आज हर जगह चमत्कार और चमत्कारियों की चर्चा है l कहीं चमत्कार को नमस्कार है तो कहीं चमत्कार पर प्रहार है l लेकिन ये बात केवल आज की नहीं है, वो कौन सा दौर था या होगा या कौन सा धर्म था/ होगा जहाँ चमत्कारी लोगों का अस्तित्व नहीं रहा ? क्यों भीड़ की भीड़ इनकी तरफ आती है l मानव मन की कौन सी गुत्थियों को ये सुलझा देते हैं? क्या ये सिर्फ दिखावा है या जीवन की गहरी और अगर आप लूटते हैं तो क्या आप पूरेविश्वास के साथ कह सकते हैं कि विकास हो या मेडिकल साइंस आप को नहीं लूट रहा ? निधि अग्रवाल ने समकालीन युवा कथाकारों में जीवन को गहराई से उकेरने वाली लेखिका के रूप अपनी सशक्त पहचान बनाई है l प्रस्तुत कहानी शोकपर्व में वो पिता पुत्र के रिश्ते के साथ इन तमाम प्रश्नों से उलझती सुलझती चलती हैं l यह बहुपर्तीय बेहतरीन कहानी चमत्कार और चमत्कारी बाबाओं के साथ-साथ जीवन को के विविध रंगों को खोलती चलती है l आइए पढ़ें कहानी —
शोकपर्व
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“ज़बान देखो। कमाया धेला नहीं और ज़बान गज भर की कर लाया।” माँ दराती से सरसों काटती हुई चिल्लाई। ध्यान हटा तो दराती ने सरसों के संग अँगुली भी काट दी। वह सी सी करती पल्ला अँगुली में लपेट दूसरे हाथ से उसे दबाए बैठी रही। आँखों में नमी तैर गई। उसकी आँखों में नहीं… माँ की आँखों में । वह और बाबा तो वैसे ही अविचलित बैठे रहे। स्त्री की चोट पुरुष के मन को स्पर्श कब करती है? सच कहा जाए तो एक संतुष्टि का अनुभव किया उसने। अपनी बेइज़्ज़ती पर मूक-बधिर बनी बैठी रहने वाली माँ, बाबा को एक शब्द कहने पर तिलमिला जाती है। उसका मन हुआ कहे, देख लो अपने परमेश्वर की हक़ीक़त।
माँ अब तक हल्दी की पट्टी अँगुली में लपेट फिर से साग काट रही थी। उसके कष्टों के प्रति विरक्ति की सज़ा किसी दिन इसी दराती से वह उन दोनों की गर्दन काट कर क्यों नहीं देती? वह अपलक माँ को देखता रहा।
ये कोई पहली नौकरी नहीं थी जो वह छोड़ आया था। इसके पहले चार साल में कोई बीस नौकरी आज़मा चुका था। उदासी इसलिए गहरी थी कि इस बार नौकरी के साथ छोकरी से भी हाथ धोना पड़ा था।
“सेठ की लड़की को फसाएँगा तो देर सवेर जूत्ते ही खाएँगा।” बाबा ने हिकारत से कहा था, “पढ़ लिख लेता कुछ तो कहीं ढंग की नौकरी मिल जाती। अब करता रह गुलामी।”
“क्या फ़ायदा पढ़कर। पढ़े लिखे लोग तुम जैसों के पैर पड़ते हैं।” वह वैसा ही शिथिल पड़ा, जम्हाई लेता हुआ बोला था। इस जवाब पर माँ तिलमिला गई थी।
“और कितनी देर है खाने में। दो बजे गद्दी पर बैठना है। कोई काम समय से नहीं कर पाती ये औरत।” बाबा का बड़बड़ाना चालू है।
अब वह उनकी लंबी नुकीली जीभ को दराती पर टँगा देख रहा था। माँ के सधे हाथ बिना देखे ही चलते जा रहे हैं। छोटे छोटे रक्तरंजित टुकड़े जूट की बोरी पर इकट्ठे हो रहे हैं। बहते हुए रक्त की धार का छोर उसे स्पर्श करने ही वाला था जब माँ का थका हुआ मरियल स्वर उसे इस वीभत्स दृश्य से बाहर खींच लाया।
“खाना तैयार है। आ जाओ दोनों।” माँ के स्वर का ठंडापन उसकी रीढ़ की हड्डी में सिहरन पैदा कर गया।
इस दृश्य की वीभत्सता से अधिक भयावह यह कल्पना थी कि बाबा के बाद अगली जीभ उसकी हो सकती थी। उसने थूक निगला। मुँह का स्वाद कड़वा था। उसने पानी का लौटा उठा, एक बार में खाली कर दिया।
“एक चपाती तो और ले लो!” माँ बाबा से कह रही है।
उसने आँखों की कोर से बाबा को ‘न’ में गर्दन हिलाते देखा।
वह मुँह पोंछता थाली के पास बैठा। माँ एक चपाती बाबा की प्लेट में रखती हुई बोली-
“छोटी-सी है। खा लो।”
बाबा गुर्रा रहे हैं, “मना किया न फालतू ज़िद करके दिमाग खराब करती है ये औरत।”
माँ इसरार कर-कर के भूख से अधिक खिला देने में निपुण है। उसके अन्नपूर्णा नाम के कारण उसने अपने जीवन का लक्ष्य बाबा की क्षुधा शांत करना बना लिया है। क्षुधा से उसे उषा याद आ गई। कल इसी समय वह उसकी देह चख रहा था। तृप्ति से क्षण भर पूर्व ही सेठ अचानक घर आ गया था। विवस्त्र बेटी को खींच कर अलग कर दिया और बिना बक़ाया दिए उसे काम से निकाल दिया। आदिम भूख उसके शरीर पर रेंगने लगी। वह थाली छोड़कर खड़ा हो गया।
“बरसाती वाले किरायेदार हैं क्या अभी भी?” बेध्यानी में माँ से पूछा।
“नाबालिग़ लड़की पेट से हो गई थी। पिछले साल ही मुँह काला करवा कर चले गए।” जवाब बाबा ने दिया।
उसे अपने हाथों में लड़की का गदराया बदन महसूस हुआ। उसकी देहगंध नथुनों में भर गई। उम्र में लड़की उससे कुछ साल छोटी थी। कोई न कोई सबक समझने के बहाने उसके पास चली आती। उस बरस कहानी की किताब उसे पढ़ाते कितनी ही कविताएँ उसके शरीर पर लिखी थी। लड़की की देह को जानने के लिए जितना उत्सुक वह रहता उससे अधिक वह लड़की आतुर रहती। उसे दुःख हुआ कि बाबा की किसी बात पर बिगड़ कर घर छोड़ गया था। रुका रहता तो वह बच्चा उसका दिया हुआ होता। वह अनजाने लड़की के बड़े हुए पेट पर हाथ फेरने लगा। सेठ की गद्दी के नीचे रखी पत्रिका में पढ़ा था कि गर्भावस्था में कुछ स्त्रियों की प्यास और बढ़ जाती है। वह तो थी ही रेत की नदी।
बाबा ने थाली सरकाई। बर्तनों की झनझनाहट कमरे में तैर गई। उन्होंने बनियान के ऊपर कुर्ता पहना। साफ धोती के लिए माँ को पुकारा। वह रसोई छोड़ धोती लाने नंगे पाँव दौड़ गई। “सुबह निकाल कर क्यों नहीं रख देती। रोज़ माँगनी पड़ती है।” बाबा का बड़बड़ाना जारी। बात बात पर उफ़न पड़ने वाला यह इंसान दुनिया को शांति बाँटने का दावा करता है। घोर आश्चर्य!
२
पाँचवी की कक्षा का पहला दिन था। नए आए मास्टर जी सबका परिचय पूछ टाइम खोटी कर रहे थे। लड़कों का नाम पूछते, साथ ही पिता का व्यवसाय। असली मकसद पिता का व्यवसाय जानना था ताकि उचित दोहन कर सकें।
वह खड़ा हुआ, “गौतम प्रताप शर्मा”
“पिता क्या करते हैं?”
“———-”
“क्या करते हैं?”
“पूजा करते हैं।” हकलाते हुए बोला।
“पंडित हैं?”
“तांत्रिक हैं तांत्रिक। मरघट के भूत से बात करते हैं।” साथ बैठा सुरेश अपनी बात पर स्वयं ही हँसे जा रहा है। उसका चेहरा गुस्से में लाल।
“बिन बच्चों वालियों को बच्चा भी देते हैं, मास्टर जी!” विकास ने जैसे आँखों में रंग भरते हुए कहा, उसकी मुट्ठियाँ तन गई थीं। उसे अधमरा करके ही दम लिया।
मास्टर साहब ने क्लास से बाहर खड़ा कर दिया। शहर में इस उम्र के बच्चे समझते हैं कि बच्चे अस्पताल में मिलते हैं पर यहाँ गाँव-देहात के बच्चे वयस्कों को मात देने की क्षमता रखते हैं। वह हाथ ऊपर किए बड़बड़ाता रहा फिर स्कूल से भाग आया। ‘सब कर्मों का फल है’ कहने वाले बाबा एक रात शाहदरा के पुश्तैनी घर से सब समान समेट यहाँ खंडवा चले आए थे। देर रात तक भीड़ के दरवाज़ा पीटने की कुछ धुँधली स्मृतियों और माँ के अस्पष्ट संवादो से उसे लगता है कि बाबा के उपचार ने किसी के प्राण ले लिए थे और उसी से उपजे बवाल के कारण भागना पड़ा। पीछे छूट गए अपने कर्म को बाबा कभी भूले से भी याद नहीं करते। माँ वहाँ छूट गए आँगन- दालान याद करती है पर उसे सबसे ज़्यादा मलाल अपने दोस्त छूट जाने का है। नई मिट्टी हर पौधे को कब अपनाती है? स्कूल के बच्चे उसे ‘बाहरी’ मानते हैं। दिन भर नर्मदा के शीतल जल में पैर डुबाए बैठा रहा, सूरज छुपे घर पहुँचा तो बाबा ने कान उमेठ दिए। वह दर्द और क्षोभ से चिल्ला उठा।
“कुछ और काम नहीं कर सकते क्या आप? पूरे स्कूल में किसी के बाबा झाड़-फूंक नहीं करते। तंत्र- मंत्र नहीं करते। कुछ नहीं आता तो भीख माँग लो। पर ये गद्दी समेट लो।”
माँ ने चटाक! चटाक! कितने ही तमाचे बिन गिने रसीद कर दिए थे। बाबा पीटते हैं तो गाय बन जाती है। उनकी लातें खाते सिसकती तक नहीं। एक बार नानी से कह रही थी कि शराब पीकर राक्षस हो जाता है यह आदमी। उसी राक्षस के मान के लिए उसे पीटने में इस औरत ने कभी संकोच नहीं किया है।
माँ के हाथ पर दाँत गड़ा वह भाग खड़ा हुआ था। कहाँ गया था? वीरे के बाड़े में? उसके अलावा और था ही कौन उसका। वहाँ पुआल के ढ़ेर पर पड़े दोनों बीड़ी पीते रहे थे। वीरे ने कहा था- “तू अपने बाप का खून करके माँ से शादी कर ले। तेरी बीबी बनकर फिर कभी हाथ नहीं उठा पाएगी। हमेशा डर कर रहेगी।”
“भक्क, माँ से भी कहीं शादी होती है क्या। तुम ससुरा गधा ही रहोगे। वह हँसते-हँसते दोहरा हो गया था।” वीरे सच मे मंद बुद्धि है तभी तीन साल से एक ही कक्षा में है।
माँ न सही पर किसी से तो शादी होगी। कोई एक है इस दुनिया में जिस पर वह भरपूर रौब जमा सकेगा। बाबा और माँ के हिस्से के सब तमाचे उसे रसीद कर सकेगा। “वीरे एक कॉपी बना लेनी चाहिए। उसमें हर दिन का हिसाब। शादी होने तक भूल जाने का ख़तरा है।”
“क्या लिखना.. क्या गिनना। जी भर मारना। औरत ज़ात होती ही पिटने के लिए है।” वीरे मुँह से धुआँ छोड़ता दार्शनिक अंदाज़ में बोला। वह आगे और ज्ञान देता। तब तक वे दोनों ढूँढ़ लिए गए थे और फिर बिना गिने ही लतियाते हुए घर की ओर धकेल दिए गए थे।
बाबा गद्दी से वापस आते तो किसी से बात करना पसंद नहीं करते। दुनिया की दुःख तकलीफ़ सुनने वाले के पास अपने परिवार को सुनने का समय कैसे मिले? वह अपने कमरे में चले जाते। भीतर से कमरा बंद। कमरे में केवल बाबा के कुछ करीबी अनुयायियों और माँ को जाने की अनुमति है। उसने एक बार झाँका था। कालीमाँ की जीभ निकाले हुए, रौद्र रूप की आदमक़द तसवीर देख वह काँप गया था। कई रात नींद नहीं आई थी। बाबा कमरे से निकलते तो आँखे लाल होती। माँ कहती उपासना से ही सिद्धि मिलती है। वह ऐसा सिद्ध पुरुष बनना नहीं चाहता था। शुक्र है बाबा ने भी कभी नहीं चाहा। वह उसे किसी सरकारी नौकरी में देखना चाहते थे। पर पढ़ने में उसका मन जमता नहीं। कई छोटे मोटे कोर्स किए, अधूरे छोड़े यही हाल नौकरी का भी … और लड़कियों का भी। एक जगह ठहर क्यों नहीं पाता मन?
उसे सिगरेट की तलब हुई। यहाँ घर में नहीं पी सकता। बाहर किसी ने पीते देख लिया तो बाबा की साख को खतरा। हुँह, उसने मुँह बनाया। उसे पूरा यक़ीन है बाबा गांजा पीते हैं। मूर्ख जनता!
वह उठकर बाहर जाने लगा तभी बाबा कमरे से निकल आए।
“कल से गद्दी पर बैठना है तुम्हें। बोलना नहीं कुछ। बस जो मैं कहूँ लिखते जाना। …और ये जीन्स बुशर्ट नहीं चलेगी। कल से धोती कुर्ता पहनना होगा। इंतज़ाम कर लेना। बाबा फुफकारते हुए चले गए।”
वह हतप्रभ खड़ा रहा। उनसे कुछ न कह पाया। माँ को घेर लिया।
” कह देना इस आदमी से। दादागिरी मुझ पर नहीं चलेगी। मैं नहीं बैठूँगा गद्दी पर। मुझे तांत्रिक नहीं बनना।”
“क्या बनना है कलेक्टर? चार साल से मारा मारा फिर रहा है। कभी हज़ार रुपये भी घर भेजे? मँगाता ही रहा। इसी गद्दी से घर में रोटी बनती है। पक्की छत है.. तेरी फटफटिया आई है और जो गुल हर नौकरी में खिलाता है उनके मुँह बंद रखने के लिए भर-भर नोट भी इसी गद्दी से दिए जाते हैं। माँ ओखली में धनिया नहीं उसे ही कूट दे रही थी। वह बस आग्नेय नेत्रों से घूरता रहा।
“मेरा ही बहीखाता बनाए हो या अपने पति परमेश्वर का भी। उनके गुल कहाँ-कहाँ खिले हैं वो नहीं पता तुम्हें?”
“तू अपने काम से काम रख। मेरी चिंता न कर। कुछ और कर सकता है तो हफ़्ते भर में जुगाड़ कर ले। वरना गद्दी सम्भाल।” माँ साड़ी झाड़ती उठ खड़ी हुई।
पहले गद्दी और मन्दिर घर के ही एक कमरे में सीमित था पर इन बीतें सालों में घर ने अपने आस-पास के दो घर जाने किस प्रकार निगल कर अपना क्षेत्रफल और साख़ दोनों बढ़ा ली हैं। पुराने घर की कुठरिया तुड़वा कर नए बड़े हवादार कमरें बनवाए गए हैं।
बड़ी बैठक को पर्दा लगाकर दो भागो में बाँट दिया गया है। बाहर भक्तगण अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं। बाबा के करीबी अनुयायी अंदर के भाग में भजन गाते हैं। कालीमाँ, शिव जी और हनुमान जी की पुरानी प्रतिमाएँ वहाँ लगी हैं जिनके आगे बड़े दीपक जलते रहते हैं। भीतर के एक छोटे कमरे में एक दीवान पर गद्दी डालकर बाबा बैठते है। एक स्टूल पर जिल्द चढ़ी कई किताबें और पंचांग रखे हैं।
एक मोरपंखों की बनी झाड़ू, एक पंखा, मिट्टी के एक सकोरे में भभूत और एक मे रोली। यहाँ अपेक्षाकृत अंधकार है और एक छोटा लाल बल्ब कमरे में रहस्यमयी मद्धम प्रकाश बिखेर रहा है।
नीचे बिछी दरी पर ओझा बैठता है। उसका असली नाम कोई नहीं जानता। जाने क्यों सब ओझा ही कहते हैं। वह भक्तों के नम्बर लगाता है। बारी-बारी पुकारता है। बाबा के इशारे वह तुरन्त समझ लेता। है। उसे ओझा से एक बेमानी-सी ईर्ष्या हुई। वह बेटा होकर बाबा की कही बातें बहुधा समझ नहीं पाता।
‘बाहरी’ होने के कारण बाबा की अन्य गुरुओं से अधिक प्रतिष्ठा है। बाहरी व्यक्ति को स्नेह नहीं दिया जा सकता पर उसे मान दे कर सिंहासन पर बिठाया जा सकता है। उसके स्कूल के दोस्तों ने कभी उसे गले नहीं लगाया पर यहाँ प्रतिदिन कम से कम सौ आदमी आकर बाबा के पैर श्रद्धापूर्वक छूते हैं। ईर्ष्या के बावजूद कहीं न कहीं वह गर्वित होता है। बाबा और उसके मध्य कटुता कम हो रही है। लोग अपनी परेशानी बताते हैं। बाबा कुछ अतार्किक समाधान। बहुत से लोग बाबा का आशीर्वाद फलने पर महँगे उपहार और मिठाई लेकर आते हैं। बाबा चढ़ावे की ओर कभी नहीं देखते।
“लालच मन में भले हो आँखों में नहीं दिखना चाहिए। जितना चढ़ावे से मोह कम रखोगे लोग उतना अधिक देंगे। तुम मुँह खोलकर मॉंगोगे वह लालची समझ दूर हो जाएँगे। यह श्रद्धा और आस बचाने का व्यवसाय है।”
“सात शनिवार तेल चढ़ाने से नौकरी मिल जाती है क्या बाबा? मुझसे क्यों नहीं चढ़वाया?”
वह मुस्कराए, “जो मन से प्रयास करता है उसे सात क्या चार शनिवार बाद भी मिल सकती है। तुम्हें बस प्रयास करने की जिजीविषा को जगाए रखना है। नज़र रेखाओं और ग्रहों के आकलन में उलझी हो पर पढ़ना सदा मन।”
बाबा के सामने निर्धन, अमीर, नेता, अधिकारी सब एकसमान है। सब एक जैसे दयनीय और लाचार दिखते हैं। पढेलिखे दिखने वाले लोगों को ओझा जाने कैसे देर से आने पर भी जल्दी का नम्बर दे देता है। कुछ बहुत बड़े लोगों को समय देकर बाबा अपने कमरे में मिलने बुलाते हैं। अब उसे भी इस कमरे में बाबा के साथ बैठने की अनुमति बिन मॉंगे मिल गई है। काली की प्रतिमा की आँखों से नज़र मिल जाने पर वह सहम जाता है। बाबा के सामने बैठा व्यक्ति बहुत डरा हुआ है। वह बता रहा है –
“पिताजी की मौत तक सब ठीक था। उनके जाने के एक साल पीछे ठीक उसी तिथि को माताजी की हृदयाघात से मृत्यु हुई। चार महीने बाद बड़ी बहन का जवान बेटा नए साल पर अपने हॉस्टल के कमरे में मृत मिला। मारपीट, आत्महत्या, ज़हर कोई निशान नहीं। तीन महीने बाद बड़े भाई का पूरा परिवार दुर्घटनाग्रस्त हुआ। ड्राइवर को दिन में ही झपकी आई और गाड़ी डिवाइडर पर चढ़ा दी। गाड़ी पलट गई और उनके इकलौते बेटे की मौके पर ही मौत। बाक़ी सबको फ्रैक्चर हुए बस।
इसके छह महीने बाद मंझले भाई के विवाहित बेटे ने रेल की पटरी पर जान दे दी। बिज़नेस सही चल था। बीवी बिल्कुल गऊ। आत्महत्या का कारण कोई नहीं समझ सका। पन्द्रह दिन पहले छोटे भाई का बेटा मुंबई लोकल से गिरकर मर गया। न किसी ने धक्का दिया न वह ख़ुद कूदा। देखने वालों ने कहा जैसे किसी अदृश्य हाथ ने उसे खींच लिया। वह मुस्कराता हुआ चला गया। चिल्लाया तक नहीं।” बताते हुए भय से उस भक्त का पूरा बदन काँप रहा है। माथे पर पसीना चूँ रहा है।
“महाराज, भरे पूरे परिवार में से चुन-चुन कर बेटे उठा लिए भगवान ने। अब केवल मेरे दो बेटे बचे हैं। हर सुबह घर छोड़ते हुए मन काँपता है। लगता है लौटूँगा तो जाने…” भक्त फूट- फूट कर रो रहा था।
भक्त न रोता तो वह इसे किसी मनगढंत भूतिया फिल्म की पटकथा समझता पर उसके रोने में सच्चाई थी। उस सज्जन की आँखों का भय उसकी आँखों में भी पसर गया। अब बाबा क्या कहेंगे? उनके बेटों के जीवन रक्षा का सूत्र जानते हैं क्या बाबा?
बाबा आँखें मूँदे सोचते रहे। उस सज्जन की आँखें अब बाबा के चेहरे पर टिकी थीं। सीना काँप रहा था।
“दिक़्क़त तो दिख रही है।” बाबा आँख खोलते हुए बोले, “रूष्ट है माँ। बदले की भावना से भरी है। अपने पोतों के मोह में अंधी हो चुकी।”
“हाँ, पोतों से बहुत प्यार था उन्हें। लड़कियों को कभी पास नहीं बैठने देती थीं।”
बाबा ने कुछ बेतुके सवाल पूछे। एक फूल का नाम… एक से दस के बीच का कोई अंक… एक फल का नाम और कुछ गणना अँगुलियों पर की। गहरी साँस छोड़ते, माथा रगड़ते हुए बोले-
“दादी, पोतों को तुमसे दूर करे उससे पहले तुम ही उन्हें अपने से दूर कर दो।”
भक्त का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। “महाराज!” स्वर काँप गया।
“समझो बात को। बेटों को गोद दे दो। कोई तो दोस्त ऐसा होगा जिसको काग़ज़ पर गोद दे सको। बस कार्यवाही करनी है। रहेंगे तो तुम्हारे ही पास।”
दादी की आत्मा स्टाम्प पेपर पढेंगी। भले ही दादी अनपढ़ हो। उसने मन मे सोचा।
“पर महाराज क़ानूनी पेंच हो जाएगा। दोस्त की सम्पति के अधिकारी हो जाएँगे। कितना भी करीबी दोस्त हो तैयार नहीं होगा।”
विपत्ति में भी संपति के दाँव- पेंच समझने का विवेक बचे रहने पर उसे आश्चर्य हुआ। बाबा पुनः सोच में थे। आज गद्दी गई। उसे पूरा विश्वास था।
“माँ को अर्पित कर दो। माँ की गोद मे सुरक्षित रहेंगे।” बाबा ने काली मॉं की प्रतिमा की ओर इशारा किया।
व्यक्ति के चेहरे पर आश्वस्ति तैर गई। “आप बता दीजिए क्या करना होगा और कब। जल्दी करवा दीजिए महाराज।”
बाबा अनुष्ठान के लिए सामान और समय समझाने लगे और वह पहली बार काली मॉं की आँखों में आँखे डाल उनकी शक्ति का आकलन कर रहा था। क्या सच ही बचा पाएँगी?
भक्त पैर छूकर चला गया। उसके चढाए नए नोट बाबा के पैरों के करीब अनदेखे रखे रहे।
“सुरक्षा की क्या गारंटी है?” उसने पूछा
“जीवन की गारंटी कोई दे सकता है क्या?” कहते हुए पीड़ा की अनगिन रेखाएँ बाबा के चेहरे पर तैर गईं।
“फिर?”
“होगा वही जो राम रचि राखा। हमारा काम आँचल में आस बाँधना है। बुरा नहीं भी होना होगा तो यह अनिष्ट आशंका की दहशत से अधमरा हो जाएगा।”
आने वालों में अधिकतर औरतें आती। किसी का पति सास के कहने में था किसी का पड़ोसन के वश में। किसी औरत को उसके घर वाले पकड़ कर लाते। उस पर पीपल की चुड़ैल चढ़ी होती थी। किसी औरत का दुःख बिगड़ी हुई औलाद थी तो कोई औलाद न होने से दुःखी बाबा झाड़ा लगाते। सिंदूर और भस्म की पुड़िया बाँध कर देते। किसी को सोमवार तो किसी को मंगल , शनि के व्रत।
सामने नवजात शिशु को गोद मे लिए अधेड़ औरत के साथ पूरा परिवार बैठा है। सास, बाबा के दस बार पैर छू चुकी। बीस बार काली माँ का शुक्रिया कह चुकी।
“पति के तकिए के नीचे ताबीज़ रखने से, चाय में भभूत डालने से बच्चे कैसे हो सकते हैं?” उनके जाने के बाद पूछा।
” कभी नियति तरस खा जाती है कभी कोई पड़ोसी, रिश्तेदार।” बाबा एक रहस्यमयी मुस्कान देते हुए बोले, “सच जानना हमारा काम नहीं। हमें बस श्रेय लेना है।”
वह बाहर जाकर बच्चे की शक्ल उसके माँ बाप से मिलाना चाहता है।
चार घन्टे लोगों के दुःख सुनना आसान नहीं। लोग उसे नहीं सुनाते। बाबा से संवाद करते है पर जाने कैसे उनकी देह से उतरी उदासियाँ उसे ग्रस लेती हैं। खर-पतवार सा दुःख कैसे हर जगह स्वतः उग आता है। वह अचंभित होता। बरसाती में लेट, दिन में आए लोगों के बारे में सोचता रहता है। सौ में से कुछ चेहरे ऐसे भी होते है जो ख़यालों में अनचाहे शामिल हो जाते हैं। जैसे दूर गाँव से आने वाली वह औरत। माँ-बाप ने पैसे के लालच में दुहाजू से ब्याह दिया। प्रतिरोध नहीं कर पाई पर शादी के बाद तन और मन दोनों विद्रोही हो उठे। कुछ दिन के लिए घर आए देवर के साथ हमबिस्तर होने की ग्लानि ओढ़े कुम्हलाई हुई आई थी। बहुत देर रोती रही। बहुत पूछने पर बस इतना बोली- “पाप किया है प्रायश्चित चाहती हूँ।” उसके काँपते बदन को कितनी ही बार चूम लेना चाहा था उसने पर बाबा तटस्थ बैठे रहे। सिर पर हाथ फेर झाड़ा लगाया। सोमवार के निर्जल व्रत रखने को कह, पूजा की सामग्री काग़ज़ पर लिख कर पकड़ा दी।
उसके जाने के बाद बोले, “पाप से डरकर नहीं रोती, प्यार को याद कर रोती है।”
“तब क्या साथ न सोएगी दुबारा?”
“ज्यों निर्जल उपवास साध लेगी तो तन की प्यास भी नहीं भटकाएगी। इच्छाओं पर अंकुश लगाना सीख जाएगी।”
वह उसकी प्यास के लिए नदी बन जाना चाहता है।
आज खाने में माँ ने दो बार नमक डाल दिया। खारी सब्जी होने पर भी बाबा ने थाली नहीं फेंकी। दही से रोटी खा कर उठ गए। उसे आश्चर्य हुआ। बाबा इन दिनों कम चिल्लाते हैं। अभी तक क्या उसके कर्मों की सज़ा माँ को देते रहे थे। शाम वह खेत की ओर निकल आया। पगडंडी पर ही वीरे मिल गया। ज़बरदस्ती घर ले गया। बहन को आवाज़ दी चाय बनाने के लिए।
चाय लेकर जो लड़की आई उसे देख चौंक गया। नाक बहाती हुई रिबन वाली लड़की पर कभी यूँ झूमकर यौवन उतरेगा कौन सोच सकता था।
चाय के कप रखने झुकी तो दो ताज़े कमल नज़र में तैर गए।
वीरे को किसी ने पुकारा। वह बाहर गया। लड़की उसके सामने बैठ गई। मुस्कुराती हुई … आमंत्रित करती हुई?
“पहचाना?” उसने पूछा।
“हाँ, भैया के साथ कितनी बार तो पतंग उड़ाई आपने …. मैं ही चरखी पकड़ती थी।”
लड़की की स्मृतियों में बसे रह जाना उसे अच्छा लगा। बहुत चाहकर भी नाम नहीं याद कर पाया। बस कुछ धुंधली तसवीरें समक्ष आ खड़ी हुईं।
“ट्यूबवेल में साथ नहाए भी तो है।” उसने सबसे उज्ज्वल तसवीर हवा में उछाली। शायद उसकी तरह लड़की ने भी ट्यूबवेल में साथ नहाने की कल्पना की। लज्जा से सींझी एक मुस्कान उसके चेहरे पर क्षण भर को चमकी और वीरे के करीब आते पदचाप सुन वह भीतर चली गई।
रात वह कमलों से भरे ट्यूबवेल में डूबा हुआ था जब माँ ने उसे झिंझोड़ कर उठाया।
“बाबा की तबियत ठीक नहीं। अस्पताल लेकर चल।”
ओझा पहले ही आ चुका था। दोनों ने मिलकर बाबा को कार में पीछे सीट पर लिटाया। माँ उनका सिर अपनी गोदी में लेकर बैठी। पेटदर्द और वमन के कारण बाबा बार-बार उठ बैठते। पूरी रात अस्पताल में बीता कर वह अगली सुबह घर लौटे। माँ ने कहा झाड़ा लगा दे बाबा को।
उसने अचंभे से माँ को देखा ज्यों पूछ रहा हो ये ही करना था तो अस्पताल में रात काली करने क्यों गए थे। ओझा ने झाड़ा लगाते हुए कहा- “सबकी विपदा अपने सिर ले लेते है महाराज। कोई बड़ा प्रेत ज़िद पर अड़ा है।”
दोपहर में पूर्ववत बाबा गद्दी पर बैठे। चेहरा उतरा है पर आवाज़ में वही जोश। बीच बीच मे दर्द की एक लहर ज़रूर चेहरे पर उभर आती।
” बड़े भइया बिल्कुल संत इंसान हैं महाराज। न शादी की न कभी कोई और व्यसन। बाल ब्रह्मचारी। गुरु भाइयों के अतिरिक्त किसी से कोई बात नहीं करते। एक किराने की पुश्तैनी दुकान है बस उसी पर बैठते हैं। जाने कैसे लोगों ने बातों में फँसाया। लोगों से उधार ले लेकर एमसीएक्स में लाखों लगा कर हार गए। अब लेनदार तकाज़ा कर रहे हैं।”
“दुकान बेचकर उधार चुका दो। बाबा के पास समाधान तैयार रखा है।”
सामने बैठा व्यक्ति सकपका गया।
“पुरखों की दुकान है महाराज।”
“जो आया ही उधार चुकाने है वो सब लुटा कर भी चुकाएगा।” बाबा मसनद से उठ, कमर और स्वर दोनों को खींचते हुए बोले।
” बेच दे तो भैया बैठेंगे कहाँ?”
“बैठकर कमा तो नहीं रहे। गंवा ही रहे है। पुरखों की सम्पति में से अपना हिस्सा देकर जाएँगे।”
व्यक्ति अब कुछ आश्वस्त दिखा।
“आप सही कहते हैं महाराज। बिल्कुल साधु हैं। माँ- बाऊजी उनके नाम करके गए यह दुकान … उनका ही हिस्सा है।”
बाबा हल्की कराह के साथ मसनद पर वापस टिकते फुसफुसाए- “जब लोगों के दुःख कम नहीं कर पाओ, उन्हें दुःख स्वीकारने का एक ज़ायज़ कारण दे दो।”
भीड़ की मानसिकता पढ़ने की बाबा की क्षमता उसे अचंभित कर देती है। उसे वह अमीर लड़का भी याद आया जिसका इलाज देश के बड़े डाक्टर कर रहें है। क्या कहते हैं उन्हें … मनोचिकित्सक! उसकी माँ आती है बाबा के पास। बाबा उसकी माँ के मनोचिकित्सक ही तो हैं।
कुछ डॉक्टर आला लगाकर इलाज़ करते हैं कुछ झाड़ा लगाकर। समाज में रुआब का अंतर है बस। उसे वह तांत्रिक याद आया जिसके आश्रम के पीछे बच्चों के कंकाल मिले थे। ऐसे तांत्रिकों के कारण लोग दूर रहना चाहते हैं। कुछ डॉक्टर भी तो किडनी बेचने का काम करते हैं। उसने स्वयं को तर्क दिया और अपना ओहदा सम कर लिया।
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एक हफ्ते बाद बाबा को लेकर फिर अस्पताल जाना पड़ा था। “ऑपरेशन को मना मत करना। ज़ल्दी करा लो।” माँ के आँसू नहीं रुक रहे। उसे लगा माँ- बाबा के मध्य वह नितांत अजनबी है। दो दिन भर्ती रहकर, दिल्ली जाना पड़ा। ओझा साथ जाना चाहता था पर बाबा ने मना कर दिया। वह बाबा को लेकर उनके एक भक्त के घर रुका। भक्त के कारण बड़े अस्पताल के अनजान गलियारों में भटकना नहीं पड़ा। उसका अर्दली उनके साथ रहा और हर जगह प्राथमिकता से आदर सहित बाबा का परीक्षण किया गया। अस्पताल की दुनिया उसे बाबा के मंदिर जैसी ही लगी। यहाँ भी अस्पताल परिसर में दाख़िल होते ही एक बड़ा मन्दिर बना है। अंदर भक्त अपने- अपने पलंग पर लेटे अपने नम्बर की प्रतीक्षा करते हैं। एक बड़ा डॉक्टर आता है उसके साथ ओझा जैसे कुछ छोटे डॉक्टर। डॉक्टर तकलीफ़ सुनता है, उपाय बताता है। यहाँ चढ़ावा श्रद्धानुसार चढ़ाने की सुविधा नहीं है। कुछ के बैल बिक गए, कुछ की ज़मीन बिक गईं लेकिन स्वस्थ होने की कोई गारंटी नहीं।
बीमारी का ठीक होना न होना यहाँ भी ऊपर वाले के हाथ!अधिक न समझने पर भी इतना वह समझ गया है कि यहाँ लेटे हर मरीज़ को कैंसर हुआ है। सत्ताईस नम्बर वाले मरीज़ का बेटा चिल्ला रहा है, “सब मिले हुए हैं। जाँचों पर कमीशन, दवाइयों पर कमीशन, हमारे खेत बिकवा कर डॉक्टर विदेशों के खेतों में घूमते हैं।” दो वार्डबॉय उसे उठा कर बाहर ले जा रहे हैं। उसकी माँ डॉक्टर के हाथ जोड़ रही है, “छुट्टी मत कीजिए साहब! ये बावला है। आप इलाज़ कीजिए।”
बाबा का ऑपरेशन हो गया। गॉलब्लैडर निकाल दिया गया। गॉलब्लैडर का ज़ार जाँच के लिए देने जाते हुए एक नर्स से अनजाने टकरा जाने पर उसे अहसास हुआ कि इस हफ़्ते में एक बार भी उसकी नज़र किसी नर्स या अन्य लड़की पर नहीं ठहरी है। वह बाबा की बीमारी और सेवा में उलझा रहा। दोनों के मध्य ये आत्मीयता कब स्थापित हो गई? रिपोर्ट हफ़्ते- दस दिन बाद आनी थी। वे लोग खंडवा लौट आए।
३
बाबा बिना नागा गद्दी पर बैठते। आजकल उसे पंचांग पढ़ना सिखाते। शमशान काली, काम कला काली, गुह्य काली, अष्ट काली, दक्षिण काली, सिद्ध काली, भद्र काली रूपों की यथोचित पूजा भी। गलत पूजा का माँ कड़ा दण्ड देती है। वह आगाह करते।जब समय मिले तो कलकत्ता में कालीघाट शक्तिपीठ ज़रूर जाना और गुजरात में पावागढ़ की पहाड़ी पर स्थित महाकाली का जाग्रत मंदिर भी।
वह उकता जाता पर बाबा की गिरती सेहत के आगे बोल न पाता। कभी लगता उसे पराजित करने के लिए ही बाबा ने किसी सिद्धि से ये रोग स्वयं लगा लिया है। रोग की बात गुप्त रखी गई थी। कितने ही कैंसर के मरीज़ बाबा की भभूत से सही हुए थे। बाबा स्वयं क्यों नहीं खा लेते?
पंचांग पढ़ना आसान न था। गणित था यह भी। लोग एक ही पँडित को नहीं दिखाते। यह भाग्य के सताए संशयग्रस्त लोग हैं। चार जगह पत्री पढवाते हैं। मंगली, कालसर्पयोग, शनि की दशा जैसी बातें याद भी रखते हैं। गणना गलत हुई तो विश्वास खो दोगे।
न जनता मूर्ख है न बाबा ढोंगी। सब नियति और परिस्थितियों के मारे हैं। रोज़ी-रोटी और सुख की तलाश में हाथ पैर मारते लोग। बदहवास लोगों की एक बड़ी भीड़ हर ओर से दौड़ी आ रही है। सबके हाथों में बेढब कटोरे। वह रोटी नहीं सुख माँग रहे हैं। लंबी दाढ़ी वाला एक मौलवी आता है। वह कह रहा है कि बरगद के नीचे बनी मज़ार पर बँट रहा है सुख। भीड़ एक दूसरे को कुचलती उधर दौड़ जाती है। भगवा वस्त्रों वाला एक व्यक्ति जयकारा लगाता है। भीड़ उसकी चरणरज लेने दौड़ पड़ती है। भगवा वस्त्रों वाला एक लोहे के जाले में बदल जाता है। लोग ताला लगा कर चाबी तालाब में फेंक रहे हैं। वह चाहकर भी अपने दिमाग पर लगा ताला नहीं खोल पाएँगे। उसने ताला लगाकर, चाभी चुपके से जीन्स की जेब में रख ली। तभी किसी ने कहा गाँव बाहर के कुँए में सिक्के डालने से मन्नत पूरी हो रही है। प्यासे कौए की तरह लोगों ने कुँए को सिक्कों से पाट दिया। सारा पानी बाहर निकल, गाँव में भर गया। लोग डूबने लगे। वह पानी पी कर लोगों की जान बचाना चाहता है। वह स्ट्रॉ तलाशने लगा।
बाबा का स्वास्थ्य निरन्तर गिर रहा है। दिल्ली से फोन आया। रिपोर्ट आ गई है। लिखा है ‘पॉजिटिव मारजिन्स’ दिल्ली वाले भक्त के सम्मुख अपनी लघुता पर वह खीज जाता है। अनभिज्ञता पर लज्जित होते अर्थ पूछना पड़ा।
‘पॉज़िटिव मार्जिन्स ‘ मतलब जहाँ से कैंसर वाला अंग निकाल दिया गया, वहाँ के किनारों पर अभी भी कैंसर की सेल हैं। जो कभी भी बढ़ सकती हैं।”
स्पष्ट था कि पॉज़िटिव मार्जिन्स का होना नेगेटिव खबर है मरीज़ के जीवन के लिए, उसने मन में सोचा।
माँ को आधा- अधूरा बताया। वह पल्लू मुँह में दबा सिसकने लगी। बाबा को पूरा सच बताया। वह एक विद्रूप मुस्कान के साथ हिकारत से बोले- ” शरीर हो या समाज, साला, कितना ही बड़ा हिस्सा काट दो… किनारे संक्रमित छूट ही जाते हैं।”
सुबह चार बजे उठकर पूजा अर्चना के पश्चात बाबा को चरनणामृत देते अचानक उसे अहसास हुआ कि जो कृशकाय तन सामने लेटा हुआ है वह बाबा नहीं हैं। बाबा तो अब वह स्वयं बन चुका है। बाबा के शरीर पर कैंसर ने कब्ज़ा किया और बाबा ने उसके शरीर पर। घाटा सब उसके ही हिस्से आया है।
” इन सब में न मेरी श्रद्धा है न आस्था।” पंचांग दूर सरकाते उसने कहा था।
“ज़रूरी है क्या कि हलवाई अपनी मिठाई खुद भी खाए। जिनकी आस्था है उनके लिए सीख लो बस।”
” आस्था का खुला व्यवसाय!” वह बड़बड़ाया था। कह बैठा था, “नियति के सताए लोगों के दुःखों का दोहन करते मन नहीं काँपता आपका?” माँ का ऊपर उठा हाथ बस काँप कर रह गया था। बाबा मौन बैठे रहे थे।
वह निरुद्देश्य शहर और विगत की गलियों में भटकता रहा। जिन लड़कियों ने उसे तन सौंपे उनके प्रति भले ही वह ईमानदार न रहा हो पर जिन्होंने अपने दुःख सौंपे, उनसे अटूट रिश्ता बँध गया। फिरोज़ाबाद में चूड़ी वाले की लड़की ने भरी आँखों से रात दो बजे स्टेशन छोड़ आने की विनती की थी। अगले दिन उसकी शादी थी। लड़की किसी अन्य के प्रेम में। सुबह लौटा तो शक के दायरे में वही था। मार खाई, एक दिन थाने में भी बिताया लेकिन मुँह नहीं खोला। लड़की के कोमल दुःख को अपने सीने में दबाए उसकी रक्षा करता रहा। कमरा खाली करना पड़ा था पर दूसरी नौकरी मिल जाने से शहर बच गया था। दो महीने बाद मुरझाई हुई लड़की सब्जी मंडी में मिल गई थी। वह पहचान नहीं सका था पर लड़की ने उसे देख उदास मुस्कान के साथ पूछा था, “कैसे हो?” लड़की के गालों के गड्ढे इतने गहरा गए थे कि उसमें संसार की हर सीता पनाह पा सकती थी। धरती माँ को कष्ट देने की ज़रूरत न थी।
“एक महीने बाद उकता कर छोड़ गया था।” लड़की ने उसकी आँखों में उतरा प्रश्न पढ़ लिया था। उत्तर देते स्वर समतल!
“परिवार के बताए लड़के से ब्याह किया होता तो बेहतर रहता”, पता नहीं उसने लड़की से कहा या उसके गलत निर्णय में सहयोगी बनने के लिए स्वयं को दोष दिया।
” नायिकप्रधान हर कहानी का अंत दुःखद है। बस रास्ते के मोड़ अलग।” वह सब्जी वाली को पैसे देते हुए बोली थी, ” नर्क खुद चुना तो अब माँ-बाबा का घर स्वर्ग लग रहा है। जो उनका चुना नर्क स्वीकारा होता तो वे भी दोषी लगते। तब कहाँ जाती बोलो?”
सवाल पीछे छोड़, उस मृत देह को सशरीर अपने स्वर्ग की ओर जाता देखता रहा था। दुःखों की छाया में उपजा सुख आत्मा छील देता है।
यह महीने भर पहले की बात है। इस महीने भर में वह ज़िरह को छोड़ चुका था। अचंभित अवश्य होता है। जीवनयापन का प्रेत उसपर काबिज़ हो चुका था। वह इंसान से एक यंत्र में परिवर्तित हो गया था। भक्त आता कहता कि पत्नी वश में नहीं।दिमाग में निर्देश जारी होता, पत्नी को वश में करने के लिए एक दबाए। वह एक नम्बर पर लिखा यंत्र और मंत्र भक्त के सुपुर्द कर देता। भक्त कहता, व्यापार में घाटा… वह चार नम्बर का पुर्ज़ा आगे बढ़ा देता।
४
बाबा ओझा और माँ के चेहरे देखकर लग रहा है ज्यों कोई ज़िंदा भूत देख लिया हो। उसे सामने देख माँ बिलख बिलख कर रोने लगी और भीतर चली गई।
“क्यों कर रहे हैं आप यह सब?” वह क्रोध से चीख उठा था, “पागल … पागलपन है यह…. अपराध है… अपराध है। हम सब को जेल हो जाएगी।”
” चीखो नहीं। शांत हो जाओ। जानते हो न फल को जन्म देने के लिए फूल को मरना पड़ता है। समय बहुत कम है मेरे पास। लक्ष्य बहुत बड़ा। बहुत कुछ विचार करना है… व्यवस्था करनी है।” बाबा का स्वर समतल था।
यह सत्य था कि बाबा की गर्दन पर काल की अँगुलियों सुस्पष्ट दिख रही थीं। किसी भी क्षण मृत्युदेव हल्का झटका देंगे और प्राण उलट देंगे। बाबा कुशल व्यवसायी हैं। देवों के सब गुरों से परिचित। वह बिना विभीषण के भी उन पर विजय पाना जानते हैं। यमराज उनसे प्राण छीने उससे पहले ही उन्होंने अपने प्राणों को यमराज से छीन लेने की योजना बना ली है। बिना किसी इश्तिहार और होर्डिंग के दूर- दूर तक यह खबर फैल गई है कि उजले पक्ष की अष्टमी को पँडित दिवाकर चन्द्र शर्मा समाधि लेंगे।
बाबा एकांतवास में हैं। भक्तों को बताया गया है कि वह निराहार, निर्जल रहकर काली की साधना में लीन हैं। गद्दी उसके ज़िम्मे है।
“नौकरी नहीं लगती। इन्टरव्यू दे देकर थक गया हूँ। दोस्त रिश्तेदार सब ताने देते हैं। गर्लफ़्रेंड ने साथ छोड़ दिया। पापा कहते हैं कि कुछ और नहीं कर सकता तो चाय का ठेला लगा ले। हो सकता है तू भी प्रधानमंत्री बन जाए।” युवक के चेहरे पर आक्रोश पनपने लगा। ठहरा फिर संयत हो आगे बोला, “उनके जमाने में हाई स्कूल पास को भी मिल जाती थी नौकरी। अब इंजीनियरिंग करके भी मारे- मारे घूमना पड़ता है।”
“पापा क्या करते हैं?”
“सरकारी नौकरी में हैं युवक अपनी जन्मपत्री आगे बढ़ाते हुए बोला।”
उसने चोर नज़र से हमउम्र युवक को देखा। युवक के हाथों की अधिकतर अँगुलियों में कोई न कोई नग की अँगूठी थी। उसने कागज़ों पर आड़ी- तिरछी रेखाएं खींचने के बाद कुछ पुड़िया बाँधी।
“ये ताबीज़ पापा के बिस्तर के नीचे रख देना और यह भस्म उनकी चाय में।”
युवक असमंजस में उसे देख रहा था।
“पापा की चाय में?”
उसने हाँ में सिर हिलाया। युवक ने जीन्स में हाथ डाल एक मुड़ा तुड़ा सौ का नोट निकाल उसके पैरों की ओर बढ़ाया।
“अभी रहने दे नौकरी लगने पर देना।” उसने बीच में ही रोक दिया।
युवक हाथ जोड़ता हुआ चला गया।
“दुश्मन को रास्ते से हटाने का मंत्र बाहरवें नम्बर का ही है न!” उसने ओझा से पूछा।
ओझा के ‘हाँ’ कहने पर युवक के पिता की निर्जीव देह उसकी आँखों के समक्ष घूम गई । ज़रूरी नहीं हर फीनिक्स अपनी ही राख से जन्म ले। कभी-कभी पिता की राख में नहाकर बच्चे नई उड़ान पा सकते हैं!
५
शोकपर्व के लिए दूर दूर से भक्तों का तांता लग गया था। बड़े हॉल में रामायण का पाठ हो रहा था। कुछ भक्त महामृत्यंजय का जाप कर रहे थे। कुछ दुर्गा सप्तशती बाँचते थे। जगह जगह भंडारे चल रहे थे। आजकल बाबा कुछ समय निकाल, भक्तों से दस मिनट की एक संक्षिप्त मुलाकात अवश्य करते। कई भावुक हृदय विकल स्वर में उनसे निर्णय स्थगित करने या पुनर्विचार के लिए अनुनय करते। कुछ उनके इस निर्णय के गौरव का अनुमोदन। बाबा की सौम्य मुस्कान में आजकल एक ओज घुल गया है। जो व्यक्ति इच्छामृत्यु चुन ले, उसका चेहरा निर्भीकता के आलोक से प्रकाशित हो जाता है।
“एक बार फिर सोच लो बाबा। करिश्मे सच में होते हैं। हो सकता है कल कोई दवाई आपकी बीमारी खत्म कर दे।अपने जीवन से खेल मत करो बाबा!” वह जीवन में पहली बार रो पड़ा था।
“जाना तो तय है। कीमत वसूल कर क्यों न जाया जाए।” उन्होंने मुस्कराने की चेष्टा की।
” यह कैसा दर्दनाक अंत होगा इसका अंदाज़ा है आपको?” वह कल्पना मात्र से काँप उठा था।
” तुम्हें इस जीवन के कष्टों का अंदाज़ा है?” बाबा गहरी साँस छोड़ते बोले। मुस्कान छिटक कर दूर जा खड़ी हुई। वह उनके पैरों पर सिर रख रोता रहा।
“मैं कुछ अनोखा नहीं कर रहा। हर बाप अपनी कमाई अपने बच्चों को ही सौंप कर जाता है।” बाबा उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले,
” बेटा, यह जगह कभी मत छोड़ना। विज्ञान कितना भी तरक्की कर ले। जगत श्रद्धा पर टिका है। सरकार भी उसी वैज्ञानिक पर पैसा लगाती है जिसके ज्ञान पर उसे श्रद्धा होती है। सब सुनियोजित तरीके से हो गया तो इस स्थान के साथ श्रद्धा का ऐसा हीरा जड़ जाएगा जिसकी जगमगाहट में तुम्हारे छोटे मोटे अपराध भी अनदेखे रह जाएँगे पर कोशिश करना जीवन में सत बना रहे। विश्वास कमाने से अधिक कठिन है उसे बनाए रखना।
लोगों के विश्वास का उतना ही दोहन करना जितना तुम्हारे पोषण के लिए आवश्यक हो। उतना ही उपाय उन्हें देना जितनी उनकी सामर्थ्य हो। कभी पेड़ पर लिपटी बेल को देखा है। वह उसी गति से बढ़ती है जिस गति से पेड़! जब कभी पेड़ से ज़्यादा विकसित हो जाती है, पेड़ उसका भार नहीं संभाल पाता। पेड़ के साथ ही बेल भी ढह जाती है।” बाबा जानते थे समय कम है। देने को ज्ञान अधिक। कमज़ोरी के बावजूद भी बोल रहे थे।
प्रशासन इस समाधि के विरुद्ध था या विरुद्ध दिखने को मजबूर था। कुछ अधिकारी बाबा के भक्त थे बाकी सरकारी आदेशों से अधिक कौतूहल के वश में। कोई प्रमाण नहीं था, न कोई अभियोग। बाबा की गिरफ्तारी करने के लिए कोई धारा उपयुक्त न थी पर दो पुलिस वाले चौबीस घँटे तैनात कर दिए गए। एक डॉक्टर आकर, सुबह- शाम बाबा को आला लगाकर देख जाता।
नियत दिन सड़क पर दूर तक मेला लग गया था। मृत्यु के उत्सव में शामिल होने के पुण्य से कोई वंचित न रहना चाहता था। भक्ति और ज्ञान की , आस्था और विश्वास की, उल्लास और कौतूहल की सहस्त्रों धारा बह रही थीं।
“जन्म – मरण से मुक्ति की इस क्रिया को जैनियों में कैवल्य कहा गया है।”
” बुद्ध ने भी निर्वाण को अनिवार्य बताया है।”
” यह संत सिंगाजी की तपःस्थली में ही सम्भव है।”
पुलिस के कई अधिकारी स्वयंसेवकों के संग भीड़ को नियंत्रण में कर रहे हैं।
ओझा मन्दिर में बैठा था। माँ की घुटी- घुटी सिसकियाँ भीतर कमरे में तैर रही थीं। वह एकटक बाबा के निर्विकार चेहरे को देख रहा था।
“अब बंद भी कर। आज नहीं भी हुई तो चार दिन पीछे एक आम विधवा हो जाएगी। रोकर अपशकुन फैला रही है ये औरत।”
बहुत दिन बाद बाबा अपने इस रूप में लौटे थे पर स्वर में उग्रता नहीं दयनीय घुला था। वह उठकर भीतर गए और माँ को सीने से लगा, आँखें बंद कर मौन खड़े रहे।
कुछ समय बाद मॉं का माथा चूमते हुए धीरे से बोले, “फिर मिलेंगे!”
यज्ञ की आखिरी आहुति के लिए बाबा भी बैठे। उनके एक और ओझा और दूसरी ओर वह बैठा।
आहुति देते भक्तों का स्वर ऊँचा होता जाता था। धुआँ उसकी आँखों में भर रहा था। हवन की अग्नि के ताप से चेहरा लाल हो गया था। यही हाल सबका था लेकिन असहज केवल वही था शायद। यहाँ से बाबा को माँ तुलजा भवानी मन्दिर दर्शन के लिए जाना था ततपश्चात एक बड़ा गड्ढा समाधि हेतु घर के पिछले भाग में खोदा गया था। वह पिछले दिनों उसी उधेड़बुन में रहा था कि एक चोर रास्ता वहाँ से बाबा को सकुशल निकालने के लिए तैयार कर लिया जाए। उसने रोक क्यों नहीं दिया बाबा को? अनिच्छा से ही सही पर वह शामिल रहा इस सबमें। क्या वह स्वार्थी हो, इस नीचता पर उतर आया कि बाबा की चित्ता पर अपनी रोटियाँ सेकने को राज़ी हो गया? अचानक अपने ऊपर पड़े बाबा के बोझ से उसकी सोच टूटी। आहुति देता बाबा का हाथ लटक गया था। ठीक इसी पल उसकी नज़र ओझा से मिली। ओझा के माथे पर पसीना चू गया। ओझा ने हाथ थाम लिया था। उसने सहारा देकर बाबा को सीधा कर दिया। आखिरी आहुति ओझा के क्रंदन में डूब गई। ओझा भाव-विभोर होकर बता रहा है कि कैसे अंतिम आहुति के साथ महाराज के शरीर से एक दिव्य ऊर्जा निकल कर हवन- कुंड में प्रवेश कर गई। कई भक्तों ने इसका अनुमोदन किया। इस दिव्य घटना का साक्षी बनने हेतु ही तो यह मेला लगा है। नकारने में भला क्या आनंद है? वह बाबा की खुली आँखों और अभी तक होंठों पर पसरी मुस्कान को देख रहा है। वह चाहता है कि सब उसे अकेला छोड़ देवे और वह माँ की गोद में सिर रखकर जी भर रो ले।
भक्तों की भीड़ बढ़ती जाती थी। बाबा के पार्थिव शरीर को भू- समाधि दी गई। जितने भक्त बढ़े उतने ही विरोधी भी। उनका कहना था जब चिकित्सक हृदयगति रुकने से स्वाभाविक मृत्यु बता रहे हैं तो इसे अलौकिक रूप क्यों दिया जा रहा है। यह भी कि गद्दी का उत्तराधिकारी पुत्र को क्यों बनाया गया। परमशिष्य ओझा को क्यों नहीं। वह जितना विरोध करते। समाधि के चारों ओर बड़े भूखण्ड में आश्रम बनाने का काम उतना ही तेज़ी से होने लगता। कुछ भक्तों को विश्वास था कि बाबा ज़ल्द ही समाधि से बाहर आएँगे। इस उत्सवमयी माहौल में उसे शोक का अवसर तक न मिलता था। ओझा से सलाह कर, वह माँ के साथ कुछ दिन के लिए कहीं दूर जाना चाहता था। जहाँ वह खुलकर बाबा पर तंज़ कर सके। दिव्यात्मा को आम पुरुष साबित कर सके और माँ उसी क्रोध के साथ उसे पीट सके।
दुःखों का अंत नहीं। अप्रिय समाचारों में उस तक पहुँचने की होड़ लगी है। लौटने पर पता चला कि उनके ऋषिकेश के लिए निकलने के अगले दिन ही वीरे की खेत पर करंट लगने से मौत हो गई। मृत्यु उसके आस-पास मंडरा रही है। पहले निहत्था कर देगी फिर धर दबोचेगी। वह मदद के लिए किसी को पुकार भी नहीं पाएगा। वीरे के घर गया। घर मुर्दानगी में डूबा था। वीरे की माँ उसे देख चीत्कार कर उठी- “तू क्यों चला गया था रे! तू होता तो बचा लेता। तुझे बहुत मानता था।”
मैं होता तो उसका और आपका दोनों का विश्वास टूट जाता। उच्छ्वास छोड़ते सोचा,काश उसे बचाने का हुनर आता। तब वह अपने आस- पास कुछ न उजड़ने देता।
वीरे की बहन सोनू , माँ को चुप कराने के प्रयास में खुद भी रोकर बेहाल है। उसे महसूस हुआ कि वह कितना असहाय कितना सामान्य व्यक्ति है।
” एक भाई खोया है पर एक अभी ज़िंदा है। एक आवाज़ पर हाज़िर हो जाएगा।” सोनू के सिर पर हाथ रख कहा और निकल आया। दोनों स्त्रियों के रुदन का स्वर दूर तक उसके पीछे आता रहा।
६
चाँद पर बैठी बुढ़िया रात भर चरखे पर सूत काटती रही। सूत की उलझी लच्छियाँ उस पर गिरती रहीं। बोझ तले उसे साँस घुटती महसूस हुई। वह चिल्लाना चाहता था पर मुँह में भी सूत भर गया। अचानक बाबा और वीरे आ गए। उनके हाथ कैंची जैसे बन गए थे। वह तेज़ी से लच्छियाँ काटने लगे। बाबा उसके पैताने थे जब वीरे के हाथ उसकी गर्दन की ओर बढ़े। वह घबरा कर उठ बैठा। पसीने में भीगा था। समय देखा पाँच बजने में कुछ ही मिनिट शेष थे। उठ कर बाहर निकल आया। वह वीरे के खेतों की ओर निकल गया। मचान पर जाकर लेटा रहा। वीरे की कितनी ही स्मृतियों की जमा- पूंजी यहाँ दबी थी। कितनी ही देर उसके आँसू उमड़ते रहे। कौन से दुःख पर कितनी देर रोया कहना सम्भव न था किंतु आज सभी असफलताओं ने उसे आ दबोचा था। वह दसवीं में फेल होने पर भी रोया और पहले प्रेम की असफलता पर भी। बिना गलती के दोषी करार किए जाने पर भी रोया और अपने द्वारा की गलतियों पर भी। माँ से मार खाने पर भी और माँ को मार खाता देख उसका रक्षक न बनने पर भी। बाबा को मौत के मुँह में धकेलने पर भी और वीरे को उस जानलेवा तार से खींच अलग न कर पाने पर भी।
सूरज जब ठीक सिर पर चढ़ आया तब उसे लौटने की सुध हुई। चौराहे पर लगी भीड़ देख ठिठक गया। वीरे की माँ और सोनू सफेद साड़ी पहने बीच में बैठी थीं। चारों और कुछ अन्य लोग नारे लगा रहे थे। वे लोग सरकार से मुआवज़ा माँग रहे थे। सर्वस्व होते अपने दोहन से दुःखी दुःख, वीरे की तसवीर पर, मुरझाए फूलों की माला के रूप में टँगा हुआ था। उसने नज़र झुका लीं और थके हुए भारी क़दमों से प्रतिदिन की भाँति अपनी गद्दी सँभालने बढ़ चला।
निधि अग्रवाल
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अच्छी कहानी के लिए निधि जी हार्दिक बधाई।