बचपन में थी बड़े होने की जल्दी

बचपन में होती है बड़े होने की जल्दी और बड़े होने पर बचपन ढूंढते हैं …मानव मन ऐसा ही है, जो पास होता है वो खास नहीं लगता lइसी विषय पर एक कविता  ..

 

बचपन में थी बड़े होने की जल्दी 

कभी-कभी

ढूंढती हूँ उस नन्हीं सी गुड़िया को

जो माँ की उल्टी सीधी-साड़ी लपेट

खड़ी हो आईने के सामने

दोहराती थी बार-बार

“लो हम टो मम्मी बन गए”

या नाराज़ हो माँ की डाँट पर

छुप कर चारपाई के नीचे

लगाती थी गुहार

“लो जा रहे हैं सुकराल”

माँ के मना करने बावजूद अपनी नन्ही हथेलियों में

जिद करके थामती थी

बर्तन माँजने का जूना

और ठठा कर हँसता था घर

हाथों में संभल ना पाए

गिरते बर्तनों की झंकार से

और अपनी गुड़िया को भी तो पालती थी

बिलकुल माँ की तरह

करना था सब वैसे ही

चम्मच से खिलाने से लेकर

डॉक्टर को दिखाने तक

दोनों हाथों से पकड़ कर बडी सी झाड़ू

हाँफते-दाफ़ते जल्दी-जल्दी

बुहार आती थीबचपन

घर के आँगन से

आज उम्र की किसी ऊंची पायदान पर खड़ी हो

लौट जाना चाहती है उस बचपन में

जब थी जल्दी बड़े होने की

सदा से यही रहा है हम सब का इतिहास

कुछ और पाने की आशा में

जो है आज इस पल हमारे पास

वो कभी नहीं लगता खास

वंदना बाजपेयी

 

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