समकाल में अपनी कविताओं के माध्यम से पाठकों, समीक्षकों का ध्यान खींचने वाली कवयित्रियों में विशाखा मूलमुले एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर के रूप में उभरी हैं | विशाखा जी की कविताएँ गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति हैं |विशाखा जी की कविताओं में तीन खासियतें जो मुझे दिखी | उन को क्रमवार इस तरह से रखना चाहूँगी |
कविताओं को बौद्धिक होना चाहिए या भाव सागर में निमग्न इस पर समय -समय पर विमर्श होते रहे हैं | बौद्धिक कविताओं का एक खास पाठक वर्ग होता है पर अक्सर आम पाठक को भाव छूते हैं | वो कविता भावों की वजह से पढ़ना चाहता है | मेरे विचार से कविता में बौद्धिकता तभी सहज लगती है जब वो अनुभव जगत की हांडी पर पककर तरल हो जाए | यानि ठोस पानी बन जाए .. सघन विरल हो जाए | लेकिन कई बार बैदधिक कविताओं से गुजरकर ऐसा लगता है.. कि सघनता शब्दों में ही रह गई वो भाव जगत को आंदोलित नहीं कर पाई | बोधि प्रकाशन के माध्यम से विशाखा जी केवल “पानी का पुल” कविता संग्रह ही नहीं लाती बल्कि उनकी कविताएँ भी जीवन दर्शन की बर्फ को पिघला पाठक के हृदय में पानी की तरह प्रवाहित करती हैं | वो शब्दों का जादुई वितान नहीं तानती और आम भाषा और शब्दों में बात करती हैं |
वैसे तो मुक्त छंद कविता में कई प्रयोग हो रहे हैं पर विशाखा जी ने अपनी एक अलग शैली विकसित की है | वो छोटे-छोटे संवादों के माध्यम से कविता सहज ढंग से अपनी बात रखती चलती हैं | अगर कहें कि उन्होंने कविता के लिए निर्धारित किये गए ढांचे को तोड़कर उस जमीन पर एक नए और बेहतर शिल्प का निर्माण किया है तो अतिशयोक्ति ना होगी | इस तरह से वो छंद मुक्त कविताओं के शिल्प में आई एकरसता को दूर कर पाठकों को एक नया स्वाद देती हैं |
तीसरी बात जो उनकी कविताओं में मुझे खास लगी कि वो जीवन के प्रति दृष्टिकोण या जीवन की को विद्रूपताओं को एक रूपक के माध्यम से पाठक के समक्ष प्रस्तुत करती हैं | वो रूपक आम जीवन से इतना जुड़ा होता है की पाठक उसका को ना सिर्फ आत्मसात कर लेता है बल्कि चमत्कृत भी होता है | कभी वो पानी के पुल का बिम्ब लेती हैं तो कभी घास का या घूँघरू का | पाठक बिम्ब के साथ जुडते हुए कविता से जुड़ जाता है |
पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति
इस संग्रह पर बात करने से पहले एक महत्वपूर्ण बात साझा करना चाहूँगी की ये संग्रह बोधि प्रकाशन द्वारा “दीपक अरोड़ा स्मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना के छठे वर्ष” में चयनित व प्रकाशित किया गया है | भूमिका में सुरेन्द्र सुंदरम जी लिखते हैं, “विशाखा मूलमुले की कविताओं में उम्मीद का हरापन है, विरोध की रचनात्मकता है, ठहराव और शनशी के बीच अजीब सी गति है जो उनकी रचनधर्मिता को बड़ा बनाती है |”
शीर्षक कविता “पानी का पुल” एक संवेदनात्मक बिम्ब है | जिस तरह से पुल दो किनारों जो जोड़ता है | खारे, नमकीन आंसुओं की ये भाषा संवेदना और संवाद का एक पुल बनाती है जहाँ से एक का दर्द दूसरे को जोड़ता है |
“रक्त संबंधों से नहीं जुड़े हम
पानी का पुल है हमारे मध्य
और दो अनुरागी साध लेते हैं
पानी पर चलने की सबसे सरलतम कला”
कविता “पुनर्नवा” में वो घास की तुलना जिजीविषा से करती हैं |घास तो हर जगह उग जाती है .. मन ? मन तो मुरझा जाता है तो जल्दी खिलता ही नहीं | जब शुरू में वो लिखती हैं की अच्छे दिनों के बीच घास की तरह जड़े जमा लेते हैं बुरे दिन .. अनचाहे, तो भले ही इन पंक्तियों में नैराश्य चमके पर अंततः वो निराशा का दामन झटक कर घास को पुनर्नवा की उपमा देती हैं की जो हर विपरीत परिस्थिति में उगती है और मृत्यु के बाद किसी नीड़ के निर्माण में सहायक होती है | क्या एक हारा हुआ मन घास से प्रेरणा नहीं ले सकता |
“मरकर अमर होती है घास
जब चिड़िया करती है उससे नीड़ का निर्माण
पुनर्नवा हो जाती तब प्रीत
धरती से उठ रचती नव सोपान”
स्त्रियों पर भले ही बेवजह रोने के इल्जाम लगें या चिकित्सकीय भाषा में उन्हें मूड स्विंग का शिकार माना जाए पर इसके पीछे के मनोविज्ञान के सूत्र को विपाशा जी “प्रकृति, स्त्री और बारिश”में पकड़ती हैं | वो स्त्री के आंसुओं की बारिशों से तुलना करते हुए कहती हैं की स्त्रियाँ बारिशों को रोकती है .. कपड़े सूख जाए, आचार बर्नी अंदर कर लें या बच्चे स्कूल से घर आ जाए | उनकी बात मानती हुई बारिशें बरसना मुल्तवी कर देती हैं पर जमा पानी रोकना एक समय के बाद मुश्किल हो जाता है | तब बात मानना बंद कर देती हैं और फिर जो बरसती हैं कि रोके रुकती नहीं | और स्त्री के रुदन से साम्य मिलाते हुए कहती हैं ..
ठीक इसी तर से रोकती हैं स्त्रियाँ
अपने -अपने हिस्से की बारिशें
आँखों की कोरों में
अचानक कभी ये बारिशें
कारण बिना कारण
बीती किसी बात पर
मौसम बेमौसम, बिना किसी पूर्वानुमान के
असल, मुद्दल, सूद समेत बरस पड़ती हैं”
कविता घूँघरू में वो घुँघरू को जीवन की विभीषिकाओं से लड़ने के मन हथियार के रूप में देखती हैं .. कोल्हू के बैल में लगा हो, घोड़ा -गाड़ी के रहट में या फिर गन्ने की पिराई की मशीन में .. रस से रसहीन हो जाने की यात्रा सुरीली तो नहीं हो सकती पर उस दर्द भरे गीत से विलग कर घूंघरुओं की धुन से मन तो बहलाया जा सकता है |
“ताकि भटका रहे मन
और चलता रहे जीवन”
एक बहुत ही खूबसूरत कथन है “अगर आप अपने बच्चों को कुछ देना चाहते हैं तो उन्हें स्मृतियाँ दीजिए|” और राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी जब लिखते है, “यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे” तो शायद उनकी कल्पना में यह महानगरीय काल आया होगा | “मनुष्य मकान और महानगर की व्यथा” कविता जिसने मेरा विशेष रूप से ध्यान खींचा, महानगरीय जीवन के खालीपन को परदर्शित करती है | यहाँ सब के पास सब कुछ है पर एक दूसरे को देने के लिए समय नहीं है |लोग आते हैं, रहते हैं, मकान खाली कर के चले जाते हैं | किसी को उनके बारे में कुछ पता नहीं है, उन्हें किसी के बारे में कुछ पता नहीं है | महानगर की इस विभीषिका को दर्शाते हुए कहती है ..
“इसी तरह दिन ब दिन खाली होते जा रहे हैं
मनुष्य और मकान
दोनों के भीतर क्या है, कौन है
मनुष्य इससे है अनजान”
“मछली बाजार’ में वो इस दुनिया की तुलना मछली बाज़ार से करती हैं | जहाँ कई मासूम मछलियाँ, पकड़ने के लिए मछेरे जाल बिछाए बैठे हैं | जो मछलियाँ पकड़ते हैं उन् की बाँह में मछलियाँ उभर आती है और जो खाते हैं उनकी त्वचा में चमक | यहाँ मछली वही पकड़ सकता है जिसके पास शक्ति हो पर खाने वाला वो भी नहीं है .. खाने वाले चिकनी त्वचा के मालिक है | जिनके ऊपर हर करूंण पुकार, दर्द का कोई असर नहीं पड़ता | बाजार शक्ति और संपदा के बल पर कइस तरह मासूम लोगों को शिकार बनाता है | बहुत सुंदर बिम्ब ..
“मछली खाने के बाद आती नहीं डकार
देह और गृह में रच बस जाती है गंध
फँसाने वाले की बाँहों में उमड़ पड़ती हैं मछलियाँ औ”
खाने वाली की देह होती है मछली सी चिकनी और चमकदार”
हर स्त्री के खाने का स्वाद अलग होता है क्यों “स्वाद का मनोविज्ञान” भोजन के स्वाद को स्त्री के मन से जोड़ती है | वहीं “दाना-पानी” घर से बाहर दाना-पानी ढूँढने के लिए जाति स्त्री की व्यथा है जो निरंतर लोलुप नज़रों का शिकार होती है | “नैनों की भाषा” में वो कहती हैं कि पति प्रेमी में बदल जाता है पर गृहस्थी के तमाम उत्तरदायित्वों में उलझी स्त्री का प्रेमिका में बदलना संभव नहीं हो पाता | “रोटी, रेणुका और मैं” कविता में वो रोटी की तलाश में अपने गृह नगर से विस्थापित ग्रहस्वामिनी और उसकी घरेलू सहायिका की तुलना करते हुए कहती हैं कि रोटी संघर्ष का दूसरा नाम है | “रोटी हमें सर्वाहारी बनाती है /रोटी हमें जूझना सिखाती है |”अंत में वो कहती हैं की हम दोनों के यहाँ सुख की रोटी बनती है | क्योंकि दोनों के पति व्यसन रहित और स्त्री को मान देने वाले हैं | सुख की रोटी के आधार पर वो एक स्त्री की कामनाओं के घर को परिभाषित करती हैं |
“भाषा” कविता किसी खास भाषा उसके लिखे बोले जाने की बात नहीं करतीं बल्कि वो कहतीं हैं की इंसान की भाषा मुख्य रूप से उसके भावों की भाषा है | तभी तो हम दिन भर में चाहे किसी भी भाषा का प्रयोग करें वो दिन भर बदलती रहती है | जो सहेलियों संग नटखट और साथी संग नैनों की भाषा है वही बाजार में हो जाती है मोल भाव की भाषा | भावों की इस भाषा को समझना बहुत जरूरी है | स्त्री की भाषा समझी नहीं गई के साथ कविता में वो विमर्श का पुट लाती हैं ..
“पर समझी ना कभी किसी ने उसके संदर्भ की भाषा
खुशियों के ऐवज में वो लाद दी गई आभूषणों से
यह कह स्त्री समझती है केवल स्वर्ण की भाषा”
अंत में मैं यही कहूँगी की सीधी-सादी भाषा में गहरी बात कहती इन कविताओं में जहाँ विमर्श है वहीं समकाल की चिंताएँ हैं | तो आध्यात्म और जीवन दर्शन भी बखूबी पिरोया गया है | कविता के पाठकों को इन कविताओं में कुछ नये और अलग की तृप्ति जरूर मिलेगी |
विशाखा जी को इस सार्थक संग्रह के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ
पानी का पुल -कविता संग्रह
कवयित्री -विशाखा मूलमुले
प्रकाशक -बोधि प्रकाशन
पृष्ठ – 112
मूल्य -150 रुपये
वंदना बाजपेयी
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