टोहा टोही

कहानी -टोहां टोही






टोहा -टोही , जैसा की नाम से ही विदित हो रहा है थोड़ी सी रहस्यमय कहानी है | दीपक शर्मा जी एक उपेक्षित पत्नी के दर्द व् उसके द्वारा पति की जासूसी की जासूसी करने की इच्छा के सामान्य कथानक के साथ कहानी शुरू करती हैं परन्तु जैसे -जैसे कहानी आगे बढती है उसका कथानक विस्तृत होता जाता है व् जासूसी कहानियों  की तरह ये एक रहस्यात्मक रूप ले लेती है और अंत पाठक को  चौंका देता है | आप भी पढ़िए …

दीपक शर्मा की कहानी -टोहा -टोही






ड्राइवर नया था और रास्ता
भूल रहा था|


मैंने कोई आपत्ति न की|

एक अज़नबी गोल, ऊँची इमारत
के पोर्च में पहुँचकर उसने अपनी एंबेसेडर कार खड़ी कर दी और मेरे सम्मान में अपनी
सीट छोड़ कर बाहर निकल लिया|

पाँच सितारा किसी होटल
केदरबान की मुद्रा में एक सन्तरी आगे बढ़ा और उसने मेरी दिशा का एंबेसेडर दरवाजा
खोला|
मैं एंबेसेडर से नीचे उतर
ली|
ऊँची इमारत के शीशेदार गोल
दरवाज़े से बाहर तैनात दूसरे संतरी ने मुझे सलाम ठोंका और सरकते उस गोल दरवाज़े का
एक खुला अंश मेरी ओर ला घुमाया|
‘आपका बटुआ, मैडम?’ ड्राइवर
लपकता हुआ मेरे पास आ पहुँचा|



‘इसे गाड़ी में रहने दो,”
मैंने अपने कंधे उचकाए और मुस्करा पड़ी| स्कूल में हमें शिष्टाचार सिखाते हुए किस
टीचर ने लड़कियों की भरी जमात में कहा था, ‘अ लेड शुड ऑलवेज़ बी सीन कैरअ
गअ पर्स’ (एक भद्र महिला को
अपने बटुए के साथ दिखायी देना चाहिए)? चालीस बरस पूर्व? बयालीस बरस पूर्व? जब मैं
दसवीं जमात में थी? या आठवीं में?


मैंने गोल दरवाजा पार किया|
सामने लॉबी थी|


उसके बाएँ कोने में एक
काउंटर था और इधर-उधर सोफ़े बिछे थे|
कुछ सोफ़ों पर हाथ पैर पसारे
कुछ लोग बैठे थे|
मैं यहाँ क्या कर रही थी?


तभी एक पहचानी सुगन्ध मुझ
तक तैर ली|
मेरे पति यहीं कहीं रहे
क्या?
सुगन्ध की दिशा में मैंने
अपनी नज़र दौड़ायी|
बेशक वही थे|
यहीं थे|
ऊर्जस्वी एवं तन्मय|
मुझ से कम-अज़-कम बीस साल
छोटी एक नवयुवती के साथ|

मेरी उम्र के तिरपन वर्षों
ने मुझे खूब पहना ओढ़ा था किन्तु मेरे पति अपने पचास वर्षोंसे कम उम्र के लगते| इधर
दो-तीन वर्षों से उनके कपड़ों की अलमारी में रेशमी रुमालों और नेकटाइयों की संख्या
में निरन्तर और असीम वृद्धि हुईरही| बेशक अपनी उम्र से कम लगने का वह एक निमित्त
कारण ही था, समवायी नहीं|




मैं लॉबी के काउण्टर की ओर
चल दी| वहाँ लगभग तीस वर्ष की एक युवती तीन टेलिफोनों के बीच खड़ी थी| सफ़ेद सूती
ब्लाउज़ के साथ उसने बनावटी जार्जेट की काली साड़ी पहन रखी थी| किस ने कभी बताया रहा
मुझे सफ़ेद और काले रंग को एक साथ जोड़ने से पैशाचिक शक्तियाँ हमारी ओर आकर्षित होकर
हमारे गिर्द फड़फड़
ने लगती हैं? इशारे से हम उन्हेंअपने बराबर भी ला सकते हैं? उन्हें अपने अन्दर
उतार सकते हैं? बिखेर सकते हैं? छितरा सकते हैं?

‘कहिए मैम,’ युवती मेरी ओर
देखकर मुस्कुरायी|
‘उधर उन अधेड़ सज्जन के साथ
लाल कपड़ों वाली जो नवयुवती बैठी हँस-बतिया रही है वह कौन है?’ मैंने पूछा|
‘सॉरी,’ काउन्टर वाली युवती
ने तत्काल एक टेल
िफोन का चोंगा हाथ में उठाया और यन्त्र पर कुछ अंक घुमाने लगी, ‘जासूसी  में हम
किसी 
की सहायता करने में अक्षम रहते हैं’

‘बदतमीज़ी दिखाने में नहीं?’
मैं भड़क ली|
‘आप कौनहैं, मैम?’
काउन्टरवाली युवती चौकस होली|

‘एक उपेक्षित पत्नी’,
मैंने कहा| मार्कट्  वेन ने कहाँ लिखा था  ‘वेन इन डाउट, टेल द ट्रुथ’ (‘जब आशंका हो तो
सच बोल दो’)?

‘मैं आपका परिचय जानना
चाहती थी,’ काउन्टर वाली युवती फिर से टेल
िफोन यन्त्र पर अंक घुमाने लगी, “आप परिचय नहीं देना चाहती
तो न दीजिए| यकीन मानिए अजनबियों में हमारी दिलचस्पी शून्य के बराबर रहती है|”

‘आप फिर बदतमीज़ी दिखा रही
हैं,’ मैं चिल्ला उठी ‘मैं आपसे बात कर रही हूँ| आप से कुछ पूछ रही हूँ और आप हैं
कि टेल
िफोन से खेल रही हैं|’

मेरे पति भी अकसर ऐसा किया
करते| जैसे ही मैं उन के पास अपनी कोई बात कहने को जाती वे तत्काल किसी टेल
िफोन वार्ता में स्वयं को
व्यस्त कर लेते| बल्कि इधर अपने मोबाइल के संग वे कुछ ज्यादा ही ‘एंगेज्ड’ रहने
लगे थे| फोनपर बात न हो रही होती तो एस. एम. एस. देने में स्वयं को उलझा लिया
करते| और तो और, अपने मोबाइल फोन की पहरेदारी ऐसी चौकसी से करते कि मुझे अपने
वैवाहिक जीवन के शुरूआती साल याद हो आते जब मेरी खबरदारी और निगरानी रखने के
अतिरिक्त उन्हें किसी भी दूसरे काम में तनिक रूचि न रहा करती| भारतीय प्रशासनिक
सेवा में हम दोनों एक साथ दाखिल हुए थे| सन
सतहत्तर में| और अठहत्तर तक आते-आते हम शादी रचा चुके थे|
भिन्न जाति समुदायों से सम्बन्ध रखने के बावजूद|

‘बदतमीज़ी तो आप दिखा रही
हैं,’ काउन्टर वाली युवती की आवाज भी तेज हो ली, ‘मैं केवल अपना काम कर रही हूँ|’

‘मैं कुछ कर सकता हूँ, क्या
मैम?’ तभी एक अजनबी नवयुवक मेरे समीप चला आया| उसकी कमीज सफ़ेद सूती रही, अच्छी और
तीखी कलफ़ लिए| बखूबी करीज़दार|

‘मुझे उस नवयुवती की बाबत
जानकारी चाहिए,’ मैं विपरीत दिशा में घूम ली| काउन्टर वाली युवती से बात करते समय
अपने पति के सोफे की तरफ़ मेरी पीठ हो ली थी|



टोहा टोही








‘किस नवयुवती की बाबत
जानकारी चाहिए, मैम?’

मेरे पति वाला सोफ़ा अब खाली
था| मैं पुनः काउन्टर की ओर अभिमुख हुई, ‘उधर उस किनारे वाले सोफ़े पर मेरे पति लाल
कपड़ों वाली एक नवयुवती के साथ बैठे थे| वे दोनों कहाँ गए? कब गए?’

‘कौन दोनों?’ काउन्टर वाली
युवती ठठायी|

‘मैंने वे दोनों आपको
हँसते-बतियाते हुए दिखलाए थे,’ मैंने कहा, “एक अधेड़ और एक नवयुवती”
‘सॉरी,’ काउन्टर वाली युवती
ने मुझसे अपनी आँखें चुरा ली, ‘मैं कुछ नहीं जानती…..’
‘झूठ मत बोलो,’ गुस्से में
मैं काँप उठी, ‘उन्हें उधर एक साथ बैठे देख कर ही तो मैं तुम्हारे पास आयी थी|’

‘सॉरी,’ काउन्टर वाली ने
अपने दांत निपोरे, ‘मेरे पास निपटाने को बहुत काम बाकी हैं| मैं आपकी तरह खाली
नहीं हूँ| मेरा समय कीमती है| व्यर्थ गँवा नहीं सकती|’

‘आप मुझे बतलाइए, मैम,’
अजनबी नवयुवक ने एक मंदहास्य के साथ स्वयं को प्रस्तुत किया, ‘मैं ज़रूर आपकी
सहायता करना चाहूँगा|’

‘मेरे पति की एक गर्ल
फ्रेंड है,’ मैं नेकहा, मुझे उसका नाम और पता चाहिए|

‘आपके पति का नाम और पता?’
अजनबी नवयुवक का स्वर दुगुना विनम्र हो उठा| उसके चेहरे पर सहानुभूति भी आन बैठी|
‘मेरे बटुए में हैं…..’
‘आपका बटुआ?’
‘बाहरएंबेसेडर में रखा है…..’
‘एंबेसेडर का नम्बर?’
‘मुझेयाद नहीं…..’
‘ड्राइवर का नाम?’
‘ड्राइवर नया है…..’
‘लेकिन वह आपको जरूर पहचान
लेगा| आप जैसे ही बाहर निकलेंगी वह आपके पास दौड़ा चला आएगा…..’

‘ठीक है| मैं अपना बटुआ
लेकर लौटती हूँ…..’

लॉबीमें तैनात एक तीसरे
संतरी ने शीशेदार, गोलदरवाजे का खुला अंश मेरे सामने ला आवर्तित किया| एक सलाम के
साथ|

बाहर, पार्किंग में खड़ी सभी
गाड़ियाँ एंबेसेडर थीं| सभी का रंग सफेद था और कतार मेंखड़े सभी ड्राइवर एक-सी सफेद
वर्दी में थे|

‘आपके ड्राइवर को बुलवाएँ,
मैम?’ अंदर आते समय जिन दो संतरियों ने मेरे संग जी हुजूरिया बरती रही, वे दोनों मेरे
सामने आन खड़े हुए|’ ड्राइवर ही गाड़ी नहीं,’ मैंने कहा, ‘वह मुझे मेरा बटुआ ला
देगा|’

‘लीजिए मैडम,’ कतार तोड़ कर
एक ड्राइवर मेरे पलक झपकते-झपकते मेरे बटुए के साथ प्रकट हुआ|

बटुआ मैंने उसके हाथ से ले
लिया|

‘चाय पियोगे?’ मैंने पूछा|

ओट में खड़े वे दोनों संतरी
भी मेरे पास चले आए|

बटुआ खोल कर मैंने पचास रुपये
का नोट ड्राइवर के हाथ में ला थमाया, ‘तीनों लोग एक साथ चाय लेना|’
‘जी, मैडम,’ तीनों ने समवेत
स्वर में चाय की पावती का आभार माना औरफिर मुझे सलामी दी| अपना शीशेदार, गोल,
दरवाज़ा मेरी दिशा में सरकाते हुए|

मैं लॉबी में लौट ली|

‘आप अपना बटुआ ले आयीं, मैम?’
मुझे देखते ही वह अजनबी नवयुवक मेरी ओर बढ़ आया|
अपने बटुए से अपने पति का
कार्ड मैंने निकाला और उसकी ओर बढ़ा दिया|
उनका नाम पढ़कर वह
मुस्कराया|
‘तुम उन्हें जानते हो?’
मैंने पूछा|
‘जी, मैम…..’
‘लालकपड़े वाली उस नवयुवती
को भी?’
‘जी, मैम, आप उससे मिलना
चाहेंगी?’
‘वह यहीं काम करती है?’
‘जी, मैम| लिफ़ट से जाना होगा|’

लिफ़टमेरे लिए नयी थी लेकिन मैं
उसमें सवार हो ली|
रास्ते भर लिफ़ट में कईयात्री अपने-अपने
गन्तव्य तल पर पहुँचने के लिए उस पर चढ़ते और उतरते रहे|
अलबत्ता अंक दस तक आते-आते लिफ़ट में केवल मैं और वह अजनबी
नवयुवक ही रह गए| अंक ग्यारह में जैसे ही रोशनी चमकी, उसने स्टॉप का बटन दबा दिया|

लिफ़टरुक गई|

‘आइए,’ नवयुवक ने अपना पैर
लिफ़
ट छोड़ने के लिए
बढ़ाया तो मेरी निगाह उसकी पतलून पर जम गयी|
पतलून काली थी| उसके जूतों की
तरह|
‘वह नवयुवती यहाँ बैठती है?’
मैंने लिफ़
टन छोड़ी|
‘जी, मैम,’ अजनबी नवयुवक की
आवाज गूँजी, “अभी आपसे मिलवाता हूँ, मैम| आप आइए तो, मैम…..|”

लिफ़टके सामने वाली दीवार बंद
थी| बायीं एक दरवाजा लिए थी और दायीं एक खिड़की| दरवाजा आयताकार था और खिड़की मेहराबी|

वह खिड़की की ओर बढ़ लिया,
‘इस पूरी इमारत में यह एक अकेली खिड़की है जिसमें एयर कन
िशनर फ़िट नहीं हुआ है|’

‘वह नवयुवती यहाँ बैठती है?’
अपनी आवाज की कमान मैं अपने वश में रखे रही, “ग्यारहवें तल पर?”
‘जी, मैम,’ उसने आगे बढ़कर
खिड़की खोल दी, ‘अभी आपसे मैं मिलवाता हूँ…..|’
खिड़की के पट घिराव की दिशा
में न खुले, बाहर दीवार में खुले|
‘दरवाजा खुलवाएँ?’ मैंने
पूछा|



टोहा टोही



‘पहले इस खिड़की पर आए, मैम,’
उसकी आवाज में दुहरी गूँज ग्रहण कर ली, “इसका यह दर्रा देखिए, इसकी मेड
देखिए, इसकी ढलान देखिए|’

‘नहीं, पहले दरवाजा खुलवाएँगे,’
मैं दरवाजे की ओर बढ़ ली|
‘आप मेरी बात सुनती क्यों
नहीं, मैम,’ उसने मेरे हाथ का बटुआ हथिया लिया, ‘मानती क्यों नहीं?’
तभी एक जोरदार तिलमिली और
गुबार भरी गर्द मुझ पर टूट पड़ी|

दूर पार उनकी दिशा में उसने
मुझे उछाला रहा क्या?

मेरा सिर घूम लिया और मेरी
समूची देह चक्कर खाने लगी…..

अस्थिर, अरक्षित आकाश
में…..

सूरजको छूती हुई…..

हवा को चीरती हुई…..

ग्यारहवें तल की ऊँचाई को
पीछे छोड़ती हुई…..
भू-तल तक…..

गोल….. गोल….. गोल…..

खाली हाथ, तिरछे पाँव…..

चिटकने-फूटने हेतु…..

स्थावर, शरण्य धरा के
गतिरोध पर एक धमक के साथ|
टोहा टोही

दीपक शर्मा 
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लेखिका -दीपक शर्मा


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उसकी मौत



दीपक शर्मा जी का परिचय –

जन्म -३० नवंबर १९४६

संप्रति –लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज के अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर पद से सेवा निवृत्त
सशक्त कथाकार दीपक शर्मा जी सहित्य जगत में अपनी विशेष पहचान बना चुकी हैं | उन की पैनी नज़र समाज की विभिन्न गतिविधियों का एक्स रे करती है और जब उन्हें पन्नों पर उतारती हैं तो शब्द चित्र उकेर देती है | पाठक को लगता ही नहीं कि वो कहानी पढ़ रहा है बल्कि उसे लगता है कि वो  उस परिवेश में शामिल है जहाँ घटनाएं घट रहीं है | एक टीस सी उभरती है मन में | यही तो है सार्थक लेखन जो पाठक को कुछ सोचने पर विवश कर दे |
दीपक शर्मा जी की सैंकड़ों कहानियाँ विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं जिन्हें इन कथा संग्रहों में संकलित किया गया है |

प्रकाशन : सोलहकथा-संग्रह :

१.    हिंसाभास (१९९३) किताब-घर, दिल्ली
२.    दुर्ग-भेद (१९९४) किताब-घर, दिल्ली
३.    रण-मार्ग (१९९६) किताब-घर, दिल्ली
४.    आपद-धर्म (२००१) किताब-घर, दिल्ली
५.    रथ-क्षोभ (२००६) किताब-घर, दिल्ली
६.    तल-घर (२०११) किताब-घर, दिल्ली
७.    परख-काल (१९९४) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
८.    उत्तर-जीवी (१९९७) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
९.    घोड़ा एक पैर (२००९) ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली
१०.           बवंडर (१९९५) सत्येन्द्र प्रकाशन, इलाहाबाद
११.           दूसरे दौर में (२००८) अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद
१२.           लचीले फ़ीते (२०१०) शिल्पायन, दिल्ली
१३.           आतिशी शीशा (२०००) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१४.           चाबुक सवार (२००३) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१५.           अनचीता (२०१२) मेधा बुक्स, दिल्ली
१६.           ऊँची बोली (२०१५) साहित्य भंडार, इलाहाबाद
१७.           बाँकी(साहित्य भारती, इलाहाबादद्वारा शीघ्र प्रकाश्य)

ईमेल- dpksh691946@gmail.com

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