जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा

यात्रीगण कृपया ध्यान दे .. अब से ठीक कुछ लम्हों बाद हम एक अनोखी यात्रा पर जा रहे हैं | इस यात्रा की पहली खास बात यह है की आप जिस भी देश में, शहर में, गाँव में बैठे हुए हैं वहीं से आप इस यात्रा में शामिल हो सकते हैं |यूँ तो नाम देखकर लग सकता है की ये यात्रा इलाहाबाद  की यात्रा है जो एक समय शिक्षा का साहित्य का और संस्कृति का केंद्र रहा है | गंगा, जमुना और सरस्वति की तरह इस संगम को भी जब वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया जी अपनी किताब “जीते जी इलाहाबाद में लेकर आती हैं तो इलाहाबादी अमरूदों की तरह उसकाई खास खुशबू, रंगत और स्वाद समाहित होना स्वाभाविक ही है |

जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा

ममता कालिया

 एक ही किताब में ये संस्मरणात्मक यात्रा महज इलाहाबाद की यात्रा नहीं है | ये यात्रा है  आधुनिक हिंदी साहित्य के बेहद जरूरी पन्नों की, ये यात्रा है  उस प्रश्न की, की क्यों हमारे बुजुर्ग हमारे घर आने पर वो अपनापन महसूस नहीं कर पाते और चार दीवारी के अंदर अपना शहर तलाशते रहते हैं, ये यात्रा है  इलाहाबाद की लोक कला और गंगा जमुनी संस्कृति की, ये यात्रा थी चौक, रानी मंडी, मेहदौरी की, ये यात्रा थी भावनाओं की, ये यात्रा थी तमाम उन विस्थापितों की जो दूसरे शहर या देश में रोटी के कारण बस तो जाते हैं पर उनके सीने में उनका छोटा गाँव या शहर दिल बन के धड़कता रहता है |
तभी तो ममता कालिया दी “आमुख” में लिखती हैं कि..
“शहर पुड़िया में बांधकर हम नहीं ला सकते साथ, किन्तु स्मृति बन के वो हमारे स्नायु तंत्र में, हूक बनकर हमारे हृदय तंत्र में, और दृश्य बनकर आँखों के छविगृह में चलता फिरता नजर आता है |”
“शहर छोड़ने से छूट नहीं जाता, वह खुशब, ख्याल और ख्वाब बन कर हमारे अंदर बस जाता है|”
मन का अपना ही एक संसार होता है .. जहाँ आप शरीर से होते हैं वहाँ हो सकता है आप पूरे ना हों पर जहाँ आप मन से होते हैं वहाँ आप पूरे होते हैं |
 कोई भी रचना कालजयी तब बनती है जब लेखक अपने दर्द से पाठक के किसी दर्द को छू लेता है | वहाँ द्वैत का भेद खत्म हो जाता है, लेखक -पाठक एक हो जाते हैं .. और रचना पाठक की रचना हो जाती हैं | जो लोग इलाहाबाद में रह रहे हैं या कभी रहे हैं वो उन नामों से जुड़ेंगे ही पर ये किताब हर विस्थापित का दर्द बयान करती है |
एक बहुत ही सार्थक शीर्षक है “जीते जी इलाहाबाद” | जब तक जीवन है हमारा अपना शहर नहीं छूटता | शरीर कहीं भी हो, मन वहीं पड़ा रहता है | जैसे ममता दी का रहता है, कभी संगम के तट पर, कभी 370, रानी मंडी में कभी गंगा -यमुना साप्ताहिक अखबार में, कभी मेहदौरी के दीमक लगे सागौन के पेड़ में और कभी एक दूसरे को जोड़ते साहित्यिक गलियारों में|जैसे वो घोषणा कर रही हों की जीवन में वो कहीं भी रहें मन से इलाहाबाद में ही रहेंगी |
किताब में ही एक घटना का वर्णन है ….
ममता दी लिखती हैं कि, “अरे वे हरे चने कहाँ गए ताजगी से भरे ! यहीं तो रखे हुए थे, मैं तोड़ कर छील कर खा रही थी…. इलाहाबाद मेरे लिए यूटोपिया में तब्दील होता जा रहा है | वह गड्ढों-दु चकों से भर ढचर ढूँ शहर जहँ कोई ढंग की जीविका भी नहीं जुटा पाए हम, आज मुझे अपने रूप रस गंध और स्वाद से सराबोर कर रहा है | कितने गोलगप्पे खाए होंगे वहाँ, और कितनी कुल्फी| कितनी बार सिविल लाइंस गए होंगे |”
मैंने इन पंक्तियों को कई बार पढ़ा | क्योंकि  ये पंक्तियाँ शायद हर विस्थापित की पंक्तियाँ हैं |
मेट्रो शहर सुविधाओं के  मखमली कालीन के नीचे य हमारे “हम को तोड़ कर “मैं” बना देते है | जो कोई भी छोटे शहर से किसी मेट्रो शहर की यात्रा करता है वो इस बात का साक्षी होता है | वो बहुत दिन तक इस “हम” को बचाए रखने की कोशिश करता है पर अंततः टूट ही जाता है | हर मेट्रो शहर का स्वभाव ही ऐसा है | समाज के बाद घर के अंदर पनपते इस “मैं”को “हम” में बचाए रखने की जद्दोजहद शायद हर विस्थापित ने झेली है | मशीन सी गति पर दौड़ता ये शहर हमें थोड़ा सा मशीन बना देता है | मुझे कभी -कभी w w Jacobs की कहानी “The Monkey’s Paw” याद आती है | एक विश पूरी करने पर एक सबसे प्रिय चीज छिन जाएगी | और ना चाहते हुए भी भावनाएँ चढ़ा हम तनख्वाह घर लाते हैं |
ममता दी लिखती है, “अपने शहर का यही मिजाज था, तकल्लुफ ना करता था, ना बर्दाश्त करता |इसलिए इलाहाबादी इंसान जितना अच्छा मेजबान होता है उतना अच्छा मेहमान नहीं |
एक यात्रा उम्र की भी होती है, जब पता चलता है कि हमारे बुजुर्ग जो बात आज हमसे कह रहे हैं उसका अर्थ हमें 20 साल बाद मिलेगा | जैसा ममता दी लिखती हैं कि, “आज मैं समझ सकती हूँ चाई जी की शिकायत और तकलीफ क्या थी |उनके लिए पंजाब देश था और यू पी परदेश| वे मन मार कर इलाहाबाद आ गईं थीं पर उनकी स्मृतियों का शहर जालंधर उनके अंदर से कभी उखड़ा ही नहीं | उनकी तराजू में हमारा शहर हार जाता |”
सांस्कृतिक यात्रा के साथ ममता दी इलाहाबाद के इलाकों में तो ले ही जाती हैं इलाहाबाद के नाम पर भी चर्चा करती हैं | इलाहाबाद से प्रयागराज नाम हो जाने का भी जिक्र है | प्रयाग यानी ऐसी भूमि जिस पर कई यज्ञ हो चुके हों | वो संगम क्षेत्र है | और ‘इलाहाबाद’ लोगों के दिलों में धड़कता हुआ | प्रयाग वानप्रस्थ है तो इलाहाबाद गृहस्थ | अकबर ने कभी जिसका नाम अलाहाबाद किया था वो वापस इलाहाबाद में बदल गया | इस किताब से एक अनोखी जानकारी मिली की इलाहाबाद शब्द इलावास. से आया है | इलावस .. . संसार में बेटी के नाम पर बसा लगभग अकेला शहर |
किताब में रानी मंडी का इतिहास है तो कुम्भ का भी | और समकाल के साथ चलते हुए टुल्लू पंप, चकाचक, सरऊ के नाती, जैसे देशज शब्दों के साथ, छप्परवाले हलावाई और ऑनेस्टी शॉप के ढाबे का भी | वहीं वो कुम्भ में बने अस्थायी पुल की वजह से होने वाले हादसों का, इलाहाबाद नाम बदल जाने पर गद्य लेखकों के मौन का और विधयार्थियों की बढ़ती आत्महत्याओं का संज्ञान भी लेती है |
भावयात्रा में एक साहित्यकार दम्पत्ति की सहयात्रा भी है | जीवन के अनमोल वर्ष है | दोस्तों के साथ की गई मौजमस्तियाँ , वक्त जरूरत खुद को पीछे रख निभाई गई दोस्ततियाँ है, 180 गमलों वाले घर में दो बच्चों की चहचहाहट है | पति -पत्नी के बीच प्रेम की मीठी फुहारें हैं तो आम झगड़ों का कुछ नमक भी |
साहित्यिक यात्रा लोकभारती प्रकाशन से शुरू होकर जलेस प्रलेस और जसम से होती हुई मार्कन्डेय, भैरव प्रसाद गुप्त और शरद जोशी या मार्कन्डेय, दुष्यंत कुमार और शेखर जोशी की तिगगड़ी या लेखक त्रयी से गुजरते हुए ज्ञानरंजन जी की पहल तक निरंतर चलती है | साहित्यिक गलियारों के दाँव पेंच, झगड़े और सुलह के कई किस्से पाठक को बिना किसी परदे के सच्चाई दिखाते हैं | तमाम दिग्गज साहित्यकारों की लेखन शैली की चर्चा और इलाहाबाद आने वाले साहित्यकारों के किस्से | जिनमें दो बेहद रोचक प्रसंग हैं | एक कैफ़ी आजमी वाला और दूसरा कृष्णा सोबती जी वाला | खास बात ये है की साथ ही साथ ममता दी तब के और अब के साहित्यिक परिवेश की तुलना करते हुए नव लेखकों कई महत्वपूर्ण सलाहें भी देती हैं | जिनको पाने के लिए किताब से पूरी तरह डूब कर गुजरना पड़ेगा |
ममता दी की रोचक शैली और बात रखने का चुटीला अंदाज पाठक को पुस्तक उठाने के बाद दोबारा रखने का मौका नहीं देता | आगे भी आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास जब कोई लेखक लिखेगा या कोई विध्यार्थी पढ़ना चाहेगा तो इस पुस्तक को पढ़ना उसके लिए लगभग अनिवार्य होगा |
इलाहाबाद हो, बनारस हो या मथुरा .. आखिरकार कोई शहर हमें इतना प्रिय हो जाता है की वो जीते जी हमारी धमियों में रक्त की तरह बहता रहता है, अनवरत ? इसका उत्तर भी ममता दी किताब में देती हैं ..
जैसे अमरूद का स्वाद लेने के लिए हमें बीज समेत पूरा फल खाना होता है, शहर का आस्वाद लेने के लिए उसमें लंबे समय तक रमना होता है |
असली और खालिस इलाहाबादी वही है जो शहर छोड़ दे पर शहर उस ना छोड़े | काली कमली सा उस पर लिपटा रहे |मिश्री माखन सा मुँह पर पुता रहे |
भाव भाषा, चुटीला अंदाज में डूब जाने के बाद भी इस किताब में एक कसक है, एक मौन पीड़ा है उस अतीत के छूट जाने की और शायद उस को किसी तरह सहेज लेने की कोशिश ही इस किताब का उद्गम बिन्दु है | पीड़ा की सरस्वति गंगा -यमुना के संगम के मध्य भले ही दिखाई ना दे पर पाठक उसे महसूस कर लेता है | जो उसके साथ किताब पढ़ने के बाद भी बनी रहती है |
एक बेहद सार्थक और जरूरी किताब के लिए ममता दी हो हार्दिक बधाई
वंदना बाजपेयी
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