जीवन का सत्य

कहानी -जीवन का सत्य

“संसार से भागे फिरते हो भगवान् को तुम क्या पाओगे” चित्रलेखा फिल्म का यह लोकप्रिय गीत जीवन के सत्य को बहुत कुछ उजागर करता है | यूँ तो मन की शांति के लिए बहुत सारे आश्रम हैं जहाँ लोग जाते हैं , ध्यान संयम सीखते हैं , परन्तु क्या कोई गृहस्थ अचानक से संन्यास ले ले तो उसके मन में पीड़ा नहीं होगी ? क्या उसकी घर -गृहस्थी बिखरेगी नहीं ? कर्म को प्रधानता देने वाला हमारा धर्म कर्म से भागने का सन्देश नहीं देता | पढ़िए जीवन के इसी सत्य को उजागर करती किरण सिंह जी की लोकप्रिय कहानी …

जीवन का सत्य 

अरे – अरे यह मैं कहाँ आ गई? अपनी हमउम्र श्याम वर्णा तराशे हुए नैन नक्श वाली साध्वी को अपनी खाट के बगल में काठ की कुर्सी पर बैठे हुए देखकर मीना कुछ घबराई हुई सी उससे पूछ बैठी। साध्वी वृक्ष के तना के समान अपनी खुरदुरी हथेली उसके सर पर फेरती हुई बोली बहन घबराओ नहीं तुम सुरक्षित स्थान पर आ गई हो।
मीना – लेकिन कहाँ? और फिर मैं यहाँ कैसे आ गई?

साध्वी बगल में रखे हुए एक केतली में से तुलसी पत्ता, अदरक और गुड़ का काढ़ा स्टील के गिलास में उड़ेलती हुई बोली उठो बहन पहले काढ़ा पी लो मैं सब बताती हूँ। वैसे भी इतनी ठंड है और तुम नदी में… अपने प्रश्न को अधूरा छोड़ते हुए ही साध्वी दूसरा प्रश्न कर बैठी आखिर ऐसी कौन सी मुसीबत आन पड़ी थी बहन कि ईश्वर का दिया हुआ इतना सुन्दर उपहार को ही समाप्त करने जा रही थी वो तो अच्छा हुआ कि तुम्हें बचाने के लिए अपने दूत प्रेमानन्द को ईश्वर ने भेज दिया था वर्ना………

इतना सुन्दर शरीर ईश्वर ने दिया है तुम्हें और जहाँ तक मैं तुम्हें समझ पा रही हूँ अच्छे – खासे घर की लग रही हो साध्वी किसी ज्योतिषाचार्य की भांति मीना का भूत, भविष्य और वर्तमान गिन रही थी और काढ़ा के एक – एक घूंट के साथ – साथ मीना की कड़वी यादें भी उसके मन जिह्वा को कसैला कर रहीं थीं और आँसू पलकों में आकर अटक गये थे जो ज़रा भी भावनाओं के वेग से टपक पड़ते।

गलत कहते हैं लोग कि स्त्री ही स्त्री की शत्रु होती हैं सच तो यह है कि पुरुष ही अपनी अहम् तथा स्वार्थ की सिद्धि के लिए एक स्त्री के पीठ पर बंदूक रखकर चुपके से दूसरी स्त्री पर वार करते हैं जिसे स्त्री देख नहीं पाती और वह मूर्खा स्त्री को ही अपनी शत्रु समझ बैठती है। सोचते – सोचते अविनाश के थप्पड़ की झनझनाहट को वह भी दूसरी औरत के लिये उसके गालों पर पुनः महसूस होने लगे और अश्रु बूंदें टपककर उसके घाव पर मरहम लगाने लगे लेकिन पीड़ा अधिक होने पर मरहम कहाँ काम कर पाता है और उसमें भी अपनो से मिली हुई पीड़ाएँ तो कुछ अधिक ही जख्म दे जाती हैं।

मीना सोचती है कि मायके भी तो माँ से ही होता है न। आज मेरी माँ जिन्दा होती तो क्या मुझे मायके से इस कदर लौटाती जैसे पिता जी ने समझा बुझाकर मुझे उसी घर में जाने को बोल दिया जहाँ से पति थप्पड़ मार कर खदेड़ दिया हो? नहीं, नहीं माँ एक स्त्री थी वह जरूर मेरे दुख, दर्द, तथा भावनाओं को समझती।
अपनी माँ को याद करते – करते मीना को अचानक अपने बच्चे याद आ गये और वह तड़प उठी। मीना सोचने लगी इस उम्र में मैं अपनी स्वर्गवासी माँ को याद करके रो रही हूँ और मैं खुद एक माँ होते हुए भी जीते जी अपने बच्चों को कसाई के हवाले कर आई। क्या अविनाश (बच्चों के पिता) बच्चों पर हाथ न उठायेंगे? ओह मैं भी कितनी स्वार्थी निकली। मीना अपनी कायरता से खिन्न विवश साध्वी के गले लग कर फूट-फूट कर रो पड़ी।

साध्वी मीना को समझाते हुए बोली मत रो बहन,अब तुम ईश्वर के शरण में आ गई हो इसलिए मोह माया का त्याग करो। मान लो तुम यदि डूब गई होती तो..? तो कौन तुम्हारे बच्चों को देखता? जिस ईश्वर ने जन्म दिया है वही पालन पोषण भी करेगा तुम आराम करो अभी ।

देखो तो तुम्हारा वदन कितना तप रहा है। साध्वी के स्पर्श में एक अपनापन था इसलिए मीना उसकी बात मान कर सोने का प्रयास करने लगी।
मीना जब सुबह उठी तो कुछ ठीक महसूस कर रही थी। तभी साध्वी फिर वही काढ़ा लिये पहुंचती है और पूछती है कैसी हो बहन?
मीना – अब कुछ अच्छी हूँ बहन
साध्वी – तो चलो आज मैं तुम्हें गुरू जी से मिलाती हूँ।
मीना अपने आँखों से ही हामी भर दी।
साध्वी गेरूआ रंग का वस्त्र देते हुए मीना से बोली नहा लो फिर चलते हैं।

जीवन का सत्य

मीना नहा धोकर गेरुआ वस्त्र लपेटे बिल्कुल साध्वी लग रही थी। वह यन्त्रवत साध्वी के पीछे – पीछे चलने लगी। साध्वी एक कमरे में ले गई जहाँ पूरे घर में मटमैले रंग की दरी बिछी हुई थी जिसपर करीब सौ साध्वी और साधु जिनकी उम्र भी करीब – करीब पच्चीस से पचास वर्षों के बीच की होगी। कमरे के एक तरफ ऊँची सी चौकी जिसपर सफेद रंग का मखमली चादर बिछा हुआ था। चादर के ऊपर दो मसनद जिसपर गेरूआ मखमली खोल लगा था। गुरु जी मसनद के सहारे बैठे थे। साध्वी उनके सामने जाकर पहले पाँव छूकर प्रणाम की तो पीछे से मीना ने भी नकलची बन्दरों की तरह ठीक वैसे ही प्रणाम कर लिया। गुरु जी अपने दाहिने हाथो को आशिर्वाद मुद्रा में ले जाकर दोनो को आशिर्वाद दिये और बैठने का इशारा कर दिये।

साध्वी गुरु जी के उपदेश का पालन करते हुए एक तरफ मीना के साथ बैठ गई। गुरु जी का उपदेश चालू था। मीना मन्त्र मुग्ध हो सुनी जा रही थी। अशांत चित्त को कुछ शांति मिल रही थी। गुरु जी का प्रवचन समाप्त हुआ। सभी उठ कर जाने लगे तो गुरु जी के इशारे पर साध्वी ने मीना को रोक लिया। साध्वी भी कमरे में से जाने लगी तो मीना को थोड़ी घबराहट हुई तो साध्वी उसे भांपकर बोली घबराओ मत बहन मैं बाहर ही हूँ। आज तुम्हें गुरु जी दीक्षा देंगे मतलब तुम्हारे कान में मंत्र बोलेंगे जिसे तुम याद कर लेना। बहुत किस्मत से ही ऐसे गुरु मिलते हैं कहकर साध्वी बाहर चली गई। गुरु जी ने मीना के कान में मंत्र बोला और कोई एक फल छोड़ने को कहा।

इधर मीना के पति अविनाश परेशान हर रिश्ते 1नाते तथा दोस्त मित्रों से पूछते रहे लेकिन मीना का पता ठिकाना किसी से भी पता नहीं चला । थक हारकर अविनाश थाने में रपट लिखाने के लिए जैसे ही जाने को हुए वैसे ही मोवाइल पर रिंग हुई जो कि किसी आश्रम से था।

अविनाश मोवाइल से बात करने के तुरंत बाद जैसै तैसे अपनी गाड़ी निकाले और आश्रम पहुंचे । आश्रम में मीना को देखकर उसे अपने आप पर बहुत ग्लानि हुई। कहाँ मीना के माँग में सिंदूरी गंगा बह रही थी जिसे उसी ने अपनी चुटकियों से उतारा था आज बालू की रेत उफ…घर चलने को कहता भी तो किस मुंह से फिर भी वह मीना को मनाने की कोशिश किया बच्चों का भी वास्ता दिया लेकिन पाषाणी बनी मीना का दिल नहीं पिघला। बल्कि उसने जो भी गहने पहने थे उसे एक पोटली में बांधकर अविनाश को देते हुए कहा इसे भी लेते जाइये। अब यह सब मेरे काम का नहीं है।

अविनाश एक हारे हुए जुआरी की तरह वापस अपने घर लौट आया।

प्रति माह गुजारा भत्ता के रूप में आश्रम में दो हजार रुपये भेज देता था जो कि आश्रम का फीस था।

आश्रम के कठोर नियम का निर्वहन करते- करते कभी-कभी मीना परेशान भी हो जाती थी। कितना भी कोशिश करती लेकिन बच्चों की यादें उसके हृदय में लहर बनकर उठती थीं और आँखों के रास्ते छलक ही आती थीं। मन होता था कि अपने घर वापस चली जाये लेकिन उसका स्वाभिमान उसके पाँवों को जकड़ लेता था।
कभी-कभी सोचती थी कि गलती चाहे स्त्री करे चाहे पुरुष, दोनो ही दशा में भुगतना स्त्री को ही पड़ता है। माँ सीता को राम ने छोड़ा था और मैं स्वयं घर छोड़ आई वनवासी जीवन व्यतीत कर रही हूँ।

इस तरह आश्रम में रहते – रहते मीना के करीब तीन वर्ष बीत गये। अचानक मीना की तबियत बहुत बिगड़ गई। उपचार आश्रम में ही चल रहा था लेकिन कोई फायदा नहीं हो रहा था। उसे लग रहा था कि अब इस धरती से जाने का समय आ गया है। मीना अपने मोवाइल से अविनाश को सूचित कर मुर्छित अवस्था में चली गई।
जब मीना को होश आया तो एक बहुत बड़े अस्पताल में अपने को पाया जहाँ सामने उज्वल वस्त्रों में नर्स बड़े मीठे स्वरों में बोली कैसी हैं मैम..?

मीना – ठीक हूँ लेकिन कहाँ हूँ मैं.?

मैम आप हास्पिटल में हैं तीन दिनों से आपके पति हास्पिटल से हिले भी नहीं। बहुत लकी हैं आप जो आपको ऐसे पति मिले ।

तब तक अविनाश हास्पिटल के रूम में प्रवेश करते हैं। आते ही मीना के सिर पर हाथ फेरते हुए हाल पूछते हैं।
पति के स्निग्ध स्पर्श से मीना की पीड़ा कुछ कम हो रही है। तब तक सीनियर डाॅक्टर के साथ दो और असिस्टेंट डाॅक्टर राऊंड पर आते हैं और मीना का रिपोर्ट देखकर बोले आप कल डिस्चार्ज हो रही हैं।
मीना का दिल चाह रहा था कि कुछ दिनों तक यहीं रहे। कम से कम पति के साथ तो है। उसे आश्रम जाने का बिल्कुल मन नहीं हो रहा था।

शाम को जब बच्चे मिलने आये तो उसका हृदय और भी पसीज गया। वह चाह रही थी कि बच्चे उसे घर चलने को कहें लेकिन शायद वह मीना के बिना रहने के आदी हो गये थे इसलिये वह मिलकर चले गये।
हास्पिटल से डिस्चार्ज का समय हो रहा था। तभी नर्स एक पैकेट लिये आती है और कहती है मैम आपका ड्रेस चेंज करना है आज आप डिस्चार्ज हो रही हैं। मीना ‘हूँ’ कहकर बैठ गई। नर्स पैकेट खोलती है जिसमें मीना का मन पसंद रंग की गुलाबी साड़ी और उसी से मैचिंग चूड़ियाँ, बिंदिया और साथ में सिंदूर। मीना चुपचाप तैयार हो रही थी।
जीवन का सत्य

नर्स चली गई तो अविनाश अन्दर प्रवेश किये दोनों की आँखें आपस में टकराई और फिर मीना की पलकें झुक गईं। मानों वे पहली बार मिल रहे हों। अविनाश अपनी जेब से एक डिब्बा निकाला जिसमें मीना के लौटाये हुए गहने थे। उसमें से मंगलसूत्र निकालकर मीना को पहना दिया। मीना अविनाश के गले से लिपटकर सिसक पड़ी। सारे गिले शिकवे आँसुओं में बह गये।
मीना ने कहा मुझे घर ले चलिये। अविनाश ने कहा घर तो तुम्हारा ही है।
©किरण सिंह
यह कहानी दैनिक भास्कर पटना में प्रकाशित है 
                                        
लेखिका किरण सिंह
परिचय –
जन्मस्थान – ग्राम – मझौआं  , जिला- बलिया
उत्तर प्रदेश 
जन्मतिथि 28- 12 – 1967
शिक्षा – स्नातक, गुलाब देवी महिला महाविद्यालय, बलिया (उत्तर प्रदेश)
संगीत प्रभाकर ( सितार ) 
प्रकाशित पुस्तकें – मुखरित संवेदनाएँ
( काव्यसंग्रह ) प्रीत की पाती ( काव्य संग्रह) अन्तः के स्वर ( दोहा संग्रह )
प्रेम और इज्जत ( कथा संग्रह )
शीघ्र  प्रकाश्य – मुखरित संवेदनाएँ ( द्वितीय संस्करण)
अन्तर्ध्वनि
, ( कुंडलिया संग्रह),
शगुन के स्वर ( विवाह गीत संग्रह ), देव दामिनी (
प्रबंध काव्य )
 
उपलब्धियाँ – विभिन्न राष्ट्रीय तथा
अन्तरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाएँ एवम् आकाशवाणी तथा दूरदर्शन पर
रचनाओं का प्रसारण!
लेखन विधा – गीत, गज़ल, छन्द बद्ध तथा
छन्मुक्त पद्य
, कहानी, आलेख, समीक्षा, व्यंग्य !
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