मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा

 

 

मीमांसा शब्द का शादिक अर्थ है किसी बात या विषय का ऐसा विवेचन जिसके द्वारा कोई निर्णय निकाला जाता होl अगर छः प्रसिद्ध भारतीय दर्शनों की बात करें तो उनमें से एक दर्शन मूलतः पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा नामक दो भागों में विभक्त था। लेकिन लेखक अनूपलाल मण्डल का उपन्यास “मीमांसा” अपने शाब्दिक अर्थ और दर्शन दोनों को साधता हुआ आगे बढ़ता है l और इस बात को प्रतिपादित करता है कि सहज जीवन की मीमांसा ही जीवन दर्शन को समझने के सूत्र दे देती है l पुस्तक की भूमिका में लेखक लिखते हैं कि, “मनुष्य सृष्टा का अंशमात्र अवश्य है जबकि आत्मा परमात्मा के एक लघु रूप से भिन्न और कुछ नहीं और इस नाते वह सृष्टा के अधिकार भार  को अपने संयम की सीमा से आबद्ध हो, रखने की चेष्टा करता है l वही चेष्टा आप यहाँ देखेंगेl

 

जब पाठक किताब पढ़ता है तो यह चेष्टा है उसके सामने रेशा-रेशा खुलने लगती है l यह चेष्टा है मानव हृदय की दुर्बलताओं को स्वीकार करने, समझने और उसके ऊपर विजय पाने के प्रयासों की l समस्त दर्शन इसी में निहित है l अन्वेषण- अनुसंधान और दुर्गम पर विजय ही समस्त प्राणियों में मानव को सर्वोच्च स्थान प्रदान करती है l जब वो प्रकृति  पर विजय पाता है तो भौतिक जीवन सुखद बनता है, जब वो जीवन और जीवन से संबंधित समस्त नियमों को समझता और सुलझाता है तब वैज्ञानिक प्रगति होती है l और जब वो खुद को समझता है और मन पर विजय पाता है तो आध्यात्मिक प्रगति होती है l ये उपन्यास इसी आध्यात्मिक प्रगति के लिए जीवन की मीमांसा करता है l

 

उपन्यास हाथ में लेने और पढ़ना प्रारंभ करने के कुछ ही समय बाद पाठक को बाँध लेता है l शिल्प के रूप में जहाँ  गुरुवर रवींद्र नाथ टैगोर की “आँख की किरकिरी” की स्मृति हो आती है वहीं शरतचंद्र की लेखनी सा ठहराव और प्रेमचंद जैसे संवेदना पाठक को रोकती है l और एक पाठक के तौर पर 1965 से पहले प्रकाशित इस पुस्तक को अभी तक ना पढ़ पाने का खेद भी उत्पन्न होता है l

 

मीमांसा- आम जीवन से जीवन दर्शन की यात्रा

 

मानवीय संवेदना को को गहरे उकेरती इस कथा की मुख्य पात्र अरुणा के जीवन की गाथा है, जिसे हीनभावना, भय, अपराधबोध और प्रेम के महीन तंतुओं से बुना गया है l नायिका अरुणा जो मात्र 11 वर्ष की आयु में ब्याह कर पति गृह आ गई है l विवाह का अर्थ भी नहीं समझती पर उसकी स्मृतियों में अंकित है माँ के हृदय का भय l वो भय जो उसके प्रेम और सेवा के समर्पण के रूप में खिला था अरुणा के रूप में, पर समाज ने उसे नहीं स्वीकारा और उस के माथे पर एक नाम लिख दिया ‘पतिता” l समाज द्वारा बहिष्कृत माँ भयभीत तब होती है जब उसे असाध्य रोग घेर लेता है l वो अरुणा को अपनी कथा बताना चाहती है l समाज के विरोध से उस नाजुक कन्या को बचाना चाहती है पर उस समय ‘पतिता’ जैसा भारी शब्द अरुणा की समझ से परे की चीज है l उसके जीवन में कुछ है तो उगते सूर्य की लालिमा, चाँदनी की शीतलता, मीलों फैले खेतों सा विशाल धैर्य l यही अरुणा अपने पास एक छोटा सा इतिहास रखती है, एक छोटा स्मृत-विस्मृत सा इतिहास l लेखक के शब्दों में, “बाबूजी! … दूर पगली ! बाबूजी नहीं -काकाजी….नहीं, बाबूजी ही कह सकती हो! पर तुम्हारे बाबूजी वह नहीं कोई और थेl”

 

अरुणा के इन शब्दों की मीमांसा करना चाहती यही पर उसके सामने काकाजी और बाबूजी का यह सवाल अमीमांसित ही रह जाता है l उसी समय नायक विजय किसी विवाह समारोह में गाँव आता है और अरुणा के रूप, शीलनता, सहजता से पहली ही दृष्टि में उसके प्रति प्रेम में पड़ जाता है l अगले दिन उसे पुनः देखकर भावनाएँ उफान मारती है और वह अरुणा के घर जाकर उसकी माँ से उसका हाथ मांग लेता है l अंधे को क्या चाहिए दो आँखें l माँ भी उसका विवाह कर देती है l पति गृह में आई अरुणा का साथ देती हैं विजय की विधवा दीदी और 4 सालों में अरुणा बालिका से तरुणी बनती है.. उसके हृदय में भी प्रेम की दस्तक होती है l उसे समझ में आता है कि पति विजय उसको दर्पण में क्यों देखता था l  पति के कमरे और सामान पर एकाअधिकार भाव जागता है और प्रेम  अपना प्रारबद्ध पाता है l पति द्वारा उसे अंधेरे में उसकी तस्वीर देखता पाकर लैंप जला कर देखने को कहने पर सहसा निकले अरुणा के शब्द उसकी गहन वैचारिका को दर्शाते हैं…

“जो स्वयं प्रकाशवान हो उसको देखने के लिए लैंप की आवश्यकता नहीं पड़ती”

 

अरुणा के मन में पति के प्रति प्रेम है पर एक पतिता की बेटी होने का अपराधबोध भी l प्रेम का पुष्प तो समानता पर खिलता है l अरुणा के मन में दासत्व भाव है और उसका पति उसका तारण हार l विजय के हृदय प्रदेश में अरुणा किसी ईश्वर की मूरत की तरह विराजमान है पर अरुणा का यह मौन जिसे पढ़ने में विजय असमर्थ है उनके प्रेम में वो सहजता नहीं आने देता जो एक पति-पत्नी के मध्य होनी चाहिए l विजय के तमाम प्रयास उसके मन की ग्रन्थि को खोलने में असमर्थ रहते हैं l अरुण इस बात को समझती है पर अपने दासत्व भाव की सीमा को लांघ नहीं पाती l प्रेम के उसके हिस्से के अधूरेपन की यह बात उसे तब समझ आती है जब दीदी का देवर लल्लन दीदी को अपने विवाह के तय हो जाने पर लेने आता है l एक सहज संवाद में प्रेम की पहली दस्तक का आस्वादन अरुणा के हृदय में होता है l वो कहती है, “वो अनिश्चित तीथि क्या हमारे जीवन में फिर कभी आएगा लल्लन बाबू” और स्वयं ही स्वयं को सहेजती है…

 

“जो मिलने वाला नहीं, जिस पर अपना कोई अख्तियार नहीं,जिसके बारे में सोचना भी गुनाह हो सकता है, उसकी कल्पना में वो विभोर क्यों रहे? क्यों ना मानसपट पर अंकित उस चित्र को धुंधला कर दे-उसे मिटा दे और इतना मिटा दे कि उसका अस्तित्व ही ना रह जाएl”

इधर विजय संघ से जुड़ता है और ग्रामोत्थान  में अपना तन मन धन लगा देता है l विजय जैसे कर्मठ, जुझारू और युवा जमींदार को पा कर संघ को शक्ति मिलती है और वो अपने आध्यात्मिक सामाजिक कामों में और जोर-शोर से लग जाता है l पति परायणा अरुणा घर गृहस्थी और रसोई में सिमटती जाती है l कर्तव्य भर से दबे विजय की अनुपस्थिति में सहज ही लल्लन की स्मृतियाँ आ जुड़ती हैं l कल्पना के आलोक में दोनों की तुलना होती है l यहाँ नारी मन के विवध मनोभावों के दर्शन होते हैं…

 

“कितना सरस कितना सरल उसका व्यवहार था! कितनी हँसी, कितना उल्लास! एक उसका जीवन है एक विजय का! कितना अंतर है दोनों में ! एक कार्य में व्यस्त तो दूसरा गुरुतर कार्यभार को खिलौने सा फेंक डालने में समर्थ! एक ना कुछ होकर भी सब कुछ, एक सब कुछ होकर भी कुछ नहीं!”

 

एकाकी समय के इन्हीं पलों में वो विवाह पर भी प्रश्न चिन्ह लगाती है…

 

“पकड़े बिना भी रह सकता है l वो बेचारा मुझसे पकड़ा गया था और कदाचित मैं भी! प्रेम क्या आबद्ध रहने की चीज है उसके लिए विवाह क्या नितांत आवश्यक है! ओ विवाह कितना बड़ा बंधन है ! हाँ बंधन ही तो है! इससे बाद बंधन और क्या हो सकता है भला! बंधन सोने का हो या लोहे का बंधन ही कहलाएगा !”

 

पर वो कठपुतली बन कर रहना नहीं चाहती नारी बन कर रहना स्वीकार किये जाना चाहती है, नारी जो आदिशक्ति हैं l

 

“आदिशक्ति के उच्चारण मात्र से अरुणा को चेतना मिलती है, जीवन मिलता है, शक्ति मिलती है lउसकी स्मृति से लल्लन उतर जाता है दीदी उतर जाती हैं! पर वह विजय को उतार कर अलग नहीं कर सकती l हाँ वह विजय जो आदि शक्ति को पहचाते हैं l  शक्ति की आराधना करना जानते हैं- और अरुणा खिल पड़ती है l”

 

अपना समय व्यतीत करने के लिए अरुणा किताबों का सहारा लेती है l स्वाध्याय में डूबती हुई निखरती जाती है l जब वह अपने भय  से पीछा छुड़ाना चाहती है तो भय एक पत्र में उसके सामने आता है l  विजय द्वारा उसके लिए भिजवाई गई पुस्तक “जीवन के सत्य” के समर्पण पृष्ठ पर रखा हुआ l विजय के नाम दीदी का पत्र देखकर वो साधिकार खोल कर पढ़ लेती है l पर पत्र में उसके पतिता की बेटी होने की खबर का दीदी की ससुराल में पता चल जाना है l जिस कारण दीदी इस घर में कभी नहीं आ सकेंगी l भय अपने पाश पुनः पसारता है l और उसे लगता है कि विजय अब उस पर कुपित होगा l कल्पना में मानस पटल पर भयाक्रांत करने वाले चित्र साकार हो उठते हैं l अपने अतीत से पीछा छुड़ा अधिकार की ओर बढ़ती अरुणा पुन: मन के भय की देहरी में कैद हो जाती है l जहाँ पति प्रेमी नहीं उद्धारक बन जाता है l वो उस पत्र को अपने बक्से में छिपा लेती है और बार- बार समर्पण के पृष्ठ को पढ़ती है और अनबूझे शब्दों को अपने अर्थों में बूझने लगती है…

 

-“लेखक ने अपने अन्तःपुर की रानी को समर्पित किया है यह कहकर कि वो जो कुछ अनुभव कर सका है उन्हीं अनुभवों के बीच उनकी रानी अपने आप को पा सकेगी… आखिर इन सब बातों के क्या अर्थ हो सकते हैं|”

 

उसी समय गाँव के स्कूल में पढ़ाने बनारस (वाराणसी) से मिस मल्लिका राय आती है l विजय उनके ठहरने की व्यवस्था अपने घर में कर देता है l मल्लिका ने आजन्म बढ़मचारी व्रत लिया है वो संघ में विजय की शक्ति बन कर उभरती है तो घर में अरुणा के साथ उसका बहनापा होता है l अरुणा उसे दीदी कहती है l मल्लिका की पारखी नजर विजय और अरुणा के प्रेम में एक अजनबीपन भांप लेती है l वहीं संघ के कामों से अरुणा को ना जोड़ना उसे खटकता है l उसे विजय का स्त्री शक्तिवाद खोखला लगता है और विजय का उसके प्रति सहज संवाद आकर्षण l वो अरुणा को भी स्कूल में आने को कहती है पर अरुणा घरेलू कामों के प्रति आपण अनुराग को अपनी प्राथमिकता बताती है l वो विजय को भी समझाती है l  जमींदार की पत्नी के परदे के बाहर ना निकलने के कारण अन्य स्त्रियाँ भी बाहर नहीं आ रहीं हैं, जिस कारण शिक्षा अभियान बाधित हो रहा है l पर विजय कहता है कि वो अरुणा पर दवाब नहीं डाल सकता l जिस तरह से उसे अपनी मर्जी का काम करने की स्वतंत्रता है उसे तरह से अरुणा को भी l विजय के हृदय प्रदेश में अरुणा को देवी के रूप में स्थापित जान मल्लिका के मन में स्वभवतः ईर्ष्या जागती है l और…

…तो क्या वो दोनों अभी तक सोये नहीं हैं l कितनी मदिर, कितनी मादक यह खिलखिलाहट ! सौभाग्यवती अरुणा और विजय… दो बजे की मादक रात… नीलाभ प्रकाश… वो भाग्यवान जोड़ा… दाम्पत्य जीवन… कितना मधुर… कितना शाश्वत… कितना सत्य l

 

उसे अरुणा के जीवन से रश्क और अपने आजन्म कौमार्य व्रत से चिढ़ होने लगती है l वो सायास विजय को अपनी ओर खींचने लगती है l सहज प्रेम का पिपासु विजय भी इस पाश को थोड़े प्रतिरोध बाद स्वीकार कर लेता है l मल्लिका गाँव की औरतों से अरुणा का अतीत पता करती है और अरुणा की जग हँसाई कराने के लिए उसे संघ में भाषण देने को तैयार करती है l और कहानी एक प्रेम त्रिकोण का आकार लेती है l जो अंततः पश्चाताप और क्षमा के मूल सिद्धांतों  पर सकारात्मकता के साथ समाप्त होती है l

 

कहानी की दृष्टि से देखें तो इसमें तीन मुख्य पात्र है अरुणा, विजय और मल्लिका l तीनों की अपनी-अपनी दुर्बलताएँ हैं  और उन पर विजय की अपनी-अपनी यात्रा l मुख्य पात्र अरुणा को अपने अतीत का भय है जो उसे प्रेम में सहज नहीं होने देता l उसे राज के उजागर होने और विजय कि नज़रों से गिर जाने का भय है l इसी भय के कारण वो दासत्व भाव के साथ रहती है l हालांकि अरुणा का चरित्र ग्राफ उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है l वो आज के समय में भी चल रहे वर्किंग वुमन वर्सेज हाउस वाइफ के संघर्ष को अपनी अपनी रुचि कह कर विराम ही नहीं  देती बल्कि एक दूसरे के प्रति आदर भाव रखने की वकालत भी करती है l वो एक घरेलू नारी है पर उसका स्वाध्याय पर यकीन है l वो घर के कामों से बचे हुए समय का सदुप्रयोग कर निरंतर पढ़ती है और ज्ञान और विवेक से स्वयं को परिमार्जित करती रहती है l शायद यही वजह है कि वो औचक सभा में भाषण को भी ना केवल सहजता से संभाल लेती है बल्कि अपनी बुद्धि से सबको अचंभित भी कर देती है l

 

लल्लन वाले प्रसंग में विवाह व्यवस्था पर उसके मन में काफी तार्किक संवाद है जो उसकी मेधा को परिभाषित करते हैं l  अंततः वो अपने बहकते मन को काबू में करना भी जानती है l आज का स्त्री विमर्श एक ऐसी स्त्री को सशक्त स्त्री के रूप में खड़ा कर रहा है जिनका मन चंचल है l  चंचलता स्वाभाविक है और मन की सुनने वाली स्त्री सशक्त है l जबकि ये हमारे भारतीय दर्शन के विपरीत है l फिर चाहे स्त्री हो या पुरुष l मन को वश में करके विवेक सम्मत निर्णय को ही हमारे वेद उपनिषद सही जीवन मानते रहे हैं l मेरे विचार से अरुणा एक सशक्त स्त्री है l और हमें सिमोन की स्त्री को भारतीय संदर्भों में समझने की आवश्यकता है l

 

उपन्यास का सबसे खूबसूरत भाग है अरुणा का अपने भय पर विजय पाना l वो सच का सामना करने के लिए तैयार होती है और स्वयं उस पत्र को जिसमें उसकी सच्चाई लिखी है विजय को पकड़ा देती है l इसए मेटाफोरिकल भी ले सकते हैं क्योंकि ये मन की ग्रन्थि को खोलने का साहस है l सत्य और प्रेम भय मुक्त करता है और परिणाम को भुगतने का साहस भी देता है l वहीं वो मल्लिका और अपने पति को क्षमा  करके मानवीय दृष्टि से एक पायदान और ऊपर चढ़ जाती हैl  यहाँ वो दैवीय नहीं बन जाती बल्कि अपने मन को भी खंगालती है l मन की कंदराओं में लल्ल्न के प्रति उसका आकर्षण है जो सिर्फ उसे पता है उसके समक्ष विजय का मल्लिका के प्रति आसक्त हो जाना देखती है और फिर क्षमा करती है l  यहाँ क्षमा द्या की भित्ति पर नहीं न्याय कि भित्ति पर है l

 

विजय एक कर्मठ शालीन युवक है जो अपनी पत्नी से अगाध प्रेम करता है l उसका आचरण  मर्यादित है l वो पत्नी को दासी नहीं सहचरी बनाना चाहता है पर उसे वो सहज प्रेम नहीं मिलता जो वो अपने हृदय के समस्त कोश रिक्त करके देता है l यहीं मल्लिका उसे वो देती है और एक प्यासे के समान वो उस तरफ आकर्षित होता हैl  पर उसका प्रेम अरुणा के प्रति कभी कम नहीं होता उसके अंदर गहरा अपराध बोध है और अंततः वो क्षमा मांग कर अपने उसे मर्यादित पुनीत प्रेम का दामन थाम लेता है l ये अवश्य है कि अरुणा से गहनता से जुड़ा पाठक उसके प्रति क्रोधित होता है l पर वो अरुणा कि सच्चाई जान कर चिट्ठी भी फाड़ देता है क्योंकि एक पुनीत प्रेम के मध्य देह और जन्म से जुड़ी बात कहाँ स्थान पा सकती है l

 

मल्लिका की ग्रन्थि उसका अहंकार है l आजन्म कौमार्य का व्रत लेकर उसने सेवा के लिए जीवन समर्पित तो किया है पर उसे इसी बात का अहंकार है l  कहीं न कहीं उसे लगता है कि वो आम ग्रहणियों से बेहतर है l आजन्म ब्रह्मचर्य उसका वो मेडल है जिससे वो सबकी प्रशंसा पाती है l वो अरुणा कि मदद तो करना चाहती है पर अरुणा का अपनी गृहस्थी के प्रति अनुराग और विजय का अपनी पत्नी के प्रति सम्मान भाव देखकर उसका अहंकार टूटता है l उनका दाम्पत्य सुख उसे अपने जीवन की एकरसता का एहसास दिलाता है l टूटते अहंकार से वो उन चीजों को पाने का प्रयास करती है जो उचित नहीं है l कालांतर में उसका पश्चाताप और फिर से ब्रह्मचर्य अपनाने का प्रयास उसका अहंकार नहीं समर्पण के रूप में आता है l

 

इस तरह से देखा जाए तो लेखक ने मानव मन की दुर्बलातों को समझा है पर वो उन्हें मनोविज्ञान के आधार पर गौरवान्वित नहीं करते बल्कि उन्हें पहचानने और उन पर विजय पाने की दिशा दिखाते है l  यही जीवन दर्शन है और एक साधारण मानव में देवत्व यही से उदित होता है l दूसरी तरफ ये कहानी बार-बार प्रेम में सहचर होने के भाव की वकालत करती है l 1965 की स्त्रियों की दशा देखते हुए लेखक का इस तरह सोचना उन्हें समय से आगे और प्रगतिशील लेखक के रूप में स्त्री पुरुष समानता की मशाल को प्रज्ज्वलित करते दिखाई देते हैं l जिस आधार पर आज के आलोचक प्रेमचंद की “बड़े घर की बेटी” को खारिज करते हैं वहीं ये कहानी समय से आगे चलती है l  भाषा भाव शिल्प के आधार पर पाठकों को बाँध कर रखने वाली ये कहानी एक बार पाठक को अपने मन की दुर्बलाताओं को समझने और उन पर विजय पाने को प्रेरित करती है l सार्थक लेखन इसी को कहते हैं l

वंदना बाजपेयी

 

वंदना

 

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