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एक प्रश्न बार -बार उठता है कि क्या आज के साहित्यकार भी उतने ही संवेदनशील व् मेहनती है जितने पहले हुआ करते थे | कहीं ऐसा तो नहीं कि नाम और शोहरत उन्हें शोर्ट कट की तरफ मोड़ रहा हो | इसी चिंतन -मनन प्रक्रिया में एक ऐसी ही रचना सौरभ दीक्षित ‘मानस’ जी की …
आज के साहित्यकार
आज कोई प्रेमचंद
भूखा नहीं मरता।
आज किसी निराला को,
पत्थर तोड़ती स्त्री की
पीड़ा नहीं दिखती।
आज कोई महादेवी
मंच की शोभा बनने से
ऐतराज नहीं करती
क्योंकि….
बदल गया है समय
बदल गया है परिवेश
आज के प्रेमचंद
अवसर देते हैं
नवोदितों को, लेकर
एक मुश्त राशि या
बनाने लगे हैं
कहानीकार, कथाकार
रचनाकार या साहित्यकार
मिलकर, एक रात
होटल के कमरे में….
आज के निराला
देखते हैं, गोरी चमड़ी
जो कर दे उन्हें
आनंदित, अपने स्पर्श से
उनके लिए आवश्यक है
सुंदरता, योग्यता से अधिक….
आज की महादेवी
होती है गौरवान्वित
सम्मिलित होकर
मंचों पर
दस कवियों के बीच
एक मात्र कवियत्री
बनकर….
हाँ!!!!
बदल गया है समय
और
साहित्यकार होने की
परिभाषा भी…..
सौरभ दीक्षित ‘मानस’
आपको रचना आज के साहित्यकार कैसी लगी | अपने विचार हमें अवश्य बताये | |
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बहुत सुंदर रचना स्पष्ट शब्दों में आज के साहित्यिक दर्द को व्यक्त किया गया है।