बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा

इतनी किताबों पर लिखने के बाद अगर किसी उपन्यास को पढ़ने के बाद भी ये लगे की मैं जो इस पर कहना चाह रही हूँ, उसके लिए शब्द साथ छोड़ रहे हैं तो मेरे विचार से इससे बढ़कर किसी उपन्यास के सशक्त होने का क्या प्रमाण हो सकता है |
ऐसा ही उपन्यास है ऊर्मिला शुक्ल जी का बिन ड्योढ़ी का घर | एक उपन्यासकार अपने आस -पास के जीवन के पृष्ठों को खोलने में कितनी मेहनत कर सकता है, छोटी से छोटी चीज को कितनी गहराई से देख सकता है और विभिन्न प्रांतों के त्योहारों, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा की बारीक से बारीक जानकारी और वर्णन इस तरह से दे सकता है कि कथा सूत्र बिल्कुल टूटे नहीं और कथा रस निर्बाध गति से बहता रहे तो उसकी लेखनी को नमन तो बनता ही है | जल्दबाजी में लिखी गई कहानियों से ऐसी कहानियाँ किस तरह से अलग होती हैं, इस उपन्यास को एक पाठक के रूप में यह जानने के लिए भी पढ़ा जा सकता है | जिसमें लेखक का काम उसका त्याग और मेहनत दिखती है |

बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा

उर्मिला शुक्ला
चार राज्यों, एक पड़ोसी देश की भाषाओं, रहन -सहन और जीवन को समेटे यह उपन्यास मुख्य तौर से स्त्री संघर्ष और उसके स्वाभिमान की गाथा है | ये गाथा है स्त्री जीवन के अनगिनत दर्दों की, ड्योढ़ी से बिन ड्योढ़ी के घर की तलाश की, सीता से द्रौपदी तक की, अतीत के दर्द से जूझते हुए स्त्री संघर्ष और उसके अंदर पनपते स्वाभिमान के वृक्ष की | अंत में जब तीन पीढ़ियाँ एक साथ करवट लेती है तो जैसे स्वाभिमान से भरे युग हुंकार करती हैं | पर अभी भी ये यात्रा सरल नहीं है |
इतिहास गवाह है लक्ष्मण रेखा का | वो लक्ष्मण रेखा जो सीता की सुरक्षा के लिए भले ही खींची गई थी | पर उसको पार करना सीता का दोष नहीं कोमल स्त्रियोचित स्वभाव था | जिसका दंड रावण ने तो दिया ही .. पितृसत्ता ने भी दिया | उनके लिए घर की ड्योढ़ी हमेशा के लिए बंद हो गई और बंद हो गई हर स्त्री के लिए ड्योढ़ी के उस पार की यात्रा | घर की ड्योढ़ी के अंदर धीरे -धीरे पितृसत्ता द्वारा बनाई गईं ये छोटी -छोटी ड्योढ़ियाँ उसके अधिकार छीनती गई | खुली हवा का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, जीवनसाथी चुनने का अधिकार और घर के अंदर किसी बात विरोध का अधिकार |
“लड़की तो तभी अच्छी लगती है, जब तक उसके कदम ड्योढ़ी के भीतर ही रहते हैं | उसके कदमों ने ड्योढ़ी लांघी नहीं की ….और हमारी लड़की ने तो ड्योढ़ी लांघी ही नहीं उसे रौंद भी दिया | हमारी मान  मर्यादा का तनिक भी ख्याल नहीं किया उसने | ना, अब वो हमारी ड्योढ़ी के भीतर नहीं आएगी, कभी नहीं |”
ये कहानी है कात्यानी और उसकी मां राम दुलारी की | सीता सी राम दुलारी के लिए पति का आदेश ही ईश्वरीय फरमान है | उन्होंने कभी विरोध नहीं किया, तब भी नहीं जब बेटी के जन्म के बाद पिता उसकी उपेक्षा करते रहे, अनदेखा करते रहे, तब भी नहीं जब दूसरे प्रांत में ले जाकर किसी से हिलने मिलने पर रोक लगा दी, जब पितृसत्ता की कमान उन्हें सौंपते हुए बेटी का स्वाभाविक बचपन छीना, बेटी की पढ़ाई छुड़ाकर जिन भाइयों से दुश्मनी थी बिना जाँचे परखे उन्हीं के बताये लड़के से विवाह कर दिया और सबसे बढ़कर तब भी नहीं जब ससुराल से लुटी -पिटी आई कात्यायनी के लिए दरवाजा भी नहीं खोला | जो पुरुष स्त्री को बाहरी दुनिया में यह कहने से रोकते हैं, “तुम कोमल हो बाहर ना निकलो, क्योंकि बाहरी दुनिया कठोर है” विडंबना है कि वो ही उस स्त्री को अपनों के लिए कठोरता चाहते हैं | अपने दूध और रक्त संबंधों के लिए भी | प्रेम और सुरक्षा की चादर के नीचे ढंका ये वर्चस्व या अधिकार भाव बिना आहट किए ऐसे आता है की स्त्री भी उसके कदमों की थाप सुन नहीं पाती और पितृ सत्ता का हथियार बन जाती है |
पुरुष में जब मातृत्व भर उठता है तो उसके व्यक्तित्व में निखार आ जाता है और स्त्री में जब पितृत्व उभरने लगता है तो उसका जीवन धूमिल हो जाता है | उसकी विशेषताएँ खो जाती हैं और वो चट्टान की तरह कठोर हो जाती है |”
उपन्यास में गाँव, कस्बों के स्त्री जीवन के उस हाहाकार का तीव्र स्वर है| जिसे शहर में बैठकर हम जान नहीं पाते | ऐसी ही है गडही माई की कथा, जिसमें गाँव के जमींदार जब गाँव की बेटियों बहुओं को उठा कर ले जाते तो घरवाले ही उन्हें गडही के जल में डूबा देते और प्रचलित कर देते की गाँव की बहु बेटियों पर माई का प्रकोप है | इसलिए जल्दी ही उनकी शादी कर दो और शादी के बाद दोबारा मायके नहीं आना है क्योंकि इसमें भी माई का श्राप है | एक बार की विदा हमेशा की विदा बन जाती | आपस में छोटी -छोटी बातों पर लड़ते पुरुष इस मामले में चुप्पी साध कर ऐका दिखाते |
“जवान बेटियाँ और बहनें और कभी -कभी तो उनकी मेहरारू भी उठवा लि जातीं और वे विवश से देखते रहते |फिर उनके वापस आने पर लोक लाज के डर से उन्हें गढ़ही में डूबा आते , फिर कहते गढ़ही में कोई है जो उन्हें लील लेता है |फिर धर्म का चोला पहना दिया गया और वो गढ़ही से गढ़ही माई बन गईं |”
“गढ़ही माई | इस जवाँर की वो अभिशाप थीं जिन्होंने लड़कियों को शाप ही बना डाला था |”
और  दहेज के दानव के कारण डूबी कजरी और नंदिनी हैं तो कहीं खेतों में काम करने वालों की स्त्रियों पर गाँव के भया लोगों का अत्याचार, जो उन्हें अनचाही संतान को जन्म देने को विवश करता है, जिसे  वो अपना प्रारबद्ध माँ स्वीकार कर लेती हैं |तो कहीं गंगा भौजी का किस्सा है | अपने चरित्र को निर्दोष साबित करने वाले जिसके चरित्र पर लांछन लगाये जाते रहे | गाँव बाहर कर के भी उसकी बारे में बेफजूल की कथाएँ बनती रहीं पर उसने उन्हीं के बीच में अपने स्वाभिमान के साथ जीवन जीना सीख लिया |गंगा भौजी हैजा से मरी सास को खुद शमशान ले जाती है, उसका अंतिम संस्कार करती है | इससे किसी को आपत्ति नहीं थी | आपत्ति थी तो उसके स्वाभिमान की घोषणा से |
यही नहीं नेपाल में “ बेटी बेचने वाला गाँव” भी है | जिसका असली नाम लोग भूल गए पर बेटियों का सौदा कर अपनी गरीबी दूर करना नहीं भूले | अपने पिता और भाई या पति की बेरहमी की शिकार ये लड़कियाँ कोठों पर किस तरह का शोषण झेलती हैं उसकी कल्पना करना भी रोंगटे खड़े करने वाला है |
लेकिन तस्वीर का दूसरा चेहरा भी है | इस सभ्य समाज से दूर अनपढ़ जंगली, असभ्य कहा जाने वाला सहज सरल आदिवासी समाज | जहाँ स्त्री को भी उतनी ही स्वतंत्रता है जितनी पुरुष को | शरीर के ऊपरी हिस्से को वस्त्रों से भी नहीं ढकने वाली ये महिलाये, गज भर लंबा घूँघट काढ़ कर रखने वाली उत्तर भारत की महिलाओं को अजीब लग सकती है पर ये हाट बाजार चलाती हैं, अपना जीवन साथी चुनती है , घर में दोनों की बराबर चलती है, अलगाव होने पर स्त्री दूसरी, तीसरी.. शादी कर सकती है और भावी पति, पूर्व पति से हुए बच्चों को उतने ही आदर सम्मान से अपनाता है | कहानी के साथ मन अपने आप तुलनात्मक हो जाता है | एक तरफ सभ्य समाज है जहाँ घूँघट है, ड्योढ़ी है, वर्जनाएँ हैं तो दूसरी तरफ तथाकथित असभ्य समाज है जहाँ बिना किसी दावे के बिना किसी मुनादी के सच्चे अर्थों में स्त्री पुरुष की बराबरी है | कहीं ना कहीं ये सभ्यता स्त्री के लिए शोषण और जंजीरे लेकर आई है |
अपने ससुराल के तमाम अत्याचारों को झेलने बाद किसी तरह जान बचा कर घर से भागी कात्यायनी के लिए सभ्य समाज के हर अपने के दरवाजे बंद है तब ये जंगल भाऊ और जलारी ही उसे अपनाते हैं बेटी की तरह दुलार देते हैं और मारी माँ से मिलातें जो उसे न्याय के लिए संघर्ष का रास्ता दिखाती है | कात्यायनी अपनी माँ की तरह रोकर चुप बैठ जाने वालों में से नहीं है वो संघर्ष करती है | उसके पास जीवन की दूसरी पारी शुरू करने का अवसर है शिवा का प्रेम है, प्राणय प्रस्ताव भी है…. पर | यह उपन्यास इस बात की वकालत भी करता है की अगर स्त्री के अंदर स्वतंत्र चेतना और स्वाभिमान जागृत नहीं हुआ है तो विवाह और लिव इन में कोई अंतर नहीं है | कात्यायनी स्त्री स्वाभिमान और चेतना की लड़ाई लड़ती है .. अंत में उसकी माँ में आया बदलाव सुखद लगता है | ड्योढ़ियाँ टूट रहीं हैं, एक नई स्त्री गढ़ रही है खुदा का अस्तित्व |
ये उपन्यास नक्सलवादियों की समस्याओं पर भी प्रकाश डालता है | आखिरकार कोई आदिवासी हथियार क्यों उठाता है | किस तरह से से उनकी बहन बेटियों पर अत्याचार हो रहा है | हालांकि ये नक्सलवादियों की तरफदारी नहीं करता क्योंकि अब दोनों ही गांवों और आदिवासियों के हक में नहीं हैं | फौज की गोली से मरें या नक्सलवादियों की .. मरता तो आदिवासी समाज, ये जंगल , ये सभ्यता, ये बराबरी का हक ही है |
और जैसा की मैंने पहले ही कहा था की उपन्यास में बारीक जानकारी इतनी है जो पाठक को समृद्ध करती चलती है | जैसे रेवड़ी में इत्र लगाया जाना, बैल की खरीदारी में दांत देखना, चिरौंजी के पौधे, महुआ की शराब, मुड़िया जनजाति, बुतका पर्व आदि |
“बाजार मिट्टी के पुतरा -पुतरी से सज गया | ये पुतरा -पुतरी इस अञ्चल के कलाकारों की विशेषता के सुंदर नमूने होते हैं |बांस की काँड़ी के ऊपर मिट्टी से औरत और मर्द का आकार देकर, उस पर नारंगी रंग का झीना सा कपड़ा चिपकाया जाता है | फिर उस पर सुनहरे और चमकीले कागज से आँखें और लाल कागज से हॉट बनाकर उनके रूप रंग को निखारा जाता है |”
उपन्यास की भाषा प्रवाहमान है, और कथा नदी की धारा सी बहती है | जिस जगह कथा पहुंची है वहीं की लोक भाषा का प्रयोग किया है | जो उपन्यास की सुंदरता बढ़ाता है और कई नए शब्दों से पाठकों का परिचय कराता है | कहानी में कई जगह पात्रों के लिए वे शब्द का प्रयोग किया गया है जो थोड़ा खटकता है और ध्यान देना पड़ता है की ये वाला ‘वे’ किस पात्र के लिए है |
उपन्यास मुख्य रूप से स्त्री के लिए एक ऐसे घर की कल्पना करता है जहाँ ड्योढ़ी ना हो और स्त्री हर जगह बेरोक टोक जा सके | आदिवासी समाज ये हक स्त्रियों को देता है और सभ्य समाज यही हक छीनता है | कात्यायनी के रूप में आज स्त्री ने अपने लड़ाई को स्वाभिमान के साथ लड़ना शुरू कर दिया है | ये बदलते समय की दस्तक ही नहीं एक सशक्त स्त्री विमर्श की परिभाषा प्रस्तुत करता है | जो शहरी स्त्री की परिभाषाओं से भले ही भिन्न हो पर उससे कहीं ज्यादा सार्थक और मजबूत है |
एक अवश्य पढे जाने योग्य अच्छे, सार्थक सशक्त उपन्यास के लिए उर्मिला शुक्ल जी को हार्दिक

बधाई, शुभकामनाएँ |
उपन्यास -बिन ड्योढ़ी का घर
लेखिका- उर्मिला शुक्ल
प्रकाशक -अनुज्ञा बुक्स
पृष्ठ -196
मूल्य -200 रुपये /पेपर बैक
अमेजॉन लिंक –बिन ड्योढ़ी का घर
समीक्षा -वंदना बाजपेयी
वंदना बाजपेयी
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