जब बात किस्सों की आती है तो याद आती है जाड़े की गुनगुनी धूप सेंकते हुए, मूंगफली चबाते हुए दादी –नानी के पोपले मुँह से टूटे हुए दांतों के बीच से सीटी की तरह निकलती हवा के साथ निकलती रोचक किस्सों की फुहार, “हमारे जमाने में तो …|” या फिर रात को अंगीठी के चारों ओर घेरा बनाकर भाई –बहनों के बीच किस्सों की अन्ताक्षरी, “जानते हो, मेरे क्लास में ना..” | किस्सों का जादू ही कुछ ऐसा है जो सब को अपने पास खींच लाता है, “हाँ भैया ! और बताओ| और शुरू हो जाते हैं किस्से यहाँ वहाँ सारे जहाँ के |“ मुझे लगता है कि हम भारतीय किस्से सुनने-सुनाने के मामले में कुछ ज्यादा ही शौक़ीन रहे हैं | इसके लिए हमारे पास कभी समय की कमी नहीं रही | शादी-बरात से लेकर, बसों और ट्रेनों में धक्के खाते हुए, और चाय और पान की गुमटी पर भी जहाँपनाह किस्सों का दरबार सजा ही रहता है |
खैर ! इस बार सर्दी भी ऐसी नहीं है कि गुनगुनी धूप दिखे | बड़े शहरों में अंगीठियाँ भी कब की एंटीक आइटम हो गयी हैं | लोग भी और-और का नारा लगाते हुए तेज़ दौड़ने लगे हैं, घड़ी की सुइयां भी एक घंटे में दो घंटे की रफ़्तार से सफ़र तय करने लगीं | शहर तो छोड़िये, गाँव की चौपाले भी टी.वी. कम्प्यूटर के आगे पालथी मार कर बैठने लगीं हैं | तो ऐसी में ताज़े-ताज़े नर्म-नर्म किस्सों के पुराने आशिक कहाँ जाए ? सुशोभित जी की किताब ‘माउथ ऑर्गन’ किस्से के उसी स्वप्न लोक में ले जाती है | जैसे सात सुरों से तरह –तरह की धुन बनायी जाती है वैसे ही इसमें तरह- तरह की किससे धुनें हैं | जो जो उन्हीं मूल इमोशंस से जुड़े होने के बावजूद अपने आरोह अवरोह से अलग –अलग संगीत पैदा करती हैं |
माउथ ऑर्गन –किस्सों के आरोह-अवरोह की मधुर धुन
यूँ तो किस्सागोई किसी कहानी का हिस्सा होती है पर इसे पूरी तरह से कहानी नहीं कहा जा सकता है | ये कुछ इसी तरह से है जैसे बादल से अलग हुआ उसका कोई टुकड़ा अपने आप में मुक्कमल बादल ही है | बड़े बादल देर तक बरसते हैं तो छोटे बादल की रिमझिम फुहार भी भली लगती है | किस्से कथा और कथेतर के बीच का कुछ हैं | मैं सुशोभित जी की इस बात से सहमत हूँ कि इसमें कुछ किस्से ‘नैरेटिव प्रोज’ और कुछ ‘फिक्शनलाईज़ड मेमायर्स’ की श्रेणी में आते हैं | यानी कुछ ब्यौरों में रमने वाला गल्प और कुछ आपबीतियाँ | किस्सों का स्वरुप कुछ भी हो उनमें सबसे महत्वपूर्ण होता है उनको कहने की कला | ये कला ही है, बोलने वाला जब बोलता है तो सुनने वाला आँखों में आगे क्या होगा का प्रश्नवाचक चिन्ह खींचे, उत्सुकता में मुँह बाए सुनता है | किस्सों का किसी महत्वपूर्ण रोचक मुकाम पर खत्म हो जाना ही उनकी विशेषता है |
चलिए किस्से की बातों से निकल कर आते हैं किस्सों-कहानियों या कहन की किताब यानी कि ‘माउथ ऑर्गन’ पर | इस किताब में छोटे –बड़े सौ से ऊपर किस्से हैं | जो अलग –अलग मूड के हैं | कहीं पाठक को जानकारी देते तो कहीं उनकी भावनाओं के जल में एक छोटा सा कंकण डाल कर भंवर उत्पन्न करते हुए, तो कहीं यूँ ही हलके –फुल्के टाइम पास टाइप | हर किसी की एक अलग आवाज़, एक अलग अहसास | ये किस्से आपस में जुड़े हुए नहीं हैं | इसलिए आप इस किताब को कहीं से भी शुरू कर के पढ़ सकते हैं | जब मन आया जिस किस्से पर नज़र जम गयी उसी को पढ़ लिया | वैसे कुछ किस्सों में पुराने किस्सों का जिक्र है | उस में भी कोई दिक्कत नहीं है, आप पन्ना पलटिये उस किस्से तक जाइए और पढ़ डालिए | आसान इसलिए कि किस्से छोटे –छोटे हैं और बहुत समय नहीं माँगते | फिर भी हर पाठक का अपना –अपना तरीका होता है |
जैसे मैंने सबसे पहले किस्सा पढ़ा “अखबार” | ये शायद पीछे से दो चार किस्से पहले है | मैंने इसे ही पढने के लिए सबसे पहले क्यों चुना मुझे पता नहीं | शायद एक कारण ये है कि एक लम्बे समय तक मैं भी अख़बार को पीछे के पन्नों से पढ़ती थी | पहला और दूसरा पन्ना मैं आँखों के आगे से ऐसे सरका देती थी जैसे टीवी का रिमोट हाथ में लेकर कुछ फ़ास्ट फॉरवर्ड कर दिया हो | ये वो समय था जब पिताजी की मृत्यु के बाद मैं निराशा से जूझ रही थी | और मुझे लगता था कि मैं दुःख से इतना भरी हुई हूँ कि दुनिया का और कोई दुःख सह नहीं पाऊँगी |अब अखबार हैं खबरे हैं तो वो दुःख को ही लिखेंगे | जैसा की सुशोभित जी लिखते है कि“बुरी खबरें सबसे अच्छी खबरें होती हैं, क्योंकि बुरी खबरें खूब बिकाऊ होती हैं बाज़ार में हाथों –हाथ उठती हैं | ये हमें अखबारों में सिखाया गया था, और ऐसा सिखाने वालों में वे अखबार भी शुमार थे, जो आज ‘केवल अच्छी खबरों” का स्वांग रहते हैं |”
‘स्कूल’ से लेकर ‘पासपोर्ट साइज़ तसवीरें’ पिता और मासूम पुत्र के किस्से हैं | जिसमें पुत्र की मासूम बातें दिल को गुदगुदाती हैं वहीँ पिता की छलक-छलक कर बहती ममता भाव –विभोर कर देती है | स्कूल गेट पर इंतज़ार करते पिता के शब्द देखिये,
“बाहर जहाँ बच्चों के नन्हे जूते तरतीब से सजे होते हैं, वहां खड़े –खड़े इंतज़ार करते पापा को अक्सर ये मायूसी घेर लेती है कि बेटा धीरे –धीरे उस दुनिया में प्रवेश करता जा रहा है, जहाँ शायद उस तक हरदम पहुँच पाना इतना सरल नहीं रहेगा, जैसे हाथ बढाकर उसकी आँखों पर चले आये बालों को पीछे हटा देना |”
“दुनिया बढती जा रही है इसका मतलब दुनिया में मौजूद दूरियाँ भी फ़ैल रही हैं |”इस किस्से को पढ़कर किसको अपने बच्चे के स्कूल के गेट पर उसकी छुट्टी की प्रतीक्षा में खड़े रहना नहीं याद आ जाएगा | “माउथ ऑर्गन’ किस्सा जिस पर किताब का नाम रखा गया है वो भी चुनु और उसके पापा का ही किस्सा है | क्रिसमस पर बच्चे की माउथ ऑर्गन की फरमाइश और पिता का उसे तरह –तरह के किस्से सुना कर बहलाना वात्सल्य से भर देता है | अन्तत: बच्चे को माउथ ऑर्गन मिल जाता है और पाठक को एक बेहतरीन किस्सा …
“बाहर जहाँ बच्चों के नन्हे जूते तरतीब से सजे होते हैं, वहां खड़े –खड़े इंतज़ार करते पापा को अक्सर ये मायूसी घेर लेती है कि बेटा धीरे –धीरे उस दुनिया में प्रवेश करता जा रहा है, जहाँ शायद उस तक हरदम पहुँच पाना इतना सरल नहीं रहेगा, जैसे हाथ बढाकर उसकी आँखों पर चले आये बालों को पीछे हटा देना |”
“दुनिया बढती जा रही है इसका मतलब दुनिया में मौजूद दूरियाँ भी फ़ैल रही हैं |”इस किस्से को पढ़कर किसको अपने बच्चे के स्कूल के गेट पर उसकी छुट्टी की प्रतीक्षा में खड़े रहना नहीं याद आ जाएगा | “माउथ ऑर्गन’ किस्सा जिस पर किताब का नाम रखा गया है वो भी चुनु और उसके पापा का ही किस्सा है | क्रिसमस पर बच्चे की माउथ ऑर्गन की फरमाइश और पिता का उसे तरह –तरह के किस्से सुना कर बहलाना वात्सल्य से भर देता है | अन्तत: बच्चे को माउथ ऑर्गन मिल जाता है और पाठक को एक बेहतरीन किस्सा …
“ सांता हर उस जगह पर मौजूद है जहाँ एक बच्चे के मन में सपने पल रहे होते हैं और जहाँ एक बच्चे के मन के सपने पूरे हो जाते हैं | सांता कोई आदमी नहीं बल्कि सपने देखने और पूरा करने का दूसरा नाम है |”
किस्सों की दुनिया में जहाँ आपको रबड़ी, रसगुल्ला, शरीफा और पेंडे के मीठे किस्से मिलंगे वहीँ संतु बाबू और स्वान वृन्द, गबरू भाई की कुल्फियां, आगरे में स्पेन की लड़की, ‘लड़की स्कूल की माया’ जैसे रोचक किस्से भी मिलेंगे | पूरियों के किस्से में हो सकता है कि सुशोभित जी की तरह आप के दिमाग को भी ये सवाल उलझाए कि खीर-पूड़ी, हलवा-पूड़ी , साग-पूड़ी आदि में … हलवा के साथ पूड़ी को खाते नहीं देखा जाता | हालांकि ये बात पूर्ण रूप से अचम्भे की नहीं है | उत्तर प्रदेश में देवी के जितने भी पूजन होते हैं वहां हलवा पूड़ी का ही भोग लगता है | कंचक में भी हलवा पूड़ी ही खिलाया जाता है | साथ में चने रखने की परंपरा बाद में पंजाब से आई | खरी –खरी अलोनी पूड़ी और हलवा ही रहता था | लेकिन अब लगभग पूरे देश ने चने को खासकर खट्टे चने को अपना लिया है | अब देवी मैया अलोनी पूड़ी क्यों खाती थी, ये अभी भी शोध का विषय है |
दो किस्से जिनको पढ़ने के बाद एक गहरी उदासी दिल पर छाई रही उनका जिक्र जरूर करुँगी | वो किस्से हैं , “ जिन स्टेशनॉन पर नहीं रूकती रेलगाड़ी” “लखनऊ आउटर का लैंप पोस्ट” और “सोमवार”| हालांकि ये कोई दुःख के किस्से नहीं हैं पर गहरी संवेदना जगाते हैं | ये बिम्ब बहुत ही प्रभावशाली हैं | कई किस्से हैं जो जानकारी से भरपूर हैं जैसे “ उत्तरी मिल्दाविया के चित्रित मठ” “गुलज़ार का सफ़ेद कुर्ता” “मुगलों का मांडव”आदि |
कुल मिला कर ये किताब रोचक किस्सों का एक संदूक है | जिसे एक बार खोलने के बाद आप इस खजाने को अपनी गिरफ्त में लेने से खुद को रोक नहीं पायेगे | क्योंकि इनमें किस्से तो हैं ही, भाषा का जादू है, भावनाओं का समुन्द्र है और तथ्यों की खोज है | चाहे किस्सा ग़ालिब की हवेली का हो या आम की किस्मों का या शरीफे का, सब में एक गहन अध्यन, एक खोज चलती है | जब आप कोई किस्सा पढ़ते हैं उसके बाद आपके जेहन में भी एक खोज शुरू हो जाती है | जैसे मैंने अपनी हलवा –पूड़ी की खोज के बारे में तो बता ही दिया और भी खोजें हैं जिनमें मुझे गूगल की शरण लेनी पड़ी | इससे पाठक की जानकारी की सीमाओं का भी विस्तार होता है | इनमें से कुछ किस्से मैंने सुशोभित जी की फेसबुक वाल पर पढ़े हैं पर किताब में उनको दुबारा पढने में कम मजा नहीं आया |सुशोभित जी की एक खास लेखन शैली है जो गंभीर है, उसमें दार्शनिकता का पुट है | जिस कारण हल्के –फुल्के किस्सों में भी एक वजन आ गया है | कई किस्से जो आप जल्दी से पढ़ जाते हैं उसे थोड़ा ठहर कर पढेंगे तो उसमें कोई गहरी बात, गहरी पंक्ति जरूर मिलेगी | जिसे आप देर तक सोचते रह सकते हैं | अब ये आप के ऊपर है कि आप उसे कैसे पढ़ते हैं | हिंदी युग्म से प्रकाशित 192 पृष्ठ की ये किताब अपनी भाषा और दिलकश अंदाज के कारण आपके जेहन में और लाइब्रेरी में एक स्थान बनाने की क्षमता रखती है |
अगर आप बहुत गंभीर साहित्य से इतर कुछ हल्का फुल्का और अच्छा पढना चाहते हैं तो ये किताब आपके लिये मुफीद है |
माउथ ऑर्गन
लेखक -सुशोभित
प्रकाशक -हिंदी युग्म
पृष्ठ -192
मूल्य -175
अमेजॉन से मंगवाएं –माउथ ऑर्गनसमीक्षा -वंदना बाजपेयी
लेखक -सुशोभित
प्रकाशक -हिंदी युग्म
पृष्ठ -192
मूल्य -175
अमेजॉन से मंगवाएं –माउथ ऑर्गनसमीक्षा -वंदना बाजपेयी
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बहुत ही खूबसूरत समीक्षा। बिल्कुल नया विषय पर लिखा गया है।वंदना जी को परिचय कराने के लिए धन्यवाद। लेखक सुशोभित को हार्दिक बधाई।