शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ

 

शब्द संधान प्रकाशन से प्रकाशित आदरणीय रमेश उपाध्याय जी के कहानी संग्रह  “शहर सुंदर है”  के 250 पेज में समाई 19 कहानियों में  आम जीवन में हाशिये पर रहने वाले दलित,  शोषित, वंचित तबके के जीवन की वो गाथाएँ हैं जिन्हें सुनने का अमूमन किसी के पास वक्त नहीं होता है | पर ये कहानियाँ हमारी पूंजीवादी व्यवस्था के मखमली कालीन के उन छिद्रों को  दिखाती हैं जो असमान  विकास का वाहक है | जहाँ अमीर और.. और अमीर और गरीब और गरीब हो हाशिये पर छूटता जाता है | कमजोर नींवों पर खड़ी विकास की अट्टालिकाओं का भविष्य क्या हो सकता है ? पर लेखक हतोत्साहित नहीं है | वह  एक यथार्थवादी लेखक के तौर पर उस  यथार्थ की सीवन खोल कर दिखाते हुए भी  एक सुंदर भविष्य का सपना देखते हैं और  इस सपने को पूरा करने के लिए संघर्ष पर जोर देते हैं | इस संग्रह की कहनियाँ  बहुत ही सरल सहज भाषा में हैं, इसमें शामिल हर कहानी में शिल्पगत प्रयोग हैं, पर वो ऐसे नहीं हैं की दुरूह हो और पाठकों को अति बौद्धिकता के जंगल में  भटका दें बल्कि वो कहानी की सहजता और प्रवाह में वृद्धि करने वाले है |

 

संग्रह की भूमिका में संज्ञा उपाध्याय जी लिखती हैं कि यथार्थवादी साहित्य का काम होता है, अपने समय और समाज के मुख्य अंतर्विरोधों को सामने लाकर सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन करना|”

 

यथार्थ को उद्घाटित करती इस संग्रह  की कहानियाँ  जैसे “दूसरी आजादी”  में वैचारिक जकड़बंदी से आजादी की, “अग्निसम्भवा” में समाज में स्त्री के ऊपर लगाए गए पहरों की, “शहर सुंदर है” में ऐशियाई खेलों के दौरान चमकती दिल्ली में गंदे गुमनाम इलाकों की तो “राष्ट्रीय राजमार्ग” में पूरे सरकारी तंत्र में फैले भ्रस्टाचार की बात करती हैं | इन सारी बड़ी कहानियों में गंभीर मुद्दों के साथ भले ही पात्रों के नाम हों पर संग्रह की छोटी कहानियाँ उन नामों से भी मुक्त हैं | यहाँ मौसम विभाग का वैज्ञानिक है, नल की लाइन खोलने वाला नलसाज है | मिट्टी खोदने वाला है, बिजली के बल्ब बदलने वाला एक कर्मचारी है | यहाँ वो उन पात्रों के नाम नहीं देते हैं बल्कि मिट्टी खोदने वाला एक आदमी आदि कह कर पूरे वर्ग की पीड़ा संप्रेषित करते हैं | शिल्प के लिहाज से अलहदा ये छोटी परंतु मारक कहानियाँ हैं | जो सीधे -सीधे व्यवस्था पर तंज करती हैं |

 

शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ

वैसे तो सभी कहानियाँ सर्वहारा वर्ग को केंद्र में रख कर लिखी गयी है| फिर भी संग्रह  की कहानियों को मैं तीन भागों में बाँट कर देख रही हूँ |

मुख्य रूप से स्त्री अधिकारों की बात करती कहनियाँ

भ्रस्टाचार का मुद्दा उठाती कहानियाँ

वर्ग चेतना को जागृत करती कहानियाँ

 

सबसे पहले बात करते हैं स्त्री अधिकारों की बात करती  हुई कहानियाँ  दो कहनियाँ प्रमुख हैं “दूसरी आजादी और अग्निसंभवा

 

संग्रह की पहली ही कहानी “दूसरी आजादी” ही इस मामले में खास है |  यह  कहानी दलित वर्ग की एक ग्रामीण स्त्री मँगो की कहानी है | मँगो खुली जेल में है,  वो भी उसके यहाँ  जिस ठाकुर फूल सिंह ने उसके परिवार के चारों सदस्यों को  पूरी चमार टोले  में आग लगवा कर भस्म किया था | बेगार करती मँगो को दिन भर मेहनत के बदले में रूखा-सूखा खाना मिलता है | जेल इतनी सख्त की उसे अपनी टोले  में जाने की, अपनी बेटी से मिल आने की इजाजत नहीं है | इस कहानी में इमरजेंसी और उसके बाद की स्थिति भी दिखाई गई है | जहाँ इमरजेंसी के दिनों में  उसके टोले के सभी लोगों को कानून का डर दिखा कर चुप करा दिया जाता है, वहीं इमर्जेंसी हटने पर उसकी टोली के किसान फिर जुडने लगते हैँ | किसान  यूनियन उसे  “भारत माता” के नाम से संबोधित करती है | वो उसे आजाद कराना चाहते हैँ | पाठक को लगता है कि गाँव में शारीरिक शोषण से आजादी ही संभवत : दूसरी आजादी होगी, पर कहानी आगे बढ़ती है |

उसको उस जेल से आजादी मिलती है पर उसको दूसरी जेल में डाल दिया जाता है | यहाँ भावनात्मक शोषण है | जहाँ  तनख्वाह नहीं मिलती | आप तो हमारे घर का सदस्य हैं कह कर  इज्जत तो दी जाती है, पर कामवाली मानकर काम पूरा करवाया जाता है | दरअसल  वो इज्जत असली इज्जत नहीं है वो इज्जत रुपये ना देने का एक बहाना है | देखा जाए ये भावनात्मक शोषण हर स्त्री का होता है, खासकर माँ के रूप में | माँ को देवी कहा जाता है पर उसका शोषण घर-घर में होता है |

यहाँ मँगो मालिक की माँ से अपनी तुलना करती रहती है .. वही काम तो माँ करती थी अब वो करती है | यानि वो माँ की ऐवजी है उसकी नौकरी स्थायी  नहीं है |

जब माँ कहती है की मँगो यहाँ है तो अब वो इस रसोई का पानी भी नहीं पी सकती तो मँगो मन में सोचती है, “धौंस किस बात की देती है | बड़ी बामनी बनी फिरती हो | काम करेगी तो दो रोटी डाल देंगे | नहीं तो कहीं भी जा कर मर | यहाँ पानी देने वाला बैठा  ही कौन है|

इमोशनल शोषण जो हमारे घरों में होता है उस का एक रूप तब दिखाई देता है, जब विश्वकान्त घर में जितना जेवर था सब निकाल लाते हैं |और मँगो से कहते हैं, “लो सब रख लो, सब तुम्हारा है |”

मँगो भी गुलाम बनाए जाने के इस इस ट्रैप में फँसती है | और ये उसे का परिवार है सोच कर  तनख्वाह माँगने के अपने जायज हक का ख्याल छोड़ देती है | लेकिन मालिक पति-पत्नी की बातों से उसे अंदाजा होने लगता है, और वो इसके विरोध में अपनी आवाज उठाती है |

 

इस कहानी के अंत में मँगो जब कहती है, नाम बदल देने से असलियत थोड़ी ही बदल जाती है बाबूजी |  अपनी अम्मा को तुम मँगो जैसी नौकरानी मानो तो  मानो पर मैं तुम्हारी अम्मा कैसे हो सकती हूँ |

मँगो द्वारा अपने श्रम का मूल्य हासिल करना कहानी को एक न्यायोचित सकारात्मक अंत देता है |

 

*बड़े फलक की कहानी में एक तरफ ग्राम समाज है दूसरी तरफ शहर है | पहले हिस्से में तथाकथित बड़ी जातियों द्वारा किए जाने वाले अत्याचारों की बात करती है | किसान यूनियन की भी बात करती है | देश आजाद हुए इतने साल हो गए | पर विचारों की जकड़बंदी वही है | अभी भी हम जातियों में बंटे हैं |  अमीरों द्वारा गरीबों का शोषण हो रहा है | बेगारी करवाई  जा रही है | तो  दूसरे में भावनात्मक शोषण कर के बेगारी कारवाई जा रही है |

*वहीं अगर हम मँगो की बात करते हैँ तो मँगो  गरीब तबके से सम्बद्ध होने के बावजूद एक सशक्त स्त्री के रूप में सामने आती है | जो अपने हक के लिए लड़ना जानती है | मर्दानी मँगो पहले भी ठाकुर फूलसिंह का हाथ मरोड़ कर धक्का देती है |

*इमरजेंसी का भय दिखाकर जब उसके टोले के लोग उसका साथ नहीं देते तो मँगो “डिल्ली महारानी” के पास जाकर फूलसिंह की शिकायत करना चाहती है|

*विश्वजीत सिंह से वो अपने श्रम का उचित मूल्य माँगने की लड़ाई लड़ती है और जीतती भी है |

* इस कहानी में सौराज सिंह का किरदार पावर आते ही शोषित के शोषक में बदल जाने का मुद्दा उठाता है | सौराज सिंह जो उसी बस्ती का रहने वाला है, नौकरी और ताकत आते ही अपने ही शोषित भाई-बहनों का साथ नहीं देता बल्कि उनके शोषण में ठाकुर का साथ देता है |

 

 

शुरू में थोड़े रहस्य के साथ आगे बढ़ती कहानी “अग्निसम्भवा” की नायिका सुषमा का जीवन जैसे-जैसे पाठक के सामने खुलता जाता है, वो उसके प्रति संवेदना से भर उठता है | धर्मशाला में रहने वाली  नायिका सुबह-सुबह उठ कर ठंडे पानी से नहाती है, पूजा पाठ करती है और  धर्मिक कहानियाँ लिखती है | उसकी ज्यादातर कहानियों में  किसी कुलटा स्त्री का वर्णन है | पण्डिताऊँ भाषा में उनके अवैध  संबंधों का विस्तृत विवेचन है | वैसी ही जैसी जेबी किताबों में छपती हैं | पर अंतर ये है उनके अंत में पुलिस अदालत, जेल फांसी आदि आते  हैं, जो नैतिकता की स्थापना करते हैं, और इन कहानियों में अंत बाबा, ईश्वर, कोई धर्मिक पुरुष आता है जो उन्हें नैतिक बनाता है |

 

सोचने वाली बात है कि हमारी पौराणिक और धार्मिक  साँचे  में डाली गयी कहानियों में वो सब कुछ होता है, जिन्हें आम भाषा में हम अशालीन कह सकते हैं, पर समाज उन्हें आराम से पचा लेता है | समाज को जागृत करने वाली कहानियाँ  उन्हें रास नहीं आती | यहाँ सुषमा भी ऐसी ही कहानियाँ लिख रही है क्योंकि उसे पेट पालना है, वरना वो भी गंभीर साहित्यिक कहानियाँ लिखना चाहती थी, पर नहीं लिख सकी, वो महिलाओं को जला कर मारने वाली सच्ची कथाएँ लिखना चाहती थी, जिसकी वो खुद भुक्तभोगी है उसे कोई छापना नहीं चाहता | जिस लेखक को वो अपनी कथा सुना रही है वो भी स्वीकारता है कि जब उसने अपने गाँव के एक औरत की कथा लिखी थी तो लोगों  ने हाय तौबा  मचाई थी | आलोचकों ने उसे जांघ वादी कहा था  | पर धार्मिक कहानियों में सब मान्य है, क्योंकि अंततः यह शीलता, शालीनता का सारा भार स्त्री पर ही डाल देती हैं |

 

नायिका ये भी स्वीकारती है कि  उसकी कहनियों का अच्छा पैसा मिलता है | नाम भी है और विदेशों में बैठे ऐसे लोग भी हैं जो उनका अंग्रेजी अनुवाद कर अच्छा पैसा कमाते हैं | अगर आप कहानी में गहराई से देखेंगे तो आप पाएंगे कि आज भी जो लोग विदेशों में बसे  हैं, या जिनके पेट भरे हैँ या जिनके पास अच्छा पैसा है वो सब भारत का ऊपरी विकास देखते हैं और संस्कृति के नाम पर महिलाओं को कुलटा सिद्ध करती और बाबाओं द्वारा उन्हें तारती  कथाएँ  तो स्वीकारते हैं पर उन्हें देश की गरीबी की बात करते ही उबकाई आती है | अक्सर लंबी बहसों का अंत यही निकल कर आता है कि जो लोग गरीबी की बात करते हैं, वो विकास विरोधी हैं | हमें अभी भी कारण तलाशने होंगे की आसमान की ओर देख कर चलने वाले वर्ग को  इस सच्चाई को देखना तो दूर, स्वीकार करना भी खटकता है |

 

कहानी वैसे तो एक स्त्री के शोषण की कथा है पर उसमें महिलाओं के जीवन को बहुत बारीकी से उद्घाटित करती है | इसमें महिलाओं के  लिए बहुत ही संदेश छिपे हैं,  कई जगह कहानी बहुत सोचने को विवश करती है, जो उनकी बेड़ियों को काटने में सहायक हैं | कहानी में अपने पति  के लिए “वो मेरा उददयोग पति” शब्द का प्रयोग करती है | अपने आप  में  ये शब्द बहुत कुछ कह देता है | अपने प्रेमी जिसे वो सिद्धांत वादी कहती है वो उसे स्त्री जीवन का असली मतलब समझा ता है | वो समझाता है |

“कानून तुम्हें और तुमसे संबंधित हर चीज को वस्तु बना देते हैं | वो वस्तु, जो खरीदी जा सकती है, छीनी जा सकती है, बेची जा सकती है और लूटी जा सकती है |

 

दूसरा उदाहरण देखिये, ”जहाँ  प्रेम नहीं वहाँ हर संबंध अनैतिक है |“

 

अब माँ के ही रूप को देखिए | हम माँ को देवी मानते हैं, पर उसके इंसान होने का हक छीन लेते  हैं| इससे उसके कर्तव्य बढ़ जाते हैं और अधिकार छीन लिए जाते हैं | अगर वो व्यक्ति है तो उसमें व्यक्ति के दुर्गुण भी हो सकती है | वो पितृ सत्ता की पोषक भी हो सकती है | पर इस नजरिए से हम माँ को नहीं देखना चाहते |

एक उदाहरण कहानी से देना चाहूँगी, “माँ का जो यह मिथ  तुमने बनाया है ये भावुकता पूर्ण आदर्शवादिता की उपज है | नहीं तो कानून के डर से फेंक दिए बच्चों  से अनाथालय ना भरे होते | माएँ  बेटा पाकर खुश और बेटी पाकर उदास ना होती | कमाऊ बेटे की थाली में सूखी  और बेरोजगार बेटे की थाली में चुपड़ी रोटियाँ ना परोसती माएँ | जिस दिन माएँ सब बच्चों को समान समझने लगेंगी क्रांतिकारी हो जाएंगी |”

 

ये कहानी स्त्री की दुनिया के उन अंधेरे कोनों में भी जाती है, जहाँ बाहर से पाक साफ बने रहो भीतर-भीतर सब गलत चलता है, का आदर्श पाला जाता है  | नायिका जब ये स्वीकार करती है की उसके पेट में बच्चा उसके सिद्धांतवादी का है | तो औरते आपस में बात करती हैँ ..

 

“खसम ने ठीक  ही किया कि लात मारकर घर से बाहर निकाल दिया | एक तो चोरी ऊपर से सीना जोड़ी| अरे, दबे ढके सब चलता है दुनिया में | चार कदम सीधे पड़ते हैं तो एक कदम उलट भी पड़  जाता है | पर ऐसे बेशरमी तो कहीं नहीं देखी |”

जो लड़कियाँ भी नायिका साथ देती हैं, उनका भी लालच है की इनकी पोस्ट का रुतबा दिखा कर वो विवाह के नाम पर कहीं भी फेंकी नहीं जा पायेंगी | लड़कियों की कन्डीशनिंग ऐसी है कि  वो प्रेम में स्वार्थ और मान  में अपमान को शामिल मानती |

 

दूसरा महिलायें अपनी कन्डीशनिंग के सुरक्षित खोल में ही रहना चाहती हैं | जब उन्हें कोई ऐसी स्त्री आराम से जिंदगी जीते हुए दिखती है जिसने इस खोल को तोड़ दिया है तो उन्हें अपनी  जीवन शैली की  व्यर्थता  का बोध होता है | उन्हें लगता है वो तो आदर्शवाद में ही फँसी  रह गईं | इसलिए वो उन औरतों के उदाहरण खोजती जो वैसी नहीं हैं | प्रत्यक्ष  ना मिले तो अखबार में खोज कर पति को दिखाती की देखो मैं वैसी नहीं हूँ  | ये खुद पर अच्छे होने की मोहर लगाना है |

कहानी की नायिका संघर्ष करती है पर अंततः कमजोर पड़ जाती  है क्योंकि उसे अपने बेटे को अच्छा जीवन देना है | मँगो के विपरीत इस वो जिस वर्ग से आती है, कहानी में उसका वैचारिक खोखलापन उजागर होता है |  मध्यम  और उच्च मध्यम वर्ग में महिलायें कन्डीशनिंग में इस तरह कैद हैं, कि खुद को अच्छा और पितृसत्ता द्वारा स्वीकृत दिखाने के कारण वो किसी अन्य महिला का साथ नहीं देती, और उसे अपने बीच रहने भी नहीं देना चाहती |

नायिका इच्छा के विपरीत जीवन स्वीकार करती है पर अंत में अपने शब्दों से  वो कहानी या साहित्य लेखन का मर्म भी समझा देते हैँ ..

मैं” ऐसी कहानियाँ लिखना चाहती हूँ जो लोगों को अशांत करे, उनमें झूठे प्रेम की जगह सच्ची घृणा पैदा करे | जो उनमें अपने लिए ये श्रम पैदा करे की सब कुछ देखते सुनते, जानते समझते हुए वो चुप क्यों हैं |”

एक अशांत करने वाली कहानी जो पढ़ने के बाद पाठक के मन में कई प्रश्न छोड़ जाती है |

 

भृष्टाचार का मुद्दे  उठाती कहानियाँ

 

राष्ट्रीय राजमार्ग, शहर सुंदर है, तिल ताड़मल और मेरा नायक, प्रौढ़ पाठशाला भृष्टाचार के मुद्दे उठाती सशक्त कहानियाँ हैं |

 

“राष्ट्रीय राजमार्ग” कहानी एक विशेष शैली में लिखी गई है | जिसमें संवाद केवल एक व्यक्ति के ही हैं | दो कोटेस के बीच डैश-डैश  से पाठक समझ जाता है की दूसरे ने क्या कहा |

ये कहानी राष्ट्रीय राजमार्ग को लेकर पूरी व्यवस्था पर चोट करती है | ये कहानी बात तो सड़क की करती है पर मुद्दा पूरे आर्थिक विकास के मॉडल का उठाती है जो गलत बना है | सत्यप्रिय श्रीवास्तव जिसे राष्ट्रीय राजमार्ग का अध्यक्ष बनाया जाना था | जो अध्ययन, कल्पना और श्रम के वैज्ञानिक आधार पर योजना बनाना चाहता है पर  उसकी ईमानदार सलाह  को ना मान कर  उस व्यक्ति को अध्यक्ष बना दिया गया जो सरकार की खुशामद करने लिए दुर्घटना ग्रस्त व्यक्ति से मुआवजा माँगने की बात करता है | महज इसलिए क्योंकि सरकार ये दोष अपने सर नहीं लेना चाहती की उसने सड़क या कहें की पूरा आर्थिक मॉडल गलत बना दिया है | इससे बचने के लिए वो  अरबों रुपये खर्च  कर उस सड़क की सुंदरता बढ़ाती है,  थोड़ी-थोड़ी दूर पर पुलिस चौकियाँ बनाती  है | कर्मचारियों की तैनाती होती है | दंड का कानून बनता है और हर स्तर पर एक नया भ्रष्टाचार  सामने आ  जाता है |

इस कहानी में व्यवस्था के कई लूप होल्स  भी दिखते हैं

कंस्ट्रक्टर का काम का  डिजाइन बनाने वाले को पता  नहीं, डिजाइन वाला मेन्टिनेस वाले से अनभिज्ञ , टेस्टिंग, रिसर्च , डिवेलोपमेंट सब अलग अलग | विभिन्न  सरकारी विभागों में को-ऑर्डिनेशन की कमी को बहुत ही संजीदा तरीके से उठाया गया है |

सिस्टम के  सामने या तो सत्यप्रिय श्रीवास्तव जैसे कर्मचारी होते हैं, जो अपनी बात को पूरे अध्ययन और दावे के साथ रखते हैं, पर वो पद से  हटा दिए जाते हैं, या करुणा शंकर जैसे जो समझौता नहीं करते, इसलिए कोई प्रमुख पद  उन्हें नहीं मिलती | तीसरी तरह के कर्मचारी जो शुरू-शुरू में ईमानदार रहना चाहते हैं पर सिस्टम  कर्मचारी  को बदलता है और  वो भी बन जाता है, बड़ों की चापलूसी करने वाला और छोटो पर रौब डालने वाला |

पूरे सिस्टम पूरी व्यवस्था पर तंज करती एक सशक्त  कहानी

 

प्रौढ़ पाठशाला कहानी गाँव में बनवारी द्वारा  एक पाठशाला खोलने की कहानी है | क्योंकि शिक्षा ही विचार और विकास की वाहक है | इसलिए इस पाठशाला का उन अगड़ी   जातियों द्वारा प्रबल विरोध होता है क्योंकि  जो उनके  फायदे वाला जो हिसाब चल रहा है उसकी प्रबल हिमायती हैं | उन्हें डर है की तथाकथित पिछड़ी जातियाँ चार अक्षर पढ़ कर उनके काबू से बाहर निकल जाएगी और उनसे सवाल-जवाब शुरू कर देंगी |  वो भजन पूजन के लिए तो चौपाल की जमीन देना चाहती हैं, पर पढ़ने लिखने के लिए नहीं | बनवारी पर दवाब डालने के लिए शहर से बनवारी के भाई को बुलाया जाता है | उम्मीद है अगर दो भाई जमीन वापस ले लेंगे तो बनवारी पाठशाला नहीं चला पाएगा |  बात समझाने से  तोड़ -फोड़ तक आ  जाती है | पर बनवारी के साथ उसकी माँ  और नन्ही भतीजी के खड़े होने से विरोधियों की हार होती है | पाठशाला चलाने का मार्ग प्रशस्त होता है | भतीजी का साथ आना भविष्य के लिए आशान्वित करता है |

 

“मेरा नायक” कहानी समाज के प्रति सार्थक उद्देश्य  से जुड़े लोगों को सफल बताती है | वो समाज द्वारा सफल कहे जाने वाले व्यक्तियों की तुलना में भले ही असफल करार दे दिए गए हों पर वो खुश है | क्योंकि उनका जीवन सार्थक जीवन है |

 

“शहर सुंदर है” कहानी 1982 में हुए एशियाई  खेलों के दौरान शहर के सौंदर्यीकरण के लिए खर्चों का  मुद्दा उठाती है | जहाँ दिल्ली के कुछ इलाके सुंदर बनाए जाने में करोणो रुपये खर्च हो रहे हैं, वहीं दिल्ली के गरीबों के  इलाके  गंदगी से भरे पड़े हैं | राम सेवक अपने मुहल्ले में सफाई की बात उठाता  है पर उसे सभा में अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया जाता है |

 

एक सामान्य  आदमी है रामसेवक पर नेता उससे भी डरा हुआ है की एक बार बोलने का मौका दिया तो कहीं उसकी सीट पर खड़ा ना हो जाए | यहीं पर मुझे मेरा नायक की याद आ  जाती है |असली नायक तो दुनिया की नजर में असफल है जो बेखौफ अपने उद्देश्य के लिए लड़ रहा है | जबकि एक सफल व्यक्ति जो नेता है कितना डर रहा  है एक बोलने वाले आदमी से |

 

लोकल समस्या से ध्यान हटाने के लिए वो कहता है कि गंदगी कहाँ  नहीं है, अमेरिका, रूस में भी गंदगी है, चंद्रमा पर गंदगी है और तो और मंगल गढ़ प भी गंदगी है और चमकती डिल्ली के इन गंदे इलाकों की सफाई की माँग दबा दी जाती है |

पूंजीवाद पर प्रहार करती ये कहानी विकास के नाम पर शहर में बढ़ते जा रहे चमचमाते मॉल, बाजारों और शो रूम से आम आदमी के हिस्से की रोटी और खुली हवा किस तरह से छीनी जा रही है, तस्वीर का वो दूसरा रूख दिखाती है|

 

व्यवस्था पर तंज करती कहानियाँ

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व्यवस्था पर तंज करती ये कहानियाँ मानवता के पक्ष में खड़े वो नन्हें दिए सी हैं जिन्हें एक स्वर्णिम भविष्य की आशा है |

 

समय कहानी  लालफीताशाही में हुई लेट लतीफी के साथ व्यवस्था पर इस बात में चोट करती है कि उसके पास पूँजीपतियों के लिए समय है पर गरीबों के लिए नहीं | इसके लिए बस वो “मिस्टर राइट” की घड़ी  ऐडजस्ट करवाती रहती है और गरीबों की समस्याओं पर ध्यान देने का समय ही नहीं आता |

अंत का तंज देखिए जब “मिस्टर राइट” अपनी घड़ी ठीक  करवाने जाता है तो घड़ी साज पूछता है की क्या घड़ी गिर गई थी और वो कहता है की “हाँ घड़ी गिर गई थी” |

 

घड़ी का गिरना पूरी व्यवस्था का गिरना है, तंत्र का गिरना है मानवता का गिरना है |   

 

 

“बोझ” जैसी छोटी कहानी इंसानियत के उन सफेदपोश  ठेकेदारों की बात करती है जो अपना दिल दिमाग बेच कर गलत धंधे कर रहे हैं | खाली बक्सा यहाँ खाली हो चुकी इंसानियत का प्रतीक है | उनकी भूख इस कदर बढ़ गई है कि लगातार खाते हुए भी उनका पेट नहीं भर रहा है | लंबी तोंद  निकल आई है, हालत ये है की अब वो, उस खाली बक्से को ढोने  की स्थिति में भी नहीं हैँ | अब इंसानियत के खाली बक्से का बोझ ढोने  के लिए उन्हें एक कर्मचारी रखने की जरूरत है, जिसका पेट पिचका हो |

 

रोशनी”  कहानी   एक बल्ब बदलने वाले की कहानी है | यहाँ रोशिनी का अभिप्राय ज्ञान और जागरूकता से है | व्यवस्था पर तंज करती इस कहानी में  वो आदमी  अमीरों के इलाके के बल्ब बदलता था | वो लोग खराबी आने पर तुरंत शिकायत करते थे और तुरंत इंतजाम हो जाता | पर गरीबों के इलाके में लोगों को आदत थी की  जैसा चल रहा है जीने की | उनकी गलियों में अंधेरा पड़ा रहता पर वो शिकायत भी ना करते | इस अव्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए उस मेहनतकश  आदमी ने गरीबों के अपने इलाके का काम माँग लिया तब पता चला की तार से लेकर, बल्ब तक सब दूसरे  दर्जे के या इस्तेमाल करे हुए होते हैं इस कारण वो बार-बार खराब हो जाते हैं | उसने जरूरत के सामान की लिस्ट बनाई, विभाग भी खुश हुआ की उसे और ऊपरी कमाई हो सकती है |  पर इस इलाके में सरकार खर्च करना नहीं चाहती थी | गरीब इलाकों का प्रतिशत बहुत है, फिर तो हर इलाके से माँग उठने  लगेगी |  तो सरकार  ने फैसला किया की इन इलाकों को दिन में भी अंधेरे में रखा जाए ताकि इन्हें अंधेरे में रहने की आदत हो जाए और वो रात में रोशिनी की मांग ही ना करें | रुपक देखिए, “अंधेरा करने वाले बल्ब लगाए गए, उनके मुख्य मार्ग पर भी अंधेरा हो गया” | लोग वैसे ही जीने लगे | एक दूसरे से टकराते हुए गिरते पड़ते चलना सीखने लगे |

कहानी का अंत सकारात्मक है | लोगों ने मुख्य मार्ग से छोटी -छोटी पगडंडियाँ बना रखी थीं  जो खेतों से जुड़ती थी, कारखनों से जुड़ती थीं वहाँ से हल्की -हल्की रोशिनी आ रही थी |

 

“मौसम” कहानी प्रचार विभाग पर तंज है कि ये विभाग सब कुछ ठीक है कह कर आम आदमी को तैयारी का मौका भी नहीं देता | कयोकि  अगर पहले बता दिया तो आम आदमी घबराएगा और सरकार पर व्यवस्थित करने का दवाब डालेगा |  आचनक से आई आपदा को वो खुद ही जैसे -तैसे कर के निपटेगा | सब कुछ राम भरोसे चल रहा है वाला फॉर्मूला यहाँ लोगों को  याद है | इसी कहानी से ..

“बात ये है कि उस देश की सरकार वहाँ के लोगों का खूब ख्याल  रखती थी |वहाँ  के लोग बड़े निडर और बहादुर थे | वे बड़े से बड़े संकट का सामना साहस पूर्वक कर लेते थे | गर्मी के दिनों में आकाल और सूखा पड़ जाता, तो वे निर्भय होकर भीख माँगने निकल पड़ते और उनमें से कई बड़ी बहदुरी के साथ सड़कों पर प्राण त्याग देते |”

 

“नशा” और “प्यास” एक नलसाज को लेकर लिखी हुई कहानियाँ है | जिसमें पहली कहानी  एक ईमानदार आदमी को कैसे भृष्ट  बनाया जाता है उस पर प्रहार करती है| एक सरकारी चपरासी से सारा महकमा अपने निजी काम लेने लगता है | जोश से भरे उस युवा कर्मचारी को समझ आने लगता है की धीरे -धीरे वो भी पहले वाले कर्मचारी की तरह आलस का बाना पहन कर मक्कारी करना सीखना ही पड़ेगा |  और दूसरी कहानी में वही नलसाज जो धोखे का शिकार होकर पूंजी पतियों को फायदा पहुंचा रहा था वो आखिर में अकेले ही उठ खड़ा  होता है | पहली  कहानी से उलट ये आशा का संचार करती है की एक आदमी के व्यवस्था  के खिलाफ उठ खड़े होने की देर है, काफिले तैयार होने लगते हैं |

 

अंत में मैं यही कहूँगी कि रमेश उपाध्याय सर की सरल सहज भाषा में कई शिल्पगत प्रयोगों के साथ लिखी गई वो कहानियाँ है जो बेचैन करती हैं पर आशावाद का दामन कहीं नहीं छोड़ती | ये कहनियाँ अपने ही आस-पास होने वाले भृष्टाचारों के प्रति सजग रहने का संकेत देते हुए  भविष्य के परिवर्तन की वाहक बन एक समरस समाज के स्वप्न को दिशा देती हैं |

 

शहर सुंदर है -कहानी संग्रह

लेखक -रमेश उपाध्याय

परकाशक -शब्द संधान

पृष्ठ -250

मूल्य-390 रुपये (हार्ड बाउन्ड )

 

वंदना बाजपेयी

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