प्रेम जो किसी पत्थर हृदय को पानी में बदल सकता है, तपती रेत में फूल खिला सकता है, आसमान से तारे तोड़ के ला सकता है तो क्या किसी मासूम बच्चे में उसकी उच्चतम संभावनाओं को विकसित नहीं कर सकता | क्या माँ और बच्चे का प्रेम जो संसार का सबसे शुद्ध, पवित्र, निश्चल प्रेम माना जाता है, समाज की दकियानूसी सोच, तानों -उलाहनों को परे धकेलकर ये करिश्मा नहीं कर सकता है? एक माँ का अपनी बेटी के लिए किया गया ये संघर्ष ….संघर्ष नहीं प्रेम का ही एक रंग है | बस उसे देखने की नजर चाहिए |
ऐसे ही प्रेम के रंग में निमग्न वंदना गुप्ता जी का भारतीय ज्ञानपीठ/वाणी से प्रकाशित उपन्यास “कलर ऑफ लव” समस्या प्रधान एक महत्वपूर्ण उपन्यास है| ये उपन्यास “डाउन सिंड्रोम” जैसी एक विरल बीमारी की सिर्फ चर्चा ही नहीं करता बल्कि उसके तमाम वैज्ञानिक और मानसिक प्रभावों पर प्रकाश डालते हुए एक दीप की तरह निराशा के अंधकार में ना डूब कर कर सकारात्मकता की राह दिखाता है | अभी तक हिंदी साहित्य में किसी बीमारी को केंद्र में रख कर सजीव पात्रों और घटनाओं का संकलन करके कम ही उपन्यास लिखे गए है | और जहाँ तक मेरी जानकारी है “डाउन सिंड्रोम” पर यह पहला ही उपन्यास है |
कलर ऑफ लव -डाउन सिन्ड्रोम पर लिखा गया पहला और महत्वपूर्ण उपन्यास
Mirrors should think longer before they reflect.
– Jean Cocteau
अगर कोई ऐसा रोग ढूंढा जाए जो सबसे ज्यादा संक्रामक है औ पूरे समाज को रोगग्रस्त करे हुए है तो वो है तुलना | जबकि हर बच्चा, हर व्यक्ति प्रकृति की नायाब देन है, जो अपने विशेष गुण के साथ पैदा होता है बस जरूरत होती है उसे पहचानने की, उसे उसके हिसाब से खिलने देने की | ऐसा ही एक विशेष गुण है “डाउन सिंड्रोम” .. ये कहानी है एक ऐसी ही बच्ची पीहू की जो इस विशेष गुण के साथ पैदा हुई है |
शब्दों का हेर-फेर या समझने का फ़र्क कि जिसे विज्ञान की भाषा “सिन्ड्रोम” का नाम देती है, प्रकृति प्रयोग का नाम देती है | ऐसे ही प्रयोगों से निऐनडेरथल मानव से होमो सैपियन्स बनता है और होमो फ्यूचरिस की संभावना प्रबल होती है | इसलिए प्रकृति की नजर में “डाउन सिन्ड्रोम” महज एक प्रयोग है .. जिसमें बच्चे में 46 की जगह 47 गुणसूत्र होते है | इस एक अधिक गुणसूत्र के साथ आया बच्चा कुछ विशेष गुण के साथ आता है | जरूरत है उस विशेष गुण के कारण उसकी विशेष परवरिश का ध्यान रखने की, तो कोई कारण नहीं कि ये बच्चे खुद को सफलता के उस पायदान पर स्थापित ना कर दें जहाँ तथाकथित तौर पर सामान्य कहे जाने वाले बच्चे पहुंचते हैं| यही मुख्य उद्देश्य है इस किताब को लिखे जाने का |
“कलर ऑफ लव” उपन्यास मुख्य रूप से एक शोध उपन्यास है जिसे उपन्यास में पत्रकार सोनाली ने लिखा है | छोटे शहर से दिल्ली तबादला होने के बाद सोनाली की मुलाकात अपनी बचपन की सहेली मीनल और उसकी बेटी पीहू से होती है | पीहू “डाउन सिन्ड्रोम” है| दोनों सहेलियाँ मिलती है और मन बाँटे जाने लगते हैं | संवाद शैली में आगे बढ़ती कथा के साथ सोनाली पीहू और उसकी माँ मीनल के संघर्ष की कहानी जान पाती है| पन्ना दर पन्ना जिंदगी खुलती है और अतीत के अनकहे दर्द, तनाव, सफलताएँ सबकी जिल्द खुलती जाती है | पर पीहू और मीनल के बारे में जानने के बाद सोनाली की रुचि “डाउन सिन्ड्रोम के और शोध में बढ़ जाती है | और जानकारी एकत्र करने के लिए वो विशेष स्कूल के प्रिन्सपल ऑफिस में जाकर केसेस डिस्कस करती है | इन बच्चों के विकास में लगे फ़ेडेरेशन व फोरम जॉइन करके जानकारियाँ और साक्ष्य जुटाती है | एक तरह से नकार, संघर्ष, स्वीकार और जानकारियों का कोलाज है ये उपन्यास | जो काफी हद तक असली जिंदगी और असली पात्रों की बानगी को ले कर बुना गया एक मार्मिक पर सकारात्मक दस्तावेज है |
इस उपन्यास के चार महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर बात करना पाठकों के दृष्टिकोण से सुविधाजनक रहेगा|
- समाज में व्याप्त अशिक्षा
- रोगग्रस्त बच्चे के परिवार, विशेषकर माँ का का घर के अंदर और बाहर का संघर्ष
- उन बच्चों की चर्चा जिन्होंने “डाउन सिंड्रोम” जैसी बीमारी के बावजूद सफलता के परचम लहराए |
- जीवन दर्शन जो व्यक्ति को सहज जीवन को स्वीकारने का साहस देता है|
कोई भी अवस्था समस्या तब बनती है जब समाज में उसके बारे में पर्याप्त जानकारी ना हो | जैसे बच्चे के जन्म के समय ही यह बातें होने लगती हैँ, “की उसके हाथों में एक भी लकीर नहीं है, ऐसे बच्चे या तो घर छोड़ देते है या फिर बड़े सन्यासी बन जाते हैं |”
“देख सोनाली, मेरे पीहर में मेरी चाची के एक चोरी हुई थी| जिसकी बाँह के साथ दूसर बाँह भी निकलने के लिए बनी हुई थी |पीर बाबा है, उन्होंने जैसे ही निगाह डाली वो माँस का लोथड़ा टूट कर गिर गया | तब से आज तक बच्ची बिल्कुल मजे से जी रही है|”
इस अतिरिक्त भी लेखिका ने कई उदाहरण दिए है जहाँ गरीबी अशिक्षा के चलते लोग डॉक्टर या विशेष स्कूल की तरफ ना जाकर किसी चमत्कार की आशा में अपनी ही बगिया के फूल के साथ अन्याय करते है | दरअसल अशिक्षा ही नीम हकीम और बाबाओं की तरफ किसी चमत्कार की आशा में भेजती है और इसी के कारण ना तो बच्चे का विकास सही ढंग से हो पाता है ना समाज का नजरिया बदल पाता है|
आज जब की पूरे विश्व में “प्रो. लाइफ वर्सिज प्रो चॉइस” आंदोलन जोर पकड़ रहा है | लेखिका एक ऐसी माँ की जीवन गाथा लेकर आती है जो डॉक्टर द्वारा जन्म से पहले ही बच्चे को “डाउन सिंड्रोम” घोषित करने के बावजूद अपने बच्चे के जन्म लेने के अधिकार के साथ खड़ी होती है | यहाँ जैसे दोनों तर्क मिल जाते हैं | क्योंकि ये भी एक चॉइस है जो लाइफ के पक्ष में खड़ी है| एक माँ के संघर्ष के अंतर्गत लेखिका वहाँ से शुरू करती हैं जहाँ एक माँ को अपने गर्भस्थ शिशु के साथ तरह-तरह के परीक्षणों से गुजरना पड़ता है | इसके लिए विशेष रूप से निर्धारित ऑमनियोस्टैसिस टेस्ट के लिए माँ को किस -किस मानसिक आघात से गुजरना पड़ता है उसका मार्मिक वर्णन है | इसके अतिरिक्त टेस्ट में कौन से प्रोटीन या फैट कम/ज्यादा होने पर बच्चे में क्या असमान्यता आती है लेखिका इसकी भी वैज्ञानिक जानकारी देती है | टेस्ट रिपोर्ट पॉजिटिव आ जाने पर डॉक्टर द्वारा बार -बार गर्भपात पर जोर डालना, पति -पत्नी विवाद और माँ का अपने बच्चे के पक्ष में खड़े रहना स्त्री और ममता का एक सशक्त पक्ष है | मुझे लगता है ये किताब उन डॉक्टर्स को भी पढ़नी चाहिए जो बार -बार भावी माता -पिता को “बच्चा वेजीटेबल की तरह पड़ा रहेगा” कह कर भय का वातावरण उत्पन्न करते है .. जबकि हकीकत इतनी निराशा जनक नहीं है | यही नहीं बच्चे के जन्म के बाद भी भेदभाव होता है |
“जब नर्स बच्चे को लेकर आई तो उसके हाथ कोहनी तक और पैर घुटने तक फटे जैसे दिख रहे थे | बाद में पता चला बच्ची को साफ ही नहीं किया गया | ऐसे बच्चों को कोई हाथ भी नहीं लगाना चाहता| ऐसे ही दे दिया | ओह! इतना दोगलापन |”
जब विज्ञान कहता है कि “डाउन सिन्ड्रोम” में ट्राइसोमी सभी सेल्स में, हो भी नहीं है और नहीं भी हो सकती है और उसे आधार पर बच्चा कम या ज्यादा ऐक्टिव हो सकता है तो हॉस्पिटल्स का इस तरह का बर्ताव और डॉक्टर का कहना की, “ऐसे बच्चे बस जिंदा लाश की तरह होते है हमारे मेडिकल सिस्टम की संवेदनहीनता कहीं ना कहीं रूढ़ि ग्रस्तता को दर्शाता है |
माँ के संघर्ष में समाज के ताने,यहाँ तक की पति का भी साथ ना देना, बच्ची का सेक्सुअल एब्यूज, सामान्य बच्चों के साथ पढ़ाने के लिए की गई माँ की जद्दोजहद बच्ची को अपनी बात समझाने और पढ़ाने के विशेष तरीके, क्या क्या थेरेपी होती है आदि छोटे से छोटे पहलू पर लेखिका ने गंभीरता से कलम चलाई है |
इसके अतरिक्त स्पेशल स्कूल के कई बच्चों के उदाहरणों के माध्यम से ये प्रश्न भी उठाया गया ही की जो माता -पिता गरीब हैँ, उनके लिए बच्चे को स्वयं समय देकर प्रशिक्षित करना कितना मुश्किल है पर भी प्रकाश डाला है | रिक्शा चालक की बेटी मीनू और अपने ही परिवार की उपेक्षा की शिकार संगीता का मार्मिक किस्सा पाठक की पलकें नम कर देता है |
मीनल के माध्यम से लेखिका ने स्त्री विमर्श के कई महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं |जैसे की एक लड़की का अपने भावी वर के लिए कुछ खास योग्यताओं की शर्त रखना, एक माँ का अपने बच्चे को जन्म देने का अधिकार, बच्ची के साथ खड़े होने के लिए अपनी चुप्पी को तोड़ना, एक मुद्दे पर वो कहती है कि जब सरोगेसी समाज में स्वीकार है तो डॉक्टर से लेकर हर आम जन इन विशेष बच्चों के पीछे क्यों पड़ा रहता है? एक अन्य मुद्दे पर वो सवाल उठाती है कि जमाई और बहु दोनों ही दूसरे परिवार से आयें तो किसी भी बात के लिए बहु ही क्यों माफी माँगे, जमाई क्यों नहीं | स्त्री और पुरुष में परिवार के अंदर ही ये भिन्नता क्यों ? ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जहाँ लेखिका एक सशक्त स्त्री की परिभाषा प्रस्तुत करती है| जबकि ये कहीं भी विमर्श जैसा नहीं लगता|
उपन्यास का अंतिम हिस्सा बेहद प्रेरणादायक है जहाँ ऐसे बच्चों का जिक्र है जो “डाउन सिन्ड्रोम” हैं पर जिन्होंने सफलता के परचम लहराए | ये सभी उदाहरण सच्चे हैं जो “सफ़ी नेशनल ट्रस्ट डाउन सिन्ड्रोम फ़ेडेरेशन ऑफ इंडिया” के हवाले से लिए गए हैं | जिसकी शुरुआत देवांशी जोशी की कहानी से होती है जिसे 2017 का हेलेन केलर अवॉर्ड मिला | हेलेन केलर वो लेखिका हैं जिन्होंने मात्र 19 महीने की उम्र में अपनी आँखें और सुनने की शक्ति खो दी थी |
आईटी में रुझान रखने वाली बच्ची जिसके दिल में छेद भी था, जिसके बारे में डॉक्टर का कहना था कि ये तीन साल से ज्यादा जीवित नहीं रहेगी, आज सफल मॉडल है | उसकी प्रेरणा रही जिमी स्कीवर जो खुद डाउन सिन्ड्रोम और प्रसिद्ध मॉडेल हैं | गौरी जो डाउन सिन्ड्रोम हैं जिन्होंने 2003 की पैर ओलंपिक में गोल्ड, 2008 में सिल्वरऔर 2013 में सिल्वर और ब्रॉज पदक जीता उनके ऊपर हितेन ठाकुर और महेश लिमाये ने एक फिल्म भी बनाई है | इसी तरह अवनीश नाम के युवा ने “डाउन सिन्ड्रोम” बच्चे को गोद लिया |” ऐसे तमाम उदाहरण एक सकारात्मकता के दीप की तरह हैं उन माता-पिता के लिए जो निराशा के गहन अंधकार में डूब जाते हैं और सामाज के नजर और नजरिए पर लगे जालों को भी साफ करते हैं |
इसके अतिरिक्त लेखिका ने सहज जीवन दर्शन जगह जगह पर बहुत खूबसूरती से पिरोया है जो कहानी का हिस्सा लगता है और जीवन को समझने और उसे आत्मसात करने में पाठक की सहायता करता है |
“सुख और दुख मन की स्थितियाँ हैं जब हमारे मन के मुताबिक हो रहा होता है तो हमें सुख का अनुभव होता है और जब मन के विपरीत तो दुख का अनुभव|”
“जिंदगी और वक्त दोनों जैसे एक दूसरे के पूरक हैं| जो वक्त चाहता है जिंदगी हाजिर कर देती है और जो जिंदगी चाहती है, वक्त दौड़ कर ले आता है |
“प्रकृति कहो या ईश्वर उन्हें ही ऐसी चुनौतियों के लिए चुनता है जिन्हें इसके योग्य पाता है |”
कुल मिला कर वंदना गुप्ता जी का यह उपन्यास डाउन सिन्ड्रोम पर लिखा गया पहला और महत्वपूर्ण उपन्यास है जो छोटी से छोटी जानकारियों का चित्रण करते हुए जीवन के प्रति प्रोत्साहित करता है | कई जगह ये आँखें नम करता है तो कई जगह पीठ पर हाथ फेर कर हौसला भी दिलाता है | सबसे खास बात ये है की ये पूरी तटस्थता व ईमानदारी के साथ लिखा गया है, और सावधानी रखी गई है कि अतरिक्त मार्मिकता का पुट ना हो | इतनी जानकारियों के होते हुए भी इसका कथा रस कहीं भंग नहीं होता | और पाठक बिना रुके पढ़ता जाता है | जो लोग असली जीवन को आँख मिला कर देखना चाहते हैं उनके लिए ये अवश्य पठनीय उपन्यास है | पीहू की कहानी का अंजाम क्या हुआ ये जानना पाठकों के लिए महत्वपूर्ण होगा|
अंत में लेखिका के शब्दों में ..
उससे बड़ा अपाहिज कौन होगा जो अपने बच्चे का ख्याल नहीं रख सकता| उसका खर्च नहीं उठा सकता |”
एक पठनीय, सार्थक, उद्देश्य पूर्ण उपन्यास के लिए लेखिका को बधाई |
समीक्षा -वंदना बाजपेयी
कलर ऑफ लव – उपन्यास
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