लवर्स -निर्मल वर्मा की कालजयी कहानी

 

कुछ शब्द हैं, जो मैंने आज तक नहीं कहे. पुराने सिक्कों की तरह वे जेब में पड़े रहते हैं. न उन्हें फेंक सकता हूं, न भुला पाता हूं.

नई कहानी के सर्वाधिक चर्चित कहानीकार निर्मल वर्मा की कहानी “लवर्स” एक ऐसी प्रेम कहानी है जो इस तथ्य को रखती है कि जहाँ प्रेम सफलता व्यक्ति पूर्णता प्रदान करती यही वहीं प्रेम में असफलता व्यक्ति में निराशा और कुंठा को जन्म देती है l लेखक ने एक छोटी घटना को बड़ी कहानी में बदल दिया है l कहानी की शुरुआत में एक लड़का जो कुछ देर पहले बुक स्टॉल पर अर्धनग्न स्त्री की तस्वीर वाली मैगजीन को देखना ही नहीं चाह रहा था क्योंकि उसका सारा ध्यान  अपनी गर्ल फ्रेंड के आने के रास्ते पर था बाद में वही लड़का उस लड़की के जाने के बाद उस मैगजीन को खरीद लेता है |जहाँ से शुरू कहानी वही  पर आ कर खत्म होती है l बीच में हैं स्मृतियों के कुछ चित्र और इंतजार की बेचैनी l यहाँ बेचैनी केवल प्रेम की नहीं है बल्कि उस जवाब की भी है जो नायिका देने आ रही है l यहाँ इंतजार भी रूहानी है l वो हमेशा समय से पहले आता है क्योंकि उसे प्रतीक्षा करना अच्छा लगता है l कहानी की कई पंक्तियाँ पाठक का ध्यान देर तक अपने में अटकाये रहती हैं l नीलकंठ के उड़ जाने और बर्फ के विषय में सोचने का बहुत सुंदर बिंबयात्मक प्रयोग है l प्रेम में असफलता किस तरह से व्यक्ति के हाव-भाव को बदलती है l  किस तरह से असफलता जनित उसकी निराशा कुंठा को जन्म देती है lआइए पढे अद्भुत प्रवाह वाली इस कालजयी कहानी को…

लवर्स -निर्मल वर्मा की कालजयी कहानी

‘एल्प्स’ के सामने कॉरिडोर में अंग्रेज़ी-अमरीकी पत्रिकाओं की दुकान है. सीढ़ियों के नीचे जो बित्ते-भर की जगह ख़ाली रहती है, वहीं पर आमने-सामने दो बेंचें बिछी हैं. इन बेंचों पर सेकंड हैंड किताबें, पॉकेट-बुक, उपन्यास और क्रिसमस कार्ड पड़े हैं.

दिसंबर… पुराने साल के चंद आख़िरी दिन.

 

नीला आकाश… कंपकंपाती, करारी हवा. कत्थई रंग का सूट पहने एक अधेड़ किंतु भारी डील-डौल के व्यक्ति आते हैं. दुकान के सामने खड़े होकर ऊबी निगाहों से इधर-उधर देखते हैं. उन्होंने पत्रिकाओं के ढेर के नीचे से एक जर्द, पुरानी-फटी मैगज़ीन उठाई है. मैगज़ीन के कवर पर लेटी एक अर्द्ध-नग्न गौर युवती का चित्र है. वह यह चित्र दुकान पर बैठे लड़के को दिखाते हैं और आंख मारकर हंसते हैं. लड़के को उस नंगी स्त्री में कोई दिलचस्पी नहीं है, किंतु ग्राहक ग्राहक है, और उसे ख़ुश करने के लिए वह भी मुस्कराता है.

 

कत्थई सूटवाले सज्जन मेरी ओर देखते हैं. सोचते हैं, शायद मैं भी हंसूंगा. किंतु इस दौरान में लड़का सीटी बजाने लगता है, धीरे-धीरे. लगता है, सीटी की आवाज़ उसके होंठों से नहीं, उसकी छाती के भीतर से आ रही है. मैं दूसरी ओर देखने लगता हूं.

 

मैं पिछली रात नहीं सोया और सुबह भी, जब अक्सर मुझे नींद आ जाती है, मुझे नींद नहीं आई. मुझे यहां आना था और मैं रात-भर यही सोचता रहा कि मैं यहां आऊंगा, कॉरिडोर में खड़ा रहूंगा. मैं उस सड़क की ओर देख रहा हूं, जहां से उसे आना है, जहां से वह हमेशा आती है. उस सड़क के दोनों ओर लैंप-पोस्टों पर लाल फैस्टून लगे हैं… बांसों पर झंडे लगाए गए हैं. आए-दिन विदेशी नेता इस सड़क से गुज़रते हैं.

 

जब हवा चलती है, फैस्टून गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं, आकाश झंडों के बीच सिमट आता है… नीले लिफाफे-सा. मुझे बहुत-सी चीज़ें अच्छी लगती हैं. जब रात को मुझे नींद नहीं आती, तो मैं अक्सर एक-एक करके इन चीज़ों को गिनता हूं, जो मुझे अच्छी लगती हैं, जैसे हवा में रंग-बिरंगे झंडों का फरफराना, जैसे चुपचाप प्रतीक्षा करना…

 

अब ये दोनों बातें हैं. मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं. उसे देर नहीं हुई है. मैं ख़ुद जानबूझकर समय से पहले आ गया हूं. उसे ठीक समय पर आना अच्छा लगता है, न कुछ पहले, न कुछ बाद में, इसीलिए मैं अक्सर ठीक समय से पहले आ जाता हूं. मुझे प्रतीक्षा करना, देर तक प्रतीक्षा करते रहना अच्छा लगता है.

 

धीरे-धीरे समय पास सरक रहा है. एक ही जगह पर खड़े रहना, एक ही दिशा में ताकते रहना, यह शायद ठीक नहीं है. लोगों का कौतूहल जाग उठता है. मैं कॉरिडोर में टहलता हुआ एक बार फिर किताबों की दुकान के सामने खड़ा हो जाता हूं. कत्थई रंग के सूटवाले सज्जन जा चुके हैं. इस बार दुकान पर कोई ग्राहक नहीं है. लड़का एक बार मेरी ओर ध्यान से देखता है और फिर मैली झाड़न से पत्रिकाओं पर जमी धूल पोंछने लगता है.

 

कवर पर धूल का एक टुकड़ा आ सिमटा है. बीच में लेटी युवती की नंगी जांघों पर धूल के कण उड़ते हैं. …लगता है, वह सो रही है.

 

फ़ुटपाथ पर पत्तों का शोर है. यह शोर मैंने पिछली रात को भी सुना था. पिछली रात हमारे शहर में तेज़ हवा चली थी. आज सुबह जब मैं घर की सीढ़ियों से नीचे उतरा था, तो मैंने इन पत्तों को देखा था. कल रात ये पत्ते फ़ुटपाथ से उड़कर सीढ़ियों पर आ ठहरे होंगे. मुझे यह सोचना अच्छा लगता है कि हम दोनों एक ही शहर में रहते हैं, एक ही शहर के पत्ते अलग-अलग घरों की सीढ़ियों पर बिखर जाते हैं और जब हवा चलती है, तो उनका शोर उसके और मेरे घर के दरवाज़ों को एक संग खटखटाता है.

 

यह दिल्ली है और दिसंबर के दिन हैं और साल के आख़िरी पत्ते कॉरिडोर में उड़ रहे हैं. मैं कनॉट प्लेस के एक कॉरिडोर में खड़ा हूं, खड़ा हूं और प्रतीक्षा कर रहा हूं. वह आती होगी.

 

मैं जानता था, वह दिन आएगा, जब मैं ‘एल्प्स’ के सामने खड़ा होकर प्रतीक्षा करूंगा. कल शाम उसका टेलीफ़ोन आया था. कहा था कि वह आज सुबह ‘एल्प्स’ के सामने मिलेगी. उसने कुछ और नहीं कहा था… उस पत्र का कोई ज़िक्र नहीं किया था, जिसके लिए वह आज यहां आ रही है. मैं जानता था कि मेरे पत्र का उत्तर वह नहीं भेजेगी, वह लिख नहीं सकती. मैं लिख नहीं सकती-एक दिन उसने कहा था. …उस दिन हम दोनों हुमायूं के मकबरे गए थे. वहां वह नंगे पांव घास पर चली थी. मुझे नंगे पांव घास पर चलना अच्छा लगता है-उसने कहा था. मैंने उसकी चप्पलें हाथ में पकड़ रखी थीं. उसने मना किया था. ‘इट इज़ नॉट डन,’ उसने अंग्रेज़ी में कहा था. यह उसका प्रिय वाक्य है. जब कभी मैं उसे धीरे-से अपने पास खींचने लगता हूं, तो वह अपने को बहुत हल्के से अलग कर देती है और कहती है-इट इज़ नॉट डन. मैंने उसकी चप्पलों को अपने रूमाल में बांध लिया था. रूमाल का एक सिरा उसने पकड़ा था, दूसरा मैंने. हम उस रूमाल को हिला रहे थे और चप्पलें बीच हवा में ऊपर-नीचे झूलती थीं. मकबरे के पीछे पुराना, टूटा-फूटा टैरेस था, उसके आगे रेल की लाइन थी, बहुत दूर जमुना थी, जो बहुत पास दिखती थी.

 

उसके नंगे, सांवले पैरों पर घास के भूरे तिनके और बजरी के दाने चिपक गए थे. मेरी ऐनक पर धूल जमा हो गई थी, लेकिन मैं रूमाल से उसको नहीं पोंछ सकता था, क्योंकि रूमाल में चप्पलें बंधी थीं और उसके पांव अभी तक नंगे थे. तब मैंने उसकी उन्नाबी साड़ी के पल्ले से अपनी ऐनक के शीशे साफ़ किए थे. वह नीचे झुक आई थी और उसने धीरे-से पूछा था-तुम यहां कभी पहले आए थे?

 

– हां, अपने दोस्तों के संग.

 

– क्या किया था? – उसने मेरी ओर झपकती आंखों से देखा.

 

– दिन-भर फ़्लैश खेली थी – मैंने कहा.

 

– और? और क्या किया था? – उसके स्वर में आग्रह था.

 

– शाम को बियर पी थी, वे गर्मी के दिन थे.

 

– तुम पीते हो?

 

– हां – मैंने कहा – पीता तो हूं.

 

– किसी ने देखा नहीं?

 

– नहीं, अंधेरा होने पर पी थी और जाने से पहले बोतलें नीचे फेंक दी थीं.

 

– नीचे कहां?

 

– टैरेस के नीचे.

 

टैरेस के नीचे रेलवे लाइन है. जमुना है, जो बहुत दूर है और बीच में पुराने क़िले के खंडहर हैं. बहुत शुरू का मौन है, और सर्दियों की धूप है, जो क़िले के भग्न झरोखों पर ठगी-सी ठिठकी रह गई है.

 

वह शुरू दिसंबर की शाम थी और हम हुमायूं के मकबरे के पीछे छोटे टैरेस पर बैठे थे. बाईं ओर पुराने क़िले के टूटे पत्थर थे, धूप में सोते-से. सामने ऊबड़-खाबड़ मैदान था, जिसे बाढ़ के दिनों में जमुना भिगो गई थी, और जहां चूने-सी सफ़ेदी बिछल आई थी. जब वापस आने लगे, तो वह सीढ़ियों पर उतरती हुई सहसा ठिठक गई.

 

– तुमने देखा? – उसकी आंखें कहीं पर टिकी थीं.

 

उधर, हवा में उसकी निगाहों पर मेरी आंखें सिमट आई थीं.

 

उसने हाथ से दूर एक पक्षी की ओर संकेत किया. वह मकबरे की एक मीनार पर बैठा था. वह चुपचाप निरीह आंखों से हमें देख रहा था.

 

यह नीलकंठ है. …तुमने कभी देखा है? – उसने बहुत धीरे-से कहा – नीलकंठ को देखना बड़ा शुभ माना जाता है.

 

क्या हम दोनों के लिए भी? – मैं हंसने लगा. मेरी हंसी से शायद वह डर गया और अपने पंख फैलाकर गुंबद के परे उड़ गया था.

 

क्या हम दोनों के लिए भी, यह मैंने कहा नहीं, सिर्फ़ सोचा था. कुछ शब्द हैं, जो मैंने आज तक नहीं कहे. पुराने सिक्कों की तरह वे जेब में पड़े रहते हैं. न उन्हें फेंक सकता हूं, न भुला पाता हूं.

 

जब वह आई, तो मैं उसके बारे में नहीं सोच रहा था. मैं क्रिकेट के बारे में, सिनेमा के पोस्टरों के बारे में और कुछ गंदे, अश्लील शब्दों के बारे में सोच रहा था, जो कुछ देर पहले मैंने पब्लिक लेवेट्री की दीवार पर पढ़े थे. ऐसा अक्सर होता है. प्रतीक्षा करते हुए मैं उस व्यक्ति को बिलकुल भूल जाता हूं, जिसकी मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं. सामने जो पेड़ों की कतार है, वह ‘सिंधिया हाउस’ की क्रॉसिंग तक जाती है, और वहां ट्रैफ़िक-लाइट लाल से गुलाबी होती है और गुलाबी से हरी. जब वह आई, तो मुझे कुछ भी पता नहीं चला था. मैं ट्रैफ़िक-लाइट को देख रहा था और वह मेरे पास चली आई थी – बिलकुल पास, बिलकुल सामने. उसने काली शाल ओढ़ रखी है और उसके बाल सूखे हैं. उसके होंठों पर हल्की, बहुत ही हल्की लिपस्टिक है, जैसी वह अक्सर लगाती है.

 

– तुम क्या बहुत देर से खड़े हो? – उसने पूछा.

 

– मैं तुमसे पहले आ गया था.

 

– कब से इंतज़ार करते रहे हो?

 

– पिछले एक हफ़्ते से – मैंने कहा.

 

वह हंस पड़ी – मेरा मतलब यह नहीं था. तुम यहां कब आए थे?

 

मैं नहीं चाहता कि वह जाने कि मैं रात-भर जागता रहा हूं. मैं सिर्फ़ यह जानना चाहता हूं कि उसने क्या निर्णय किया है. शायद मैं यह भी नहीं जानना चाहता. मैं सिर्फ़ उसे चाहता हूं और यह मैं जानता हूं.

 

हम दोनों ‘एल्प्स’ की तरफ बढ़ जाते हैं. दरवाज़े पर खड़ा लड़का हमें सलाम करता है. वह दरवाज़ा खोलकर भीतर चली जाती है. मैं क्षण-भर के लिए बाहर ठिठक जाता हूं. लड़का मुझे देखकर मुस्कराता है. वह हम दोनों को पहचानने लगा है. उसने हम दोनों को कितनी बार यहां एक संग आते देखा है.

 

‘एल्प्स’ के भीतर अंधेरा है, या शायद अंधेरा नहीं है, हम बाहर से आए हैं, इसीलिए सबकुछ धुंधला-सा लगता है. बाहर दिसंबर की मुलायम धूप है. जब कभी दरवाज़ा खुलता है, धूप का एक सांवला-सा धब्बा खरगोश की तरह भागता हुआ घुस आता है, और जब तक दरवाज़ा दोबारा बंद नहीं होता, वह पियानो के नीचे दुबका-सा बैठा रहता है.

 

– आज अख़बार में देखा? – उसने पूछा.

 

– न – मैंने सिर हिला दिया.

 

– शिमले में बर्फ़ गिरी है, तभी कल रात इतनी सर्दी थी – उसने कहा – मैं सारी खिड़कियां बंद करके सोई थी.

 

कल रात मैं जागता रहा था, मैंने सोचा और बाहर सूखे पत्तों का शोर होता रहा था. दिसंबर के दिनों में बहुत-से पत्ते गिरते हैं, रात-भर गिरते हैं.

 

– तुमने बर्फ़ देखी है, निंदी? – उसने पूछा.

 

– हां, क्यों?

 

– सच? – आश्चर्य से उसकी आंखें फैल गईं.

 

– तब मैं बहुत छोटा था. …अब तो कुछ भी याद नहीं रहा. – मैंने कहा.

 

– तुम अब भी छोटे लगते हो! – उसने हंसकर कहा – जब तुम फ़ुल स्लीव का स्वेटर पहनते हो. – उसने अपना छोटा-सा पर्स पास की ख़ाली कुर्सी पर रख दिया और अपने दोनों हाथ शाल से बाहर निकाल लिए. वह मेरे स्वेटर को देख रही है, मैं उसके हाथों को. उसके दोनों हाथ मेज पर टिके हैं, लगता है जैसे वे उससे अलग हों. वे बहुत नर्वस हैं. आधे खुले हुए, आधे भिंचे हुए. लगता है, वे किसी अदृश्य चीज़ को पकड़े हुए हैं.

 

हम कोने में बैठे हैं, जहां वेटर ने हमें नहीं देखा है. सुबह इतनी जल्दी बहुत कम लोग यहां आते हैं. हमारे आस-पास की मेज-कुर्सियां ख़ाली पड़ी हैं. डांसिंग-फ्लोर के दोनों ओर लाल शेड से ढक लैंप जले हैं. दिन के समय इनसे अधिक रोशनी नहीं आती, जो रोशनी आती है, वह सिर्फ़ इतनी ही कि आस-पास का अंधेरा दिख सके. कुछ फासले पर डांसिंग-फ्लोर की दाईं ओर जॉर्ज और उसकी फियान्स ने मुझे देख लिया है, और मुस्कराते हुए हवा में हाथ हिलाया है. जॉर्ज ‘एल्प्स’ का पुराना ड्रमर है. साढ़े दस बजे आरकेस्ट्रा का प्रोग्राम आरंभ होगा, तब तक वह ख़ाली है. वह जानता है, मैं आज इतनी सुबह क्यों आया हूं. वह मुझसे बड़ा है और मेरी सब बातें… खुली-छिपी सब बातें जानता है. उसने मुझे देखा और मुस्कराते हुए अपनी ‘फियान्स’ के कानों में कुछ धीरे-से फुसफुसाने लगा. वह अपना सिर मोड़कर गहरी उत्सुक आंखों से मुझे… मुझे और उसे देख रही है. उसकी आंखों में अजीब-सा कौतूहल है. यदि जॉर्ज उसकी बांह को खींचकर झिंझोड़ न देता, तो शायद वह देर तक हम लोगों को देखती रहती.

 

मेरे एक हाथ में सिगरेट है, जिसे मैंने अभी तक नहीं जलाया. दूसरा हाथ टाँगों के नीचे दबा है. मैं आगे झुककर उसे दबाता हूं. मुझे लगता है, जब तक वह मेरे बोझ के नीचे बिलकुल नहीं भिंच जाएगा तब तक ऐसे ही कांपता रहेगा.

 

वेटर आया. मैंने उसे कोना-कॉफ़ी लाने के लिए कह दिया. वह चुप बैठी रही, कुर्सी पर रखे अपने पर्स को देखती रही.

 

– मैंने सोचा था, तुम फ़ोन करोगी – मैंने कहा.

 

उसने मेरी ओर देखा, उसकी आंखों में हल्का-सा विस्मय था – तुम काफ़ी अजीब बातें सोचते हो – उसने कहा.

 

शायद यह ग़लत था – मैंने कहा – शायद तुम नाराज़ हो.

 

– पता नहीं… शायद हूं… उसने कहा.

 

मैं हंसने लगा.

 

– क्यों? तुम हंसते क्यों हो?

 

– कुछ नहीं, मुझे कुछ याद आ गया.

 

– क्या याद आ गया? – उसने पूछा.

 

– तुम्हारी बात, इट इज़ नॉट डन!

 

उसका निचला होंठ धीरे-से कांपा था, तितली-सा, जो उड़ने को होती है, और फिर कुछ सोचकर बैठी रहती है.

 

– तुम उस दिन ठीक समय पर घर पहुंच गई थीं?

 

– किस दिन?

 

– जब हम हुमायूं के मकबरे से लौटे थे.

 

– न, बस नहीं मिली. बहुत देर बाद स्कूटर लेना पड़ा… उस रात बड़ा अजीब-सा लगा.

 

– कैसा अजीब-सा? – मैंने पूछा.

 

– देर तक नींद नहीं आई – उसने कहा – देर तक मैं उस नीलकंठ के बारे में सोचती रही, जो हमने उस दिन देखा था, मकबरे के गुंबद पर.

 

नीलकंठ! मुझे वह शाम याद आती है. उस शाम हम पवेलियन के पीछे टैरेस पर बैठे थे. मेरे रूमाल में उसकी चप्पलें बंधी थीं और उसके पांव नंगे थे. घास पर चलने से वे गीले हो गए थे और उन पर बजरी के दो-चार लाल दाने चिपके रह गए थे. अब वह शाम बहुत दूर लगती है. उस शाम एक धुंधली-सी आकांक्षा आई थी और मैं डर गया था. लगता है, आज वह डर हम दोनों का है, गेंद की तरह कभी उसके पास जाता है, कभी मेरे पास. वह अपनी घबराहट को दबाने का प्रयत्न कर रही है, जिसे मैं नहीं देख रहा. मेज के नीचे कुर्सी पर भिंचा मेरा हाथ कांप रहा है, जिसे वह नहीं देख सकती. हम केवल एक-दूसरे की ओर देख सकते हैं और यह जानते हैं कि ये मरते वर्ष के कुछ आख़िरी दिन हैं और बाहर दिसंबर के उन पीले पत्तों का शोर है, जो दिल्ली की तमाम सड़कों पर धीरे-धीरे झर रहे हैं.

 

मुझे लगता है, जैसे मैं वह सबकुछ कह दूं जो मैं पिछले हफ़्ते के दौरान में, सड़क पर चलते हुए, बस की प्रतीक्षा करते हुए, रात को सोने से पहले और सोते हुए, पल-छिन सोचता रहा हूं, अपने से कहता रहा हूं. मैं भूला नहीं हूं. कुछ चीज़ें हैं, जो हमेशा साथ रहती हैं, उन्हें याद रखना नहीं होता. कुछ चीज़ें हैं, जो खो जाती हैं, खो जाने में ही उनका अर्थ है, उन्हें भुलाना नहीं होता.

 

वेटर आया और कोना-कॉफ़ी की बोतल से पहले उसके और फिर मेरे प्याले में कॉफ़ी उंड़ेल दी. हमारे सामनेवाली मेज पर एक अंग्रेज युवती आकर बैठ गई. उसके संग एक छोटा-सा लड़का है, जो उसकी कुर्सी के पीछे खड़ा है. युवती का चेहरा मीनू के पीछे छिप गया.

 

– वाट विल यू हैव, सनी?

 

लड़का पंजों के बल खड़ा हुआ, सिर झुकाकर मीनू को देख रहा है, ऊं…ऊं…ऊं…, लड़के ने ज़ुबान बाहर निकालकर बिल्ली की तरह नाक सिकोड़ ली.

 

– ओ, शट अप! वोन्ट यू सिट डाउन?

 

डांसिंग-फ्लोर के पीछे जो कुर्सियां अभी तक ख़ाली पड़ी थीं, वे धीरे-धीरे भरने लगीं. लगता है, बाहर सूरज बादलों में छिप गया है. सामने खिड़की के शीशों पर रोशनी का हल्का-सा आभास है. जब दरवाज़ा खुलता है, तो पहले की तरह धूप का टुकड़ा भीतर नहीं आता. सिर्फ़ हवा आती है, और मैली-सी धुंध. दरवाज़ा खुलकर एकदम बंद नहीं होता और हम बाहर देख लेते हैं. बाहर सर्दी का धुंधलका है और दिसंबर का मेघाच्छन्न आकाश… जो कुछ देर पहले बिलकुल नीला था.

 

जहां हम बैठे हैं, वह एक कोना है. जब कभी हम यहां आते हैं (और ऐसा अक्सर होता है), तो यहीं बैठते हैं. उसे कोने में बैठना अच्छा लगता है. वह चम्मच से मेजपोश पर लकीरें खींचती है और मैं अपनी उन कहानियों के बारे में सोचता हूं, जो मैंने नहीं लिखीं, जो शायद मैं कभी नहीं लिखूंगा, और मुझे उनके बारे में सोचना अच्छा लगता है.

 

दो दिन बाद क्रिसमस है. ‘क्वीन्स-वे’ की दुकानों पर इन दिनों भीड़ लगी रहती है. कुछ लोग ख़रीदारी करने के बाद अक्सर यहां आते हैं, उनके हाथों में रंग-बिरंगी बास्केट, थैले और लिफाफे हैं. जब वे भीतर आते हैं, वह दरवाज़े की ओर देखने लगती है. उसकी आंखें बहुत उदास हैं. मैं उसकी बांहों को देख रहा हूं. प्लास्टिक की चूड़ी और ज़्यादा नीचे खिसक आई है. उसका निचला हिस्सा प्याले की कॉफ़ी में भीग रहा है, भीग रहा है और चमक रहा है.

 

– निंदी – उसने धीरे-से कहा और रुक गई.

 

यह मेरे घर का नाम है. एक बार उसके पूछने पर मैंने बताया था. जब कभी हम दोनों अकेले होते हैं, जब कभी हम दोनों एक-दूसरे के संग होते हुए भी अपने-अपने में अकेले हो जाते हैं, और उसे लगता है कि उसकी बात से मुझे तक़लीफ़ होगी, तो वह मुझे इसी नाम से बुलाती है. मेरा हाथ मेरे घुटनों के बीच दबा है. लगता है, अब वह क्षण आ गया है, जिसकी इतनी देर से प्रतीक्षा थी, वह आ गया है और हम दोनों के बीच आकर बैठ गया है.

 

– निंदी, यह ग़लत है – उसने धीरे-से कहा, इतने धीरे-से कि मैं हंसने लगा.

 

– तुम क्या इतनी देर से यही सोच रही थीं? – मैंने कहा.

 

– निंदी, सच! – वह भी हंसने लगी, किंतु उसकी आंखें पहले-जैसी ही उदास हैं – मैंने इस तरह कभी नहीं सोचा था.

 

– किस तरह? – मैंने पूछा.

 

– जैसे तुमने मुझे लिखा था. …मैंने उसे कई बार पढ़ा है, निंदी… यह ग़लत है सच, बहुत ग़लत है, निंदी! – उसने मेरी ओर देखा. उसके बाल बहुत रूखे हैं और होंठों पर हल्की, बहुत हल्की लिपस्टिक है, जैसे वह लिपस्टिक न हो, सिर्फ़ होंठों का रंग ही तनिक गहरा हो गया हो. वह मेरी ओर देख रही है – निंदी, तुम… – उसने आगे कुछ कहा, जो बहुत धीमा था. मैंने उसकी ओर देखा. उसने अपनी दो उंगलियों में रूमाल कसकर लपेट लिया था – निंदी, सच, तुम पागल हो! …मैंने कभी ऐसे नहीं सोचा. नॉट इन दैट वे!

 

नॉट इन दैट वे, ये चार शब्द बहुत ही छोटे हैं, आसान हैं, और मैं अचानक ख़ाली-सा हो गया हूं, और सोचता हूं, ज़िंदगी कितनी हल्की है!

 

मैंने उसकी ओर देखा. उसकी आंखों में बड़े-बड़े आंसू थे, जैसे बच्चों की आंखों में होते हैं. किंतु उन आंसुओं का उसके चेहरे से कोई संबंध नहीं है, वे भूले से निकल आए हैं, और कुछ देर में, ढुलकने से पहले, ख़ुद-ब-ख़ुद सूख जाएंगे, और उसे पता भी नहीं चलेगा.

 

लेकिन शायद कुछ है, जो नहीं सूखेगा. मैं कल रात यही सोचता रहा था कि वह ‘न’ कह देगी, तो क्या होगा? अब उसने कह दिया है, और मैं वैसा ही हूं. कुछ भी नहीं बदला. जो बचा रह गया है, वह पहले भी था… वह सिर्फ़ है, जो उम्र के संग बढ़ता जाएगा… बढ़ता जाएगा और खामोश रहेगा… बंद दरवाज़े की तरह, उड़ते पत्तों और पुराने पत्थरों की तरह… और मैं जीता रहूंगा.

 

उसके चेहरे पर शर्म और सहानुभूति का अजीब-सा घुला-मिला भाव है, सहानुभूति मेरे लिए, शर्म शायद अपने पर.

 

– निंदी, …क्या तुम नाराज़ हो?

 

मैं अपना सिर हिलाता हूं – हां.

 

– तुम अब मुझे बुरा समझते होगे?

 

मैं हंस देता हूं. मैं अब बिलकुल शांत हूं. टांगों के नीचे मेरा हाथ नहीं कांप रहा. जब हम यहां आए थे, तब सबकुछ धुंधला-धुंधला-सा दीख रहा था. लगा था, जैसे सपने में मैं सबकुछ देख रहा हूं. सपना अब भी लगता है, उसकी शाल, उसकी सफेद मुलायम बांहें… लेकिन अब वे ठोस हैं, वास्तविक हैं. मैं चाहूं, तो उन्हें छू सकता हूं और उन्हें छूते हुए मेरा हाथ नहीं कांपेगा.

 

निंदी, वी कैन बि फ्रैंड्स, कांट वी? – उसने अंग्रेज़ी में कहा. जब वह किसी बात से बहुत जल्दी घबरा जाती है, तो हमेशा अंग्रेज़ी में बोलती है और मुझे उसकी यह घबराहट अच्छी लगती है. मैं कुछ भी नहीं कहता, क्योंकि कुछ भी कहना कोई मानी नहीं रखता और यह मुझे मालूम है कि जो कुछ मैं कहूंगा, वह नहीं होगा; जो कहना चाहता हूं, वह शब्दों से अलग है… इसलिए पंद्रह-बीस वर्ष बाद जब मैं दिसंबर की इस सुबह को याद करूंगा, तो शब्दों के सहारे नहीं. याद करने पर बहुत-सी बेकार, निरर्थक चीज़ें याद आएंगी, जैसे वह क्रिसमस के दो दिन पहले की सुबह थी… हम ‘एल्प्स’ में बैठे थे और बाहर दिसंबर के पीले पत्ते हवा में झरते रहे थे…

 

क्योंकि यह कहानी नहीं है, ये कुछ ऐसी बातें हैं, जिनकी कहानी कभी नहीं बनती. यही कारण है कि मैं बार-बार मन-ही-मन दुहरा रहा हूं… ये वर्ष के अंतिम दिन हैं. बाहर दुकानों पर क्रिसमस और न्यू ईयर कार्ड बिक रहे हैं. यह दिल्ली है… हमारा शहर. बरसों से हम दोनों अलग-अलग घरों में रहे हैं… किंतु आज की सुबह हम दोनों अपने-अपने रास्तों से हटकर इस छोटे-से काफे में आ बैठे हैं, कुछ देर के लिए. कुछ देर बाद वह अपने घर जाएगी और मैं जॉर्ज के कमरे में चला जाऊंगा. सारी शाम पीता रहूंगा.

 

– सच, निंदी, कांट वी बि फ्रेंड्स?

 

उसके स्वर में भीगा-सा आग्रह है. मैं मुस्कराता हूं. मुझे एक लंबी-सी जम्हाई आती है. मैं उसे दबाता नहीं. अब मैं बिना शर्म महसूस किए उससे कह सकता हूं कि कल सारी रात मैं जागता रहा था.

 

– क्या सोच रहे हो? – उसने पूछा.

 

– बर्फ़ के बारे में – मैंने कहा – तुमने कहा था कि शिमले में कल बर्फ़ गिरी थी.

 

– हां, मैंने अख़बार में पढ़ा था और मैं देर तक तुम्हारे बारे में सोचती रही थी. रात-भर बर्फ़ गिरती रही थी और मुझे पता भी नहीं चला था. इसीलिए कल रात इतनी सर्दी थी. मैं अपने कमरे की सारी खिड़कियां बंद करके सोई थी. – उसने कहा – जब कभी शिमले में बर्फ़ गिरती है, तो दिल्ली में हमेशा सर्दी बढ़ जाती है.

 

कुछ देर पहले मैं ‘एल्प्स’ के आगे खड़ा था. मैं पहले आ गया था और ट्रैफ़िक-लाइट को देखता रहा था. मैंने दस तक गिनती गिनी थी. सोचा था, यदि दस तक पहुंचते-पहुंचते बत्ती का रंग हरा हो जाएगा, तो वह हां कहेगी, नहीं तो नहीं… किंतु अब मैं शांत हूं.

 

और, निंदी – उसने कहा – तुमने यदि पत्र में न लिखा होता, तो अच्छा रहता. अब हम वैसे नहीं रह सकेंगे, जैसे पहले थे…,

 

और मैं जागता रहा था, मैंने सोचा. – तुमने नहीं सुना? कल रात देर तक दिल्ली की सूनी सड़कों पर पत्ते भागते रहे थे – मैंने कहा.

 

मैं खिड़कियां बंद करके सो गई थी – उसने कहा – और मुझे सपने में हुमायूं का मकबरा दिखाई दिया था. तुम जोर से हंसे थे और बेचारा नीलकंठ डर से उड़ गया था.

 

हम दोनों चुप बैठे रहे.

 

कुछ देर बाद उसकी पलकें ऊपर उठीं. – क्या सोच रहे हो? – उसने पूछा.

 

मैं चुपचाप उसकी ओर देखता रहा. बर्फ़ के बारे में – मैंने धीरे-से कहा.

 

हम उठ खड़े होते हैं. आरकेस्ट्रा शुरू होनेवाला है और हम उसके शुरू होने से पहले ही बाहर चले जाना चाहते हैं. दरवाजे के पास आकर मैं ठहर जाता हूं और आख़िरी बार पीछे मुड़कर देखता हूं. मेजपोश पर वे लकीरें अब भी अंकित हैं, जो अनजाने में उसने चम्मच से खींच दी थीं. उन लकीरों के दोनों ओर दो प्याले हैं, जिनसे हमने अभी कॉफ़ी पी थी. वे दोनों बिलकुल पास-पास पड़े हैं… और कुछ देर तक वैसे ही पड़े रहेंगे, जब तक बैरा उन्हें उठाकर नहीं ले जाएगा. वे दो कुर्सियां भी हैं, जिन पर हम इतनी देर से बैठे रहे थे और जो अब ख़ाली हैं. कुछ देर तक वे वैसी ही ख़ाली, प्रतीक्षारत पड़ी रहेंगी.

 

जॉर्ज की फियान्स ने मुझे देखा है. वह मुझे देखती हुई शरारत-भरी दृष्टि से मुस्करा रही है. वह समझती है, हम दोनों लवर हैं. जॉर्ज ने शायद उसे बताया होगा. जॉर्ज स्टेज पर ड्रम के आगे बैठा है. कुछ ही देर में आरकेस्ट्रा शुरू हो जाएगा. जॉर्ज ने भी मुझे देख लिया है. वह धीरे-से ड्रम-स्टिक हवा में घुमाता है. गुड-लक! – उसने कहा और धीरे-से आंख दबा दी.

 

मैं बाहर चला गया.

 

बाहर बादल छंट गए हैं. कॉरिडोर में धूप सिमट आई है! ‘एल्प्स’ के बाहर अंग्रेज़ी पत्रिकाओं की दुकान पर कुछ लोग जमा हो गए हैं. सामने क्वीन्स-वे की दुकानों के आगे भीड़ लगी है. क्रिसमस-रिडक्शन-सेल की तख्तियों पर टंगे रंग-बिरंगे रिबन हवा चलने से फरफराने लगते हैं. उनके पीछे दिसंबर का नीला आकाश फैला है.

 

मुझे एक लंबी-सी जम्हाई आती है और आंखों में पानी भर जाता है.

 

– क्या बात है? – उसने पूछा.

 

– कुछ नहीं – मैंने कहा.

 

– मुझे कुछ क्रिसमस कार्ड ख़रीदने हैं, मेरे संग आओगे? – उसने कहा.

 

– चलो – मैंने कहा – मैं बिलकुल ख़ाली हूं.

 

हम दोनों क्वीन्स-वे की ओर चलने लगते हैं.

 

– ज़रा ठहरो, मैं अभी आता हूं. – मैं पीछे मुड़ गया और तेज़ी से क़दम बढ़ाता हुआ अमरीकी पत्रिकाओं की दुकान के सामने आ खड़ा हुआ. पुरानी पत्रिकाओं का ढेर मेरे सामने बेंच पर रखा था. मैं उन्हें उलट-फेरकर नीचे से एक मैगज़ीन उठा लेता हूं. वही कवर है, जो अभी कुछ देर पहले देखा था. वही बीच का दृश्य है, जिस पर अर्द्धनग्न युवती धूप में लेटी है.

 

– क्या दाम है? – मैंने पूछा.

 

लड़के ने मुझे देखा, दाम बताया और मुस्कराते हुए सीटी बजाने लगा.

निर्मल वर्मा

 

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1 thought on “लवर्स -निर्मल वर्मा की कालजयी कहानी”

  1. निर्मल वर्मा जी की कालजयी कहानी ‘लवर्स’में घटनाक्रम व मानसिक झंझावातों का महीन चित्रण है।पढ़ने में आनंद आ गया।

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