जिस शहर में क़रीब 50 साल पहले नव वधु के रूप में आई थी उसी शहर में हम कुछ दिन पहले,परिवार ही नहीं कुटुम्ब के साथ पर्यटक की तरह गये थे। मैं ग्वालियर का जिक्र कर रही हूँ।
मेरे पति उनके भाई बहन इसी शहर में पले बढ़े हैं। मेरी बेटी का जन्म स्थान भी ग्वालियर ही है। 1992 तक यहाँ हमारा मकान था, जो बेच दिया था अब उस जगहकपड़ों का होल सेल स्टोर बन चुका है,पर वो गलियाँ सड़कें बदलने के बाद भी बहुत सी यादें ताज़ा कर गई। पुराने पड़ौसी और यहाँ तक कि घर मे काम करने वाली सहायिकाओं की अगली पीढ़ी भी मिली।छोटे शहरों की ये संस्कृति हम दिल्ली वालों के लिये अनमोल है।
ग्वालियर यात्रा संस्मरण
जब यहाँ घर था तब कभी पर्यटन के लिये नहीं निकले या ये कहें कि उस समय पर्यटन का रिवाज ही नहीं था। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने शहर की जगहों के नाम इतने सुने होते हैं कि लगता है यहाँ पर्यटन के लायक कुछ है ही नहीं!तीसरी बात कि पिछले तीस दशकों में यातायात और पर्यटन की सुविधाओं काबहुत विकास हुआ है जो पहले नहीं था।
हमारे वृहद परिवार से तीन परिवारों ने पर्यटन पर, तथा पुरानी यादें ताज़ा करने के लिये ग्वालियर जाने का कार्यक्रम बनाया, चौथा परिवार रायपुर से वहाँ पहुँचा हुआ था। एक परिवार की तीन पीढ़ियाँ और बाकी परिवारों की दो पीढ़ियों का कुटुंब(15 व्यक्ति) अपने शहर पहुँचकर काफ़ी नॉस्टैलजिक महसूस कर रहे थे।
हम दिल्ली से ट्रेन से गये थे, शताब्दी से साढ़े तीन घंटे का सफ़र मालूम ही नहीं पड़ा। आजकल होटल, टैक्सी सब इंटरनैट पर ही बुक हो जाते हैं तो यात्रा करना सुविधाजनक हो गया है परन्तु हर जगह भीड़ बढ़ने से कुछ असुविधाये भी होती हैं। होटल में कुछ देर विश्राम करने के बाद हम जयविलास महल देखने गये।
जयविलास महल शहर के बीच ही स्थित है।ये उन्नीसवीं सदी में सिंधिया परिवार द्वारा बनवाया गया था और आज तक इस महल का एक हिस्सा उनके वंशजों का निजी निवास स्थान है। महल के बाकी हिस्से को संग्रहालय बना कर जनता के लिये खोल दिया गया है।मुख्य सड़क से महल के द्वार तक पहुँचने के मार्ग के दोनों ओर सुन्दर रूप से तराशा हुआ बग़ीचा है जिसमें खिली बोगनवेलिया की पुष्पित लतायें मन मोह लेती हैं।महल के बीच के उद्यान भी सुंदर हैं। संग्राहलय की भूतल और पहली मंजिल पर सिंधिया राज घराने के वैभव के दर्शन होते हैं। भाँति भाँति की पालकियाँ और रथ राजघराने के यातायात के साधन मौजूद थे।साथ ही कई बग्घियों के बीच एक छोटी सी तिपहिया कार भी थी।
महल में राजघराने के पूर्वजों के चित्रों को उनके पूरे परिचय के साथ दिखाया गया है। राजघराने में अनेकों सोफ़ासैट और डाइनिंग टेबल देखकर मुझे उत्सुकता हो रही थी कि एक समय में वहाँ कितने लोग रहते होंगे !नीचे बैठकर खाने का प्रबंध भी था। किसी विशेष अवसर पर दावत के लिये बड़े बड़े डाइनिंग हॉल भी देखे जहाँ एक ही मेज़ पर मेरे अनुमान से सौ ड़ेढ़ सौ लोग बैठकर भोजन कर सकते हैं।यहाँ की सबसे बडी विशेषता मेज़ पर बिछी रेल की पटरियाँ है।इन रेल की पटरियों पर एक छोटी सी रेलगाड़ी खाद्य सामग्री लेकर चक्कर काटती थी। ये रेलगाड़ी एक काँच के बक्से में वहाँ रखी है। एक वीडियो वहाँ चलता रहता है जिसमें ये ट्रेन चलती हुई दिखाई गई है।
एक दरबार हाल में विश्व प्रसिद्ध शैंडेलियर का जोड़ा है, जिनका वज़न साढ़ तीन तीन टन है और एक एक में ढ़ाई सौ चिराग जलाये जा सकते हैं।संभवतः यह विश्व का सबसे बड़ा शैंडेलियर है। इस दरबार हाल की दीवारों पर लाल और सुनहरी सुंदर कारीगरी की गई है। दरवाज़ो पर भारी भारी लाल सुनहरी पर्दे शोभायमान हैं।जय विलास महल सुंदर व साफ़ सुथरा संग्रहालय है, यह योरोप की विभिन्न वास्तुकला शलियों में निर्मित महल है।
यहाँ पर्यटकों के लिये लॉकर के अलावा कोई विशेष सुविधा नहीं है।तीन मंजिल के संग्रहालय में व्हीलचेयर किराये पर उपलब्ध हैं परंतु न कहीं रैम्प बनाये गये हैं न लिफ्ट है जिससे बुज़ुर्गों और दिव्यांगों को असुविधा होती है। जन–सुविधाओं का अभाव है। पर्यटकों के लिये प्राँगण में एक कैफ़िटेरिया की कमी भी महसूस हुई।
यदि हर चीज़ को बहुत ध्यान से देखा जाये तो यहाँ पूरा दिन बिताया जा सकता है। हमारे साथ बुज़ुर्ग और बच्चे भी थे तो क़रीब तीन घंटे का समय लगा और कुछ हिस्सा देखने से रह भी गया।यहाँ घूमकर सब थक चुके थे, सफ़र की भी थकान थी और भूख भी लगी थी।
दोपहर का भोजन करने के बाद हम महाराज बाड़ा या जिसे सिर्फ़ बाड़ा कहा जाता है, वहाँ गये। यह स्थान शहर के बीच में है, जहाँ पहले भी
जब यहाँ घर था हम कई बार जाते रहे थे। यह ख़रीदारी का मुख्य केंद्र लगता था। घर के पीछे की गलियों से होते हुए यहाँ पैदल पहुँच जाते थे। अब यह बहुत बदला हुआ लगा। पहले दुकानों के अलावा कहीं ध्यान नहीं जाता था। अब बाड़े पर पक्की दुकाने नहीं है पर पटरी बाज़ार जम के लगा हुआ है।अब चारों तरफ़ की इमारतें और बीच का उद्यान ध्यान खींचते है। उद्यान के बीच में सिंधिया वंश के किसी राजा की मूर्ति भी है।
बाड़े पर रीगल टॉकीज़ में कभी बहुत फिल्में देखी थी पर फिल्मी पोस्टरों के पीछे छिपी इमारत की सुंदर वास्तुकला कभी दिखी ही नहीं थी। विक्टोरिया मार्केट कुछ समय पहले जल गया था जिस पर काम चल रहा हैं। पोस्ट ऑफ़िस की इमारत और टाउनहॉल ब्रिटिश समय की योरोपीय शैली की सुंदर इमारतें हैं। बाजार अब इन इमारतों के पीछे की गलियों और सड़केों में सिमट गये हैं।बाड़े से पटरी बाज़ार को भी हटा दिया जाना चाहिये क्योंकि ट्रैफ़िक बहुत है।पास में ही सिंधिया परिवार की कुलदेवी का मंदिर है। हमें बताया गया कि महल से दशहरे पर तथा परिवार में किसी विवाह के बाद यहाँ सिंधिया परिवार अपने पूरे राजसी ठाठ बाट मे जलूस लेकर कुलदेवी के मंदिर तक आता था और पूरे रास्ते में प्रजा इस जलूस को देखती थी। इस मंदिर का रखरखाव तो अब बहुत ख़राब हो गया है।पार्किग भी यहीं पर है। इस जगह को गोरखी कहते हैं यहाँ के स्कूल मे मेरे पति और देवर की प्राथमिक पाठशाला थी। बहनों का स्कूल भी पास में था। यहाँ जिस स्थान पर पार्किंग है वहाँ ये लोग क्रिकेट खेला करते थे।
यहाँ से हम लाला के बाज़ार गये। हाँ आपने सही पढ़ा है लाला का बाज़ार यहाँ वह मकान था जहाँ मेरा स्वागत नववधु के रूप में हुआ था। यह मकान जब घर था तो हम लगभग हर साल यहाँ आते थे पर शहर कभी नहीं घूमा था। उन दिनों घूमने फिरने का रिवाज ही नहीं था,मकान तो टूट चुका हैवहाँ हम अंदाज़ लगाते रहे कि यहाँ आँगन था वहाँ रसोई थी इत्यादि। घर के पीछे एक मकान वैसा का वैसा ही दिखा। उस परिवार की अगली पीढ़ी जो कि हमारे आयुवर्ग की है, उनसे मिले। इसके बाद एक और पड़ौसी के यहाँ गये जिनसे संपर्क बना हुआ था। इन्हे अपने आने की सूचना दे दी थी। उन सबसे मिलकर बहुत सी यादें ताज़ा हो गईं। हमारे घर में काम करनेवाली सहायिकाओं की अगली पीढ़ी भी हमें यहीं मिली। यहाँ से हम लोग होटल वापिस आ गये और ग्वालियर में हमारा पहला दिन पूरा हो गया।
अगले दिन हम सब ग्वालियर क़िला देखने गये जो शहर के बीच ही एक पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ कार से भी जाया जा सकता है और पैदल जाने का दूसरा रास्ता है। रास्ते में पत्थरों को काटकर कुछ जैन मुनियों के भित्ति चित्र हैं जो आक्रमणकारियों ने खराब कर दिये हैं, फिर भी अद्भुत हैं। किले पर पहुचकर एक संग्राहालय है जहाँ जगह जगह से मिली प्राचीन पत्थर की मूर्तियाँ हैं। राजा मानसिंह का महल है। ये महल लाल रंग के सैड स्टोन से बना है तरह तरह के जाली झरोखे हैं। बाहरी दीवारों पर कुछ काल्पनिक जानवरों और मछलियों की पेंटिंग है। सीढ़ियाँ बहुत सकरी और ऊँची है। राजामानसिंह की नवीं रानी अलग महल में रहती थीं वह गुर्जर थीं इसलियें उसे गूजरी महल भी कहा जाता है।
ग्वालियर के किले पर कई वंश के राजाओं का अधिकार रहा, यहाँ की इमारतों में हिन्दू और योरोपियन वास्तुकला का मिश्रण नज़र आता है।यहाँ एक गुरुद्वारा भी है क्योंकि ग्वालियर में कभी सिख सैनिकों को लाकर बसाया गया था।यहाँ का एक आकर्षण सास बहू का मंदिर हैं | दरअसल अब यहाँ मंदिर जैसा कुछ नहीं बचा है। ये दो मंदिर वास्तुकला के अद्भुत नमूने हैं। इस मंदिर का असली नाम सहस्त्रबाहु मंदिर है जो बोलते बोलते सास बहू हो गयाहै।एक स्थानीय किंवदंती है एक मंदिर शिव का है और एक विष्णु का, सास बहू के अलग अलग इष्ट थे एक शिव को पूजती थी, एक विष्णु को, इसलिये किसी राजा ने ये दो मंदिर बनवाये थें।यें मंदिर भी लाल सैंड स्टोन से बने हुए हैं।यहाँ से नीचे पूरा शहर दिखता है, बड़ा सुंदर लगता है, रात को और भी अच्छा दिखता होगा जैसे आसमान ऊपर है वैसे ही आसमान नीचे नज़र आता होगा।किले में अन्य स्थानों से भी शहर दिखता है।किले पर काफी बड़ा मैदान भी है, एक तेली का मंदिर और सूरज कुण्ड है पर समयाभाव और थकान के कारण सब कुछ देखना मुमकिन नहीं हुआ। इसी पहाड़ी पर सिंधिया स्कूल( लड़कों का)है जो पूरी तरह रिहायशी है। भारत के मंहगे और अग्रणी स्कूलों मं इसका नाम है।सिंधिया स्कूल से पढ़े हुए लड़के फ़ौज में, राजनीति में,लेखन और कला में नाम बना चुके है। सलमान ख़ान और अरबाज़ ख़ान यहाँ के पढ़े हुए हैं।
पर्यटकों के लिये यहाँ कोई विशेष सुविधायें नहीं हैं। गेट के पास ही एक दुकान पर पानी कोल्डड्रिंक और कुछ स्नैक्स मिलते हैं। व्हील चेयर चलाना मुश्किल है। जनसुविधायें भी नहीं दिखी । इतने बड़े क़िले के किसी अन्य कोने में हों तो पता नहीं। हमारे देश के पर्यटन स्थलों को वैश्विक स्तर का बनाने के लियें समुचित साफ़ सुथरी जनसुविधायें, एक कैफैटेरिया के साथ होनी चाहिये। हर स्थान को व्हीलचेयर की पहुँच में लाना ज़रूरी है, जिससे वृद्ध और दिव्यांग पर्यटन का पूरा आनंद ले सकें। का़नूनी तौर पर ये अनिवार्य होना चाहिये। ऐतिहासिक इमारतों का प्रारूप बदले बिना हर स्थान पर रैम्प और लिफ्ट लगने चाहियें। बस सरकार की तरफ़ से संवेदनशीलता की कमी है। योरोप और अमरीका के सभी देशों मे ये सुविधायें पर्यटन स्थलों पर ही नहीं यातायात के साधनों में भी हैं।
किलेसे उतर कर भोजन करते करते शाम हो चुकी थी। भोजन के बाद होटल में आकर कुछ देर आराम किया। कुटुम्ब के सदस्य अलग अलग अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने चले गये।हमें मिलने हमारे रिश्तेदा होटल में ही आ गये थे।तीसरे दिन परिवार की युवा पीढ़ी पैदल किले पर चढ़ी,सूर्योदय देखा । हम बुजुर्गों और बच्चों ने होटल में नींद पूरी की।
सुबह निश्चय किया गया कि हम दोनों और तनु कार से वापिस चलें।हमारे ग्रुप में एक कार उपलब्ध थी।गतिमान ऐक्सप्रैस जोकि झाँसी से आती है वो ग्वालियर केवल दो मिनट रुकती है। ग्वालियर के ट्रैफ़िक को देखते हुए ये समय बहुत कम है। ट्रेन में चढ़ने में सबको बहुत दिक़कत हुई क्योंकि सामान चढ़ाने, बुज़ुर्गों और बच्चों को चढ़ाने में सावधानी रखनी पड़ती है समय बहुत कम था।ख़ैर सभी लोग सकुशल ट्रेन में चढ़ गये। हमारे निकलने के बाद बाकी लोगों ने अपने जानने वालों से मुलाक़ात की शाॉपिंग की, खाना खाया और रेलवे स्टेशन पहुँच गये।ग्वालियर से आगरा कार यात्रा में ग्रामीण मध्य प्रदेश बहुत दिखा। जी पी ऐस की कृपा से राष्ट्रीय राजमार्ग तक पहुँच गये। जी पी ऐस रास्ता बंद होने की सूचना तो नहीं देता है। एक जगह फंस ही गये थे ,बहुत संकरी सड़क से निकलना पड़ा। आगरा पार करके यमुना ऐक्सप्रैस वे की ड्राइव तो जानी पहचानी है। शाम को 6 बजे घर पहुंचे और दो ढाई घंटे बाद ट्रेन से आने वाले मुसाफ़िरों के भोजन की व्यवस्था की।