लंदन से प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय कई मुद्दों पर सोचने को विवश कर देते हैं। ‘प्रवासी हिंसा और दंगे” ऐसा ही संपादकीय है जिसने मुझे उसपर लिखने को विवश कर दिया l आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी अपने संपादकीय में लिखते हैं कि, “ब्रिटेन में ऐसे बहुत से इलाक़े हैं जिनमें एक ख़ास किस्म के प्रवासी एक समूह की तरह रहते हैं और अपने रीति-रिवाजों के साथ वहां जीते हैं। ये सभी प्रवासी ब्रिटेन में आर्थिक कारणों से ही बसने के लिये आए हैं। इनमें से बहुतों ने राजनीतिक शरण ले रखी है; वे ब्रिटेन की सोशल सेवाओं का पूरा लाभ उठाते हैं। मगर वे ब्रिटेन की मुख्यधारा में शामिल होने का प्रयास नहीं करते। संपादकीय मुख्य रूप से पिछले दिनों ब्रिटेन के शहर लीड्स के हेयरहिल्स इलाके में हुई हिंसा और दंगों पर केंद्रित है, जहाँ एक भाई ने अपने छोटे भाई को बेदर्दी से मारा और उसे घायल कर दिया। माँ-बाप बच्चे को अस्पताल ले गये तो अस्पताल के कर्मचारियों ने सोशल सर्विस विभाग को सूचित कर दिया। सोशल सर्विस विभाग के कर्मचारियों ने उस परिवार के बच्चों को परिवार से अलग करने का निर्णय लिया क्योंकि उस परिवार में बच्चों को हिंसा के कारण जान का ख़तरा था। जैसे ही बच्चों को ले जाया जाने लगा, लोग इकट्ठे होना शुरू हो गये। भीड़ उग्र हो गई l
मिसेज़ चटर्जी वर्सस नॉर्वे और लीड्स में हुई हिंसा
सर ने ब्रिटेन की बात की, पर अलगाववादी फैलाव भारत और पूरे विश्व में है। हमारा अपना देश भी ऐसे समूहों से जूझ रहा है l कभी एक सज़ा के रूप में प्रचलित ‘गैटो’ शब्द अब एक हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। निजी तौर पर अपनी संस्कृति का आदर या उसे अपनी जीवन शैली में शामिल रखना गलत बात नहीं है, पर भीड़ में बदल कर कानून के खिलाफ़ हो जाना, संस्कृति का नहीं सत्ता का एक रूप है।
रही बात बच्चों को मारने पीटने की तो इसे तो सही नहीं कहा जा सकता। मेरा एक अस्पताल में आँखों देखा केस है, एक पिता ने अपनी बच्ची को इतना मारा कि उसकी एक आँख की रोशिनी चली गई l पास खड़ा पिता रो रहा था, पर गुस्से में उस समय खुद को काबू में नहीं रख पाया।
मेरा रंग में ऐसिड विक्टिम का एक कार्यकम देखा था l पिता ने माँ पर गुस्से में तेजाब फेंका और माँ का पल्लू पकड़ कर खड़ी बच्ची की आँखों में चला गया, और रोशिनी छीन ली l
देवी-देवता के स्थान पर बैठाए गए माता-पिता भी कितने परिपक्कव है? ये भी सोचने का विषय है। अपने देश में भी जब मार-पिटाई जायज मानी जाती थी, तब बच्चे संयुक्त परिवार में रहते थे। इतनी हिंसक पिटाई से बचाने वाला कोई न कोई घर में रहता था। बड़े बुजुर्गों से सुना है, ज्यादा मारोगे तो ‘मरकहा हो जाएगा’ यानि मार का असर नहीं पड़ेगा। स्त्रियों पर हाथ ना उठाने का संस्कार तो हम कबका भूल चुके हैं। मुझे तो लगता है कि हल्की-फुकी चपत और हिंसात्मक पिटाई में अंतर है, और आज जबकि सहनशक्ति कम हो गई है, यहाँ के माता-पिता को भी कानून के दायरे में लाना चाहिए।
वैसे “मिसेज़ चटर्जी वर्सस नॉर्वे” जैसी फिल्म प्रवासी भारतीयों की एक अलग ही कहानी कहती है।
फिल्म में मुख्यतः देबिका की कहानी को दिखाया गया है जिसमें वो अपने पति अनिरुद्ध, पुत्र शुभ और पाँच माह की बच्ची सुची के साथ नॉर्वे के स्टवान्गर नामक स्थान पर रहती है। नॉर्वेजियन चाइल्ड वेलफेयर सर्विसेज के दो कर्मचारी तब तक उनके घर पर नियमित तौर पर आते थे जब तक वो शुभा और सुचि को लेकर नहीं चले गये। चटर्जी परिवार को बता दिया गया कि वो अपने बच्चों की देखभाल करने में सक्षम नहीं हैं, अतः देबिका ने सरकार पर मुक़दमा करने का निर्णय लिया और अपने बच्चों की अभिरक्षा वापस प्राप्त की l
ये कहानी प्रवासियों को परेशान करके पैसे ऐंठने का ये सत्ता का नया रूप हैl सही क्या है गलत क्या है, ये हम निष्पक्ष होकर नहीं कह सकते l मेरे विचार से अगर किसी कानून से दिक्कत भी है, तो भीड़ की सत्ता का हिंसात्मक प्रदर्शन करने के स्थान पर लोकतांत्रिक तरीके से अपना विरोध दर्ज किया जा सकता है, पर उसके लिए देश को अपना समझना होगा, देश को प्रवासियों को ।
एक शानदार, विचारणीय संपादकीय के लिए बहुत बधाई
वंदना बाजपेयी