थे .
………….
“रात को जो सुते तो उठे ही नहीं . ”
अब मैं कुछ सुन नहीं पा रही थी . भीतर कुछ हो रहा था , जिसमें उनकी आवाज़ ही नहीं,
सब कुछ गुम हो चला था .
” बहुत परेमी मनखे रहिन . “ उनके होंठ हिल रहे थे . आवाज़ भी कानों तक पहुँची थी, पर वह कोई अर्थ न दे सकी . वे जा चुके थे . अब भीतर मेरे अतीत फैलाव ले रहा था……..
मास्टर साहब ! सारा कस्बा उन्हें इसी नाम जानता था . उनके इस नाम ने इतनी ख्याति पायी थी कि उनका असली नाम ही खो गया था और वे सबके मास्टरसाहब बन गये थे . ‘जीवन प्रकाश ‘ उन्होंने अपने नाम को सार्थक किया था. दूसरों का अँधेरा समेटने में
अपना कितना कुछ पीछे छूटता चला गया था . गाँव , रिश्ते सब . वे लोगों में इस कदर डूबे कि सब भूल गये . उन्हें कभी लगा ही नहीं कि उनका कुछ निजी भी है . सिर्फ देना ही तो जाना था उन्होंने . काकीदाई नाराज़ होतीं–
” बस ! एक कमंडल खंगे हे . धर लेव् . हममन तो तुम्हारे कुछ लगते ही नहीं . ” वे कहती .मगर उनकी सरल सौम्य मुस्कान के सामने उनका ये आक्रोश कहाँ ठहरता था.
.उनका यह आक्रोश भी तो ऊपरी था . भीतर से तो उनकी अनुगामी ही थीं . अब आँखों वे उभर आयीं – गोरा रंग , माथे पे सिंदूरी बिंदी ,कोष्टउहन लुगरा ( करघा की साडी ) और चूड़ियों भरी कलाइयाँ . मगर आज ? ‘ सोच कर मैं सिहर उठी .
भाई साहब जा चुके थे. ठंड अभी भी वैसी ही थी;, मगर मैं देर तक वहीं खड़ी रही . फिर जैसे तैसे पैर घिसटते हुए कमरे तक पहुँची .ऐसा लग रहा था, मानो मीलों लंबा सफर तय किया हो . मन थिर नहीं हो रहा था . चलचित्र सा चल रहा था – विद्यालय में मेरा पहला दिन था . दूसरों की तरह मैं उनके लिये भी अजनबी थी; मगर ज्वाइनिंग के बाद मुझे अपने घर ले गये . मुझे डर भी लगा .एक अनजान व्यक्ति के साथ ? अख़बारों में पढ़ी घटनायें याद हो आयीं .सोचा मना कर दूँ . मगर ……
” डेरा झन ! तेरे जैसी बेटी हे मेरी ” उन्होंने मुझे देखा था .
‘ मैं सन्न ! ‘ . लगा जैसे मेरी चोरी पकड़ ली गई हो . मन में डर तो था ,पर ऊपरी मन से कहा….
“नहीं सर ऐसी बात नहीं हे “. कह तो दिया पर मन का भय बरकरार था ;मगर घर पहुँचते ही काकीदाई और केतकी ने मुझे ऐसा अपनाया कि लगा ही नहीं कि वह किसी और का घर है . मैं ही नहीं , मेरे जैसे बहुतों की छाया थे वे .आज मुझे वहाँ जाना था ;मगर हिम्मत नहीं हो रही थी. फिर भी जाना तो था . सो दरवाजा बंद किया ; मगर ताला था कि बंद ही न हो . बार – बार चाबी घुमाने के बाद भी खुलाका खुला. हाथों में जैसे ताकत ही नहीं थी . देर तक चाबी और ताले से जूझने के बाद ताला बंद हुआ .
अब घिसटते कदमों से मैं उस घर की ओर बढ़ रही थी . मगर कदम साथ नहीं दे रहे थे . किसी तरह मैं उस द्वार तक पहुँची ..तो द्वार पर कोई नहीं ! मन को धक्का लगा ! यह वही द्वार था, जहाँ लोगों की भीड़ लगी रहती थी . मास्टर साहब अपना सब काम छोड़कर सबकी समस्यायें सुलझाते थे तब लोग उन्हें कितना सम्मान देते थे ; मगर पंचायती राज ने सारे समीकरण ही बदल दिये और बची कुची कसर पूरी की नये राज्य ने . फिर तो जातीयता ऐसी हावी हुई कि सब कुछ बदल गया और मास्टर साहब जैसे लोग बिल्कुल अलग थलग पड़ गये . अब यह कस्बा पहले जैसा नहीं रहा ,ये तो मालूम था; मगर ये इस कदर बदल गया है कि…?मैं भीतर गई .वहाँ भी बस काकीदाई और केतकी ही थीं .
मुझे देखते ही केतकी मुझसे आ लिपटी और बुक्का फाड़कर रो पड़ी. लगा कि अब तक बरबस रोका बांध फूट पड़ा हो . उसके हाथ लगातार मुझ्रे कसते जा रहे थे और मैं उसके आँसुओं में भीग रही थी ,पर उसे सम्हालने की असफल कोशिश कर रही थी , उसके काँधे पर रखे मेरे हाथों में वह शक्ति ही नहीं थी कि मैं उसे सम्हालती और शब्द ? शब्द तो जैसे खो ही गये थे. बड़ी देर बाद वह कुछ सम्हली थी ;मगर काकी दाई?वे तो जैसे काठवा गई थीं .वे दीवार देखती वैसी ही बैठी रहीं चुपचाप .
जिन आँखों में ममता की हिलोरें उठा करती थीं, उनमें आज असीम सूनापन था . दीवार बेधती नजरें जाने क्या ढूढ़ रही थीं .शायद उसे जो कल तक तो उनके साथ थे पर आज ? उनके चेहरे पर अजीब सी कठोरता थी .दिन कुछ और चढ़ आया ;मगर द्वार अभी भी सूना था. बाहर निकल कर देखा, तो घरों के दरवाजे अभी भी बंद थे . किसी किसी घर से आवाज़ के कुछ टुकड़े उछल कर बाहर आ रहे थे ” वो मारा ! मैं कहता था न छक्का ही मारेगा “.
‘ तो आज भारत पाकिस्तान का मैच है! तभी गलियों में कर्फ्यू पसरा है . पर पूरा कस्बा मैच देखने में इतना तल्लीन है कि..? क्या यह वही कस्बा है जिसे अपनाने के लिये मास्टर
साहब ने अपना सब कुछ त्याग दिया ! ’सोचकर मन कसैला हो उठा ; मगर लोगों को बुलाना भी जरूरी था .सोचा पड़ोसियों और स्कूल के साथियों को बुलाया जाय. पड़ोसियों को खबर की . कहीं क्रिक्रेट देखा जा रहा था ,तो कहीं सास बहू वाले सीरियल . सो ” चच कब हुआ ! अभी आते हैं “. इन वाक्यों के साथ मैं सड़क पर थी .दिन चढ़ता जा रहा था और काठी – माटी का कोई इंतजाम न था . परेशान सी मैं लौट रही थी कि शर्मा जी नजर आये.
गणित अध्यापक . इस कठिन घड़ी में मुझे देवदूत से लगे और वास्तव में वे देवदूत ही साबित हुये – दाह कर्म के लिये लकड़ी खरीदना और उसे श्मशान तक पहुँचना, कफ़न
की व्यवस्था करना . उन्होंने अपने दो दोस्तों को बुलाया और सब इंतजाम कर दिया . मास्टर साहब से उनका बहुत परिचय भी नहीं था. अभी पिछले माहही तो उनकी नियुक्ति हुई थी . वे सब शिक्षाकर्मी थे और वे? जो मास्टर साहब के साथी होने दम भरा करते थे ?क्या सब इतना बदल गया है कि अब उन्हें कुछ भी याद नहीं ? इतना स्वार्थ ? सोचकर वितृष्णा सी हुई मगर एक आश्वस्ति भी थी कि दुनिया अच्छे लोदों से खाली नहीं हुई है .
अब द्वार पर दो चार लोग आ गए . फिर कुछ और लोग आये , उनमें कुछ महिलायें भी थीं . सामने वाली गुप्ताइन ने तो आते ही शिकायत ठोंकी कि इतनी बड़ी बात हुई, और उन्हें अब खबर मिली ?’मन ने कहा -‘ क्या सच में इस घर के रुदन का एक कतरा भी उन तक नहीं पहुँचा ? पड़ोस में रहकर भी ये सचमुच अनजान रहीं ! पूरे मोहल्ले में आकाशवाणी के नाम से कुख्यात ये महिला क्या सचमुच ही अनजान है ? ‘ सोचा .मन तो किया कि करारा सा दूँ ; मगर यह समय इन बातों का नहीं था . सो.फिर तो जो आता अनभिज्ञ होने का ढोंग ही रचता ! यह गाँवनुमा कस्बा था ,जहाँ एक घर का बघार तक सभी घरों में खरखराता है , उसी कस्बे में आज किसी को मास्टर जी की मौत की खबर नही हुई! ’सोच कर मन कसैला हो उठा .
पंडित जी आये और उनके निर्देशों पर केतकी कर्मकाण्ड के सामान जुटाने लगी. अब तक द्वार पर बीस पचीस लोग जमा हो चुके थे ; मगर विमान बनाने की बात पर सभी मौन . फिर किसी ने सलाह दी कि अब तो शहर में रेडीमेड विमान मिलने लगा है, फिर इतनी झंझट क्यों. शर्मा जी और उनके साथी विमान के लिए रवाना हुए. बाजारवाद जीवन में गहरे पैठ चूका है , यह तो मुझे मालूम था ; मगर उसकी गिरफ्त से अब म्रत्यु भी नहीं बच पायी ,यह मालूम न था .
विमान आया . बाकी सारी तैयारी तो ही हो चुकी थी .तमाम कर्मकांडों के बीच अब शव विमान पर था . मगर कंधा देने की बात पर सब कन्नीकाट गये . श्मशान तक कंधा
देने को कोई तैयार न था . यह सब उसी महान देश में हो रहा था , जिसकी संस्कृति की गाथायें गायी जाती हैं . जहाँ अर्थी को कंधा देना पुण्यकर्म माना जाता था और अब आज
उसी देश के एक कस्बे में ,अर्थी के लिये चार कंधे भी नहीं जुट रहे थे ! समस्या उठी तो समाधान भी निकला , लोगों ने सलाह दी मेटाडोर बुला ली जाय और शव को मेटाडोर से श्मशान तक पहुँचाया जाय . रही बात कंधा देने की, तो चार कदम चल कर कंधा देने की
रस्म कर ली जाय .शर्मा जी एक बार फिर शहर रवाना हुये . इन सब बातों के बीच काकी दाई एकदम चुप थीं और अभी भी दीवार को ही देख रही थीं
मेटाडोर आई .शव अपनी यात्रा के लिए तैयार था ;मगर अब मुखाग्नि की समस्या और उठ खड़ी हुई, मुखाग्नि कौन देगा ? यह एक बड़ा सवाल था . मास्टर साहब का कोई बेटा तो था नहीं और अपने गाँव– घर से उनका कोई संबंध भी नहीं था , सो वहाँ से कोई आया ही नहीं था , ऎसे में मुखाग्नि का सवाल बहुत विकट था .फिर सलाह हुई . लोगों ने तय किया कि मुखाग्नि शर्मा जी से दिला दी जाय.वे ब्राहमण हैं उम्र में भी बेटे जैसे ही हैं. पंडित जी भी सहमत थे – लो न क्या हुआ .सरमा जी उनके … पंडित जी की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि –
“नहीं !” अब तक चुप रहीं काकीदाई की आवाज अचानक घर से निकलकर द्वारतक फ़ैल गई थी .अब वे देहरी के बाहर आ गयी थीं. उनका वह एक शब्द सबके कानों में गूँज उठा था . मैंने आज तक उन्हें कभी इतनी तेज आवाज में बोलते नहीं सुना था. लोग चकित थे और नाराज भी .यह पुरुषों काक्षेत्र था . यहाँ एक औरत की दखलंदाजी नागवार गुजरी थी।
” केतकी देही आगी . कोन कहता है उनका कोई नहीं है .केतकी हय न . उंखर अंस. उंखर बेटी . ” कहते हुए उनके चेहरे पर दृढ़ता थी .
पंडित जी पहले तो अकचाये ” अइसा कईसे होगा ? ” और उन्हें समझाने लगे “देखो मास्टरिन ये कोई फिल्म नहीं है ,जहाँ नारी स्वतंत्रता की खातिर कहानी बनाई जाती
है. ये जिंदगी है , गाँव गंवई की जिंदगी , जहाँ समाज . “
” कइसन समाज ? येही जिसमें आज एक आदमी के मउत – माटी बर चार कांधा तक नई जुटा ? येही समाज जेमा बेटी के कोई गिनतिच नई हे . कोई भी आगी दे सकथे, फेर बेटी नही . काहे ? “
क्योंकि बेटी परगोतिया (दूसरे गोत्र ) होती है . हाँ दमाद होता तो चल जाता . इतनी समझदार तो आप भी हैं न ! ” पंडित जी ने अपना पक्ष तो रखा .
.” एकदन सही . बेटी परगोतिया होती है अउ दमाद ? वो? मगर वह चल जाता है .अउ वो भी नई हो ,तो कोई भी चलेगा ,फेर बेटी ? बेटी नई चलेगी !’ वाह रे तुम्हारा समाज ! फेर मेरे को ये मंजूर नइ . उन्होंने सोचा. कहना भी चाहा ;मगर…” महराज ! मुखाग्नि त केतकी ही देगी .ये इसका फरज हे अउ हक भी .” कहते हुये उनकी आवाज में ठहराव था .पंडित जी कुछ देर तक तो खड़े रहे फिर –
” ठीक है ! मैं इस अधर्म में साथ नहीं दूँगा . ” कहा और लोगों की और देखा और फिर अपना थैला उठाकर चले गये .
उनके पीछे पीछे बाकी लोग भी चले गये. अब हर द्वार , हर गली और हर नुक्कड़ पर बस एक ही बात थी ‘ ऐसा अघर्म सच में कलजुग आ गया है .’
मास्टर जी का द्वार सूना हो गया था . अर्थी सामने पड़ी थी .सब चिंतित ; मगर काकीदाई वैसी दृढ़. उनके चेहरे पर कोई विचलन नही थी . ‘ क्या ये वही काकी दाई हैं ! जिनकी दुनिया रसोई घर तक सीमित थी और आज बड़ा फैसला , वह भी इतनी दृढ़ता के साथ !’ आश्चर्य डूबी मै उनके इस रूप देख रही थी . अब द्वार पर हम लोग ही बचे थे . शर्मा जी और उनके साथी अभी भी हमारे साथ थे, ” आप फ़िक्र मत कीजिये . मैं द्वार पर मेटाडोर ले आता हूँ . ” कहते हुए वे चलने लगे
“नहीं ! मेटाडोर नइ लगेगा .” काकीदाई की ये बात सुन शर्मा जी ठिठक गये. उन्होंने कुछ कहा तो नहीं ;मगर उनकी आँखों में सवाल उभर आये थे . वे कुल तीन लोग ही थे और शव के लिए चार …
“मय हंव न बेटा . ओमन जिनगी भर मेरा बोझा उठाइन. आज मोर पारी हे “.कहकर वे आगे बढ़ीं .
” काकीदाई आप ! आपकी ऐसी हालत नहीं है कि मैं हूँ न . मैं दूँगी कंधा ” कहती मैं अर्थी की और बढ़ी तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया.
“ आज मेरे को मेरा फरज निभाने दे “. और वे अर्थी की और बढ़ गयी.
मैं देख रही थी उन्हें और उनकी दृढ़ता को . वहाँ कोई वाद नहीं , कोई विमर्श भी नहीं था . शर्मा जी और उनके साथी पल भर को भौचक देखते रहे ,फिर वे उनके साथ लिए .अर्थी उठी मगर मेटाडोर पर नहीं . चार कंधों पर और उन कंधों में एक कंधा उसका था जिसके संग सात फेरे लिए थे और बंध गये थे एक रेशमी से . उसी डोर बंधी वे बढ़ चली थीं मंजिल की ओर . .
उर्मिला शुक्ल
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