अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर अटूट बंधन पर प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि-कथा नटी सुमन केशरी दी की कुछ स्त्री विषयक कविताएँ |
इन कविताओं में स्त्री मन की पीड़ा, कन्डीशनिंग से बाहर आने की जद्दोजहद और अपनी बेटी के लिए खुले आकाश में उड़ान सुरक्षित कर देने की अदम्य इच्छा के विभिन्न रूप चित्रित हैं | चाहे वो स्त्री आज की हो या पौराणिक काल की |
एक दिन ऐसा आता है जब स्त्री उठ खड़ी होती है, उन सारी बातों के विरुद्ध जो उस पर आरोपित की गईं हैं | वो.. वो सब कुछ कर लेना चाहती है जो उससे कहा गया था की तुम नहीं कर सकतीं | शायद वही दिन होता है जब उसकी अपनी दृष्टि विकसित होती है | वो दुनिया को अपने नजरिए से देखना शुरू करती है, याज्ञवल्क्य से प्रश्न पूछती है, द्रौपदी के आक्रोश को सही ठहराती है .. और उसे दिन वो पुरुष में अपना मालिक नहीं साथी तलाशती है, उसे मोनालिसा की रहस्यमयी मुस्कान में उसका दर्द दिखाई देने लगता है, दिखने लगता है राम के यशोगान में सीता के समग्र अस्तित्व का विलय और वो सुरक्षित कर लेना चाहती है आकाश का एक कोना अपनी बेटी के लिए |
सुमन केशरी की कविताएँ
(1)
मैंने ठान लिया है
मैंने ठान लिया है कि मैं वह सब करूँगी
जिसे मैंने मान लिया था कि मैं कर नहीं सकती
मसलन कविता करना
शब्दों के ताने बाने गूँथ
कुछ ऐसा बुनना
जिसे देखा नहीं सुना जा सके
महसूसा जा सके
तुमने मुझे बंद कर दिया था
रंग-बिरंगे कमरे में
और मैं तुम्हारी उंगली थामे
उसमें से बाहर निकल
तुम्हारी आँखों से दुनिया देखती
तुम्हारी भाषा में बतियाती
चहकती गाती फिर उस कमरे में जा बैठती थी
अपने पंख मैंने खुद ही काट दिए थे
मुझे ताज्जुब होता था
जाबाला का उत्तर सुनकर
द्रौपदी का आक्रोश देखकर
और याज्ञवल्क्य का व्यवहार सहज जान पड़ता था
कि एक दिन अचानक
सपने में मुझे गार्गी का अट्टहास सुनाई पड़ा
तड़प रही थी तब से अब तक मुक्ति की तलाश में
मुझे देख विद्रूप से मुस्काई और आगे बढ़ गई
उसकी हिकारत के कोड़े के घाव से
अब भी रिस रहा है खून
फट गया है माथा
और अब तक की सारी आस्थाएँ
विचार और सपने
चूर चूर हो गए हैं
एक हवा का झोंका दरारों के रास्ते
रक्त की शिराओं में जा घुसा है
और झिंझोड़ कर रख दिया है
पूरे शरीर को मय चेतना के
इन दिनों मैंने घर के सारे खिड़की दरवाजे खोल दिए हैं
बड़ा मजा आता है
बच्चों के संग कागजी जहाज उड़ाने
और नाव चलाने में
चट्टानों पर चढ़ कर कूदने में
दूर तक दौड़ कर चंदा को साथ साथ चलाने
छकने-छकाने में
प्रिय!
अब मैं तुमसे दोस्ती करना चाहती हूँ
चाहती हूँ कि तुम मेरे संग सूर्यदेश की यात्रा पर चलो
और हाँ
पिछले दिनों याज्ञवल्क्य से चलते चलते हुई मुलाकात
एक लंबी बहस में बदल गई है
क्या तुम मेरे संग
उलझोगे
याज्ञवल्क्य से बहस में?
(2)
मोनालिसा
क्या था उस दृष्टि में
उस मुस्कान में कि मन बंध कर रह गया
वह जो बूंद छिपी थी
आँख की कोर में
उसी में तिर कर
जा पहुँची थी
मन की अतल गहराइयों में
जहाँ एक आत्मा हतप्रभ थी
प्रलोभन से
पीड़ा से
ईर्ष्या से
द्वन्द्व से…
वह जो नामालूम सी
जरा सी तिर्यक
मुस्कान देखते हो न
मोनालिसा के चेहरे पर
वह एक कहानी है
औरत को मिथक में बदले जाने की
कहानी….
(3)
सुनो बिटिया……..
सुनो बिटिया
मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार
चिड़िया बन
तुम देखना
खिलखिलाती
ताली बजाती
उस उजास को
जिसमें
चिड़िया के पर
सतरंगी हो जायेंगे
कहानियों की दुनिया की तरह
तुम सुनती रहना कहानी
देखना
चिड़िया का उड़ना आकाश में
हाथों को हवा में फैलाना
और पंजों को उचकाना
इसी तरह तुम देखा करना
इक चिड़िया का बनना
सुनो बिटिया
मैं उड़ती हूँ
खिड़की के पार
चिड़िया बन
तुम आना…..
(4)
ऋतंभरा के लिए….
जब जब मैंने नदी का नाम लिया
बेटी दौड़ी आई
पूछा
तुमने मुझे पुकारा माँ?
जब जब मैंने हवा का नाम लिया
मेरी पीठ पर झूम-झूम
कहा उसने
तुमने मुझे पुकारा
और लो मैं आ गई
जब जब मैंने सूरज को देखा
किरणों की आभा लिए
उतरी वह मेरे
अंतस्तल का
निविड़ अंधेरा मिटाने
जब जब मैंने मिट्टी को छुआ
वह हँस दी
मानो बीज बो रही हो
खुशियों के
मेरे आंगन में
जब जब मैंने आकाश को निहारा
वह तिरने लगी बदरी बन
बरसी झमाझम
सूखी धरा पर
जब जब मैंने क्षितिज की ओर ताका
वह मेरा आंचल थाम खड़ी थी
कहती
मैं हूँ न तुम्हारे पास…
(5)
औ..ऋत
डर एक ऐसा पर्दा है
जिसके पीछे छिपना जितना आसान
उतना ही मुश्किल
कहा था जोगी ने उस रात जिस रात मैंने उसे
बादलों के बाहर देखा था
निरभ्र आकाश में
डर हमारे बीच पर्दे-सा तना था
सांस की आवाज़ तक उसे कंपा जाती थी
इतना झीना
इतना महीन
डर क्या है
धरती-सी बैठी
औरत ने पूछा
डर आँधी है
उड़ा ले जाता है
अपने संग
सब-कुछ
योगी बुदबुदाया
अच्छा!
डर बाढ़ है
बहा ले जाता है
सब कुछ…
अच्छा!!
डर तूफान है
सब कुछ
छिन्न-भिन्नकर देता है
अच्छा!!!
औरत ने कहा
और
लेट गई…
बिछ गई धरती पर वह हरियाली-सी..
बहने लगी जल की धार-सी
स्वच्छ सुंदर..
हवा के झौंके-सी
भर ली सुगंध उसने
नासापुटों में…
बादलों में बूंदों-सी समा
तिरने लगी आकाश के सागर में
निर्द्वंद…
जोगी ने देखा सब
डर के पर्दे के पीछे छिपे छिपे…
अब जोगी था और डर था
और था ऋत
विस्तृत…
(6)
सीता सीता
रात के अंधेरे में
द्वार के पार
आंगन में
आंगन पार
पेड़ों के झुड़मुटों से
घास के मैदान से
और उसके भी पार
बहती नदी के बूंद बूंद जल से
किनारो पर इकठ्ठी रेत के कण कण से
नदी पार फैले पहाड़ों की चट्टानों से
जिस पर खड़े होकर आकाश कुछ और करीब नजर आता है
सो उस आकाश में भी
एक ही शब्द गूंज रहा था
सीता…सीता
नाभि की गहराई से निकलती थी आवाज
और फैल जाती थी चारों ओर
मंत्र-जाप सी
सीता..सीता..
खेत में धान-सी
मेड़ पर घास-सी
जंगल में बेर-सी
बाग में आम-सी
केवट के नाव-सी
रेत में सीप-सी
पत्थर में नमी-सी
सूरज में किरण-सी
अग्नि में ताप-सी
वायु में प्राण-सी
जल में धार-सी
आँख में रोशनी-सी
जिव्हा में वाणी-सी
देह में आत्मा-सी
पीड़ा में कराह-सी
भूख में आह-सी
तृप्ति में नींद-सी
तांडव में हाहाकार-सी
हर जगह व्यापी-सी
सीता…सीता..
धरती की कोख से
बीज-सी फूटी
झेलती हल नोक
सुकुमारी शिशु कन्या
खेलती शिव धनुष से
शक्तिवर लेती शिवप्रिया से
निर्वात लौ-सी अडिग
चली वन प्रिय संग
निर्द्वन्द्व बनी तापसी
सच कहा कवि ने
रखते पग वीर ही अदेखे पथ पर
प्रेरित हो प्रेम से
साहस ही देखता है स्वर्णमृग को
खोजता है वन वन उस अप्रतिम धन को
लांघता सीमाएँ
चुनता पथ दुर्गम
कठिन भविष्य
विरंचि और इंद्र
शीश झुका खड़ें हों जिस द्वार
उस दशानन के सम्मुख
प्रज्ज्वलित दीपशिखा-सी खड़ी हुई सर उठा
विश्वास प्रेम का
अपने प्रिय पर
तपी आग सोने-सी
प्रेमपगी
डिगा नहीं विश्वास प्रेम पर
प्रिय के
उस वन में भी गर्भिनी स्वाभिमानिनी
बस आहत था मान
मृण्मयी का
टूटी बिखरी धरा में मिली
स्वरूपा, जीवनदायिनी, जगत-व्यापिनी माता
शक्ति राम की
वेदना भगवान की
करुणामयी
जल में थल में
धरती आकाश में
पवन संचार में
सीत में ताप में
गूंजती मंत्र-सी
सीता…सीता..
(7)
महारण्य में सीता
माँ, इस महारण्य में
जहाँ दुःख, लज्जा और क्रोध से संतप्त मन
और गर्भ में आकार लेते
शिशुओं के अलावा कोई और साथ नहीं
तुम याद आती हो।
…..
पुत्र नहीं मैं
रचे नहीं गए
मेरी क्रीड़ाओं के गान
शिवधनुष से खेलना बस एक अनहोनी घटना भर थी
जो मेरे हिस्से रही
पिता के मन में उम्मीद जगाती
श्रेष्ठ जामाता की
स्वयंवर की घोषणा पर
पलक की कोर में आँसू छिपाती
तुम्हारी वह छवि
ससुराल भेजते समय
एक अनजाने भय से कमपित
तुम्हारी मुस्कान
हर पल अपने आँचल में मुझे छिपा लेने की तुम्हारी चाह…
कहते हैं
माँ का मन आइना होता है
जाने क्या तो देख लिया था माँ तुमने?
मेरी इस अवस्था में
तुम्हारी स्मृतियाँ ही तो संबल हैं माँ!
सौन्दर्य और पीड़ा से परिभाषित इस जीवन में
माँ, अब जब कोई नहीं साथ यहाँ
तुम याद आती हो
पृथ्वी-सी
जिस पर कदम रख हम खड़े होते हैं
मानों खड़े हों अपने दम पर…
(8)
स्त्री का अपराध
खिड़की के पार
साल दर साल
एक ही नजारा
विजयोल्लास का
शामिल होते जिसमें
अंगद, सुग्रीव, हनुमान
दोहराया जाता दृश्य
रावण पराजय का…
जलती मशाल लिए
शत्रु के पुतले के चारों ओर
घूमते राम का अभियान प्रतिबिंबित होता था
जन जन के मुख पर
गूँज जाती थीं दसों दिशाएँ
राम के जयजयकार से
तब रावण के विशाल पुतले को
फूँकते थे राम
विजयी के उल्लास से
राजा की दर्पाग्नि से
अजेय शत्रु पर विजय
गाथा बन गूँजती थी अयोध्या की गलियों में
घर-घर के आँगन में
राजा हो तो ऐसा!
धधकी स्मृति ज्वाला-सी
सीता के मन में
खेलते मृगशावक संग
वाल्मीकि उपवन में
याद आया फिर
अट्टहास रावण का
हरणोपरांत का…
पल-भर में बदल गई सीता
जीत और हार में
पावन-अपावन में
मिट गई रेखा अलंघ्य नीति-अनीति में
बस उसी पल
हो गई प्रीत की रेख अलक्ष्य
मरुथल की नदी-सी
लौट आता है मन
वन में
पर्ण-कुटीर के आंगन में जलती चिता
घेरे खड़े हैं जिसे
सुग्रीव, विभीषण, अंगद, हनुमान
सर झुकाए खड़े हैं बूढ़े जामवंत
और कसमसाती मुठ्ठियाँ लिए बेचैन लक्ष्मण
अर्धोन्मीलित राम
ध्यानमग्न
निर्णय-अडिग
बस हल्की सिहरन बाएँ कपोल पर
आशंका अनिष्ट की
(यह भी उजागर बस सीता के नयनों में – एक गोपन सम्भाषण-सा)
देर रात सहलाते रहे तलवों को
लिए कर कमलों में प्रियतम
निःशब्द!
वही निःशब्दता व्यापी थी
धोबी के कथन से
बस काँपा था बायाँ गाल
उंगलियाँ कसमसायी थीं दाएँ हाथ की
मुख हुआ विषण्ण
छूटा निःश्वास
ध्यानमग्न हुए राजा
पल भर बाद ही
सभागार खाली हुआ
जाते वसंत-सा
द्विधाविभक्त मन रघुनंदन का
बंध न सका केवल तिय से
समृतियाँ अतीत की
शूल-सी चुभतीं
हिय में
मन दौड़ता घर के बाहर
ढूँढने अवलंब
भविष्यत स्वर्ण-मृग-सा
भरता कुलाँचे
अब तक अवसन्न मुख
तन गया
त्याग के अभिमान से
देख लिया कई पल
सीता को अपलक
सँजोई छवि तिय की हिय में
बनाया संबल निःशेष
रच दिया जीवन का महाकाव्य एक उस पल में
भर उच्छवास
सोचती हैं सीता
अपराध जन्म का
स्त्री का…
सुमन केशरी
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