लकीर-कहानी कविता वर्मा

कोयल के सुत कागा पाले, हित सों नेह लगाए,
वे कारे नहीं भए आपने, अपने कुल को धाए ॥ ऊधो मैंने —
                                            जब भी माँ की बात आती है | यशोदा और देवकी की बात आती है | परंतु जब यशोदा कृष्ण को पाल रहीं थीं तब उन्हें पता नहीं था की वो उनके पुत्र नहीं देवकी के पुत्र हैं, ना ही कृष्ण को पता था .. परंतु यह बात पता होती है तो रिश्ते में एक लकीर खिचती है | क्या पुत्र के प्रति अपने कर्तव्यों को निभाती  माँ को सारे अधिकार मिल जाते हैं या पुत्र अधिकार  दे पाता है ? हर प्रश्न एक लकीर है जो एक सहज रिश्ते को रोकती है | कौन बनाता है ये लकीरे और क्या होता है इनका परिणाम | आइए इसी विषय पर पढ़ें सुपरिचित कथाकार कविता वर्मा की कहानी ..

लकीर 

जिसने भी इस खबर को सुना भौंचक रह गया। कुछ लोगों ने तो एकदम से विश्वास ही नहीं किया, तो कुछ ने विश्वास कर इस बात का विश्वास दिलाने की कोशिश की कि ऐसा ही कुछ होना था, हम तो पहले से जानते थे। शुभचिंतकों ने पूछा कि अब उनका क्या हाल है, तो अति शुभचिंतकों ने कहा कि ऐसा करना ही नहीं था। पराये को अपना बना ले इतना बड़ा दिल नहीं होता किसी का।शायद उन्हें यही अफ़सोस था कि हम तो इतना बड़ा दिल कभी न कर पाते उन्होंने कैसे कर लिया? कुछ लोग ये कयास लगाते नज़र आये कि आखिर हुआ क्या होगा? कुछ सयाने यहाँ तक कहते दिखे कि बेकार में बात बिगाड़ी। जितने मुँह उतनी बातें। वैसे अब तक जो कुछ देखा सुना समझा वह इस घटना की नींव तो नहीं थी, फिर उसकी परिणिति इस तरह क्यों हुई?
उस चाल से थोड़े ऊपर के स्तर की बड़ी सी बिल्डिंग में रहने वाले दस-बारह परिवार अपनी स्तरीयता को कायम रखते हुए स्वतंत्र भी थे और साथ में एक दूसरे से जुड़े हुए भी। इसलिए कभी कभी घर के राज़ साझा दीवारों से रिस कर दूसरे घर तक पहुँच जाते थे। .
इसी बिल्डिंग के दो कमरों में रहता था वह परिवार या कहें पति-पत्नी। शादी के कई साल बाद भी गोद सूनी थी और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया था। ऊपरी तौर पर तो कर ही लिया था लेकिन मन में बहती ममता की नदी को सुखा पाना कहाँ संभव होता है वह बहती थी और कभी-कभी तो तटबंध तोड़ बहती थी। यह उनका बरसों का प्रयास ही था कि वे इस उफान को थाम लेतीं और वहाँ से हट जातीं। उस नदी का प्रवाह मोड़ने के लिए खुद को किसी काम में या अपने कृष्ण कन्हैया की सेवा में व्यस्त कर देतीं। तब मन के रेगिस्तान में रह जाती एक लकीर सुगबुगाती सी।
उनकी दिनचर्या बड़ी सुनियोजित थी। ठीक छह बजे उनके घर के दरवाजे खुल जाते। सात बजे घंटी की आवाज़ आती और सब अपनी घडी मिला लेते। तभी उनके बगल के तीन कमरों में वह परिवार रहने आया। पति-पत्नी और दो प्यारे से बच्चे।
परिवार के वहाँ आकर रहने के कुछ ही दिनों बाद इस दिनचर्या में सिर्फ इतना अंतर आया कि घंटी की आवाज़ से पहले चिंटू के नाम की पुकार होने लगी। जिस घर में बिना स्नान किये कोई रसोई में नहीं घुस सकता था वहाँ चिंटू जी बिना नहाये पूजा की आरती में शामिल होते, ताली बजाते, आरती की लय पर झूमते और उनकी हथेली को सहारा दे कर उस पर न सिर्फ प्रसाद दिया जाता बल्कि उसके बाद उनका मुँह भी साफ किया जाता। चिंटू के आने से उनकी पूजा को एक सार्थकता मिलने लगी।
उन्होंने तो जिंदगी को इसी रूप में स्वीकार कर लिया था। भगवान से जितनी मनौतियाँ मानी जा सकती थीं माँग ली गयीं थीं। भगवान उनकी आशा पूरी नहीं करेंगे इसका भी उन्हें विश्वास हो गया था। उनकी गोद न भरने के लिए भगवान से जितनी शिकायतें की जा सकती थीं कर ली गयीं थीं। और अब सारी मान-मनौतियों, शिकवे शिकायतों को भूला कर पूरे श्रध्दा भाव से सुबह की पूजा, आरती,भोग से लेकर तीज त्यौहार तक मनाये जाते थे। पता नहीं मन से शिकायतें ख़त्म हुई या नहीं लेकिन ये उनके जीवन की लय को बनाये रखने के लिए जरूरी थे और ये उसी का पुण्य प्रभाव था कि ममत्व की धारा जीवन की कठोर धूप की परवाह किये बिना भी उनके मन में प्रवाहमान थी।
उस चिलचिलाती धूप में जब सभी घर बंद किये गरम हवा फेंकते पंखों के नीचे पसरे पड़े थे और किसी बच्चे के रोने की आवाज़ को सुनकर भी अनसुना कर रहे थे वे घर से बाहर आ कर हर घर की आहट भाँप चुकीं थीं। उस पर भी मन न माना तो छत पर जाकर अडोस पड़ोस के हर घर आँगन में झाँक आयीं। कहीं कोई न दिखा लेकिन बच्चे के रोने चीखने की आवाज़ बदस्तूर सुनाई देती रही। उनका मन भर आया शिकायत होंठों पर आने को हुई उस माँ की बेपरवाही पर झुँझलाती सी सोने की कोशिश करती रहीं लेकिन वह आवाज़ तो उनकी ममता को ही पुकार रही थी उन्हें सोने कैसे देती? वे फिर उठ बैठीं और कुछ सतर्क सी आवाज़ का पीछा कर छत पर पहुँच गयीं। धूप की तपिश में भी वात्सल्य की नदी हरहरा रही थी सतर्क आँखें छत पर पड़े कबाड़ की टोह सी लेती लकड़ी की पेटी पर आकर रुक गयी। पास ही रजाइयों का ढेर सूख रहा था। उनकी आहट में ही प्रेम का स्पर्श पा कर वह रोने की आवाज़ बंद हो गयी। उन्होंने एक बार फिर चारों ओर देखा। नज़र फिर पेटी पर टिकी उसे बंद देख कर वे पलटीं और सीढ़ियों की ओर बढ़ गयीं। लेकिन मन को अभी भी बच्चे के रोने की आवाज़ व्यथित कर रही थी। प्रेम पूरित मन के साथ लौटते क़दमों ने अपनी सारी शक्ति कानों को दे दी और बंद पेटी के ढक्कन के धीरे से खटके को पकड़ वे फिर उस तक पहुँच गयीं। किसी और की पेटी को नहीं खोले जाने का विचार तक उनके संस्कारित मन को छू नहीं पाया और ममता के वेग ने ढक्कन खोल दिया। पसीने से लथपथ,लाल गालों पर बहते आँसू और लार के सम्मिश्रण को उन्होंने अपने आँचल में समेटा और सीने से लगा लिया। चिंटू और उसका बड़ा भाई खेल-खेल में पेटी में बंद हो गए थे। थोड़ी और देर में क्या कुछ अनर्थ हो सकता था। दोनों को उनके घर ला कर फट ही तो पड़ीं थीं उनकी माँ पर।
अपने पास न होने का दर्द और जिनके पास है उनकी लापरवाही का दर्द मिश्रित हो कर फूट पड़े थे। जिस पर बच्चों की माँ का बच्चों की इस हरकत पर नाराज़ होकर उन्हें दो तमाचे लगाना तो जैसे उनके मन को चोटिल कर गया। “अरे शुक्र मनाओ” इतना कह कर ही वापिस आ गयीं थीं।
इस बीच एक और बात हुई जिसने उनके मन को गहरे तक बींध दिया। चिंटू जो अब तक उनकी गोद में सहमा सा बैठा था उसका माँ को देखते ही उनकी गोद से उतर जाना और चाँटे खाकर भी दोनों बच्चों का अपनी माँ के पैरों से लिपट जाना। चाँटे मार कर और बच्चों की शरारत से दुखी होकर भी माँ का उन बच्चों को गले से लगा लेना। इस बात ने अपने-पराये के भेद को उजागर कर दिया। चिंटू को रोज़ आरती में शामिल करना ,प्रसाद खिलाना अपनी थाली में खाना खिलाना इन सब से उपजी ममता में एक हलकी सी लकीर पड़ गयी जिसे लिए वे अपने घर वापस आ गयीं और देर तक अपने ठाकुर के सामने बैठ रोती रहीं। अस्पष्ट सी शिकायत भी उनके होंठों पर आई।
लकीर
इसके बाद कई दिनों तक विचार विमर्श चलता रहा। उनके घर की सुगबुगाहटें रिस कर बाहर आतीं इसके पहले ही वह उनकी गठरी बाँध गाँव चले गए। लौटे तो साथ में एक छोटा बच्चा भी था लगभग चिंटू की उम्र का। या यों कहें कि वह दरार गहरी पड़ती इससे पहले ही उसे पाटने के लिए या शायद उसे छुपाने के लिए उन्होंने अपने वात्सल्य की चादर को कुछ इस तरह फैला लिया था। अड़ोस पड़ोस में चर्चा हुई, कुछ का कहना था अच्छा किया गाँव में गरीबी में बच्चा क्या बन पाता यहाँ उसे सब सुख सुविधा मिलेंगी, तो किसी ने मुँह बिचका लिया इतना आसन भी नहीं है पराये को अपना बना लेना। कुछ दूरदर्शियों की राय थी लाख जतन भी कर लिए जाएँ लेकिन घुटना तो पेट की तरफ ही मुड़ता है। बड़ा होकर तो अपने माँ- बाप का ही रहेगा। किसी ने तो सलाह दे डाली इससे तो किसी अनाथ को लातीं तो इनका एहसान मानता और इनका बन कर रहता, ऐसे में तो रिश्तेदारी ख़राब होगी। और किसी ने कहा बहुत बड़ी जिम्मेदारी ले ली अब अगर लड़का बिगड़ गया तो इसके माँ-बाप तुम्हे ही कोसेंगे।
वे सबकी बात सुनती रहीं प्रतिवाद करती भी तो क्या? वे खुद इस कदम का अंजाम कहाँ जानती थीं। वे तो बस ये मान रही थीं कि गाँव से यहाँ इतनी दूर वह लड़का उनका अपना है। जिसे वह उस समय दुलार सकती हैं जब उन्हें उस पर लाड़ आ रहा हो। उसके लिए उन्हें किसी का मुँह नहीं देखना होगा। लेकिन फिर भी उस अंतिम बात ने उनके मन में घर कर लिया और वे उसके लिए कुछ अतिरिक्त सतर्क हो गईं ।
उस बच्चे राजू के आने के बाद भी चिंटू का उनके घर आना बदस्तूर जारी रहा। लेकिन बस जहाँ वे चिंटू का बिना स्नान किये पूजा में शामिल होना स्वीकार लेती थीं वहीं राजू का बिना स्नान किये पूजा में शामिल होना उन्हें स्वीकार न था। यहाँ उन्हें पता चला अपने पर अधिकार की भावना क्या होती है? कभी क्षणिक ये विचार चिंटू के लिए भी आया होगा लेकिन वहाँ कहने से पहले अपने पराये की भावना कुलबुलाने लगी। फिर कुछ कह कर उनकी ममता के स्त्रोत को धारा देने वाले चिंटू का आना बंद नहीं करवा सकती थीं इसलिए उन्होंने खुद को ही उसके अनुसार ढाल लिया। लेकिन राजू तो उनका अपना था और उसे पालने के साथ संस्कार देना भी उनका दायित्व था इसलिए उसके उठने में या स्नान करने में होने वाली देर से वो झुँझला जातीं।
ऐसा नहीं था कि उन्हें राजू पर प्यार नहीं आता था वे राजू को खूब दुलारना चाहती थीं, उसे अपनी गोद में बैठा कर ढेर सारी बाते करना चाहती थीं, उसे अपने हाथो से नहलाकर तैयार करके उसके माथे पर अपनी आँखों का काजल आंजना चाहती थीं और रात में उसे अपने सीने से चिपका कर लोरी सुला कर थपक-थपक कर सुलाना चाहती थीं। लेकिन उन पर तो दोहरा दबाव था उसे दुलराना उसका प्यार पाना और उसका गंवईपन निकाल कर उसे संस्कारित करना। उन पर दबाव था उनके इस कदम पर कानाफूसी करने वालों का मुँह बंद कर खुद को एक अच्छी माँ साबित करने का। लेकिन गाँव-देहात में अपने सरल,अल्हड जीवन का आदी बच्चा शहर की बंधी सधी जिंदगी से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा था। वह तो इसे समझ ही नहीं पा रहा था और उनके मन पर उसकी नासमझी से पैदा हुआ दबाव बढ़ता जा रहा था। अगर वह संस्कारी नहीं बना तो? खुद का बच्चा होता तो यूँ हार मान लेतीं। वात्सल्य की चादर तले भी वह लकीर सुगबुगा रही थी। उसके होने का एहसास उन्हें हर पल कचोटता था। वे चाह कर भी उसे भर नहीं पा रही थीं। उन्होंने ठान लिया था कि वे इस लकीर का अस्तित्व ही मिटा देंगी उसे अपना बना कर रखेंगी और इसके लिए डांट फटकार से शुरू हुआ अधिकार बोध कभी कभार हाथ उठाने तक पहुँच गया।
लकीर
राजू ने खाने से पहले श्लोक पाठ नहीं किया, राजू को खाने के बीच में सु-सु आती है, कोई घर आता है तो नमस्ते नहीं करता, कितनी बार बताया पर बालों में ठीक से कंघी नहीं करता। ऐसी ही जाने कितनी ही बातें उसके संस्कारी बनने में आड़े आती थीं और अपनेपन के अधिकार का इस्तेमाल कर वे इन अड़चनों को दूर करना चाहती थीं। राजू इससे हतप्रभ टुकुर-टुकुर उनका मुँह ताकता उसे उनकी बातें ही समझ नहीं आतीं। अपने अधिकार का प्रयोग करने के बाद उसे सुबकते देख उनका भी मन भर आता। लकीर फिर सुगबुगाने लगती। एक बात तो यहाँ भी उस बात के समान थी कि वे अपने अधिकार का उपयोग कर लेती लेकिन उसके बाद उनके और राजू के बीच जो फासला होता था वह नहीं पाट पा रहीं थीं। वह न उसे वैसे ही खींच कर गले लगाकर रो पातीं और न ही वह उनके पैरों से लिपट कर सुबकता।
कई बार दिन में जब राजू सो जाता वे उसके सिरहाने बैठ घंटों उसे निहारतीं उसके बालों को सहलातीं,उसके माथे को चूमतीं,उसकी नन्ही हथेलियों को अपने हाथों में लेकर उसकी रेखाओं में अपने भविष्य को पढ़ने की कोशिश करतीं। उसकी गहरी नींद में डूबी आँखों से उसके लिए अपने व्यवहार का विश्लेषण करतीं।उन एकांत क्षणों में उन्हें महसूस होता कि वह कितना छोटा और मासूम है। वे उम्र के हिसाब से उससे कुछ ज्यादा की उम्मीद कर बैठी हैं।उनका मन उन्हें धिक्कारता एक अपराध बोध उन्हें घेर लेता। वे सोचतीं मुझे धीरज रखना होगा।
उन्हें चिंटू का ख्याल आ जाता। क्या चिंटू की माँ भी उससे ऐसी ही अपेक्षा रखती होगी? क्या चिंटू भी ऐसी ही गलतियाँ करता होगा? क्या उसकी माँ भी उसे अच्छे संस्कार,अच्छी आदतें देने के लिए उस पर हाथ उठाती होगी? चिंटू के रोने की आवाज़ तो उन्होंने कई बार सुनी है लेकिन वह अपनी जिद पर रोया या मार खा कर इस बारे में तो कभी ख्याल ही नहीं किया। चिंटू की माँ भी कभी कभार तो उस पर हाथ उठाती होगी। उन्हें उस दिन की घटना याद आ जाती। उस दिन तो दोनों बच्चों की कोई गलती नहीं थी फिर भी दोनों को मार पड़ी थी न? वे सोचते सोचते ठिठक गईं। उस दिन तो गलती चिंटू की माँ की थी क्या एक माँ को इस तरह लापरवाह हो जाना चाहिए कि बच्चों की जान पर ही बन जाए? उस दिन तो चिंटू की माँ ने अपनी गलती, अपनी लापरवाही छुपाने के लिए, उनके सामने अपनी झेंप मिटाने के लिए दोनों को मारा था। लेकिन उस समय उनके अन्दर की माँ एक दूसरी माँ को अपराधी बनाने को तैयार नहीं थी। क्या हुआ जो मार दिया आखिर एक माँ का सबसे ज्यादा अधिकार अपने बच्चों पर ही तो होता है। उन्होंने गहरी साँस ली आखिर उन्होंने कठघरे में खड़ी एक माँ की पैरवी कर उसे निर्दोष साबित कर दिया था, खुद को या चिंटू की माँ को? खैर ये प्रश्न न ही उठे तो ठीक है।
बंद दरवाज़े खिड़की में वे खुद को समझा-बुझा कर जो ढाढ़स बँधाती वह खिड़की दरवाजे खुलते ही लोगों की उत्सुकता, उनकी आँखों में उभर आये संशय, और उनको तौलती निगाहों के आगे धराशायी हो जाता। अपने मन के कोमल भावों को खुरच कर वे परे कर देतीं और उसके नीचे की रूखी खुरदरी सतह उनके व्यवहार में उभर आती।
जिस घर की दीवारों से रिस कर कोई बात बाहर नहीं आई थी उस घर से उनकी डाँट फटकार और राजू की सिसकियाँ दीवार ही नहीं घर आँगन पार कर चाल के हर घर तक पहुँच गई थीं। हाँ अपने-पराये के भेद के बीच घुटती उनकी सिसकी दिल की गहरी खाई में ही दफ़न हो रही थी वह कभी किसी को सुनाई नहीं दी।
उस सुबह बिल्डिंग के सामने एक तांगा रुका और उससे उतरे मेहमान उनके घर पहुँच गए। उनका स्वागत करते वे चोरी पकडे जाने जैसी हडबडाहट से भर गईं । मेहमान ने राजू को खींच कर गले लगाया और गोद में बैठा लिया। उस दिन राजू जैसे निर्भय हो गया। वह देर तक उनकी गोद में बैठ दुलराता रहा। उनकी सुबह की पूजा आरती का समय हो गया था। वे चाह रही थीं राजू दिनचर्या के अनुसार चले और वे उन्हें दिखा सकें कि उन्होंने राजू को कैसे संस्कारित कर दिया है।
वे मेहमानों के बिना सूचना दिए आने का मकसद समझ रहीं थीं और मन के किसी कोने में एक आशंका भी थी की कहीं किसी ने उन्हें कुछ खबर तो नहीं दे दी? राजू आज उन्हें खुद को साबित करने का मौका व्यर्थ किये दे रहा था। आखिर उन्होंने उनसे छुपाकर उसे आँख दिखाई और राजू झट से उठकर स्नान करने चला गया, लेकिन उठने के साथ मेहमानों की शंका को बल दे गया। अब राजू के हर क्रियाकलाप की विवेचना मेहमानों की आँखों में उभर कर दिखने लगी। राजू की हर आदत को अपने सुप्रयास का प्रतिफल बताने का दवाब उनके चहरे पर छाने लगा। राजू इन सब से बेखबर बहुत दिनों बाद अपने में था सारे प्रयासों और दबाबों से दूर।
वे बड़े दीन भाव से उसे उनकी गोद में खेलते देखतीं। वह जो उनका होकर भी उनका न हो पाया, वह जिसे अपनाकर भी वे न अपना पायीं, वे जो उसे दे कर भी न दे पाए और वह जो इन सब से बेखबर अपने में ही मगन था। एक अलग ही निश्चिन्तता अब उसकी आँखों में थी, इस निश्चिन्तता को देखने के उनके सारे प्रयत्नों को निष्फल करके। यहाँ उन्हें उस दिन वाला फर्क फिर नज़र आया और वह लकीर उन पर हँसती उन्हें उनकी हार का एहसास करवाती सी कहती तुम मुझे कभी पार नहीं कर पाओगी। वे खुद को समेट चौके में चली गईं लेकिन जाते जाते ठाकुरजी की ओर एक नज़र उठी , वे सोचतीं मेरे अन्दर की जो माँ है वह उस माँ से कितनी अलग है? लेकिन इसका कारण सिर्फ जन्म न देना ही तो नहीं है। दुनिया में हजारों माएँ ऐसे भी माँ बनती हैं फिर मैं क्यों नहीं? ठाकुरजी उनकी बात का कोई जवाब दिए बिना मुस्कुराते रहते और वे अपने आँसुओं को पीते हुए राजू की खिलखिलाहट सुनती रहतीं।
सीखने की प्रक्रिया में कदम-दर कदम आगे बढ़ा जाता है।हर रिश्ता अनुभवों गलतियों से परिपक्व होता है और उसमें प्रगाढ़ता आती है। ऐसा ही कुछ माँ-बच्चे के रिश्ते में भी होता है। उनके पास स्नेह की अजस्त्र धारा तो थी लेकिन उस धारा को सोते से फूट कर विशाल नदी बनने की प्रक्रिया से गुजरने का अवसर नहीं मिला था। वह तो अचानक ऐसे फूटी थी जैसे किसी बाँध का गेट खोल दिया गया हो जिसके वेग में ममता लुढ़कती बहती दूर जा रही थी या उस पर आकांक्षाओं का दरवाजा लगा कर उस धार को बहने से रोक दिया गया हो और उसके परे उनकी ममता कसमसा कर रह गई है।
दे कर भूल जाना तो उनके लिए भी आसान न था, या दे देने का एक अपराधबोध उनके मन में भी था जिसे कम करने के लिए वे उनकी आँखों में उनके मन के चोर को देखते ही उसे बेनकाब करने में जुट गए थे। राजू से लड़ियाते हुए रिश्तों की सीवन उधेडी जाती और वे बेबस कट कर रह जातीं। कल तक जिन रिश्तेदारों को वे नसीहतें देती आईं थीं वे ही आज दाता के अभिमान के साथ उन्हें सिखा रहे थे, या उनकी सलाहों का हिसाब चुका रहे थे। वह लकीर गहरी दरार में तब्दील होती जा रही थी ऐसी गहरी दरार जिसे लांघना या पाटना अब असंभव लगने लगा था।
उस दिन सबके सोने के बाद देर रात तक वे अपने ठाकुरजी के सामने रोती रहीं। उस दिन कोई सुगबुगाहट नहीं हुई, कोई शिकायत उन्होंने नहीं की। उस दिन कोई बात कमरे की खुली खिड़की से भी बाहर नहीं आयी पर उन्होंने एक निर्णय कर लिया। उन्होंने उस लकीर पड़े मन को ही चकनाचूर कर दिया, लेकिन किरचे फ़ैलने की आवाज़ भी कहीं नहीं पहुँची।
अगले दिन सुबह वे मेहमान चले गए और लोगों ने देखा ताँगे में उनके साथ राजू भी बैठा था।
कविता वर्मा
कविता वर्मा
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