सुमन केशरी दी की की नई किताब “गांधारी” आई और प्रिय अनुप्रिया के बनाए कवर में ही ऐसी कशिश थी कि तुरंत सैनिटाइज़ कर पढ़ना शुरू किया | फिर किताब ने ऐसा जकड़ा की रात में 12 बजे खत्म करके ही रुकी | बहुत दिनों बाद ऐसी किताब पढ़ी जिससे नशा सा हुआ, एक बेचैनी भी और कुछ अच्छा पढ़ लेने की संतुष्टि भी |
सुमन केशरी दी के लेखन की गहनता को कविताओं के माध्यम जानती हूँ | उनके कथा नटी के रूप में बेहतरीन कथा पाठ की भी मुरीद हूँ पर इस तरह का लेखन पहली बार पढ़ा और पढ़कर बंध गई |
ये किताब समर्पित है उन सभी स्त्रियों को ये समझती हैं कि आँख -कान मूँद लेने से जीवन सुखी व शांतिपूर्ण हो जाता है |ये एक वाक्य ही बहुत कुछ कह देता है | समझा देता है |
गांधारी के विषय में अब तो जो कुछ भी लिखा -पढ़ा गया उससे बिल्कुल अलग दृष्टि लेकर आई है सुमन दी | और पढ़कर कर लगा बिल्कुल ऐसा ही हुआ होगा .. यही सच है | ऐसा पहले क्यों नहीं सोचा गया? काल की सीमाओं को लाँघ कर एक स्त्री के मन को, उसके दर्द को दूसरी स्त्री पढ़ रही है .. पन्ना दर पन्ना | सहज स्त्रियोचित दृष्टि, सहज स्त्री विमर्श की मन गांधारी के लिए चीत्कार कर उठा, मन हुआ की गले लगा लें उस गांधारी को प्रेम की लौह समान मजबूत बाजुओं में कैद इतनी अच्छी थी ..कि उसके साथ सब कुछ बुरा होता चला गया |
यूँ तो किताब गांधारी के बचपन से शुरू होती है पर ये किताब केवल गांधारी की ही बात नहीं करती| महाभारत काल के हर पात्र का मनोवैज्ञानिक चित्रण करती है | किस तरह से भीष्म पितामह गांधार नरेश को उन्हीं के राजमहल में लगभग कैद कर गांधारी और धृतराष्ट्र का विवाह कराते है| साथ ही उसके भाई शकुनि को भी अपने साथ ले आते हैं ताकि भविष्य में भी गांधार अपने को मुक्त ना करा सके | हम प्राचीन भारत में राज कन्याओं के स्वयंवर की बात करते हैं पर चाहे अम्बा, अंबिका , अंबालिका हों या गांधारी सभी के विवाह जबरन हुए और माद्री के पिता को भी अपार धनराशि दे कर उसका पांडु के साथ विवाह कराया गया | इसमें उसकी इच्छा शामिल थी या नहीं इसका जिक्र नहीं है | सीधी सी बात है स्वयंबर का वास्तविक अधिकार उन्हीं कन्याओं को प्राप्त होता था जिनके पिता बलशाली राज्यों के राजा हों |
एक स्थान पर गांधार नरेश अपनी पत्नी से कहते हैँ कि
“इतने शक्तिशाली साम्राज्य से शत्रुता घातक होगी | देखो! मैं भी तो मन पर पत्थर रख रहा हूँ |”
वहीं धृतराष्ट्र में अपने अंधेपन की वजह से हीन भावना है | वो हीन भावना इतनी है की वो जब -तब अपनी माँ को भी कोसते हैं कि अगर उन्होंने नेत्र ना बंद किये होते तो कदाचित वो अंधे ना होते | वो अपने दर्द को बार -बार पत्नी से साझा करते हैं.. फिर भी उन्हें पितृसत्ता की डिजाइन करी हुई पत्नी चाहिए | उन्हें क्या चाहिए इसका अपने पास बड़ा तार्किक आधार है पर पत्नी को क्या चाहिए इसका ना उन्होंने कभी प्रश्न पूछा और ना ही कभी सोचा | स्त्री जीवन का यह सत्य तब से लेकर आज तक यथावत है | वहीं पांडु को गांधारी जैसी स्त्री के धृतराष्ट्र को मिल जाने की ईर्ष्या है | एक नेत्रहीन व्यक्ति जो अपनी पत्नी का सौन्दर्य देख ही नहीं सकता उसका इतनी सुंदर स्त्री से विवाह का क्या लाभ ? कुंती सामान्य सुंदर स्त्री हैं और यही ईर्ष्या मद्र नरेश से वहाँ की प्रथा के अनुसार बहुत मूल्य चुका कर अतीव सुंदरी माद्री से विवाह की वजह बनती है |
नाटक का अंत कारुणिक होते हुए भी उसका मजबूत पक्ष है.. महाभारत के युद्ध का अंत , महाविनाश कर बाद महाविलाप करता हर पात्र | स्त्रियों का हाहाकार | हर पात्र को अपने -अपने हिस्से की गलतियाँ समझ में आ रही है | ऐसे में भीष्म गांधारी संवाद बहुत महत्वपूर्ण है .. जो एक स्त्री के लिए ही नहीं पति-पत्नी के रिश्ते के लिए भी महत्वपूर्ण है | अपनी गलतियों को स्वीकारते भीष्म का एक महत्वपूर्ण बिन्दु ये भी उठाया है की उन्होंने राज्य और प्रजा के प्रति अपनी निष्ठा को राजा के प्रति निष्ठा मान कर बहुत बड़ी गलती की है|
गांधारी का चरित्र भी सखियों के साथ मस्ती करती खेलती गांधारी से, पति से अनन्य प्रेम करती गांधारी, अपने शयन कक्ष में रोती-विलाप करती गांधारी, सहज ईर्ष्या भाव और इतना सब कुछ हो जाने के पीछे द्रौपदी के प्रति क्रोध भाव रखती गांधारी से अपनी गलती को स्वीकारती गांधारी से लेकर परीक्षित को गोद में ले उसका नामकरण करती गांधारी तक विकास की एक यात्रा पूरी करता है |
मानवीय कमजोरियों को भी लेखिका ने साफ साफ दिखाया है | एक दृश्य में द्रौपदी के दर्द को महसूस करती गांधारी के ऊपर माँ की ममता हावी है जो उसे श्राप देने से रोकती है और अपने पुत्रों को स्वयं भी कोई ऐसी सजा नहीं देती, जिससे उन्हें पछतावा हो |
क्रोध में कृष्ण को वंश नाश का श्राप देती गांधारी को जब कृष्ण कहते हैँ कि वहाँ भी रोएगी तो स्त्रियाँ ही .. तो वो अपने ही दिए गए श्राप पर पश्चाताप करती है | युद्ध कभी भी स्त्री के पक्ष में नहीं होते | वहीं स्त्रियों के दुख साझा होते हैँ | जो स्त्रियाँ सामान्य समय में एक दूसरे से ईर्ष्या करती हैं, हावी होना चाहती है वही दुख में एक दूसरे का हाथ पकड़ कर सहारा देती हैं | ये बिन्दु भी विचारणीय है कि किस तरह से पितृसत्ता स्त्रियों को स्त्रियों के विरुद्ध खड़ा करती है |
क्योंकि ये किताब नाटक विधा में लिखी गई है | इसलिए इसके संवाद बहुत सधे और कसे हुए हैं| दृश्य चित्रण प्रभावित करता है | भाषा बहुत सरल व सहज है, जो सीधे पाठक के दिल में उतरती है |
अंत में आँखे खोलने वाली इस किताब के लिए सुमन दी को बहुत बहुत बधाई
समीक्षा -वंदना बाजपेयी