“बहुत बुरी हो मां” कौन सी माँ होगी जो अपने बच्चे के मुँह से ये शब्द सुनना चाहेगी | हर माँ अपने बच्चे की नजर में दुनिया कि सबसे बेहतर माँ बनना चाहती है | पर अच्छी माँ के दवाब में उससे भी कहीं ना कहीं कुछ कमी रह जाती है या रह सकती है, तो क्या उसे बुरा कह दिया जाए ? या बुरी माँ की कोई अलग परिभाषा है ? क्या नरम दिल माँ ही अच्छी है ? क्या बच्चों के हित के लिए थोड़ा कठोर हो जाना, बुरा होने का पर्याय है | क्या माँ भी एक इंसान नहीं है, जिसके अपने आग्रह और पूर्वाग्रह हो सकते ? अपने देखे सुने इतिहास का भय हो सकता है ? ये कहानी ऐसे तमाम प्रश्नों से जूझती है | और इन प्रश्नों का उत्तर भी देती है | कहीं नया कहीं ये कहानी कहती है कि माँ बनना केवल नौ महीने का उतरदायित्व नहीं है ये पूरे 21 साल का प्रोजेक्ट है .. और कभी कभी उससे भी ज्यादा | वो अच्छी है या बुरी, ये बच्चों का भविष्य तय करता है | आइए पढ़ें एक माँ को अपने बच्चों के प्रश्नों के कटघरे में खड़ा करती डॉ . पूनम गुज़रानी की कहानी
बहुत बुरी हो माँ
कितनी अजीब है दुनिया…. निरन्तर चलती रहती है…. अपने-अपने क्रम से…. दिन आता है, ढल जाता है, रात आती है, चली जाती है…. पूरी प्रकृति चलती रहती है बिना विश्राम के….कोई नहीं रुकता किसी के लिए….पर मानव हरदम रुक-रुक कर चलता है… अतीत कभी उसका पीछा नहीं छोङ़ता और भविष्य के खुशहाल, मघुर सपने देखने से वो बाज नहीं आता। जानता है सपने पूरे नहीं होते फिर भी देखता है दिवास्वप्न….ये भ्रम कि आने वाला कल अच्छा होगा उसकी आज की कङ़वाहट कम नहीं कर पाते पर च्यूंगम पर लगी मिठास के तरह दो पल ही सही मुँह के कसैलेपन को चांद को रोटी बताकर बहलाने वाली मां की तरह बहला फुसलाकर आगे की जिंदगी जीने के लिए तैयार तो कर ही देती हैं। हर सुख के साथ दुख बिना बुलाए चला आता है और दुख के बाद सुख की प्रतिक्षा जीने की जिजीविषा जागाए रखती है। वक्त आगे बढ़ता रहता है, घङ़ी की सूई घूमती रहती है…. पर कभी-कभी गाज गिराने के लिए वक्त की सुई पीछे भी घूम जाती है। रत्ना के वक्त की सूई आज पीछे की ओर घूम गई…जब बरसों बाद फिर से उसे सुनने को मिला वही डायलाग…. “तुम बहुत बुरी हो मां….”।
कितना कुछ उधङ गया इस एक वाक्य की कैंची से…. उसकी तमाम मजबूत सिलाई धङ़धङ़ाकर निकल गई और रंगीन कवर के नीचे से झांकने लगी पेबंद लगी जिंदगी….।
अतीत के झरोखे से जब झांकने लगी रत्ना… तो लगा कि उसका पूरा बचपन बहुत शानदार था। खुशकिस्मत थी रत्ना….प्रतापगढ़ राजधराने में जन्मी थी। रियासत अब नहीं थी पर रहन-सहन में ताम-झाम,शाही शानौ-शोकत आज भी कायम थी, महल नहीं था पर उसकी हवेली भी महल से कम नहीं थी,अदब वाले नौकर-चाकर भी हर समय अपनी हाजरी देने के लिए तत्पर रहते थे, उसकी कोई भी फरमाइश और ख्वाहिश हर हाल में पूरी की जाती थी। भाई वीरसेन और रत्ना हमेशा फूलों की बिस्तर पर सोये, सोने-चांदी की थाली में भोजन किया, बिन मांगे इतना कुछ मिला था कि मांगने की जरूरत ही नहीं पङ़ी।
स्कूल-कॉलेज की गलियों में उछलते-कूदते, किताबों और नोट्स का आदान-प्रदान करते, एनवल फंक्शन के नाटकों में अपना किरदार निभाते, कॉफी हाउस में कॉफी की चुस्कियों के बीच सोमेश के साथ कब इश्क परवान चढ़ा पता ही नहीं चला। कितना विरोध सहन किया….. कितनी बंदिशों का सामना किया….. लगभग चार साल मनाती रही बापूसा को….. बहुत उकसाया सहेलियों ने भागकर शादी करने के लिए पर न वो राजी थी न सोमेश….. शादी जब भी होगी बङ़ो के आशीर्वाद के साथ होगी, यही ख्वाहिश थी दोनों की….. । जब बापूसा राजी हुए तभी हुई उन दोनों की शादी। बस खालिस एक साङ़ी में लिवा लाए थे स्वाभिमानी सामेश उसे। बापूसा बहुत कुछ देना चाहते थे पर सोमेश ने इंकार कर दिया। रत्ना राजमहल से निकलकर साधारण से परिवार की बहू बन गई।
वो खुश थी। सुदर्शन कद काठी, ऊंचे सपने, सादा जीवन-उच्च विचार का आदर्श सहेजे, शांति प्रिय युवक था उसका जीवनसाथी सोमेश। उसे गर्व था अपने निर्णय पर।सोमेश पढ़ने में बहुत अच्छा था और दूसरों को पढ़ाने में भी, उसने टीचर की जॉब कर ली। शुरुआत में जीवनयापन की भी बहुत समस्याएं आई।पाई- पाई को दांत से पकड़ कर रखना रत्ना के वश की बात नहीं थी। कभी-कभी उसे थोङ़े से खर्च के लिए कई महीनों का इंतजार करना पङ़ता … महंगी साङ़ियां और ज्वेलरी सपना बनकर रह गई थी…. छोटी-छोटी बातों पर रत्ना के यहां आये दिन पार्टी का आयोजन होता था पर अब रत्ना को जन्मदिन और शादी की सालगिरह पर भी सिर्फ मंदिर जाकर संतोष करना पङ़ता….. । कभी-कभी झुंझला जाती वो….अपनी झुंझलाहट में सोमेश की साधारण नौकरी पर तीखे व्यंग्य करने से भी बाज नहीं आती…. उसे गुस्सा आता सोमेश पर…. क्यों दहेज नहीं लिया…. अगर लिया होता तो सुख- सुविधाओं से युक्त शानदार घर से लेकर महंगी ज्वैलरी तक सब कुछ होता उसके पास…. पर सोमेश का शांत-संतुलित व्यवहार उसकी हर नादानी को मुस्कराहट की हवा में उड़ा देने की कला जानता था। वक्त के साथ धीरे-धीरे सोमेश के प्रेम ने हर रिक्तता को भर दिया। वो खुद भी सोमेश के रंग में रंगती चली गई। जब प्रेम सर चढ़कर बोलता है तो कमियां ही खूबियां बन जाती है।अब जरुरतें इतनी ही थी जितनी पूरी हो जाती।
आगे चलकर सोमेश कॉलेज के प्रोफेसर हो गया। बहुत शानौ-शौकत न सही पर बंधी हुई आमदनी जीवन की जरुरतें पूरी करने के लिए प्रर्याप्त थी।अब दो बच्चों की मां रत्ना का पूरा ध्यान बच्चों की परवरिश पर था।
रत्ना ने बचपन से लेकर जवानी तक जाने कितने बच्चों को ग़लत संगत में पङ़ते देखा था, कितने बच्चों को आवारा होकर उजङ़ते देखा था, जाने कितनी बार पढ़ा, कितनी बार सुना की बच्चे सही परवरिश के अभाव में शराब-सिगरेट पीने लगते हैं और अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। उसके भाई वीरसेन को भी तो नशे की ऐसी लत लगी कि जीवन तबाह हो गया उसका और उसके पूरे परिवार का। सारा धन, जमीन, जायदाद सब भेंट चढ़ गया इसी नशे की। माजीसा- बापूसा को जिंदगी भर अफ़सोस रहा कि वीरसेन ने उनकी दी गई आजादी और पैसे का दुरुपयोग किया। दसवीं के बाद वीरसेन को बाहर हॉस्टल में पढ़ने भेजा था। वहीं उसे नशे की लत लग गई। दारु से लेकर चरस, गांजा , हिरोइन जाने कौन- कौन से पदार्थों का सेवन करने लगा था वो।बात जब घर तक पहूंची बहुत देर हो चुकी थी। बापूसा ने बहुत कङ़ाई की, नशा मुक्ति केंद्र में भी लंबे समय तक रखा, पैसे देने बंद कर दिए पर वो कभी कीमती सामान बेचकर तो कभी किसी से उधार लेकर अपनी जरूरतों को पूरा कर ही लेता था। खुद की गोल्डचैन,रिस्टवॉच तक आधे से कम कीमत पर बेच आता। कभी माजीसा के गहने ले जाता तो कभी बापूसा की पॉकेट खाली कर देता। यहां तक कि गाय-भैंस भी बेचकर नशे का जुगाङ़ कर लेता। आवारा दोस्तों का एक ऐसा जमघट उसके पास था कि उनकी गिरफ्त से वो बाहर निकल ही नहीं पाया। सब वीरसेन के पैसे पर ऐश कर रहे थे। वो दूधारू गाय था सबके लिए….सो वे लोग किसी भी हाल में छोङ़ नहीं रहे थे उसे। हालात दिन-प्रतिदिन सुधरने की बजाय बिगङ़ते चले गए।
माजीसा बेटे की ठीक होने की प्रार्थना करती….. भगवान के आगे आंचल फैलाती…. आंसू बहाती…. बेटे को अपनी सोगंध देती…. पर पानी सर से ऊपर निकल चुका था। वे अपनी तमाम मान- मनौव्वल और सख्तियों के बावजूद उसे रास्ते पर नहीं ला पाए। उनके अंतिम समय में न पैसा उनके पास रहा, न संतान ही…..।
माजीसा-बापूसा के हालतों ने उसे भी तोङ़कर रख दिया था। वो माजीसा-बापूसा को दिलासा देती…..उनके घावों पर संवेदनाओं की मरहम पट्टी करती….. कभी-कभी उनके पास सप्ताह भर रह आती ….. कभी जिद करके उन्हें अपने पास ले आती…..पर बेटे के ग़म में घुलते माजीसा-बापूसा असमय बूढ़े हो गए और जाने किन-किन रोगों ने उन्हें अपना शिकार बना लिया था। रत्ना चाहकर भी उनकी असमय मृत्यु को रोक नहीं पाई। बहुत विचलित थी वो भाई वीरसेन के कारनामों से।सारी प्रतिष्ठा, धन, रुतबा, सब कुछ नशे की भेंट चढ़ गया था। वीरसेन का परिवार पाई- पाई को मोहताज हो गया। भाभी अपने बच्चों को लेकर पीहर चली गई। वीरसेन ने कब, कहां, किन हालातों में जीवन जिया जानती तक नहीं रत्ना। बचपन में साथ खेले भाई की मौत पर दो आंसू तक नहीं बहा पाई वो।
वीरसेन स्वयं तबाह हुआ ही पर साथ में पूरे परिवार की तबाही का कारण भी बना। वीरसेन की जिंदगी के काले पृष्ठों ने रत्ना को पत्थर दिल बना दिया था। अब वो अपने बच्चों को बहुत प्यार करती थी पर उनके भविष्य को लेकर हमेशा ही अत्यधिक सावधानी बरतती थी। भीतर के नरम दिल को कभी बाहर नहीं आने देती। अपनी भावनाओं के बहाव को जबरदस्ती सीने छुपाकर कठोरता को धारण कर लेती। उसने अपने बच्चों को हमेशा ही अनुशासन में बांध कर रखा। निश्चित समय पर खाना, पीना, सोना,पढ़ना और खेलना ….. किसी भी तरह की कोई कोताही उसे बर्दाश्त नहीं थी। वीरसेन की बरबादी को बहुत नजदीक से देखा था रत्ना ने शायद यही कारण था कि अपने बच्चों के प्रति ज्यादा उदार नहीं रह पाई वो।
कभी-कभी सामेश समझाते “सबको एक तुला में नहीं तौला जा सकता रत्ना। सब बच्चे वीरसेन की तरह आवारा नहीं निकलते। रानी और राजीव को अपना बचपन जीने दो। बंदिशों का ऐसा पहाड़ मत खङ़ा करो कि उनका व्यक्तित्व ही मर जाए”। इस पर रत्ना प्रतिकार करती “देखो सामेश, तुम बच्चों के मामले में ना ही पङ़ो तो अच्छा है , मुझे पता है क्या सही है और क्या ग़लत….मैं मां हूं उनकी, उनके भले के खातिर ही मैनें अपनी ममता को भीतर ही भीतर दबोच रखा है। वो एक बार पढ़- लिख कर अपनी मंजिल पा ले, अपने पैरों पर खङ़े हो जाएं, अपना भला-बुरा समझने लगे बस, फिर मैं आजाद कर दूंगी उन्हें…. फिर जहां चाहे उङ़े….मैं रुकावट नहीं बनूंगी पर जब तक वे उङ़ने लायक नहीं हो जाते कोई समझौता नहीं…. सोमेश, मैं न तो इतनी लचर पेरेंटिंग कर रही हूं कि बच्चे बिगड़ जाएं , न ही रबर पेरेंटिंग कि बच्चे टूट जाएं….मैं उस कुम्हार की तरह हूं जो भीतर से सहारा देने के बाद ही बाहर चोट करता है ” सोमेश उसकी दलीलों का मुकाबला नहीं कर पाते तो चुप हो जाते।
दिन, महीनों में और महीने सालों में तब्दील होते जा रहे थे। रानी और राजीव दोनों ही पढ़ाई में बहुत अच्छे थे, प्रोफेसर पिता और मां के कठोर अनुशासन में बङ़े होते बच्चों की जब भी कोई जिद पूरी नहीं होती, सीमित सी पॉकेट मनी न फिल्म देखने की इजाजत देती न ही रेस्टोरेंट जाने की, जब भी बच्चों को लगता वे दूसरे बच्चों की तरह आजाद नहीं है, जब भी उन्हें टीवी देखने से रोका जाता, परिक्षा के दौरान तो टीवी का कनेक्शन तक कटवा दिया जाता था तब-तब रानी और राजीव दोनों के मुंह से एक ही डायलाग निकलता – “तुम बहुत बुरी हो मां” रत्ना इस डायलाग को एक कान से सुनकर दूसरे से निकालने का दिखावा करती पर भीतर ही भीतर तङ़फ कर रह जाती। एक मां को उसकी ही संतान बुरा कहे इससे ज्यादा दुख इस दुनिया में किसी को किसी बात से नहीं हो सकता।
रत्ना सोचती मैं ये सारी सख्तियां तुम्हरा भविष्य बनाने के लिए ही तो कर रही हूं बच्चों…..जिस दिन कुछ बन जाओगे इस मां की सख्तियों का मर्म समझ पाओगे…. जिस दिन तुम मां-बाप बनोगे तब जान जाओगे कि कितना मुश्किल होता अपनी ममता का गला घोंटकर अनुशासन का पाठ पढ़ना…..।
ऐसा नहीं था की वो कोई हिटलर थी। घर पर बच्चों का बर्थ डे सेलीब्रेट करती, एक- एक लजीज डिश वो खुद पकाती, टिफिन ऐसा डालती कि सारे दोस्त टूट पङ़ते थे, जब भी कोई अच्छी मुवी थियेटर में लगती वो प्रोफेसर साहब के साथ बच्चों को भी लेकर ही जाती, बच्चों के बिना कभी कोई मुवी वे लोग नहीं देखते, दो साल में एक बार कहीं न कहीं घूमने भी अवश्य जाते, पर हां, वो बेमतलब की फिजूलखर्ची नहीं करने देती…. घर में बैठकर विडियो गेम नहीं खेलने देती…..बेसिर पैर का गेम शो डब्ल्यू- डब्ल्यू एफ नहीं देखने देती….. बाहर के जंक फूड नहीं खाने देती…. आवारा दोस्तों को वो पल भर नहीं टिकने देती…..बच्चों से मेहनत करवाती….एक-एक नम्बर के लिए पी टी एम में टीचर का सर खाती…. बच्चों को सुबह जल्दी उठाकर पढ़ने बिठाती…. फिर भले उसको खुद भी जागना क्यों न पङ़े…..और बस इन्हीं सब की बदौलत जाने कितनी बार बच्चों के मुंह से सनसनाता सा एक तीर निकलता कि “तुम बहुत बुरी हो मां” जो उसके सीने को क्या पूरे अस्तित्व को तार- तार कर जाता था।
इतना सब होने के बाद भी वो पीछे नहीं हटी। सोमेश भी उसकी लगन, मेहनत और इरादों को जानते थे इसलिए उसके और बच्चों के बीच कभी नहीं आए। बच्चों को प्रोग्रेस देखकर वे भी बहुत खुश थे।
ये तब की बात है जब रानी कॉलेज में और राजीव बाहरवीं में था। अचानक ह्रदय गति रुक जाने से सोमेश उसे छोड़कर चले गए।भरी दुनिया में बच्चों के सिवा उसका कोई नहीं था। महिनों बाद जब वो संभली तब लगा घर की आर्थिक स्थिति को संभालने और बच्चों की परवरिश के खातिर उसे अब हर हाल में नौकरी करनी होगी अन्यथा बच्चों का भविष्य बिगड़ जाएगा और ऐसा वो हर हाल में नहीं होने दे सकती।थोङ़ी सी कोशिश और सोमेश के दोस्तों की सिफारिश से उसे सामेश की कॉलेज में टीचर की नौकरी मिल गई।अब उसके संसाधन और आमदनी एकदम सीमित हो गये थे। जवानी की दहलीज पर उम्र के जिस मोड़ पर बच्चों को पिता के साये की बेहद जरूरत थी सोमेश उन्हें छोङ़कर चले गये थे। रत्ना ने तब जी तोङ कोशिश की कि बच्चों कोई कमी न रहे।नौकरी और घर दोनों धुरियों को साधती हुई आंखों में आंसू और होंठों पर मुस्कान लिए वो चुपचाप चली जा रही थी।अपने मकसद पर उसकी नजरें टिकी थी। पुरुषार्थ का प्रतिसाद भी मिला उसे। रानी ने इंजीनियरिंग की डिग्री के बाद एम बी ए किया और फिर साथ में पढ़ने वाले चिराग से शादी ….। राजीव ने इंटिरियर डिजाइनर की डिग्री लेकर एक बङ़ी कंपनी में डिजायनर के तौर पर अपना जॉब शुरु किया। कंपनी ने उसे आस्ट्रेलिया भेज दिया। लगभग दो सालों से वो वहीं है।
रत्ना खुश थी। बच्चों की तरक्की देखकर वो पूराने सारे गम भूला चुकी थी।अब बुढापे की ओर बढ़ते हुए शरीर के साथ एकाकी रहना खलता जरुर था पर वो अपने आपको व्यस्त रखती। रिटायरमेंट में अभी दो साल शेष थे। आगे की जिंदगी के बारे में बहुत नहीं सोचा उसने। दिन सरकते जा रहे हैं यही क्या कम है। दिन कॉलेज में निकल जाता और रात किताबों और संगीत के सहारे….. ।
ऐसे में साल भर की शादी शुदा बेटी दो दिन पहले जब अपना सूटकेस उठाकर पति चिराग से झगङ़कर उसके पास चली आई तो उसके जिस्म पर आकाश की तमाम बिजलियां मानो एक साथ गिर पङ़ी थी।
बेटी और दामाद से पूछताछ करने और उनकी बातों की तह तक जाकर उसे अहसास हुआ कि ये सिर्फ और सिर्फ अंहकार की लङ़ाई है। जहां छोटी-छोटी बातों को उसकी रानी ने इशू बना लिया था। रत्ना जानती है छोटे-मोटे झगङ़े हर पति-पत्नी के बीच होते हैं पर इसका मतलब ये नहीं कि आप घर छोड़कर चले जाओ….. रिश्तों को बनाना आसान होता है पर तां उम्र सन्हें सहेजना मुश्किल…. तिल का ताड़ बना लेना किसी समस्या का हल नहीं होता …..जबकि आपसी समझदारी से हर समस्या कि समाधान निकाला जा सकता है…..।
रत्ना ने प्यार से समझाया रानी को ” देखो रानी, मैं यह नहीं कहती कि तुम किसी अत्याचार को सहन करो, किसी की गुलाम बनकर जीओ, किसी को स्वाभिमान पर चोट पहुंचाने दो पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि तुम पति से बेमतलब लङ़-झगङ़कर मेरे पास रहने चली आओ….. अपनी गलती को गलती न मानो…..”।
बिफर गई थी रानी ” जानती हो, जवानी में तुमने कभी डिस्को नही जाने दिया, सहेलियों के साथ फिल्म भी नहीं देखने देती थी तुम, कभी जरा से खुले कपङ़े पहनती तो तुम्हारी टोका-टाकी चालू हो जाती थी पर अब तो मैं खुद कमाती हूं तब भी क्या अपनी पसंद से नहीं जी सकती….? पहले तुम और अब तुम्हारा दमाद….जरा सी बीयर क्या ले ली मैनें उस दिन, पूरे दो दिन तक बात नहीं की मुझसे…. मुझे नहीं पता था कि इतने खुले विचारों का होने के बावजूद इतना दकियानूसी निकलेगा मेरा पति चिराग….और तुम कहती हो वहीं चली जाऊं वापस….तुम मेरी मां हो या मेरी दुश्मन….” रानी ने पांव पटकते हुए कहा।
“मैं तुम्हारी मां हूं रानी, इसलिए कह रही हूं सही रास्तों का चुनाव ही सही मंजिल पर ले जाएगा ….ठंडे दिमाग से सोचो, तुम्हारी जगह अगर वो अगर शराब पीकर घर आता तो तुम्हारे दिल पर क्या बीतती….बीयर पीना, भङ़काऊ वस्त्र, देर रात तक चलने वाले डिस्को हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं है…… आधुनिकता का झूठा दिखावा हमें कहीं का नहीं छोङता बेटी….। चिराग तुम्हारे हित की बात करता है तो तुम्हें बुरा लग रहा है….अगर वो तुम्हारी परवाह न करें तो अच्छा लगेगा तुम्हें….तुम जानती हो, मैं वो मां नहीं हूं जो अपनी संतान की कमियों पर पर्दा डालकर उसका अहित करे…..अगर गलती तुम्हारी है तो उसे स्वीकार करने में हिचकिचाहट कैसी…. अंहकार से किसी समस्या कि समाधान नहीं होता मेरी बच्ची….. पति-पत्नी के बीच छोटी-मोटी बात होती रहती है पर उस छोटी सी बात को जीवन पर हावी होने दोगी तो जिंदगी में बिखराव के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा….. मैं तुम्हरा घर उजङ़ते हुए नहीं बसते हुए देखना चाहती हूं….. नादान कदमों की लङ़खङ़हट से लम्बी रेस को नहीं जीता जा सकता ….. इसलिए समझदारी से काम लो….. तुम्हारे साथ जिस दिन कुछ ग़लत होगा मैं खङ़ी रहूंगी तुम्हारे साथ पर तुम्हारी गलतियों को अनदेखी मैं नहीं कर सकती”।
“पर मां, मैं खुद कमाती हूं, अपने पैरों पर खङ़ी हूं….फिर क्यों रहूं किसी कैदखाने में…..मैं आजाद होकर जीना चाहती हूं….. तुम्हें तो खुश होना चाहिए आखिर तुम भी तो अकेले रहते-रहते थक गई होगी…..मैं साथ रहूंगी तो तुम्हें भी आराम रहेगा….. ” रानी ने रत्ना का हाथ पकड़कर चापलूसी भरे स्वर में कहा।
“घर कोई कैद नहीं होता रानी…. पंछी चाहे जितनी लम्बी उङ़ान भरे शाम को थककर अपने घोंसले में ही लौटता है। आसमान में तो विश्राम की गुंजाइश ही नहीं है….धरती को छोड़कर जीने की चाह हमें कहीं का नहीं छोङ़ती है…. अनुशासन को जंजीर मत मानो रानी, अनुशासन विहीन समंदर सुनामी के अलावा कुछ लेकर नहीं आता…..और हां, मेरी चिंता तो तुम रहने ही दो लाडो….मैं अपनी जिंदगी अभी आराम से जी रही हूं…. मुझे सहारे की आवश्यकता नहीं….जब होगी तब तूम्हारे पास खुद आऊंगी…..तब चाहो तो नाती की परवरिश की जिम्मेदारी बेशक मुझे दे सकती हो….” तिरछी नजरों से रानी के चेहरे के मनोभावों को पढ़ने की कोशिश करते हुए रत्ना ने कहा।
रानी ने कितना सुना, कितना समझा, कितना स्वीकार किया कहा नहीं जा सकता। “तुम बहुत बुरी हो मां…..” कहते हुए रानी सूटकेश में कपङ़े रखते हुए चिराग को फोन करने लगी तो रत्ना ने चैन की सांस ली । महिनों बाद घर आई बेटी का ऐसा स्वागत वो कतई नहीं करना चाहती थी पर क्या करती वो एक ऐसी मां थी जो अपने बच्चों का हित साधने के लिए अपने दिल पर पत्थर रखना जानती थी…..वो ऐसी मां नहीं थी कि बेटी की गलतियों के लिए दामाद को दोषी ठहरा दे…..वो एक मजबूत और सुदृढ़ सोच वाली मां है जिसे अपने बच्चों की खुशियों के लिए बुरा बनकर रहना पसंद है….मैं बहुत बुरी हूं बच्चों… पर तुम्हरे भविष्य की सुरक्षा इन्हीं बुरे हाथों में है सोचते हुए रत्ना अपनी नम आंखों को बेटी से छुपाती हुई मुस्कुरा दी।
डॉ पूनम गुजरानी
सूरत