हिंदी – बोली-बानियों की मिठास का हो समावेश
अभी कुछ दिनों पहले एक फिल्म आई थी, “रॉकी और रानी की प्रेम कहानी” उसका एक गीत जो तुरंत ही लोगों की जुबान पर चढ़ गया वो था “व्हाट झुमका” l इस गीत के साथ ही जो कालजयी गीत याद आया, वो था मेरा साया फिल्म का “झुमका गिरा रे बरेली के बाजार में”l मदन मोहन के संगीत, राजा मेहंदी आली खान के गीत और आशा भोंसले जी की आवाज में ये गीत आज भी लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ हैl इसके साथ ही ट्विटर पर बहस भी छिड़ गई कि इन दोनों में से बेहतर कौन है, और निश्चित तौर पर पुराना गीत विजयी हुआ l उसने ना सिर्फ अपने को इतने समय तक जीवित रखा बल्कि हर नए प्रयोग के बाद वो गीत याद आया l गीत-संगीत के अतिरिक्त इसके एक कारण के तौर पर गीत के फिल्मांकन में हमारी ग्रामीण संस्कृति, लोक से जुड़ाव और स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग l
लौटना है ‘‘व्हाट झुमका’ से झुमका गिरा रे” तक
जब मैं इसी तराजू पर तौलती हूँ तो मुझे लगता है कि हमारी हिंदी भाषा को भी “व्हाट झुमका” से उसी देसी मिठास की ओर लौटने की जरूरत है l यूँ भाषा एक नदी कि तरह होती है और बोलियाँ, बानियाँ उस नदी को जीवंत करता परिस्थिति तंत्र हैं l क्योंकि भाषा सतत प्रवाहशील और जीवंत है तो उसमें विदेशी शब्दों की मिलावट को गलत नहीं कहा जा सकता क्योंकि वो उसकी सार्थकता और प्रासंगिकता को बढ़ावा देते हैं l आज भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी में अंग्रेजी ही नहीं फ्रेंच, कोरियन, स्पैनिश शब्दों का मिलना उसके प्रभाव को बढ़ाने में सहायक होता है l आम बोलचाल की भाषा के आधार पर साहित्य में भी नई वाली हिन्दी का समावेश हुआ और तुरंत ही लोकप्रिय भी हुई l इसने भाषा के साथ- साथ साहित्य की पुरानी शैली, शिल्प और उद्देश्य की परिधि को भी लाँघा l
किसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा की जरूरत है?
नई किताबों पर हिंगलिश की फसल लहलहा रही है l इस हिंगलिश के लोकप्रिय होने की वजह हमें अपने घरों में खँगालनी होगी l हाल ये है कि ना अंग्रेजी ही अच्छी आती है ना हिंदी l शहरी क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसा घर अब बचा हो जहाँ पाँच पंक्तियाँ पूरी-पूरी हिंदी में बोली जाती हों l यही नहीं हमारी डॉटर को सब्जी में गार्लिक बिल्कुल पसंद नहीं है, जैसे हास्यास्पद प्रयोग भी सुनने को खूब मिलते हैं l किसी दीपावली पर मैंने अपनी घरेलू सहायिका के लिए दरवाजा खोलते हुए कहा, “दीपावली की शुभकामनायें” l उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा, “हैप्पी दीपावली भाभी, हैप्पी दीपावली l” गली की सफाई करने वाला “डस्टबिन” बोलता है, सब्जी वाला सेब को एप्पल ही कहता है l
जिसे जितना आत्म विश्वास अपने ऊपर होगा उतना ही आत्म विश्वास अपनी भाषा पर होगा
अक्सर अंग्रेजी के पक्ष में ये तर्क दिया जाता है कि ये अन्तराष्ट्रीय भाषा है और इसे सीखना विकास के लिए जरूरी है l परंतु हमारे सब्जी वाले, गली की सफाई करने वाले, घरेलू सहायिकाओं, आम नौकरी करने वाले मध्यम वर्गीय परिवारों को कौन से अन्तराष्ट्रीय आयोजन में जाना है ? यह मात्र हमारी गलत परिभाषाओं का नतीजा है, जहाँ सुंदर माने गोरा और पढ़-लिखा माने अंग्रेजी आती है माना लिया गया l
अंग्रेजी का यह धड़ाधड़ गलत-सही प्रयोग हमारे अंदर आत्म विश्वास की कमी को दर्शाता है l आज कल के प्रसिद्ध आध्यात्मिक आचार्य, आचार्य प्रशांत कहते हैं कि जब वो नौकरी करने के जमाने में हिन्दी में हस्ताक्षर करते थे, तब कंपनी की ओर से उँ पर बहुत दवाब डाला जाता था कि हस्ताक्षर अंग्रेजी में हों l जबकि अंग्रेजी पर उनकी पकड़ अच्छी थी l यहाँ पर दवाब केवल हीन भावना का प्रतीक था l
भाषा होती है का कला और संस्कृति की वाहक
भाषा केवल भाषा नहीं होती, वो कोई निर्जीव वस्तु नहीं है l वो कला संस्कृति, जीवन शैली की वाहक होती है l जब हम हिन्दी के ऊपर अंग्रेजी चुनते हैं तो हम लस्सी के ऊपर पेप्सी चुनते हैं, समोसे के ऊपर बर्गर चुनते हैं और आध्यात्म को छोड़कर क्लब संस्कृति चुनते हैं l बाजार को इससे फायदा है वो अंग्रेजी के रैपर में ये सब बेच रही है l हर देश, हर संस्कृति एक मूल सोच होती है l हम “थोड़े में संतोष” करने वाली जीवन शैली के बदले में सुख सुविधाओं के बीच अकेलापन खरीद रहे हैं l हम ना सिर्फ स्वयं उस दौड़ में दौड़ रहे हैं बल्कि हमने अपने उन बच्चों को भी इस रेस में दौड़ा दिया है जिनहोने अभी अपने पाँव चलना भी नहीं सीखा है l
लिपि को भी संरक्षण की जरूरत है
बाल साहित्य पर विशेष ध्यान देना होगा l ताकि बच्चे प्रारंभ से ही अपनी भाषा से जुड़े रहें
आज एक बड़ा खतरा हिंदी की देवनागिरी लिपि को भी हो गया है l आज इंटरनेट पर यू ट्यूब पर, व्हाट्स एप पर नई पीढ़ी हिन्दी में बोलती तो दिखाई दे रही है पर लिपि रोमन इस्तेमाल करने लगी है l इससे देवनागिरी लिपि को खतरा हुआ है l हमारा प्रचुर साहित्य, हमारा आध्यात्म, दर्शन जो हमारे भारत की पहचान है, अंग्रेजी में अनुवाद हो कर हमारी अगली पीढ़ियों तक पहुंचेगा l अनुवादक की गलती पीढ़ियों पर भारी पड़ेगी l
कुछ कदम सुधार की ओर
भाषा को बचाना केवल भाषा को बचाना संस्कृति, संस्कार, देश की मूल भावना को बचाना है, उस साहित्यिक संपदा को बचाना है जिसमें हमारी मिट्टी से जुड़ी जीवन गाथाएँ हैं l कोई भी भाषा सीखना बुरा नहीं है l पर जो समर्थ हैं, दो चार भाषाएँ जानते हैं, हिन्दी के प्राचीन वैभव को उत्पन्न कर सकते हैं l इस काम का बीड़ा उन पर कहीं ज्यादा है l उन्हें देखकर आम जन भी अपनी भाषा पर गर्व कर पाएगा l जिन-जिन कामों को करने में अंग्रेजी की जरूरत नहीं है, उनके प्रश्न पत्र हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में होने चाहिए l रोजगार के ज्यादा से ज्यादा अवसर उपलबद्ध कराने होंगे l यू ट्यूब और अब फेसबूक इंस्टाग्राम पर भी ये के साधन उपलबद्ध होने के कारण कितने लोग हिन्दी की ओर लौटे हैं l लेकिन इतने से काम नहीं चलेगा l साहित्य में हमें बोलियों, लोक संस्कृति, और हिन्दी के साथ तत्सम शब्दावली युक्त भाषा को भी लाना होगा l ये काम साहित्य कर सकता है l कुछ साहित्यकारों ने इस दिशा में लौटना शुरू कर दिया है l
हिन्दी के संदर्भ में अक्सर नए और गंभीर प्रयोग करने आगे आए साहित्यकारों को बाजार का भय दिखा दिया जाता है l हम ये सोच कर हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठ सकते कि आगे आने वाले समय में पाठक गरिष्ठ और बोली-बानियों वाली हिन्दी से ही दूर हो जाएगा l ऐसी संभावना तो पर्यावरण के लिए भी है और परमाणु युद्ध की भी पर उसे बचाने और रोकने के प्रयास जारी हैं l यही काम हिन्दी साहित्य को करना होगा l समर्थ कलमों को आगे आना होगा l ये अवश्य है कि पात्र के अनुसार यथोचित प्रयोग हो, जबरदस्ती थोपा हुआ ना लगे l
अवधी भाषा में ‘मानस’ रचकर तुलसीदास जी ये काम कर गए हैं
अंत में यही कहूँगी कि हिंदी का विकास उसे व्यवहार में लाने, उसे रोजगार परक बनाने, उसमें ऊँचे से ऊँचा साहित्य रचने से होगा l जन-जन में अपनी भाषा के प्रति ये सम्मान जगेगा तो हर दिन हिंदी दिवस होगा l
वंदना बाजपेयी
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हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ
बहुत सुंदर। फिल्मों ने हमारी संस्कृति और भाषा को ही जिंदा नहीं रखा बल्कि उसे जन जन तक पहुंचाने का भी काम किया है लेकिन हमारी मुश्किल यह है कि अपने बच्चों द्वारा गलत-सही हिंदी से हम खुश नहीं होते। अंग्रेजी हमें आती नहीं और हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं, बोलियों के लिए समर्पण का आभाव भी है। हिंदी में अंग्रेजी या अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्दों के समावेश में कोई समस्या नहीं है लेकिन लोक भाषाओं के प्रचलित शब्दों की संख्या कम थोड़े न है। बस सही जगह उपयोग करने की जरूरत है जो फिल्मों ने किया है।
बहुत सार्थक आलेख वंदना जी। आपको हार्दिक बधाई।💐💐
सही कहा आपने। खिचड़ी भाषा से भला नहीं होगा। अधकचरे ज्ञान से नुकसान हुआ।