1857 का संग्राम याद आते ही लखनऊ यानी की अवध की बेगम हज़रत महल के योगदान को कौन भूल सकता है l खासकर तब जब आजादी के अमृत महोत्सव मना रहा देश अपने देश पर जाँ निसार करने वाले वीरों को इतिहास के पीले पन्नों से निकाल कर फिर से उसे समकाल और आज की पीढ़ी से जोड़ने का प्रयास कर रहा हो l कितनी वीर गाथाएँ ऐसी रहीं, जिन्होने अपना पूरा जीवन अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए बिता दिया और हम उन्हें कृतघ्न संतानों की तरह भूल गए l बेगम हज़रत महल उन्हीं में से एक प्रमुख नाम है l
किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर लिखना आसान नहीं होता l ज्ञात इतिहास ज्यादातर जीतने वाले के हिसाब से लिखा जाता है जो कई बार सत्य से काफी दूर भी हो सकता है l अतः निष्पक्ष लेखन हेतु लेखक को समय के साथ जमींदोज हुए तथ्यों की बहुत खुदाई करनी पड़ती है, तब जा कर वो कहीं कृति के साथ न्याय कर पाता है l ऐसे में वीणा वत्सल सिंह इतिहास में लगभग भुला दी गई “बेगम हज़रत महल’ को अपनी कलम के माध्यम से उनके हिस्से का गौरव दिलाने का बीड़ा उठाया है l वो बेगम को उनकी आन-बान-शान के साथ ही नहीं उनके बचपन, मुफलिसी के दिन जबरन परी बनाए जाने की करूण कहानी से नवाब वाजिद अली शाह के दिल में और अवध में एक खास स्थान बनाने को किसी दस्तावेज की तरह ले कर आई हैं l ये किताब मासूम मुहम्मदी से महक परी और बेगम हज़रत महल तक सफर की बानगी है l जिसमें बेगम हज़रत महल के जीवन के हर पहलू को समेटा गया है l ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की प्रगतिशील सोच रखने वाली एक जुझारू संघर्षशील स्त्री के सारे गुण मुहम्मदी में नजर आते हैं l
बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा
बेगम हज़रत महल की संघर्ष यात्रा शुरू होती है एक निम्नवर्ग के परिवार में जन्मी बच्ची मुहम्मदी से l कहते है कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात” l जब पाठक मुहम्मदी के बचपन से रूबरू होता है तो लकड़ी की तलवार लेने की जिद और जंगी हुनर सीखने कि खवाइश से ही उसके भविष्य की दिशा दिखने लगती है l एक कहावत है “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”यानि विशिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण के बीज उनके बचपन से ही दिखने लगते हैं l ऐसा ही मुहम्मदी के साथ हुआ l बच्चों के खेल “बोलो रानी कितना पानी” जिसमें रानी को कभी ना कभी डूबना ही होता है का मुहम्मदी द्वारा विरोध “रानी नहीं डूबेगी” दिखा कर खूबसूरती से उपन्यास की शुरुआत की गई है l और पाठक तुरंत मुहम्मदी से जुड़ जाता है l शुरुआत से ही पाठक को मुहम्मदी में कुछ नया सीखने का जज्बा, जंगी हुनर सीखने का जुनून, करुणा, विपरीत परिस्थितियों को जीवन का एक हिस्सा समझ कर स्वीकार तो कर लेना पर उस में हार मान कर सहने की जगह वहीं से नए रास्ते निकाल कर जमीन से उठ खड़े होने की विशेषताएँ दिखाई देती हैं lये उसका अदम्य साहस ही कहा जाएगा कि जीवन उन्हें बार-बार गिराता है पर वो हर बार उठ कर परिस्थितियों की लगाम अपने हाथ में ले लेती हैं l उपन्यास में इन सभी बिंदुओं को बहुत ही महत्वपूर्ण तरीके से उभारा गया है l
निम्न वर्ग के परिवार में तीन भाइयों के बाद आई सबसे छोटी मुहम्मदी यूँ तो पिता की बहुत लाड़ली थी पर गरीबी-मुफलिसी और सबसे बड़े भाई अनवर के हर समय बीमार रहने के कारण उसका बचपन आसान नहीं था l अनवर के इलाज लायक पैसे भी अक्सर घर में नहीं होते l ऐसे में जब भी अनवर को दिखाने हकीम के पास जाना होता उस दिन घर में चूल्हा भी नहीं जलता l ऐसे में उसके मामा सलीम ने जब अपनी बीमार पत्नी की देखभाल के लिए मुहम्मदी को अपने साथ ले जाने को कहा तो माता- पिता को अनुमति देनी ही पड़ी l इसका एक कारण यह भी था कि मुहम्मदी की बढ़ती उम्र और सुंदरता के कारण वो इस कमजोर दरवाजे वाले घर में सुरक्षा नहीं कर पाएंगे l पर खुश मिजाज मुहम्मदी ने माता-पिता के बिछोह को भी स्वीकार कर लिया l अपनी ममेरी बहन नरगिस के साथ उसने ना केवल घर के काम सीखे बल्कि मामूजान से उनका हुनर टोपी बनाना भी सीखा l ताकि आर्थिक संबल भी दे सके l हिफ़ाजत और जंग के लिए तलवार चलाना सीखने की खवाइश रखने वाली मुहम्मदी का दिल बेजूबानों के लिए भी करुणा से भरा था l यहाँ तक की उपन्यास में मुर्गे की लड़ाई के एक दृश्य में मुहम्मदी मुर्गे को बचाती है l और कहती है कि
“मुर्गे का सालन ही खाना है तो सीधे हलाल करके खाइए ना ! ऐसे क्यों इस गरीब को सताये जा रहे हैं ? क्या इसए दर्द नहीं होता होगा?”
मुहम्मदी की ममेरी बहन नरगिस और जावेद की प्रेम कथा उपन्यास की कथा में रूमानियत का अर्क डालती है l
“नरगिस का चेहरा सुर्ख, नजरें झुकी हुई l जबकि जावेद का मुँह थोड़ा सा खुला हुआ और आँखें नरगिस के चेहरे पर टिकी हुई l दोनों के पैरों के इर्द-गिर्द गुलाब और मोगरे के फूल बिखरे हुए और बेचारा टोकरा लुढ़क कर थोड़ी दूर पर औंधा पड़ा हुआ l”
जब भी हम कोई ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ते हैं तो हम उस कथा के साथ -साथ उस काल की अनेकों विशेषताओं से भी रूबरू होते हैं l उपन्यास में नृत्य नाटिका में वाजिद आली शाह का कृष्ण बनना उनके सभी धर्मों के प्रति सम्मान को दर्शाता हैं तो कथारस वहीं प्रेम की मधुर दस्तक का कारण बुनता है l कथा के अनुसार कृष्ण बने नवाब वाजिद अली शाह द्वारा जब मुहम्मदी की बनाई टोपी पहनते हैं तो जैसे कृष्ण उनके वजूद में उतर आते हैं l परंतु उसके बाद हुए सर दर्द में लोग उनके मन में डाल देते हैं कि उन्होंने शायद जूठी टोपी यानि किसी की पहनी हुई टोपी पहनी है, ये दर्द उसकी वजह से है l वाजिद के गुस्सा होते हुए तुरंत सलीम मियां को पकड़ कर लाने का आदेश दिया l और घर में कोई मर्द ना होने के कारण दो मिरसिने अम्मन और इमामन सलीम के घर पहुंचती है तो माज़रा समझते हुए मुहम्मदी स्वीकार करती है कि टोपी मामूजान सलीम ने नहीं उसने बनाई थी l और जब उससे पेशकश की जाती है कि इसके एवज में या तो तुम्हारा पूरा खानदान जेल में सड़ेगा या तुम परीखाने में चलो तो एक बार फिर मुहम्मदी निजी तकलीफ को परिवार की तकलीफ से कमतर मानते हुए परीखाने में जाना स्वीकार करती है ताकि उसके परिवार पर कोई आंच ना आए l
अपने परिवार की खातिर महक परी बन कर वाजिद के परीखाने में प्रवेश और वाजिद के हृदय परिवर्तन के खूबसूरत प्रेम प्रसंग जहाँ पाठक को एक अलग दुनिया में ले जाते हैं l ये प्रसंग एक स्त्री के स्वाभिमान की गाथा भी कहते हैं l जहाँ ताकत स्त्री का शरीर तो जीत सकती है, पर मन नहीं l यथा-
“नवाब साहब औरत के जिस्मों की आपके परीखाने में कोई कमी नहीं है l आप जब चाहें हमारा शरीर भी ले सकते हैं l लेकिन एक सच हमारे और आपके बीच और भी है के हमारे दिल में आपके लिए मुहब्बत नहीं है l साथ ही आप भी हमें केवल एक खूबसूरत जिस्म के तौर पर देख रहे हैं l”
“महक की बेखौफ बातों ने नवाब के मन में भी उसके लिए मुहब्बत और मुहब्बत पाने की चाहत भर दी|”
वो महक परी ही थी जिसने देह कि कन्दराओं में भटकते वाजिद को पहली बार रूहानी प्रेम का एहसास करवाया था l और वाजिद उस पर सीधे अधिकार ना करके उसका दिल जीतने के लिए बेचैन हो उठे l “ज्यों जरदी हरदी तजे.. कौन मालिक कौन गुलाम, प्रेम तो तभी होता है जब दोनों एक तल पर हों l वो कहती है कि –
“नवाब साहब इश्क की राह पर चलने से पहले इंसान को अपना रुतबा भूलना होता है l और यह हम नहीं कह रहे सदियों से ऐसा ही कहा जा रहा है l”
किसी और ही मिट्टी की बनी महक परी का मन ना परीखाने में लगता है ना ही ठुमरी और कत्थक में कुछ ही मुलाकातों के बाद बेखौफ होकर जंगी हुनर सीखने की खवाइश नवाब वाजिद अली शाह से कह देती है l और नवाब भी इसकी इस इच्छा का मान रखते हुए इसका बंदोबस्त भी करवा देते हैं l उपन्यास में जिक्र है कि उसकी वजह से ही नवाब वाजिद ने भी जंगी हुनर सीखने शुरू किये और वो अपनी बचपन की बीमारी पर भी काबू पाने में कुछ हद तक कामयाब रहे l फिर सबा व अन्य कुछ परियाँ भी उसके साथ जंगी हुनर सीखने में शामिल हो गईं l
हालंकी उसके रास्ते आसान नहीं थे l परीखाने की राजनीति का भी उपन्यास में बारीक चित्रण है l सुखनवर परी ने पहले भी वाजिद और उनकी पहली बेगम आलमआरा के प्रेम में बाधा डालने की कोशिश की थी l फिर हज़रत महल और वाजिद अली शाह का पाक प्रेम जब परवान चढ़ता है तो उसके साथ अन्य परियों को अपने हाथ से सत्ता जाती दिखती है l परीखाने की राजनीति सर चढ़ कर बोलती है l सुखनवर परी ही बाद में अंग्रेजों की मुखबिर बनती है l जंगी हुनर सीखती महक परी उर्फ बेगम हज़रत को बार-बार जहर बुझे तानों के वार झेलने पड़ते हैं l एक बार तो हज़रत परेशान हो जाती है और पलायन करना चाहती हैं तब वाजिद उन्हें समझाते हैं …
“बर्दाश्त करना सीखिए महक l ये छोटी-छोटी बातें जब इंसान बर्दाश्त करना सीख जाता है तभी जंग के बड़े-बड़े जख्म सहकर जीत हासिल करता है l”
हालांकि बहुत जल्दी ही महक परी इस दुविधा से निकल जाती है और अपने साथ जंगी हुनर सीखने के लिए आई परियों के साथ महिला सेना बनाने लगी l उसने एक कुशल महिला सेनापति ढूँढने के लिए अवध के कई अंदरूनी इलाकों की यात्रा भी करती है l उसकी तलाश पूरी होती है 12/13 साल की उदा को देखकर, जो जो टूटे पहिये की मरम्मत करने में लगी थी l आगे चलकर यही उदा बेगम हज़रत महल का दाहिना हाथ बनती है l वहीं अनाथ भवानी को वो बेटी की तरह अपनाकर युद्ध कला की शिक्षा देती है l उसका जुनून “भवानी महल” के निर्माण में सहायक बना, जहाँ 12/13 साल की उम्र से ऊपर की लड़कियों की संख्या 150 से ऊपर पहुँच गई थी l जो रोज फौजी कपड़े पहन कर 7/8 घंटे युद्ध का अभ्यास करतीं l
उपन्यास में हज़रत महल के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को भी बखूबी उभारा गया है l भवानी जिसे वो अपनी पुत्री मानती थीं के हाथ में हनुमान जी की मूर्ति देखकर वाजिद और हज़रत ने मंगलवार को लखनऊ में पूजा और भोज का इंतजाम शुरू करवाया और बंदरों को मारने पर सजा देने का भी एलान किया l इस प्रसंग से हमारे देश की गंगा-जमुनी तहजीब के दर्शन होते हैं l
उपन्यास का तीसरा खंड “बेगम हज़रत महल” अंग्रेजों से युद्ध करती हज़रत के सशक्त नायिका वाले व्यक्तित्व को पन्ना दर पन्ना खोलता है l लॉर्ड डलहौजी की राज्यों को हड़पने की कूटनीति का शिकार अवध भी होता है l जब लॉर्ड डलहौजी द्वारा नवाब को कलकत्ता भेजने का फरमान जारी होता है तो बेगम हज़रत एक योद्धा के तौर पर ही नहीं एक रणनीतिकार के रूप में भी उभरती हैं l कानपुर से गंगा के रास्ते कलकत्ता भेजे जाते हुए नवाब को कानपुर से छुड़ाने का प्रयास करती है l इसमें बशीरुददौला, मुम्मूँ खाँ और अका पासी ने उनका साथ दिया l पर उसकी ये योजना सफल नहीं हो पाई क्योंकि अंग्रेजों को मुखबिर बनी सुखनवर परी के द्वारा इसकी जानकारी पहले से हो जाती है l अंग्रेजों द्वारा आवाम में फैलाई गई गलतफहमियों को दूर करने और सत्ता के प्रति लोगों का विश्वास जगाने के लिए वो अपने बेटे बिजरिस कद्र को गद्दी पर बैठाती है और उसके एवज में शासन संभालती है l जनता से जुड़ती है और उनके अमन चैन को फिर से कायम करती है lआसपास के राजाओं को सहायता के लिए पत्र लिखती है l इसमें वो राज्य के सबसे तेज घुड़सवार आगा मिर्जा का सहयोग लेती है l युद्ध में स्वयं भी उतरती है l ये सारी विशेषताएँ उसे कुशल शासक प्रशासक सिद्ध करती हैं l
युद्ध के दृश्यों के सजीव चित्रण के अलावा उपन्यास मे विषकन्या अवन्तिका से मुलाकत के दृश्य प्रभाव छोड़ते हैं l गौर तलब पहलू ये है कि अंग्रेजों द्वारा हज़रत बेगम पर चरित्र का वही घिसा-पिटा इल्जाम लगाया गया जो कि आम भारतीय स्त्री को तोड़ देता है पर बेगम हज़रत ने उस जमाने में भी स्त्री को इन आरोपों के खिलाफ वो संदेश दिया जिसकी आज की स्त्री को भी दरकार है…
“तुम्हारी सोच में हिन्दुस्तानी औरत एक कमजोर औरत है जो तुम्हारे बेबुनियाद और झूठे इल्जामों पर टूट जाएगी l लेकिन याद रखो हम उन औरतों से अलग हैं l ब्रिटिश हुकूमत को अब अपने गंदे लफ्जों की कीमत अदा करनी होगी l”
अंग्रेजों की कमर तोड़ देने के लिए वो एक समझौते के साथ नवाब शुजा-उ-ददौला द्वारा बसाये गए अफरीदी पठानों का सहयोग लेती है l चिन्हट से ब्रिटिश सेना पर हमला करती है l उपन्यास में अंग्रेजों के सैनिक ठिकाने रेजिडेंसी को तबाह करने का विशद वर्णन है l
इसके अतिरिक्त देश प्रेम के हवन में आहुति देती डोरथी- आगा खाँ की प्रेम कहानी हो या उदा और अका पासी की और उनका बलिदान पाठकों की आँखों में आँसू ही नहीं लाता उन्हें ये सोचने पर विवश भी कर देता है कि अंग्रेजों के कारण देश को क्या-क्या बलिदान करना पड़ा l डोरथी के अंतिम शब्द पाठक के लिए भूलना मुश्किल है l
“इतना परिश्रम मत करो आगा l जो होना था हो चुका l मेरे शरीर के जिन हिस्सों पर जख्म नहीं है उन्हें प्यार से सहलाओ ल मुझे बहुत दर्द हो रहा है l मैं इस दर्द के ऊपर हमारे प्यार को महसूस करना चाहती हूँ l”
वहीं अका को विदा देती उदा कहती है कि
“विदा अका, तुम्हारी कुर्बानी हम बेकार नहीं जाने देंगे l न तो तुम्हारा मुर्दा जिस्म देखकर रोए थे और ना अभी रो रहे हैं, और बाद में भी नहीं रोयेंगेl कुर्बानी पर आँसून बहाना तुम्हारे जैसे बहादुर की बीबी को शोभा नहीं देता है l”
उपन्यास में लेखिका ने बेगम के बारे में बात करने साथ- साथ वाजिद अली शाह के साथ भी पूरा न्याय करने का प्रयास किया है l लेखिका 30 जुलाई 1822 में लखनऊ में जन्मे और 21 सितम्बर 1887 में मटियाबुर्ज में अपनी आखिरी सांस लेने वाले नवाब वाजिद अली शाह के 65 साल के जीवन को को अत्यंत मुश्किल से जुटाए गए साक्ष्यों के आधार पर एक अलग नजरिए से देखती है l जहाँ ज्यादातर इतिहासकार और लेखक अंग्रेजों के भ्रामक जाल का शिकार होकर नवाब वाजिद अली शाह को आराम-तलब, अय्याश, अक्षम और अयोग्य मानते हैं, तो वहीं उनका तर्क हैं कि कुछ नकारात्मक बिन्दुओं के बावजूद ये अवध की खुशकिस्मती थी जो उसे वाजिद अली शाह के रूप में अपना शासक मिला और पाठक के सामने एक अलग वाजिद आते हैं l
अपनी एक अलग दृष्टि के साथ उपन्यास जहाँ एक तरफ वाजिद अली शाह की स्त्रीलोलुपता का कारण उनके बचपन में जा कर बाल मनोविज्ञान के आधार पर बताने का प्रयास करता है l वहीं इस पर दृष्टि डालता है कि वाजिद ने अपने मिजाज की यह रईसी अपनी अम्मी किशवर से पाई थी l जो नवाब अमजद अली शाह की कई बेगमों में से प्रमुख थीं l तीन मौसमों के हिसाब से तीन अलग- अलग भवनों में रहने वाली किशवर को अपनी ऐश-आराम से ही फुरसत नहीं मिलती लिहाजा दासियों के साथ पलते वाजिद पर उनका ध्यान ही नहीं गया l जो बड़े होने पर उसके बनाए ‘परीखाना’ के रूप में सामने आता है l
वाजिद अली शाह का पूरा जीवन ही आम नवाबों से अलग और रचनात्मकता से भरा था l कभी वाजिद अपने कभी शायरी करते हुए दिखते हैं तो कभी ठुमरी लिखतेl एक पाठक के तौर पर हम कभी वाजिद अली शाह को उनके कत्थक प्रेम के लिए जानते हैं तो कभी साहित्य में अग्रणीय योगदानकर्ता के रूप में l परीखाना के बारे में एक जगह वो लिखती हैं कि…
“परीखाना के अस्तित्व में आते ही वाजिद ने वहाँ कई तरह की गतिविधियां भी शुरू करवा दीं l परीखाना को उन्होंने कई खंडों में बाँट दिया l जो परियाँ नृत्य में निपुण थीं उनके लिए परिखाना का एक अलग खंड था तो संगीत की लगातार साधना के लिए अलग l नाटकों के लिए अलग l वाजिद का मन जब जिस कला में डूबा होत एवो उसे खंड में जाते और वहीं किसी परी के साथ रात बिताते l”
उपन्यास ये भी स्थापित करता है कि यदि अवध को वाजिद अली शाह न मिले होते तो आज हम जिस लखनऊ की नफासत और नजाकत की बात करते हैं उसका ये स्वरूप ना होता l
अंत में यही कहूँगी कि सन 1857 की क्रांति में भाग लेने वाली नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हज़रत महल की वीरता, धैर्य, रणनीति और जीवनानुभवों को लेखिका वीणा वत्सल सिंह ने काफ़ी शोध, पर्याप्त साक्ष्यों और उस काल में प्रवेश करने के बाद लिखा है l जिससे पाठक बेगम हज़रत महल के विराट व्यक्तित्व से रूबरू होता है और उसे आश्चर्य होता है कि निम्न वर्ग से उठकर इतनी सशक्त स्त्री के रूप में पहचान बनाने वाली बेगम हज़रत महल को इतिहास में वो स्थान क्यों नहीं मिल सका जिसकी वो हकदार थी l स्त्रियों के लिए बेगम हज़रत महल का जीवन बहुत प्रेरणादायक है l वीरता और जुनून के अतरिक्त उपन्यास में बेगम हज़रत महल के तमाम स्त्रियोचित गुणों पर प्रकाश डाला गया है l जंगी हुनर सीखने वाली वो ऐसी नायिका हैं जो जिस्मानी प्रेम के ऊपर रूहानी प्रेम को तरजीह देती हैं l इस वीर स्त्री का दिल भी तथाकथित इज्जत पर लागाए आरोपों से उसी तरह चोटिल होता ही जिस तरह से आम स्त्री का l लेकिन वो चुपचाप आँसू बहाने की जगह मुँह तोड़ जवाब देना जानती है l वाजिद अली शाह को लिखे पत्रों में मुहब्बत से भरी एक स्त्री क दिल खुल कर सामने आता है l उपन्यास का अंतिम खंड नेपाल में शरण ली एकाकी स्त्री के दर्द को पर्त दर पर्त खोलता है और वतन ना लौट पाने की उसकी कसक और नवाब वाजिद अली शाह से ना मिल पाने का दर्द पाठक की आँखों से छलकता है l और उसकी अंतिम ठुमरी उसे उस पन्ने पर काफी देर रोक कर रखती है…
“साथ दुनिया ने दिया और ना मुक्कदर ने दिया l
रहने जंगल ने कब दिया जो शहर ने ना दिया
एक तमन्ना थी कि आजाद वतन हो जाए
जिसने जीने ना दिया चैन से मरने ना दिया l
उपन्यास की सहज सरल भाषा में उर्दू की रवानी और “हम” का प्रयोग पाठक को उस काल में बहाए लिए जाता है l ऐतिहासिक उपन्यासों में जीवन के कुछ आम पहलू दिखाने के स्थान पर लेखक को कल्पना का सहारा लेना पड़ता है पर उपन्यास इतना सशक्त बना है कि सब कुछ सजीव सा पाठक की आँखों के आगे से गुज़रता है l आमतौर में उपन्यास में सहपात्रों की कथा में पाठकों की विशेष रुचि नहीं रहती पर इस उपन्यास की खास बात है कि सह पात्रों की कथा चाहें वो आगा खाँ और डोरथी की प्रेम कथा हो या उदा और अका पासी की या नरगिस और जावेद की पाठक उसमें और आगे जानने को उत्सुक रहता है l उपन्यास का प्रवाह ऐसा है कि पाठक एक बार किताब उठाने के बाद इसे छोड़ता नहीं है l
राजपाल प्रकाशन से प्रकाशित 192 पृष्ठ और 325 रुपये मूल्य वाले इस उपन्यास का कवर पृष्ठ आकर्षक है l हमारे देश के इतिहास की इस वीर महत्वपूर्ण महिला पात्र को गुमनामी के अँधेरों से बचाने और उसे सहेजने में इस किताब को हमेशा याद किया जाएगा l
वंदना बाजपेयी
यह समीक्षा ऑफ लाइन पत्रिका कथाक्रम के “अक्टूबर -दिसंबर” 23 अंक में प्रकाशित हैं l
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