अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक आम औरत की डायरी

सुना है आज अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस है। सोशल मीडिया से पता चला है। सोमेश और बच्चों ने भी विश किया है, तो होगा ही। विश करने के साथ कुछ अच्छा बनाने की फरमाइश भी है। अब इसमें गलत क्या है? त्योहारों पर कुछ अच्छा बना लेने की आदत से स्त्री इतना जुड़ गई है कि खुद के दिन में कुछ अच्छा न बनाए, ऐसा कैसे संभव है? अड़ोसी-पड़ोसी क्या कहेंगे? बैकवर्ड! बताओ इनके यहाँ महिला दिवस ही नहीं मनाया जाता। खामखाँ घर के पुरुषों की फजीहत होगी, और बाहर खाने में घर का बजट बिगड़ेगा । अब महंगाई भी कितनी हो गई है?

ठीक है बनाती हूँ। अम्मा-बाउजी के लिए तो लौकी ही बनेगी। बच्चे पनीर कह रहे हैं। पर इनका मुँह तो पनीर देखते ही बन जाता है। इनके लिए कोफ्ते ठीक रहेंगे।  

लौकी घिसते-घिसते आपको बताती चलूँ कि कल एक रिश्तेदार का फोन आया था। बात करते-करते बात आज के टूटते विवाहों पर होने लगी। उन्होंने झट से कारण भी बता दिया। शादियाँ उनकी ज़्यादा  टूट रहीं हैं जहाँ औरतें पढ़ी-लिखी हैं और कमा रहीं हैं। कुछ नहीं ईगो क्लैश है बस!

मैंने भी कह दिया, “बात तो आप सही कह रहे हैं। एक का अभिमान/स्वाभिमान इस लायक बनने ही न दो, फिर तो स्वर्ग से बनेंगे घर।”

अब पता नहीं उन्हें क्या बुरा लगा कि फोन ही काट दिया।  

मैंने तुरंत दोबारा मिलाया। रिश्ता प्यारा था। अब इतना ईगो थोड़ी ही रख सकती हूँ।

 वैसे भी मैं कौन सा नौकरी करती हूँ। तो खामखाँ नौकरी करने वालियों के पक्ष में झंडा बुलंद करूँ। फिर आजकल अपने को बेस्ट बताने का चलन है। दूसरी औरत जो कर रही है, उसके विपक्ष में तर्क इकट्ठे करते चलो। हाँ! शादी से पहले मैं भी नौकरी करती थी। पर सोमेश भा गए पापा को। उनके परिवार का कहना भी सही ही था। क्या 20,000 रूपल्ली के लिए बाहर मारी-मारी फिरेगी। इससे ज़्यादा के तो साड़ी और सैंडल में खर्च हो जाएंगे।  

सच, बहुत महंगी साड़ियाँ पहनती हूँ मैं आजकल। पार्लर, मेकअप सब बेस्ट। लोग सोमेश की तारीफ़ करते हैं। अब इस इनायत के बदले में मैं भी सोमेश के परिवार के मनका बोल देती हूँ। बस ! सोमेश भी खुश रहते हैं। पार्टी-वारटी में औरतों के मेकअप पर होने वाले खर्चों के चुटकुले खूब सुनाते हैं और  बहुत हँसते हैं। मैंने भी उन्हीं चुटकुलों पर हँसना सीख लिया है।

महंगी साड़ी, ऊँचे सैंडल । बात-बात पर हँसना,  लोग कहते हैं मैं बहुत सुखी हूँ। ठीक ही कहते होंगे।

रज्जो चाची कह रहीं थीं, आजकल की लड़कियां! बाहर नौकरी पर चार आदमियों की बातें सुन लेंगी। घर में एक की नहीं सुनी जाती। अब उन्हें कौन समझाए बाहर बॉस और मुलाजिम का रिश्ता होता है, आत्मीय थोड़ी ना! अब रज्जो चाची भी क्या करें घर में बॉस और मुलाजिम की तरह रहने की आदत पड़ गई है। एक बार आदत डाल लो फिर बुरा नहीं लगता। और आदत डालने में 21 दिन से ज्यादा का समय भी नहीं लगता।   

ओहो! बातों के चक्कर में लौकी में थोड़ी नमी रह गई। इतना पानी भरा है अंदर, ऊपर से तो सूखी दिख रही थी । अब तो पूरी नहा गई हो जैसे। ये भी स्त्री होती है क्या?

अब क्या कहूँ इसे। लौकी का स्नान 😊। उफ़ ! ये बौद्धिक बातें ! सोचने लग जाओ तो किचन में गड़बड़ होता ही है। 

फिलहाल लौकी स्नान से कुंभ स्नान याद आ रहा है। उन दिनों मैंने भी रील देखी थीं खूब। मोनालिसा सबसे सुंदर साध्वी, सबसे सुंदर लड़की… जाने क्या-क्या? अब वहाँ अमरता खोज रहे थे कि सुंदरता। पता ही नहीं चला । सब देह पर अटके रहे । मन तक भी न पहुंचे, आत्मा तो दूर की बात।

अब यू ट्यूब का एलगोरिदम ही ऐसा है। तो कुंभ के बाद भी उनकी रील दिखती रहीं। नई-नई आ गई हैं । ए आई की मदद से बनाई गईं । मोनालिसा हो या साध्वी, या कोई अन्य स्त्री  कपड़े उतारते दिखती हैं, और अंदर से पुरुष निकलता है। बात चली तो बता दिया । वैसे कॉमेडी की हैं वो। अभिव्यक्त की स्वतंत्रता के नाम पर महिला की डिग्निटी से छेड़छाड़ हँसने का विषय है।

हँसने का ही होगा। तभी तो महिलायें भी हँसती हैं। कहीं तो समानता हो।

 अब वो रील भी तो हैं, जिनमें प्लेट में मीट (चिकन, मटन, फिश) रखा है और अचानक से वो एक महिला में बदल जा रहा है। हम क्यों आपत्ति करें जब “मैं तंदूरी मुर्गी हूँ… गटक ले, अटक ले। जाने क्या-क्या?” जैसे गाने हिट होते हैं। ये अलग बात है कि अधिकतर पुरुषों ने लिखे होते हैं, पर महिला गायिकाएँ झूम-झूम कर गाती हैं और अब तो मम्मियाँ भी बच्चों को स्कूल के फ़ंक्शन के लिए इन गानों पर नृत्य सिखाती हैं।

अब समाज का ही दर्पण है रील… तो विरोध क्यों? विरोध से समानता लाने में मेहनत पड़ती है। अब एक रील से कौन सा समाज खराब हो जाएगा? 

फिर बड़ी-बड़ी बातें शिक्षा, सुरक्षा, खाना-पीना, समान वेतन, संसद में आरक्षण, कार्यक्रमों में भी कम से कम एक चौथाई महिला वक्ता… इन सब बड़ी-बड़ी बातों से हमारा क्या लेना देना। हम कौन सा अपने भाई और पति के बिना कहीं जाते हैं। आप सुखी तो जग सुखी।

अरे, कल की बात बताना ही भूल गई। देवर जी अपने दोस्त से व्हाट्स एप पर बहस कर रहे थे। देवर को देखकर तसल्ली होती है। स्त्रियों के पक्ष की बात करते हैं । अब दोस्त के “सो कॉल्ड फेमिनिस्ट’ शब्द पर गुस्सा तो आना ही था। हमें भी पढ़ाई थी चैट। देवर जी को दिक्कत ये थी कि वो ऐसा कैसे कह सकता है? वो तो ईक्वाइलिटी में विश्वास करता है। खैर बहस आगे बढ़ी तो बात खुली। दरअसल वो सोशल मीडिया की ‘सो कॉल्ड’ फेमिनिस्ट से डरता है।

क्या है ये सो कॉल्ड… घूँघट से आजादी और न्यूनतम कपड़ों को एक पायदान पर रखने वाला । या रसोई में हाथ बँटाने और बार में सिगरेट शराब पीने को । बुराइयों का महिमा मंडन या निजी सुखों की पैरवी कहीं आम महिला की सामाजिक समानता की लड़ाई में बाधा तो नहीं डाल रही है।

 या और क्या हो सकता है आप भी सोचिए ना!

तब तक मैं गैस धीमी कर दूँ कोफ्ते तलने जो हैं। आंच मद्धम होनी चाहिए तभी परफेक्ट बनते हैं।

वंदना बाजपेयी  

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